कविता को क्या होने लगा है आज ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
रात कविता सुन रहा था मैंघर में बैठा
टीवी पर बन दर्शक ।
सुना रहा था कोई कवि
कविता व्यंग्यात्मक
देश की दशा पर
बात आई थी
देश में नारी की अस्मत लुटने की ।
और टीवी कार्यक्रम में
शामिल सुनने देखने वाले
कह रहे थे
वाह वाह क्या बात है ।
कोई झूमता नज़र आ रहा था
जब कह रहा था कवि
बेबसी भूख विषमता की बात ।
मेरे भीतर का कवि रो रहा था
देख कर ऐसी संवेदनहीनता
अपने सभ्य समाज की ।
और सोच रहा हूं
क्या इसलिये लिखते हैं
हम कविता ग़ज़ल
लोगों का मनोरंजन कर
वाह वाह सुनने के लिये ।
या चाहते हैं जगाना संवेदना
सभी सुनने वालों
कविता पढ़ने वालों में
समाज में बढ़ रहे
अन्याय अत्याचार आडंबर के लिये ।
भला कैसे कोई हंस सकता है
नाच सकता है
गा सकता है मस्ती में
किसी के दुःख दर्द की बात सुन ।
कविता में गीत में ग़ज़ल में
क्यों असफल होती लग रही है
आज के दौर की ये नयी कविता
सुनने वाले , पढ़ने वाले में
मानवीय संवेदना के भाव
जागृत करने के
अपने वास्तविक कार्य में ।
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