कहीं अल्फ़ाज़ सारे खो गये हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा "
कहीं अल्फाज़ सारे खो गये हैंतभी खामोश लब सब हो गये हैं।
तड़पते ही रहे सारी उम्र जो
जगाना मत उन्हें अब सो गये हैं।
अदीबों में नहीं कोई भी उनसा
चढ़ाये रोज़ सूली वो गये हैं।
सुनाने दास्ताँ अपनी लगे जब
नहीं कुछ कह सके बस रो गये हैं।
अगर है हौसला करना मुहब्बत
लुटे सब इस गली में जो गये हैं।
उन्हें फिर भी नहीं रोटी मिली है
जो सर पर बोझ सबका ढो गये है।
यहाँ कुछ फूल आंगन में उगाते
ये कैक्टस किसलिये सब बो गये हैं।
नहीं जाते रकीबों के घरों में
जहाँ जाना नहीं था , लो गये हैं।
मनाते और "तनहा" मान जाते
नहीं फिर क्यों मनाने को गये हैं।
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