जीना सीखना है मैंने ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
मुझे याद है बचपन मेंजब भी कोई कहता था
सब है ईश्वर
और भाग्य के हाथ में
मेरे मन में
उठा करते थे बहुत सवाल
जो पूछता था मैं
उन सभी से
जिनका काम था
फैलाना अंधविश्वास ।
लेकिन जैसे जैसे बड़ा हुआ
मैं भी बन ही गया
उसी भीड़ का ही हिस्सा
और अपनी हर मुश्किल
हल करने के लिये
करने लगा
भरोसा भाग्य का
और देवी देवताओं का ।
खुद पर नहीं रह गया
मुझको यकीन
करने लगा जाने क्या क्या
ईश्वर को प्रसन्न करने को
अपना भाग्य बदलने को ।
मुश्किलें ही मुश्किलें
मिलीं हैं उम्र भर मुझे
ज़िंदगी कभी आसान हो न सकी
मेरे ऐसे हर दिन किये
ऐसे सभी प्रयासों से ।
दुआ मेरी आज तक
नहीं ला सकी कुछ भी असर
हुआ नहीं आज तक
किसी समस्या का कभी
समाधान भाग्य भरोसे
न ही ईश्वर को
प्रसन्न करने को की बातों से ।
आज सोचता हूं फिर से वही
बचपन की पुरानी बात
किसलिये वो सभी हैं परेशान
जो करते हैं तेरी पूजा अर्चना
हरदम रहते हैं डरे डरे
तुझसे हे ईश्वर
करते हैं विश्वास
कि सब अच्छा करते हो तुम
जबकि कुछ भी
नहीं अच्छा होता आजकल ।
सीखा नहीं अभी तक
जीने का सलीका हमने
समझना होगा आखिर इक दिन
सब करना होगा अपने आप
जूझना होगा मुश्किलों से
समस्याओं से परेशानियों से
और लेना होगा ज़िंदगी का मज़ा ।
खुद पर
अपने आत्मविश्वास पर
कर भरोसा
भाग्य और ईश्वर के भरोसे कब तक
पाते रहेंगे
बिना किये जुर्मों की
हम सज़ा ।
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