अगस्त 06, 2020

भय बिनु होई न प्रीति ( हे राम ) डॉ लोक सेतिया

     भय बिनु होई न प्रीति ( हे राम ) डॉ लोक सेतिया

रामचरित मानस में तुलसी दास समुंदर को जड़ बताते हुए इस तरह लिखते हैं। विनय न मानत जलधि जड़ , गए तीन दिन बीत। बोले राम सकोप तब , भय बिनु होई न प्रीती। हमने धार्मिक किताबों को पढ़ना या किसी से सुनना ही चाहा है उसको लेकर चिंतन करना अपने विवेक से समझना ज़रूरी नहीं समझा है। कब किसने किस संदर्भ में कुछ कहा और उसका नतीजा क्या हुआ ये भी नहीं सोचते हैं। किसी नेता ने जब इन शब्दों का उपयोग किया शायद धर्म की नहीं आस्था की भी नहीं यहां तक कि मर्यादा की भी बात को सोचना ज़रूरी नहीं समझा। हम जिस लोकशाही व्यवस्था में देश के संविधान के अनुसार रह रहे हैं क्या उस में ये बात अनुचित नहीं है। क्या कोई आपकी सुविधा को समझ कर जैसा आप विनती करते हैं करता नहीं है तो आप उसका अस्तित्व ही मिटा देंगे। अगर ये धर्म है तो अधर्म क्या है , तुलसी दास की रामायण की तरह भयभीत होकर न केवल अपनी विवशता और कुदरत का नियम भगवान राम को समझाना पड़ता है समुंदर को बल्कि वो भेंट लेकर उपस्थित होता है और अपने लिए नहीं जीव जंतुओं के लिए राम को विनाश नहीं करने को कहता है। वास्तव में ऐसा करते समय खुद राम अपने स्वार्थ में संयम खोकर विवेक से काम नहीं लेकर विनाश करने को तैयार होते हैं। फिर तो कोई किसी भी धर्म के ईश्वर से कुछ भी विनती करता है और उसे वो नहीं हासिल होता है तो क्या राम की तरह आचरण करते हुए हिंसक होकर भय का वातावरण पैदा करना चाहिए। वास्तव में ये सोच और आचरण भगवान की बात नहीं हो सकती है ऐसा केवल राम को शक्तिशाली दिखलाने को लिखने वाले ने अपनी कथा में बिना विचार किये कहा होगा क्योंकि उसको नहीं पता था कभी धर्म की बात को भी यथार्थ की कसौटी पर खरा साबित करने की ज़रूरत हो सकती है।
पढ़ लिख कर भी हमने सोचने समझने को ज़रूरी नहीं समझा तभी कितनी अनुचित बातों को गलत परंपराओं को ढोते चले आ रहे हैं। कोई सोने का हिरण या जीव हो सकता है और सोने की चाह किसी सीता को बन में भी अपने पति को उसे हासिल करने को भेज अपनी सुरक्षा की लक्ष्मण रेखा लांघ सकती है कभी समझा ही नहीं ये वास्तविकता नहीं इक संदेश दिया गया है महिलाओं को पुरुष समाज में उनकी सीमा पार नहीं करने को भयभीत करने को ही। क्या आज भी नारी को घर की चौखट बिना पिता भाई पति की अनुमति पार नहीं करने बात उचित कह सकते हैं तब तो हमको हज़ारों साल पीछे समाज को ले जाना होगा। शायद आज भी बहुत लोग धर्म के नाम पर ऐसा ही चाहते हैं उनके लिए पत्नी माता बहन बराबरी नहीं कर सकती हैं , तुलसी दास की सोच उनको पसंद है ढोल गंवार पशु और नारी ये सब ताड़न के अधिकारी। खेद की बात है कि अभी भी महिलाएं खुद को पुरुष से कम उनके आधीन और उनकी गुलाम बनकर रहने को गलत नहीं समझती हैं।
धर्म क्या है हमने विचार नहीं किया है धर्म मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा गिरिजाघर जाकर पूजा अर्चना करना नहीं है अच्छाई सच्चाई और ईमानदारी की राह पे चलना है। नहीं कोई गंगा आपको पाप मुक्त नहीं कर सकती है क्योंकि अगर ईश्वर सत्य है उसका विधान शाश्वत है तो अच्छे बुरे कर्म का फल मिलना ही है। जिन्होंने आपको चढ़ावा चढ़ाने या कोई कर्मकांड करने से मनचाहा मिलने की बात समझाई है उनको मालूम था आपको लालच दिखला कर खुद उनका फायदा हो सकता है। आपको सच्चाई ईमानदारी की राह मुश्किल लगती है और ये आसान रास्ता पसंद आता है इसलिए अपने सोचा नहीं भगवान के साथ भी चालाकी चल नहीं सकती है। हमको ईश्वर और धर्म को लेकर विवेक से समझना चाहिए किसी भी धर्म की किताब को पढ़ना काफी नहीं है उसकी बात को समझना और उचित अनुचित पर ध्यान देकर अपने जीवन में आचरण करना वास्तविक धर्म है। सबसे पहले ये मूर्खता बंद करना ज़रूरी है कि उनका अपना किसी का अलग अलग भगवान हो सकता है। वो एक ही है और हम सभी उसी के बंदे हैं जो हमें बांटते हैं नफरत की बात कहते हैं उनको ईश्वर या धर्म की नहीं किसी अपने स्वार्थ की चिंता है उन से बचकर सावधान रहना चाहिए।
ईश्वर अल्लाह वाहेगुरु जीसस सभी एक ही हैं और उनको किसी से कुछ भी नहीं चाहिए। उनका उपदेश उनका संदेश इंसान बनकर इंसानियत की राह चलने का है। और भगवान किसी महल ईमारत में नहीं इंसान और इंसानियत में रहते हैं। मुझे अधिक नहीं पता न समझने की ज़रूरत है मुझे इतना मालूम है कि हमारा ज़मीर हम सभी की अन्तरात्मा अपना मन सभी कुछ है। अपने मन को पाने से सब मिल जाता है। 




कोई टिप्पणी नहीं: