दिसंबर 31, 2018

साल नया है लोग पुराने हैं ( बात वक़्त की ) डॉ लोक सेतिया

    साल नया है लोग पुराने हैं ( बात वक़्त की ) डॉ लोक सेतिया

       एक दिन कुछ घंटे बाकी हैं फिर साल बदल जाएगा तारीख बदलती रहेगी मगर शायद हम वही पुराने ही बने रहेंगे। कुछ पुरानी चीज़ें अच्छी होती हैं जिनको सहेज कर संभाल कर सुरक्षित रखना अच्छी बात है लेकिन कब तक पुराना कूड़ा कर्कट जमा रखेंगे। फटे पुराने चीथड़े पहना हिंदुस्तान दुष्यंत कुमार को मिला था आज भी वही का वही है चलो उनके कुछ शेर दोहराते हैं।

       ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए , ये हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है।

      कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए , मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।

       अभी किसी ने इक वीडियो भेजा किसी देश के लोग झूठे वादे करने वाले नेताओं को उठाकर कूड़ेदान में फेंक रहे थे वो इसी काबिल थे। हमने भी कितना कूड़ा सभी राजनीतिक दलों में ढेर लगा रखा हुआ है उसको साफ करना है। इतनी गंदगी लोकशाही के गंभीर रूप से बीमार किये हुए है। कोई राजनीतिक दल खुद अपने घर की गंदगी को बाहर नहीं फेंकने वाला उनकी सड़ी गली विरासत को हमीं को मिटाना होगा और लोकशाही की आड़ में बहुमत के नाम पर किसी का शासन जो जनता को गुलाम समझता है खत्म करना होगा। जिनको संविधान की शपथ की लाज नहीं और हमारे अधिकार और न्याय भी हमको देना नहीं चाहते उनकी जगह संसद विधानसभाओं में नहीं कहीं किसी कूड़ेदान में होनी चाहिए। सड़ी गली व्यवस्था को कब तक ढोते रहेंगे हम सभी। जो विधायक या संसद जनता के लिए नहीं अपने दल या किसी नेता के लिए निष्ठा रखता है और खुद किसी दल और नेता का बंधक बनकर रहता है अपनी बात कहने से डरता है उस से किसी को कुछ भी हासिल नहीं हो सकता है। चाटुकारिता देश की आज़ादी को खतरा है और ऐसे लोग स्वार्थ की खातिर समाज को दरकिनार करने वाले तानाशाही को बुलाते हैं। ये जो इश्तिहार हैं जिनमें नेताओं की तस्वीरों के साथ लिखा हुआ है क्या क्या हुआ है उनको लगवाने का अर्थ ही है कि जनता को वास्तव में वो दिखाई देता नहीं है। झूठ बोलने को सभाएं करना लोगों को किसी भी तरह लाना भीड़ जुटाने को केवल भाषण देने को उसकी जगह अब सरकार को सांसद विधायक को खुद लोगों के सामने जाकर जनता के सवाल सुन उनको जवाब देने चाहिएं। मालिक देश की जनता है और आप उसी के साथ व्यवहार करते हैं गुलामों बंदी कैदियों की तरह ये संविधान का अपमान है। पूछने को बेहद आसान सवाल हैं ये कुछ मगर इनके जवाब आसान नहीं देना किसी नेता और सरकार के लिए। मुख्य सवाल ये हैं।

                चांद पर जाना अंतरिक्ष की उड़ान से पहले देश की जनता को साफ़ पीने का पानी भी उपलब्ध नहीं है तो कैसा विकास कैसा भविष्य है। कौन कौन सा राक्षस है जो करोड़ों के हिस्से का पानी पीता है करोड़ों के हिस्से की रोटी अकेला खा जाता है। जब देश में अनाज बहुत है तो कोई भी भूखा क्यों है। आपने आलीशान भवन बना लिए अपने लिए और तमाम सुविधाएं जमा कर लीं हैं मगर करोड़ों लोग खुले आसमान में सर्द रातें और तपती लू में बला की गर्मी में जीते हैं उनके हिस्से की रौशनी किस ने छीन ली है। अमीर और गरीब के बीच की खाई की तरह वीवीआईपी और आम आदमी के बीच इतना अंतर का अर्थ क्या यही नहीं है कि हमारे पास कुछ बचता नहीं क्योंकि आपकी अधिक हासिल करने की लालच की कोई सीमा ही नहीं है। जिस देश में शिक्षा भी दो तरह की हो इक अमीर बच्चों की इक गरीब बच्चों की उस में समानता की बात इक छल के सिवा क्या है। किसी को भी शिक्षा स्वास्थ्य के नाम पर ही नहीं किसी भी व्यवसाय के नाम पर उचित लाभ से बढ़कर लूट का अधिकार क्यों होना चाहिए। कारोबार का अर्थ मुनाफाखोरी नहीं हो सकता है। बहुत मुश्किल नहीं है अगर किसी को भी सीमा से अधिक की अनुमति नहीं हो तो जिनके पास नहीं उनको अपने आप मिलने की राह बन जाएगी , अर्थव्यवस्था का नियम है। कोई भी कितने घर बना सकता है कितने साधन जुटा सकता है कोई हद हो तभी बाकी की खातिर बचेगा कुछ। अगर ताकतवर और धनवान के पास ही जितना चाहे हासिल करने की छूट होगी तो हज़ारों साल तक व्यवस्था बदलेगी नहीं। छीनने की इजाज़त किसी को नहीं होनी चाहिए और शुरुआत सरकार से ही की जानी चाहिए। बंगले महल किस के लिए जो सेवक हैं और जो मालिक है जनता उसके लिए भीख मांगने का अधिकार क्या इसी को आज़ादी कहते हैं। जब तक सत्ताधारी नेता बेतहाशा धन अपने ऐशो आराम पर खर्च करते रहेंगे और सरकारी अधिकारी कर्तव्य निभाना भूल कर राजनेताओं की जीहज़ूरी कर अपने घर भरते रहेंगे संविधान की भावना को छलनी किया जाता रहेगा।  ऐसी तमाम बातें हैं कोई सीमा नहीं है मगर संक्षेप में समझ लिया तो अब खुद हम भी अपने खुद के आचरण पर ध्यान देकर पुराने रंग ढंग बदलने चाहिएं।

             भगवान और मंदिर की नहीं इंसान की बात हो वास्तविक धर्म ईमान की बात हो। सच की बात हो निस्वार्थ भावना से अपना कार्य करने की बात हो। स्वार्थ में अंधे होकर उचित अनुचित का भेद भुलाने की बात नहीं हो और निडर होकर जीने का सलीका हो। अपने मतलब को दरकिनार कर देश और समाज की चिंता हो और भाईचारा बढ़ाने और सब को समानता की बात का महत्व समझना होगा। अपने खुद से ऊपर उठकर सोचना होगा समाज की भलाई को आगे रखकर। चलो नये साल से हम भी नया करने की बात करते हैं और जो जो भी पुरानी बातें इस में अड़चन पैदा करती हैं आज साल के आखिर में उनको त्याग देने का भी संकल्प लेना होगा।


दिसंबर 30, 2018

कोई मसीहा नहीं है ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

         कोई मसीहा नहीं है ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

        बात शासन और शासक की है , व्यवस्था बदली है और राजा नहीं अब जनता का निर्वाचित नेता सत्ता पर काबिज़ होते हैं। पहले भी जो शासक हुआ करते थे भगवान या देवता नहीं होते थे , मगर तब इतिहास की बात या कहानी लिखने वाले लोग सत्ताधारी को खुश करने को या उसका गुणगान करने को उन्हें अच्छा और उनके सामने वाले को बुरा सिद्ध किया करते थे। शासक की मेहरबानी से उनका गुज़र बसर हुआ करता था और जिसकी खाते उसकी बजाते थे की कहावत थी। जिसे नायक बनाना उसकी कमी को ढकना और जिसे बुरा बनाना उसकी अच्छाई को सामने नहीं लाना ये किया करते थे। वास्तव में अगर आप चिंतन करें तो बात समझ आती भी है।  मगर आजकल देश संविधान की बात से अलग व्यक्तिपूजा की बात लिखना अपने धर्म से छल करना है मगर लोग कर रहे हैं। शासक चाहता है उसको मसीहा समझा जाये जबकि मसीहा बन नहीं सकते बनना चाहते भी नहीं। मगर हम उनकी वास्तविकता को ध्यानपूर्वक देखते ही नहीं हैं। मसीहा या देवता खुद अपने लिए कुछ नहीं चाहते जबकि राजनेता सबसे अधिक खुद के लिए करते हैं वो भी देश और जनता के धन से। फिर भी ऐसा दावा करते हैं जैसे उनकी अपनी आमदनी से कुछ देते हैं किसी को। जनता से लिया धन का थोड़ा भाग वापस जनता को देना उपकार नहीं हो सकता है। अपने नियुक्त किया है उनको ये उनका कर्तव्य है जो नहीं निभाना गलत है जबकि वो अगर करते हैं तो जतलाते हैं एहसान किया है। ये आपराधिक मानसिकता है। समझना नहीं चाहते कोई समझा नहीं सकता है उनको।

              कुछ लोग जो किसी नेता को चाहते हैं और समर्थन करते हैं जब कोई सत्ता या सरकार की आलोचना करता है तो बिना समझे आलोचना करने वाले पर लठ लेकर पिल जाते हैं। उनसे कहो इसने किया क्या है देश समाज के लिए अच्छा केवल खुद अपने और अपने करीबी लोगों के लिए किया जो भी किया अभी तक। मगर उनको आंखों पर अभी भी पट्टी बंधी हुई है उन्हें उसका झूठ भी सच लगता है। इतना पैसा अपनी झूठी शोहरत हासिल करने पर बर्बाद करना उचित कैसे है क्या नकली ढंग से जो नहीं है कैमरे से अभिनय से असली साबित कर सकते हैं। आप किसी फिल्म में अभिनय नहीं कर रहे वास्तव में पद पर हैं और फ़िल्मी अंदाज़ से नहीं वास्तव में काम किया जाना ज़रूरी है। चलो राजनेताओं को सत्ता के नशे में लगता है जनता नासमझ है उसको बातों से ऐसे तमाशों से मूर्ख बनाकर बहलाया जा सकता है मगर आप तो पढ़े लिखे लोग हैं सामने दिखाई देता है बातें ही बातें करते रहे हैं ज़मीन पर कोई बात वास्तव में हुई नहीं है। 
 
       लिखने वाले टीवी अख़बार वाले भी अगर सच कहने का साहस नहीं करेंगे तो उनका लेखन और अपना कर्म ही किसी काम का नहीं रहेगा। देश की आधी आबादी बदहाली में है और आप कहते हैं देश ऊंचाई को छू रहा है। कुछ लोगों की आमदनी बढ़ना सरकार और समाज का मकसद नहीं हो सकता है होना ये चाहिए कि जिन को कुछ भी नहीं मिलता उनको खैरात पर नहीं रहना पड़े खुद अपने पैरों पर खड़े हो सकें। मगर जब सरकार उनको जिनको वास्तव में ज़रूरत है छोड़कर खुद अपने या कुछ ख़ास लोगों पर सारा ध्यान देती है तब जो तथाकथित विकास होता है उसका उल्टा असर होता है। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि सत्ता मिलते ही नेता मनमानी करने अपनी इच्छाएं पूरी करने अपने आप को महान घोषित करने पर देश के संसाधन बर्बाद करने लग जाते हैं। कल तक आप कहते थे किसी और दल ने जितना करना था नहीं किया आज वही सवाल आप पर लागू होता है अपने जो नहीं करना था बहुत किया मगर जो वास्तव में करना था उसी को करना भूल गये और अब सच से बचना चाहते हैं तभी अपने किये वादों की बात छोड़ बाकी बातें करने लगे हैं। देश से पहले आपको अपने खुद की सत्ता के विस्तार की चिंता रही है। 
 
              जब किसी दल का पहला और आखिरी मकसद सत्ता हासिल करना बन जाता है और देश समाज की समस्याएं उनके लिए केवल वादे करने वोट पाने को साधन लगते हैं तब उनका होना नहीं होने की तरह ही है। आजकल बात विचार की नहीं बदलाव लाने की नहीं बस सरकार बनाने तक सिमित होती गई है जिसे देशभक्ति कहना तो और भी अनुचित होगा। संविधान की भावना ये तो कभी नहीं थी न ही कभी हो सकती है। 

 

दिसंबर 29, 2018

नव वर्ष में नया संकल्प हो ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

      नव वर्ष में नया संकल्प हो ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

      कुदरत को देखना चाहिए मौसम बदलता है तो पहली सी बारिश नहीं होती फूल पहले से नहीं अलग होते हैं पंछी बदले लगते हैं और हमारे आस पास बहुत कुछ नया होता है पुराना नहीं रहता साल बाद। मगर हम कहने को साल बदलने का जश्न मनाते हैं लेकिन उसे भी वही पुराने तरीके से। चलो इस साल कुछ नया करने की बाद करें वर्ना लगेगा हम चलने की बात करते हैं मगर वास्तव में उसी जगह ठहरे हुए हैं। पानी भी बहता रहता है ठहर जाता है तो खराब हो जाता है समंदर का ठहरा पानी भी चाहता है बंधन से अलग होना मगर बेबस है। हम बेबस नहीं हैं फिर भी रुके हुए हैं बदलना चाहते नहीं हैं। चलो आज इस विषय पर विचार करते हैं। 
 
             समाज इस साल भी पुरानी खोखली रिवायतों का जुआ अपने कांधे पर ढोता रहेगा और भेदभाव की दीवार और भी ऊंची होती जाएगी। गरीब आज भी भूखा रहेगा और शोषण का शिकार होना इस साल भी बंद होगा नहीं। हम इस साल भी अपनी गलतियां दोहराएंगे दोबारा वही स्वार्थ वही झूठ वही दिखावे की अच्छाई आडंबर करते रहेंगे। बदलना क्या है सोचना चाहते तक नहीं है। राजनीति करने वाले अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आएंगे और सत्ता की खातिर जनता को आपस में लड़वाने में लाज नहीं खाएंगे। हम उनकी चाल को समझ कर भी चुप चाप देखते रह जाएंगे और सच कहने का साहस नहीं कर दिखाएंगे उनकी झूठी महिमा का गुणगान गाएंगे। धर्म के नाम पर दंगे कब तक यही पाप करवाएंगे अधर्म को धर्म बताएंगे। 
 
       नया साल मनाना है तो कुछ नये ढंग से शुरुआत करने की बात हो। कोई संकल्प लिया जाये जिसे साल के हर दिन याद किया जाए निभाने को न कि अगले दिन भूल जाने को। भटक गया है समाज और देश का तौर तरीका केवल अपने बारे में अपनी ज़रूरत अपना मतलब अपनी कामनाएं इसको छोड़ सबकी बात सोचना शुरू करें ताकि वास्तव में सार्थक कुछ नवीन लाने की बात हो। इक आदत बन गई है या तो किसी की गुलामी करना या किसी को गुलाम की तरह अपने अधीन रखना , ये दोनों अनुचित हैं गलत हैं। स्वार्थ के विवशता के बंधन को त्याग वास्तविक अपनेपन के नाते की बात करना अच्छा है। हर किसी को अधिक की चाहत इक रोग है समाज को रसातल को धकेलता हुआ , हम जिस विरासत की बात करते हैं वो छीनने की नहीं बांटने की बात कहती रही है। अपने अनावश्यक इच्छाओं को छोड़ अपने पास अधिक किसी ऐसे को देना जिसके पास ज़रूरत को नहीं है शायद अधिक ख़ुशी दे सकता है। समाज से लेना नहीं समाज को देना चाहेंगे तो बदले में हमें भी बहुत कुछ ऐसा मिलेगा जिसकी कोई कीमत नहीं अनमोल है। जिस वास्तविक सुःख की चाहत है जिस संतोष की बात करते हैं वो इसी में है। हर धर्म कहता है कि जिसके पास सब कुछ है फिर भी और अधिक पाने की चाहत रखता है वही दुनिया का सबसे गरीब है। गरीब वो धनवान लोग हैं जिनकी पैसे की हवस कभी मिटती नहीं है। मानवता को नहीं समझते जो लोग उनको मानव नहीं समझा जा सकता है धनपशु बनना कोई आदर की बात नहीं है। साल बाद आपकी आयु बढ़ गई मगर आप कितना आगे बढ़े इस पर विचार करना। इस नव वर्ष कोई नवीन संकल्प करना और साल बाद खुद को परखना क्या नया किया और अभी कितना और किया जाना बाकी है। ज़िंदगी जीना काफी नहीं है जीने का कोई उद्देश्य भी होना चाहिए अन्यथा इंसान और बाकी जीवों में फर्क क्या रह जाता है। आपको नव वर्ष की सार्थक मंगल कामनाएं। 

 

दिसंबर 27, 2018

चमकती चीज़ सोशल मीडिया सोना नहीं ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

चमकती चीज़ सोशल मीडिया सोना नहीं ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

           कोई विचार कोई सुझाव कोई जानकारी कोई कविता कोई कहानी आपको मिल गई और आपने  बिना उसको देखे समझे तमाम लोगों को आगे भेज भी दिया और सोचा कि ज्ञान का भंडार आपके पास है। ज्ञान हासिल करने की ललक होनी चाहिए जो है नहीं। जाना समझा नहीं और मान लिया इसका अर्थ है अज्ञानता। कोई रोज़ फेसबुक से महान विचार लिखी फोटो डाउनलोड करता है सब को भेजने को खुद अर्थ समझना नहीं चाहता है। ग़ालिब दुष्यंत गांधी भगतसिंह क्या गीता कुरान की धर्म की बात करते हैं चिंतन नहीं किया मगर। कोई सवाल करता है उस धर्म का त्यौहार क्यों मनाते हो तो कोई उपदेशक बना फिरता है। आपको क्या करना है आपकी मर्ज़ी सब को अपनी लाठी से हांकने वाले कौन हैं जनाब। स्मार्ट फोन सुविधा है आपको उपयोग करना चाहिए मगर जब फोन आपको अपने अधीन कर लेता है तब आप इक रोगी बन जाते हैं। मुझे भी फोन पर अपनी बात कहनी पसंद है मगर जो मुझे अच्छी लगती है सहमत हूं और जिसको चाहता हूं औरों से सांझा करना थोपना नहीं चाहता किसी पर भी। 
 
            फेसबुक पर कई पोस्ट पढ़ी किसानों की क़र्ज़माफ़ी को अनुचित बताती हुई। मगर कोई उनसे पूछे क्या आप से कोई आपकी वस्तु आधे दाम ले आप चाहते हैं। जिस दिन आपको महनत की कीमत पता चलेगी तभी समझ आयेगा किसान मज़दूर को उसकी महनत का उचित दाम मिलता तो वो आपको सहायता करते न कि आपसे मांगते। ईमानदारी की बात कहना आसान है ईमानदार हैं तो सब को उनकी काबलियत और महनत का उचित मूल्य खुद दो। मगर आप वही हैं जो बड़े होटल में जिस वस्तु का दाम बीस गुणा ख़ुशी और शान से देते हैं छोटे दुकानदार या पटड़ी पर उसी पर मोल भाव करते हैं। मैं देखता हूं बीस लाख की गाड़ी पर लोग आते हैं और साफ सुथरे होटल ढाबे को छोड़ गंदगी के ढेर के पास बिकती बेहद सस्ती खाने पीने की चीज़ ले कर खाते हैं जो रोगी बना सकती है। आपके महंगे कपड़े आपको स्वास्थ्य नहीं रखते साफ और सफाई के माहौल में खाना आपको स्वस्थ रखता है। 
 
                   कल इक नेता का विडिओ अच्छा लगा जिसमें गरीबों की सहायता करना अमीरों का दायित्व बताया गया था। ईश्वर ने सब की खातिर सब बनाया है ये हमारी शोषण की व्यवस्था है जो किसी के पास बेतहाशा है और अधिकांश के पास ज़रूरत को भी नहीं है। अभी सात सौ करोड़ बेटी की शादी पर खर्च करने वाले ने किसी अख़बार को कहा कि मैं दान नहीं देता देश का धन बढ़ाता हूं। देश का है तो देश कल्याण पर खर्च करते , मगर नहीं उनको अधिक जमा करना है और किसी भी तरह से करना है। क्या आप जानते हैं उन्होंने कैसे इतना अंबार खड़ा किया है , ईमानदारी से कदापि नहीं। कुछ बातें याद दिलवाता हूं। शुरुआत ही बिना कानूनी अधिकार लाइसेंस के मोबाइल सेवा शुरू करने से की थी बाद में तब की सरकार को चंदा देकर अपने अपराध को क्षमा करवा लिया था किसे याद है। हर सरकार को रिश्वत देकर काम निकलवाना उनकी आदत है। भूल गये हैं हज़ारों एकड़ ज़मीन सेज के नाम पर तब की सरकार ने किसानों की भुमि अधिग्रहण कर उनको दे दी और शर्त थी तीन साल में उस जगह विकास निर्माण और उद्योग लगाकर रोज़गार देने की। मगर जब किया कुछ भी नहीं और अदालत ने ज़मीन उनसे लेकर वापस किसानों को देने का फैसला सुनाया तब भी सरकार ने उसका पालन नहीं किया। जब सरकारें ही गरीब और किसान मज़दूर विरोधी हैं तो सब को बराबर अधिकार हासिल कैसे हो सकते हैं। और हम तथाकथित समझदार ज्ञानी लोग देश और समाज की बातों पर विचलित होने की जगह उस पर उपहास करते हैं सोशल मीडिया फेसबुक व्हाट्सएप्प पर। नेताओं को ऐसे मूर्ख लोग ही चाहिएं जो उनके अनुचित कार्यों पर भी हंस कर छोड़ देते हैं मगर अपने आस पास की बेमतलब की बातों पर दिन भर बहस किया करते हैं। सोशल मीडिया आपसी मेलजोल बढ़ाता तो सार्थक था मगर अब कोई किसी की बात समझना नहीं चाहता केवल अपनी कहना चाहता है ख़ुदपरस्ती की आदत बन गई है। काफी लोग जो लिखते हैं खुद ही पढ़ते हैं और खुश हो लेते हैं लाइक कमैंट्स देख कर उनकी बात से कोई बदलाव हो नहीं हो उनको मतलब नहीं रहता है। समाज को समझना है तो अपनी बात कहने के साथ बाकी क्या कहना चाहते हैं उसे सुनना समझना भी ज़रूरी है।  

 

दिसंबर 26, 2018

पवनसुत अंजनी पुत्र का हल्फनामा ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

   पवनसुत अंजनी पुत्र का हल्फनामा ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

   मैं बजरंगबली उर्फ़ हनुमान शपथ राम की लेकर ब्यान दर्ज करवाता हूं कि ये जितने भी लोग मुझे अपने साथ जोड़ने का कार्य अपने उद्देश्यों के लिए कर रहे हैं उन सभी से मेरा कोई नाता नहीं है। मैं उनको अपना वंशज मानने से इनकार करता हूं और कोई भी उनके साथ मेरे नाम के कारण किसी भी तरह का संबंध रखते हैं तो मेरा इस से कोई लेना देना नहीं है और अपने नुकसान लाभ के वो खुद उत्तरदायी होंगे। पवन अर्थात वायु मेरे पिता का नाम है और पवन को कोई बांध नहीं सकता है देश की सीमा या किसी सरहद की रेखा से या किसी भी ढंग से। हवा पानी धरती आकाश अग्नि पांच तत्व से सृष्टि बनाई गई है जिनको कोई स्वार्थ सिद्ध करने को बदल नहीं सकता है। राम जी से मेरा संबंध उनको समझाना संभव नहीं है जो राम नाम भी मतलब को रटते हैं। राम मेरे दिल में बसते हैं और जहां कहीं भी रामकथा होती है मैं उस जगह उपस्थित रहता हूं। विश्व में केवल मेरा चालीसा ही ऐसा है जिसे कोई भी किसी भी जगह कहीं भी पढ़ सकता है चलते फिरते किसी भी वाहन से कहीं आते जाते और सुबह शाम रात कभी भी। मुझे जब भी कोई संकट में होता है याद करता है और राम भगवान के काज भी संवारने को मैं तत्पर रहता हूं। मगर मतलबी लोगों के कार्य करने में मेरा योगदान संभव नहीं है। मेरा सवभाव सब जानते हैं मैं सबको सम्मति देना चाहता हूं और जो मेरी बात समझ सही मार्ग पर चलता है उसको हमेशा सफलता हासिल होती है। मगर अनुचित कार्य करने वाले लोगों का साथ मुझे कदापि पसंद नहीं है। 
 
                 वायुदेव मेरे पिता हैं और हर संतान पिता की वंशज कहलाती है , मुझे पर्वत समुंदर कोई रोक नहीं सकता है। जैसा सब जानते हैं मेरी शक्तियों का खुद मुझे ज्ञान नहीं रहता है मगर मुझे अहंकार करना नहीं पसंद न ही अहंकारी लोग भाते हैं। अहंकारी रावण की लंका को पल भर में उसी से कपड़ा घी तेल आग पाकर जलाया था अन्यथा मेरे पास कुछ भी नहीं था। सोने की लंका जल जाती है केवल कड़वे बोल बोलने और मति भ्र्ष्ट होने से इस से सबको सबक लेना चाहिए। जिनको मालूम नहीं उनको बताना ज़रूरी है कि राम जी को राजतिलक होने के बाद मैं उनकी सभा में नहीं रहा था और हरि भजन को वापस वन को चला गया था। रामदरबार में तस्वीरों में मुझे बैठा दिखाया जाता है मगर उसका अर्थ भौतिक रूप से मेरा विराजमान होना नहीं है। अपने कभी देखा जिस सभा में माता सीता जी राम जी के साथ नहीं हों उस में मेरी कोई तस्वीर हो। जब सीता माता ही राजसभा में सिंघासन पर नहीं रही तो उनका सुपुत्र कैसे रहता उस जगह पर। सत्ता शासन से मैं दूर रहता हूं क्योंकि मुझे राजा से पहले जनता का साथ भाता है। अधिक कहने की ज़रूरत नहीं है थोड़े में समझ जाओ जो भी मुझे अपनी निम्न स्तर की राजनीति में घसीटना चाहते हैं। मुझे जब लगता है तो सूरज देवता को निगल सकता हूं मगर मुझे विनती करते हैं सभी देवता तो दया कर छोड़ देता हूं। मेरे साथ कोई छेड़खानी मत करना वर्ना बाद में मत कहना चेतावनी नहीं दी थी। जय राम जी की ।  पवनसुत हनुमान ।

 

दिसंबर 24, 2018

इतिहास पढ़ते इतिहास बनते लोग ( निठल्ला चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

इतिहास पढ़ते इतिहास बनते लोग ( निठल्ला चिंतन) डॉ लोक सेतिया 

      गर्व करना काफी नहीं है गर्व करने के काबिल बनना चाहिए। हम अक्सर पुराने इतिहास की बातें शान से बताया करते हैं मगर ये शायद सोचना भूल जाते हैं कि जिस पर गर्व की बात करते हैं उसका अनुसरण भी करते हैं या वास्तव में उसके खिलाफ आचरण किया करते हैं। सत्यवादी हरीशचंद्र की कहानी से सच बोलना सीखा है या ऐसा सबक लिया है कि उन जैसा बनना नहीं है। हमारा इतिहास बहुत सबक सिखलाता है और कई गलतियां भी हुई हैं जिनको दोहराना नहीं चाहिए याद रखना चाहिए। सब से महत्वपूर्ण बात ये है कि आज जो भी हम करते हैं क्या कल हमारे बाद आने वाले लोग उस पर गर्व किया करेंगे या फिर ऐसा करते हैं जिसे जानकर आने वाली पीढ़ियां शर्मसार हुआ करेंगी कि हम ऐसे लोग थे। इतिहास उन पर गर्व करता है जो ज़ालिम से टकराते रहे और कट मरे सूली चढ़ गये ज़हर पी लिया मगर झुके नहीं अपनी डगर से भटके नहीं। इतिहास उनको माफ़ नहीं करता तो कायर बनकर तानाशाही को स्वीकार करते रहे और देश को रसातल की तरफ धकेलते रहे। समाज के कल्याण को अपना घरबार त्याग जीवन भर औरों की भलाई या किसी उद्देश्य को लेकर जीवन बिताने वाले लोग इतिहास को दिशा देते हैं देश को आज़ाद करवाते हैं बंधन से मुक्ति पाते हैं समाज की बुराइयों को खत्म करते हैं सद्भावना का भाईचारे का माहौल बनाते हैं। मगर जो वास्तविक जीवन में करते कुछ  नहीं हैं और केवल बातें महानता की किया करते हैं उनको इतिहास दर्ज करता है तो काला अध्याय मानकर। शायद इधर हम स्वर्णिम इतिहास की रट लगाते हुए इतिहास में काला अध्याय बनने का कार्य करते लगते हैं। झूठ स्वार्थ नफरत क्या इन पर कोई गर्व किया करेगा और हम उजाला करने का नहीं अंधेरों को बढ़ाने का काम करने लगे हैं। जिधर देखते हैं अंधकार का कारोबार फल फूल रहा है। घर पर महमान भगवान बनकर नहीं आते लगता है हमने अपने पूर्वजों की सीख को त्याग दिया है। हम सब एक हैं की जगह हम कहने लगे हैं उस राज्य के लोग इधर क्यों आते हैं कितने छोटे दरवाज़े हैं और दिल में किसी के लिए जगह ही नहीं है क्या वासुदेव कुटुंभ इसी को कहते हैं। लोग आपसी मेल जोल के लिए पुल बनाते थे और हम खाई खोदने का कार्य करते हैं खाई पाटने की कला जानते तक नहीं। कलाकार कहानीकार नाटककार गीतकार फ़िल्मकार क्या क्या बदलाव लाने का कार्य किया करते थे। इक जोश भर जाता था और कुछ अच्छा नया करने की चाह जगती थी , मगर आजकल जो परोसा जा रहा है भटकाने का काम करता है। केवल करोड़ों की कमाई को सफलता समझना क्या महान कार्य होना चाहिए। धन को अपना उद्देश्य समझने वाले लोग समाज का आदर्श नहीं कहला सकते और खुद अपने आप पर आसक्त होना तो सबसे बड़ा रोग है। मुझे ही सब चाहिए की भावना खतरनाक है औरों को सब देना मिल बांट कर खाना मानवता का कल्याण हो ऐसा करना समाज को सही राह दिखाना है। मनोरंजन अगर आपको अज्ञानता की तरफ ले जाता है तो उसे दिल बहलाना नहीं इक ऐसा नशा कहना चाहिए जिस में आपका विवेक काम नहीं करता है। क्या आज का वर्तमान इतिहास कुछ इसी तरह का नहीं है , हम क्या सार्थक कर रहे हैं। अपने आप में सिमित होना और खुद को छोड़ किसी की चिंता नहीं करना मतलबी होना क्या इसे आधुनिक होना कहोगे। ये तो सदियों पीछे जाना है जब समाज का निर्माण नहीं हुआ था और हर कोई एक समान था , पशु और इंसान दोनों इक जैसे हुआ करते थे। ये कब कैसे हुआ कि हम वापस वहीं पहुंच गये हैं। विकास के नाम पर भौतिकता के पीछे भागते हम इतना भटक गए हैं कि जिस पेड़ पर बैठे हैं उसी को काटने का कार्य कर रहे हैं। क्या हम जाग रहे हैं या कोई गहरी नींद है जिस की आगोश में हैं। इतिहास की रट लगाना किस काम का जब खुद जो करते हैं कल उसको गर्व करने नहीं खेद जताने के लिए कोई याद करेगा। आंखे खोलकर आज की बात अपने वर्तमान को समझना देखना होगा अन्यथा बाद में पछतावा भी किसी काम नहीं आएगा।  

 

 


दिसंबर 23, 2018

झूठों पर मेहरबान सरकार मेरी ( कटघरे में ) डॉ लोक सेतिया

    झूठों पर मेहरबान सरकार मेरी ( कटघरे में ) डॉ लोक सेतिया 

    झूठ बोलना पाप है ये बड़ी पुरानी बात है। सच को ठोकर लगाई है झूठ सच का बड़ा भाई है। धर्म की मत पूछना बात जाने कब हो किसके हाथ। कानून मिट्टी का खिलौना है टूटे भी तो काहे को रोना है। झूठ सबसे अधिक वही सुनाते हैं जो सच सच का शोर मचाते हैं। झूठों की बहस करवाते हैं सीधा प्रसारित कराते हैं। किस बात का हल्ला मचाते हैं जब मिल बांट कर खाते हैं। बड़े लोगों की कही बात शानदार मेरी झूठों पर मेहरबान सरकार मेरी। भले अभी तक किसी को सज़ा मिली नहीं थी फिर भी देश में इक कानून है कि गलत बात का विज्ञापन देने वाले को जेल भी भेजा जा सकता था। मगर अब सरकार ने नियम बदला है और झूठे भ्रामक विज्ञापन देने पर जेल नहीं जाना होगा और केवल जुर्माना भर कर छूट जाया करेंगे। आपको लगता है इस में मेरा आपका क्या मतलब है तो समझ लेना ज़रूरी है कि जितने भी झूठे विज्ञापन या ठगी धोखा करने वाले छपते हैं या टीवी पर दिखाई देते हैं उन का असर हम आप पर ही पड़ता है और उनके उत्पाद खरीदने पर विज्ञापन का पैसा भी लागत में हम से वसूला जाता है। बहुत सामान की वास्तविक कीमत से अधिक विज्ञापन की लागत होती है। जिनको आप नायक समझते हैं उनको कंपनी झूठ बोलने के ही करोड़ों रूपये देती हैं। जिन भी चीज़ों का वो विज्ञापन देते हैं उनको वह खुद कभी उपयोग नहीं करते हैं ये आपको समझना कठिन नहीं है। मगर कुछ सवाल हैं जिन पर सोचना चाहिए सभी को। जुर्माना विज्ञापन से हुई आमदनी का छोटा सा हिस्सा होगा वो भी अगर कभी हुआ तब। 
 
                  कोई अभिनेता या नायिका आपको कहती है अमुक आयुर्वेदिक टॉनिक बच्चों को दोगे तो वो बिमार नहीं पड़ेंगे और ताकतवर बन जाएंगे। कभी कभी किसी भी आधार के बिना कोई आंकड़ा भी बता देते हैं कि इस साबुन से इतने फीसदी कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। इस तेल की मालिश से चिंता मुक्त हो जाते हैं। इस शीतल पेय पीने के बाद आपमें हौंसला बढ़ जाता है और आप लंबी छलांग लगा सकते हैं। ये सब करोड़ों का नहीं कई अरब करोड़ का धंधा है और केवल इतना ही नहीं विज्ञापन देने वाले कंपनियां सरकार तक के झूठे आधारहीन तथ्य रहित विज्ञापन टीवी अख़बार पर देती हैं और जब कोई सूचना के अधिकार का उपयोग कर पूछता है तब बताया जाता है सरकार के विभाग के पास उसका कोई प्रमाण ही नहीं है और ऐसा विज्ञापन देने वाली कंपनी ने बिना किसी दस्तावेज़ ही जारी कर दिया था। साफ शब्दों में कोई कारोबारी तो क्या खुद सरकार भी आपको धोखे में रखती है तो आप क्या कर सकते हैं। वास्तव में विकसित देशों में झूठा विज्ञापन देने पर कड़े दंड का नियम है और विदेशी कंपनियां भी उन देशों में ऐसा नहीं करती मगर भारत में निडरता से मनमानी करती हैं। सरकार का अर्थ है नागरिक के साथ छल कपट धोखा कोई नहीं कर सके ऐसा विश्वास कायम रखना मगर जब सरकार ही अनुचित कार्य करने वालों का पक्ष लेकर उनको जेल जाने से बचाने की बात करती है तो खोट साफ नज़र आता है। 
 
            आप भूल जाते हैं इन बातों को कुछ दिन बाद कि कैसे जिसको कोई सरकार गंभीर अपराध का दोषी होने के बाद भी किसी की चौखट पर माथा टेकती है पैसे देती है और उसके अनुचित निर्माण को वैध कर देती है नियम बदलकर। और आज वही बलात्कार के संगीन अपराध में सज़ा पाया हुआ इक मुजरिम है। वोट और चंदे के लोभ में अथवा खुद जनता को झूठ से बहलाने को ऐसे विज्ञापनों को बढ़ावा देना दर्शाता है कि राजनेताओं के लिए अपराध रोकना महत्वपूर्ण नहीं है। सर्वोच्च न्यायलय कुछ भी कहता रहे और चुनाव आयोग जो भी विचार रखता हो राजनेताओं को राजनीति से अपराध और अपराधी दोनों को समाप्त करना ही नहीं है। दुष्यंत कुमार के लफ़्ज़ों में :-

अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार ,

घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहार। 

इस सिरे से उस सिरे तक सब श्रीके-जुर्म हैं ,

आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फरार। 


 


दिसंबर 22, 2018

सपना जो वास्तविकता नहीं बन पाया ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

 सपना जो वास्तविकता नहीं बन पाया ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

    इधर आजकल शायद लोगों का दिल बहलाने से अधिक फेसबुक से जोड़े रखने के लिए कई लिंक दिये जाते हैं जिनमें तमाम बातें होती हैं जैसे आप कैसे लगते हैं किस ख़ास व्यक्ति की तरह अथवा किस सवभाव के हैं किस काम को करना चाहते थे। अब आप देश के बड़े पद पर होने की बात कई लोगों की टाइम लाइन पर देख सकते हैं। जाने क्यों मुझे याद आया कि बचपन में स्कूल में सभी को लिखने को इक विषय दिया जाता था कि अगर आप देश के प्रधानमंत्री होंगे तो क्या करना चाहेंगे। तब कोई छल कपट चालाकी की बात नहीं आती थी और अधिकतर बच्चे दिल से वही चाहते थे जो लिखा करते थे। अंक हासिल करना उतना महत्वपूर्ण नहीं लगता था। शायद अब भी उस तरह का लेख लिखने को सरकारी स्कूलों और हिंदी भाषी शिक्षा देने वाले स्कूलों में कहा जाता हो मगर अंग्रेजी भाषा के पब्लिक स्कूल इसे किसी और ढंग से लिखवाने की बात करते होंगे अगर उनको लगता हो ज़रूरी तब भी। बचपन की बात को नहीं लिखता और शायद उसे लेकर मैंने पहले लिखा भी था इक व्यंग्य रचना बनाकर , जिसमें प्रधानमंत्री बने व्यक्ति के बचपन के अध्यापक उनका लिखा पुराना लेख लेकर उनके पास मिलने आते हैं। मैं आज इस समय वरिष्ठ नागरिक होते हुए महसूस करता हूं कि अगर साधारण गरीब परिवार से कोई उच्च पद पर आसीन होता है और जैसा कि अधिकांश ऐसे लोग जब भी इस ऊंचाई पर पहुंच जाने पर ब्यान देते हैं कि मैं गरीब परिवार से आया हूं और गरीबी का दर्द समझता हूं , उनसे आम नागरिक और निचली पायदान पर खड़े लोग उम्मीद करेंगे इस तरह से काम करने की जिस से गरीबी अमीरी की खाई कम होते होते बराबरी तक संभव हो। मगर वास्तविकता इस के बिल्कुल उल्ट है। कैसे इस पर विस्तार से चर्चा करते हैं। 
 
                 अब देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों बड़े पद पर जो लोग हैं उन्होंने भी अपनी गरीबी की नुमाइश की जब वास्तव में उनको गरीबी का अर्थ भी याद नहीं रहा था शायद। अन्यथा अगर उनको ज़रा भी सहानुभूति गरीबों से होती तो सबसे पहले खुद किसी महल नुमा घर में शाही ढंग से रहने की बजाय सादगी से रहते और तमाम अनावश्यक खर्चों को बंद कर उसी धन से लाखों गरीबों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सकते थे। आपको विश्वास नहीं होगा कि इस गरीब देश के राष्ट्रपति को 150 एकड़ ज़मीन पर बने भवन जिस में न केवल दो सौ से अधिक कमरे हैं बल्कि इक पूरी दुनिया है और उस के रखरखाव पर हर दिन लाखों रूपये खर्च किये जाते हैं जिन से देश के लाख भूखे लोग पेट भर सकते थे या हैं। अभी बहुत कुछ और है जिनका अगर विचार किया जाये तो लगेगा जैसे देश और जनता के साथ भद्दा मज़ाक किया जा रहा है। प्रधानमंत्री जी को भी 15 एकड़ में 6 बंगलों को मिलाकर घर दिया जाता है और उसके रखरखाव पर भी बेतहाशा खर्च किया जाता है जिस को काफी कम किया जा सकता है। ऐसे खर्चों की कोई सीमा नहीं है मगर जिस को लेकर कभी आलोचना करते थे खुद उससे भी बढ़कर धन बर्बाद करते हैं। निजि खर्चों को एक बार छोड़ भी देते हैं जबकि ऐसा देश के साथ आपराधिक हद तक अनुचित समझा जाना चाहिए। मगर जो बाकी हैं उसको आप कभी छोड़ नहीं सकते हैं। सरकार किसी की भी रही हो आज तक का सबसे बड़ा घोटला सभी करते हैं ,  सरकारी विज्ञापन देने पर हर दिन करोड़ों रूपये बर्बाद करना। हासिल कुछ भी नहीं इनसे होता , केवल अपनी महिमा का झूठा गुणगान और टीवी अख़बार वालों को अपने स्वार्थ के लिए उपयोग करना  क्या क्या आगे चर्चा करते हैं। 
 
             सत्ता मिलते आपकी दोस्ती अमीर खानदान और धन्नासेठ कारोबारी लोगों से बढ़ती है और आप उनको और अमीर बनने में हर तरह से सहयोग करते हैं। अर्थशास्त्र का नियम है अमीर और अमीर बनते हैं तभी जब गरीब से छीन कर उसे और गरीब बनाते हैं। आप दोनों तरफ नहीं रह सकते हैं गरीबों की चिंता है तो अमीरों पर अंकुश लगाना होगा उनकी तमाम अनावश्यक मुनाफखोरी को बंद करवा कर। सत्ता मिलते ही अपने दल को मिलने वाला चंदा खुद अपनी कहानी समझाता है क्योंकि कोई भी राजनैतिक दलों को चंदा किसी विचारधारा को देखकर नहीं देता है अपितु अपने व्यौपार के हित को लेकर देते हैं। धन और बाहुबल वाले नेता जो किया करते हैं अगर गरीब परिवार से आकर सत्ता पर बैठे लोग भी वही करेंगे तो फिर बदलाव होगा कैसे। गरीब सपना देख सकते हैं कि जब कोई उन्हीं में से सरकार चलाएगा तो उनके दुःख दर्द को समझेगा मगर खेद है कि कितनी बार राज्यों में और अब देश की सरकार में भी उनका सपना वास्तविकता नहीं बन पाया क्योंकि ऊपर पहुंच कर किसी को नीचे के लोग नज़र आते ही नहीं हैं। मुझे इक बोध कथा याद आई है और किसी शायर का एक लाजवाब शेर याद है उन दोनों से बात अधिक साफ समझ आती है।

      बोध कथा सन्यासी बनने को लेकर है और असली नकली देश सेवक बनने की भी बात है। कहानियां सुनते रहे हैं कोई राजा या धनवान धन दौलत महल छोड़ जंगल को चला गया। इक राजा का दरबार का कवि राज्य में विचरण करते गांव में गरीबों की बस्तियों में चला गया और देखा लोग नंगे बदन हैं कपड़ा खरीदने को पैसे नहीं हैं भूखे हैं बदहाल हैं तो उसने राजा से मिली कीमती पोशाक जिस पर महंगी कढ़ाई की हुई थी बेच डाली और उनके बनाये मोटी खादी लेकर उसकी पोशाक पहन ली। जब वापस दरबार आया उस पोशाक को पहने तो राजा ने कारण पूछा। कवि ने बताया कि मैं शासक का गुणगान करने लगा था और इनाम पुरुस्कार पाकर भटक गया था जबकि मुझे आपको समाज की लोगों की दुःख दर्द की सच्ची कविताएं सुनानी थी। जब मैंने राज्य में जाकर देखा तो अफ़सोस हुआ राजधानी और महल से अलग राज्य में भूख है लोग नंगे बदन हैं और खुले आसमान में सर्द रातें तपती लू में बरसात में बिताते हैं। तब उस पोशाक को बेचकर उनकी सहायता की और मोटी खादी को पहन लिया। आजकल जो नेता महात्मा गांधी को आदर्श बताते हैं उन्होंने भी ऐसा किया था जब लोगों को नंगे बदन देखा तो एक धोती पहनने की शपथ ली थी। अंतिम व्यक्ति के आंसू पौंछने की बात किस को याद है। अब उस शेर की बात और फिर आजकल की राजनीति का सच भी।

      वतन से इश्क़ गरीबी से बैर अमन से प्यार , सभी ने पहन रखे हैं नकाब जितने हैं।

  बहुत लोग जब खुद गरीब होते हैं तो अपने आस पास उसी तरह के लोगों को देख उनसे अपनापन का लगाव महसूस करते हैं और जब मुमकिन हो इक दूजे की सहायता भी करते रहते हैं। घर से कोई एक बाहर जाकर पैसा कमाने लगता है तो बाकी सदस्यों को भी अपने साथ बराबर बनाने का काम करता है। लेकिन कुछ लोग जो खुदगर्ज़ होते हैं कमाने लगते हैं तो घर परिवार को छोड़ अपनी चिंता किया करते हैं ताकि और भी धनवान बन सकें। ये जो आजकल लोग राजनीति में आना चाहते हैं उनको देश की समाज की नहीं केवल खुद की चिंता होती है कि कैसे आम नागरिक की जगह वीआईपी बन सकते हैं। उनको अपना आम होना खलता है अपने आप से नफरत करते हैं और किसी भी तरह ऊपर पहुंचना चाहते हैं। मानवता की बात उनको नहीं समझ आती और सब की नहीं बस खुद की ज़रूरत पर ध्यान देते हैं। देश से प्यार गरीबी मिटाने और अमन की बात ये सब उनका मुखौटा होते हैं और वास्तव में सत्ता के लिए सही गलत कुछ भी कर सकते हैं। जब शासक बनते हैं तो गरीबी क्या गरीब इंसान को करीब से नहीं देखना चाहते हैं। इनकी कथनी और करनी अलग होती है।
                     

         

2019 चुनाव का सवाल है बाबा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

    2019 चुनाव का सवाल है बाबा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

         पापी पेट का सवाल नहीं है राजनीति के खेल का मामला है और चुनावी जीत में सब कुछ आज़माना पड़ता है। राम जी से बात बनेगी भरोसा नहीं पटेल जी की मूर्ति भी चमत्कार करेगी लगता नहीं। बजरंगबली की याद आई शायद वही किसी की खोई हुई पत्नी की तलाश में समुंदर पार जा सकते हैं। नेताओं का एक ही गठबंधन सत्ता की सुंदरी से हुआ होता है जिसके लिए घर परिवार क्या शराफत तक को छोड़ देते हैं। पल पल फिर भी लगता है जाने कब सत्ता की सुंदरी रूठ जाये। बजरंगबली को भी पटेल की तरह अपना बताना है और सरकार पता लगा चुकी है उनसे अधिक मंदिर किसी और देवी देवता के नहीं हैं। सड़क पर हर दस किलोमीटर पर गांव गांव गली गली हनुमान जी विराजमान हैं और हर कोई उन्हीं से सुरक्षा करने की विनती करता है। दुश्मन की नली तोड़ने से लेकर भूत आदिक से बचने को उनसे अधिक कारगर कोई नहीं है। नेताजी पर भी नेहरू जी के भूत का डर सर पर सवार रहा है जबकि नेहरू ने उनका कुछ भी बिगाड़ा नहीं है। उनकी समस्या उन जैसा कहलाने की है मगर ये नहीं सोचा फिर उनकी जगह कोई दूसरा उनकी अनावश्यक बुराई करेगा और उनको भी छोटा बना देगा। बड़ी रेखा बनाने को सब ने यही सबक सीखा है जिसकी बड़ी रेखा नज़र आती है उसको मिटा देना। मिटाना सब जानते हैं बनाना कोई कोई जानता है।   
 
            इरादा क्या है नहीं मालूम सभी देवता कतार में खड़े हैं ऊपर तक हलचल मची है। अगली बारी किस की है कोई नहीं जनता भगवान भी नहीं समझ पा रहे देवी देवता भी जातिवाद या धर्म की राजनीति के शिकार हो सकते हैं। अभी मुमकिन है डी एन ए तक की नौबत नहीं आ जाये। देश को गरीबी भूख शिक्षा स्वास्थ्य को छोड़ इस बहस में उलझा कर चाहते क्या हैं। हर देवी देवता भगवान से पूछ रहा है उसकी जाति क्या है धर्म क्या है। उलझन में पड़ गये हैं भगवान खुदा सभी धर्म वाले ईश्वर , उन्होंने ऐसा कुछ बनाया ही नहीं था इंसान बनाये थे फिर ये हिंदु मुस्लमान सिख ईसाई कैसे बन गये। अब भगवान को समझ आया इतने युग तक इन सब पर ध्यान क्यों नहीं दिया। देवी लक्ष्मी जी को किस धर्म जाति की चिंता करनी चाहिए , वीणावादिनी का कोई धर्म कैसे हो सकता है। करोड़ों देवी देवता हैं और जाति धर्म सौ दो सौ बांटने लगे तो बहुत कठिनाई होगी। जो जिस की पूजा अर्चना करे सब देवी देवता उसी को अपना समझते हैं चढ़ावा देख कर खुश होते हैं। उधर कोई मृत्युलोक से लाया गया है उस से सवाल किया आपको स्वर्ग जाना है या नर्क जाना चाहते हैं। उसने कहा जनाब मैं तो कारोबारी व्यौपारी बंदा हूं आप मुझे स्वर्ग नर्क दोनों के बीच में जगह दे देना ताकि दोनों तरफ के खरीदार मेरी दुकान से सामान खरीद सकें।

               भगवान खुश हुए इंसान इतना समझदार हो गया है जिधर कमाई उधर रहना चाहता है स्वर्ग नर्क की बात से ऊपर उठकर। राजनेता कब लोभ लालच से परे देश जनता की भलाई की बात समझेंगे। उस इंसान को समझ आ गया भगवान की चिंता की बात , बोला आप कहें तो ये मैं बता सकता हूं। बताओ फिर भगवान ने कहा आप सही जवाब दे सकते हैं तो आपका मॉल मुख्य मार्ग पर खुलवा देंगे। हंस दिया इंसान बोला भगवान आप भी लालच देने लगे कहीं आपको भी चुनाव लड़ना है। आप इन बातों को मत सोचो और अपने हिसाब से अच्छाई बुराई का निर्णय करते रहो। वास्तव में ये जो राजनेता लोग हैं इनके पास कोई सामान ही नहीं होता है किसी को कुछ भी देने को। ये केवल तस्वीर दिखाकर कीमत ले लेते हैं और बाद में सामान देने से मुकर जाते हैं। भगवान को समझ आई बात और नारदमुनि जी को बुलाया है जिन्होंने ये खबर देकर खलबली मचा दी थी। नारदमुनि जी आये तो भगवान ने कहा है जल्दी धरती पर जाकर घोषणा कर दो कि भगवान और सभी देवी देवताओं को किसी राजनीति किसी जाति किसी धर्म से कोई मतलब नहीं है और इन सबका उपयोग राजनितिक उद्देश्य से करना वंचित है। नारदमुनि जी की समस्या है घोषणा कैसे की जाये। अख़बार टीवी चैनल पर सोशल मीडिया द्वारा अथवा हर मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे गिरिजाघर के द्वार पर लिखवा कर। बजट भी नहीं मालूम कैसे ये संभव होगा चुनावी खेल तो है नहीं कि चंदा लिया जा सके। भगवान की आज्ञा का पालन करना है कैसे उनसे पूछना आसान नहीं है। आखिर पुरानी जान पहचान के लेखक से मिलकर निदान निकला है क्योंकि यही है जो बिना कुछ भी लिए सबकी बात कहता है। आप भी इस बात को समझ कर औरों को समझा सकते हैं भगवानं आपका भला करे।  

बाबुल के घर से ससुराल तक ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     बाबुल के घर से ससुराल तक ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

             मुझे सेवा का अवसर देकर देखो तब पता चलेगा अभी तक आपको दिल से चाहने वाला कोई नहीं मिला। बड़े घर से आई बहु सर चढ़कर रहती है मैंने गरीबी देखी है चाय बनाना आता है और क्या चाहिए। गर्म चाय की प्याली भी इतनी महंगी होगी किस को मालूम था। चाय का वादा खुश करने तक था पीना नसीब नहीं हुआ। मगर घर आते ही बर्तन से बर्तन टकराने की बात ही नहीं थाली को ठोकर लगाने का अपशकुन होने लगा। दो दिन बाद तेवर बदले हुए थे , ये देश कोई घर है या सराय है जो भी लोग आते रहे सब ने सब उल्टा सीधा ही किया है अब मुझे ही सब को तोड़ फोड़ सुधारना होगा। नई बहु का फरमान जारी हुआ और सब अपने हिसाब से करने नहीं करवाने को हुक्म दिया जाने लगा। नया बनाना है की बात की जगह जो भी पहले से है उसे बर्बाद करना शुरू कर दिया। समझने में भूल हुई मगर कहते हैं कुछ दिन में सब को समझने लगेगी। चलो माना आजकल बहु राज करने को आती है सास ससुर की सेवा या ननद देवर से निभाने की बात सोच कर नहीं आती फिर भी घर आते ही सब उल्ट पुल्ट करने की जल्दबाज़ी करना सही नहीं होता है। पहले आकर खुद दिल जीतने और अपना बनाने को ख़ामोशी से घर बार की बात समझनी पड़ती है। फिर धीरे धीरे सब को अपनी तरफ करना पड़ता है और जो बदलना हो सबको सहमत कर करना पड़ता है। कभी कभी कुछ दिन का लाड प्यार मिलते ही अगर खुद को सबसे बढ़कर समझने लगती है नई नवेली बहु तो नासमझी में ऐसा आचरण करने लगती है कि जो ख़ुशी से चुनकर पसंद कर लाये थे जल्दी ही पछताने लगते हैं। बंधन को अधिक कसने से भी बंधन में दरार आने का खतरा रहता है। 
 
          सरकार वैसे भी स्थाई नहीं होती है और पांच साल बाद फिर अवसर होता है रखना है या हटाना है चौकीदार को। किया धरा कुछ नहीं और नाज़ नखरे सज धज पर जितना मनमर्ज़ी उड़ाते रहे और बार बार दोहराते रहे अभी तक जिस जिस को घर की मालकिन बनाया किसी ने भी कुछ भी किया। बाप दादा सब निक्क्मे नकारा लोग थे बस मैं अकेली बाहरवीं पास मिली आपको नसीब से अब सब बदलना है मुझे मेरे हिसाब से। घर की चाबियां हाथ आईं तो मान लिया पुरखों ने जितना कमाया जमा किया है सब जैसे दिल करे खर्च करने का अधिकार है। घर का सामान बदलने तक भी सब चुप रहे जब घर के सदस्य ही बदलने लगे तो खटका हुआ जैसे कोई बहु ससुराल आकर मायके का आधिपत्य कायम करने को बेशर्मी पर उतर आई हो। कभी तो उसे  लेकर आने वाले देश की जनता को सरकार बनाने वालों को दिखाई भी देता सब तोड़ा फोड़ा है या कुछ खुद नया बनाया भी है। चार साल तक नखरे कौन झेलता है आखिर हुआ वही जिसका डर था। आखिर कोई कब तक सुनता रहेगा हर किसी की बुराई और खुद अपने बढ़ाई वो भी जब सामने कुछ भी अच्छा किया नज़र नहीं आ रहा हो। मगर नखरे अभी भी खुद को सबसे अच्छा मनवाने की ज़िद पर अड़ रही नई नवेली दुल्हन जैसे। चार दिन और चार साल में बहुत अंतर होता है अब सज धज से नहीं आरती भजन नाच गाना नहीं वास्तविक काम काज को देखते हैं। काम की न काज की ढाई मन अनाज की।

          क्या क्या ख्वाब दिखलाए थे सच कोई भी नहीं हुआ , अपनी मर्ज़ी और मनमानी से जिस जिस को अपने ख़ास लोगों को लेकर आए सब छोड़ कर जाने लगे हैं।  कोई भी अपनी सीमा से बढ़कर आपकी अनुचित बातों को उचित साबित कर खुद की विश्वसनीयता नहीं खोना चाहता है। झूठ की सीमा होती है झूठ कहकर अपने मतलब का निर्णय हासिल करना झूठ खुलते ही अदालत भी खुद को ठगी महसूस करती है। अब झूठ के सहारे कब तक टिक सकता है कोई। मगर ऐसी मुसीबत आसानी से जान नहीं छोड़ती है अभी भी उसे लगता है हर कोई खुश है उसने जो भी किया भले सब परेशान हैं मगर कोई जान बूझकर तो नहीं किया परेशान। इस बार की गलती फिर नहीं दोहराने का भी वादा नहीं करना क्योंकि आदत बदलती नहीं इतनी आसानी से। हर जगह हालत यही है मालकिन बनते ही सर पर सवार हो जाते हैं पहले लगता है भोले मासूम चेहरे से प्यार हुआ था क्या कोई और था या नकाब लगाई हुई थी। अच्छी बहु मिलती होगी किसी ज़माने में , आजकल जो भी नई बहु आकर सास ननद की बात क्या जिस के संग ब्याही उसी को चैन से रहने दे तो बड़ी बात है। बाबुल के घर भले कुछ नहीं देखा हो ससुराल में सब कुछ होना ज़रूरी है। मामला पहले दिन से शुरू हो जाता है हनीमून विदेश में पहली शर्त है। सारी दुनिया घूम कर भी घर में पैर टिकता नहीं है। लाज का घूंघट पहना ही नहीं तो लाज कैसी। कुछ भी समझाओ तो मायके संदेश भेजती है और उधर से मासूम बेटी पर रहम नहीं करते सुनाई देता है। जो पैसे वाला पिता है विवाह में कितना खर्च किया याद दिलवाने लगता है बेशक इस बात का आज की बात से कोई सरोकार नहीं हो। ससुराल वाले कहते रहें हमने तो दहेज मांगा नहीं उल्टा मना किया था महंगी गाड़ी मत दो फिर भी आप अपनी शान पर अड़े हुए थे। लगता है दामाद नहीं बनाया किसी को खरीदा है बेटी का गुलाम बनकर रहने को। बाबुल से घर से आंसू बहाती चली कन्या ससुराल पहुंच बहु का रूप धारण करते ही पति से लेकर सास ससुर तक को रुलाने लगती है और सब को बुरा साबित करने लगती है। सरकार बनाने के बाद चुनावी वादे छोड़ पिछली सरकार की और विपक्षी दल के नेताओं की बुराइयां गिनवाने लगते हैं आजकल खुद अच्छा कर दिखाने की बात को दरकिनार कर के।

              


दिसंबर 21, 2018

हम भारत के लोग पदमुक्त करते हैं आपको ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया

हम भारत के लोग पदमुक्त करते हैं आपको ( कटाक्ष )डॉ लोक सेतिया 

     आपको याद नहीं रहा कि अपने जनता से वादे किये थे जो निभाने चाहे ही नहीं। आपका इरादा देश को सुंदर बनाने का था ही नहीं। आपको सब की चिंता नहीं थी केवल अपने निष्ठावान लोगों को देश में तमाम पदों पर स्थापित करना था ताकि उनको अपने मतलब को उपयोग ही नहीं दुरूपयोग भी कर सको। आपने सत्ता मिलते ही केवल मनमानी करनी की ठानी थी और ऐसा करते हुए आपको लाज भी नहीं आई कभी भी। अपने देश को अच्छे भविष्य की उम्मीद दिखाने की जगह अतीत की मनघडंत बातों में उलझा कर पहले के तमाम नेताओं को बुरा बताकर समझा कि ऐसा करने से आपकी छवि अच्छी बन जाएगी जबकि वास्तव में कुछ भी अच्छा किया किसी को सामने नज़र आया तक नहीं। ऐसा तो कोई नहीं चाहता था जब आपको अवसर मिला तो जो कहते रहे नहीं हुआ या किया जाना चाहिए था उस को वास्तव में कर के दिखलाना चाहिए था। लेकिन अपने सब जो करना नहीं चाहिए था किया और जो करने को वादे किये थे उनको भूल गये हैं। 
 
      मगर आपको याद रखना था कि अपने पद लेने से पहले इक शपथ खाई थी देश के संविधान की जिस में आपने कहा था सबके साथ निष्पक्षता और समानता का व्यवहार और सभी के अधिकारों की रक्षा करने का कर्तव्य निभाना है। हम भारत के लोग खुद को संविधान देते हैं तो हम अधिकार रखते हैं जो देश के संविधान की उपेक्षा करता हो उसको पदमुक्त करने का भी। पांच साल को चुनाव करने का अर्थ पांच साल संविधान का आदर कर जनता की सेवा करने को नियुक्त किया जाना होता है न कि सदन में बहुमत होने से निरंकुश हो कर जैसे मर्ज़ी करते रहना। आपको लगता है संविधान में सत्ता से हटाने को ऐसा कोई नियम है ही नहीं मगर वास्तव में जिस दिन कोई देश की जनता और लोकलाज को दरकिनार करने लगता है उसका पद पर रहना उचित नहीं रह जाता है। आप जानते हैं आज देश की जनता क्या सोचती है और देश कोई राजनैतिक दल या निर्वाचित संसद विधायक नहीं होते हैं देश करोड़ों लोग हैं जो नासमझ नहीं हैं न ही बेबस और कमज़ोर हैं। इस देश की जनता ने निरंकुशता और सत्ता के मद में चूर राजनेताओं को कितनी बार उनकी जगह दिखाई है। हम शांति पूर्वक विरोध करने वाले और बेहद सहनशील लोग हैं मगर हमारे धैर्य की भी सीमा है। 
 
       समय आ गया है जब सत्ताधारी और विपक्षी दलों सहित सभी राजनीति करने वाले नेताओं को बता दिया जाये कि देशसेवा के नाम पर सत्ता की लूट का कार्य जितना हुआ बहुत हुआ और अब किसी को भी वही सब दोहराते जाने की इजाज़त नहीं दी जा सकती है। हम भारत के लोग जाग चुके हैं और अपने अधिकार मांगने को हाथ फ़ैलाने नहीं छीनने का साहस कर सकते हैं। राजनीति कोई कारोबार नहीं है और किसी को भी देश की जनता को बदहाल होते हुए विशेषाधिकार के नाम पर खुद शाही रहन सहन पर देश का धन खर्च करने की अनुमति नहीं हो सकती है। जिनको देश की जनता की सेवा करनी है उनको सादगी से आम नागरिक की तरह सिमित साधनों से गुज़र बसर करना होगा और जितना धन का अंबार जमा किया हुआ है सभी राजनैतिक दलों और राजनेताओं ने चंदा जमा कर उसको जनता की बुनियादी सुविधाओं पर खर्च करना होगा। हर दिन सभाओं में भाषण और आयोजन आदि पर धन की बर्बादी इक गुनाह है देश की गरीब जनता के खिलाफ। केवल उन्हीं को राजनीति में आना चाहिए जो अपना सब कुछ देश और जनता को देने को तैयार हों। 

               हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे ,

                 इक खेत नहीं इक बाग़ नहीं हम सारी दुनिया मांगेगे। 


 

 

 


 



दिसंबर 20, 2018

ठहरा हुआ समाज , भटके हुए मार्गदर्शक ( विडंबना ) डॉ लोक सेतिया

ठहरा हुआ समाज , भटके हुए मार्गदर्शक ( विडंबना ) डॉ लोक सेतिया 

     दुनिया बदल चुकी है मगर हम अभी भी उसी जगह खड़े हैं सदियों से। आज भी सुबह टीवी अख़बार पर कोई बारह राशियों का राशिफल बताता है अर्थात एक नाम की राशि वाले सभी का समय एक जैसा रहेगा। कोई थोड़ा चालाकी करता है और बताता है भाग्य के साथ अगर आप खुद भी संभल जाओ तो बुरे से बच सकते हैं और अच्छे को और बेहतर बना सकते हैं। भगवान से आज भी हम प्यार और भरोसा नहीं करते बल्कि उस से डरते हैं घबराते हैं। आज भी टीवी वाले नागिन के महिला बनने की कहानी परोसते हैं विष कन्या की कहानी बनाते हैं और हमें दिशा दिखाने की जगह भटकाने का काम करते हैं। धर्म आज भी समझने और अच्छाई बुराई परखने की बात नहीं कहता और केवल धर्म के ठेकेदारों का कारोबार बढ़ाने की बात करता है। गिनती नहीं है कितने मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे हैं जिनको लेकर कहते हैं वहां जाकर मांगने से सब मिलता है मगर हर दिन लाखों लोग ऐसी जगहों पर जाते हैं सब मिला कर करोड़ों लोग कितना वक़्त और पैसा इस पर खर्च करते हैं फिर भी शायद ही उनकी कामना पूरी होती है और दूसरी तरफ धनवान लोग पूजा अर्चना भी आडंबर रचाने की तरह किया करते हैं और किसी अंधविश्वास की परवाह नहीं करते फिर भी उनके सब काम होते रहते हैं। विवाह तक कुंडली मिलाने के बावजूद असल में सफल नहीं होते और या संबंध विछेद की बात होने लगती है या किसी तरह से समझौता कर नर्क की तरह ज़िंदगी बिताने को तैयार हो जाते हैं। जिस जल के छिड़कने से इंसान की हर वस्तु शुद्ध हो जाती है उस से किसी महिला की पावनता कायम नहीं हो पाती भले उसका कोई दोष नहीं हो और उसके साथ किसी वहशी ने कदाचार किया हो। पुरुष की पावनता का कोई सवाल नहीं उठता है कुदरत ने पुरुष और नारी को जैसा बनाया है उस को समझे बिना और वास्तविक पावनता मन की आचरण की विचारों की होती है इसे समझे बिना कुल्टा शब्द उपयोग किया जाता है। जिन धार्मिक किताबों को लोग पूजते हैं उन्हीं से सबक लेते तो पता चलता वास्तविकता कुछ और है। मगर हम इसकी चर्चा से घबराते हैं और सवाल करने से बवाल खड़ा हो जाता है। तर्क वितर्क की बात करना छोड़ दिया है। वास्तव में हमारा धर्म आवरण की तरह है जो लिबास पहना हुआ है उसे धर्म समझते हैं लिबास के भीतर जो है वास्तव में उस इंसान उसकी अंतरात्मा की कोई बात नहीं करता है। कर्मकांड को धर्म मान लिया है ताकि वास्तविक धर्म की कठिन राह पर चलने से बच सकें। कोई विचार नहीं करता कि जब हर तरफ सभी धर्म की मानने की बात करते हैं तो पाप अपराध और अधिक बढ़ते कैसे जा रहे हैं। उस धर्म का क्या फायदा जो सच की भलाई की सच्चाई की राह से दूर करता जा रहा है जिसका मतलब है समझने और समझाने में कोई खोट है। कोई है जो आपको आपकी साहूलियत का धर्म देने का व्यौपार कर रहा है और बदले में अपने हित साधने का कार्य कर रहा है। 
 
                         कौन लोग हैं जो हम सभी को आधुनिक समाज नहीं बनने देना चाहते हैं क्योंकि जिस दिन हम निडर होकर सच का साथ देने और झूठ का विरोध करने लगे उनका शासन बचेगा नहीं। ठीक समझे हैं आप इस में राजनीति कारोबार और धर्म गुरुओं से लेकर मीडिया टीवी चैनल अख़बार ही नहीं तमाम लिखने वाले भी किसी न किसी सीमा तक शामिल हैं कोई आपको सोचने की आज़ादी नहीं देना चाहता है। उन का स्वार्थ आपको अधिकतर लोगों को कूप मंडूक बनाये रखना ही है। शिक्षा आपको विवेकशील नहीं बनाती है तो उस शिक्षा से हासिल क्या हुआ इंसान को बेजान सामान बनाने वाली शिक्षा अपने कर्तव्य से भाग रही है। वर्ना इतना पढ़ लिख कर उच्च पद पाने के बाद भी कोई अंधविश्वास के चंगुल में कैद कैसे रह सकता है। कोई चिंतक कोई समाज सुधारक सामने नहीं दिखाई देता है कोई ज्ञान की रौशनी दिखलाने वाला नहीं है और जो अंधेरों का कारोबार करते हैं दावा करते हैं उजाला लाने का। किस जगह ठहरा हुआ है समाज जिस जगह सैंकड़ों साल पहले था और कब तलक आगे नहीं बढ़ेगा उस सब को छोड़कर ।

 

 


दिसंबर 14, 2018

संविधान को फुटबॉल समझने वाले ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

    संविधान को फुटबॉल समझने वाले ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

   लोग सरकार बदलते हैं मगर वास्तव में चेहरे बदल जाते हैं आचरण नहीं बदलता है। जो दल दावा करता था सबसे अलग है सत्ता मिली तो सभी जैसा ही नहीं बन गया बल्कि पहले जो थे उनसे चार कदम आगे बढ़कर मनमानी करने लगा। इस देश में संविधान राजनेताओं के लिए भरोसे या आदर करने को नहीं केवल शासन पाने को उपयोगी  होने तक ज़रूरत को ही है। जब खुद किसी दल में लोकतंत्र नहीं है तो उनसे उम्मीद भी कोई क्या कर सकता है। विडंबना की बात ये है कि हमारे सामने ये सब गंदा खेल चलता रहता है और हम चुप चाप देखते रहते हैं। मोदी जी मनमोहन सिंह को कठपुतली बताते थे और परिवारवाद पर तलवार भांजते थे मगर जब खुद सत्ता मिली तो हर राज्य में अपनी पसंद के आरएसएस से जुड़े लोगों को सत्ता पर बिठाते रहे और अदालत सीबीआई आरबीआई सब जगह अपनी पसंद के लोगों को नियुक्त किया जो अभी भी जारी है। आरबीआई के नया गवर्नर अर्थशास्त्री नहीं आईएएस अधिकारी है जो नोटबंदी के समय रोज़ आकर नया नियम घोषित किया करता था सरकार की बात करता था। कांग्रेस पर आरोप लगाते थे दिल्ली से राज्य की सरकार चलाते हैं खुद आकर दल की भी नहीं दो लोग देश भर की सरकार चलाने लगे और संवैधानिक संस्थाओं को ही पंगु बना दिया। अब चुनावी नतीजे में सरकार बदली तो भी बदला नहीं तौर तरीका और राज्यों का सीएम कौन हो इसका फैसला आलाकमान पर छोड़ दिया गया है। संविधान में आलाकमान शब्द है भी या नहीं कोई नहीं सोचता है। उधर अपने अपने राज्य में अपने दल के अपनी पसंद के नेता के पक्ष में नारे पोस्टर लहरा रहे हैं ताकि जो दिल्ली से आये उसे बता सकें बहुमत किस को चाहता है। क्या इनको पता नहीं है कि संविधान क्या चाहता है क्यों विधायकों को अपनी सभा में खुद तय नहीं करने दिया जाता कि उनकी राय क्या है। मगर बात तो उससे पहले की ही है जब हर दल टिकट बांटता है तो संसदीय क्षेत्र या विधानसभा क्षेत्र के कर्यकर्ताओं या दल को नहीं दिल्ली या राज्य की राजधानी में बैठे पदाधिकारी बंदरबांट करते हैं और मापदंड होते हैं जाति धर्म पैसा बाहुबल और किसी बड़े नेता की नज़दीकी। इतना ही नहीं जब कोई विधायक या सांसद मर जाता है तो उसके परिवार को उपचुनाव में टिकट देना सहानुभूति की बात नहीं बल्कि ऐसा लगता है जैसे कारोबार की दुकान पर बाप की गद्दी बेटे को मिलती है। जो दल अपने विधायकों को सांसदों को अपना नेता नहीं चुनने देते उनसे आम जनता को संविधान द्वारा मिले अधिकारों का सम्मान करने की अपेक्षा करना मृगतृष्णा के समान है। 
 
                 जब तक हम इतनी भी बात नहीं समझते कि संविधान किसी को पीएम या सीएम घोषित करने को नहीं मानता है संविधान का नियम है कि चुने हुए विधायक संसद अपना नेता सदन का चुने। ऐसा कब हुआ था शायद लालबाहुदर शास्त्री जी के समय देश में हुआ था कि कोई नहीं जनता था जिस सभा में नेहरू जी के बाद कौन नेता हो खुली बहस में नाम तय हुआ तो जिसका नाम सामने आया वो छोटे कद का महान नेता हाल के आखिर में नीचे सीढ़ी पर बैठा हुआ था जब कोई कुर्सी खाली नहीं दिखाई दी और नाम सामने आने पर पता चला और उनको मंच पर बुलाया गया। उसके बाद से दल पर अधिपत्य जमाये लोग देश के और अपने दल के संविधान को तोड़ते मरोड़रते रहे और ये हर दल में हुआ वामपंथी से दक्षिणपंथी कोई भी हो , जो दल बने ही किसी एक नेता के नाम पर उनका कोई संविधान रहा ही नहीं और बाप दादा ससुर या अन्य संबंध ही दावेदार बनाते रहे हैं। अपने हर दल में अनुशासन कायम रखने की बात सुनी होगी जो वास्तव में अनुचित बात को रोकने की बात नहीं है बल्कि बड़े नेता की गलत बात को गलत नहीं कहने को बनाया इक तानाशाही नियम है। अगर आपको पगता है कि चुनाव के बाद दल अपने विधायक संसद के साथ क्या सलूक करते है उनकी समस्या है तो आप गलत हैं जो विधायक अपने अधिकार पर खामोश रहते हैं अनुशासन के नाम पर उनसे जनता की समस्याओं की बात पर आवाज़ उठाने की आशा ही नहीं की जा सकती है। जिस दिन वास्तव में नियम उसूल और संविधान की सही मायने में पालना की जाने लगेगी हर नागरिक को समानता का अधिकार खुद ब खुद हासिल हो जाएगा। अफ़सोस की बात ये है कि भाजपा कांग्रेस या वामपंथी समाजवादी या अन्य राज्यों के दल कोई भी देश के संविधान की भावना का आदर नहीं करता है और जो भी सत्ता पर आसीन होता है संविधान की न्याय की शपथ उठाकर उसे भूल जाता है। क्योंकि हम संविधान की शपथ को देशभक्ति की भावना की बात नहीं मानते और केवल औपचारिकता निभाते हैं। देश का संविधान जिसकी बात कही जाती है दुनिया का सबसे अच्छा संविधान है उसकी अहमियत राजनीति में फुटबॉल की जैसी है और हर राजनेता और दल उसके साथ खिलवाड़ करता है। मगर इसके बावजूद मेरा भारत महान है।

 

दिसंबर 09, 2018

बेवफ़ाई भी नहीं किस्मत में ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   बेवफ़ाई भी नहीं किस्मत में ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

      हर कोई बात करता है वफ़ा नहीं मिली। हम से पूछो जो बेवफ़ाई को भी तरसते हैं। कोई मिल जाता फिर चाहे वफ़ा के बदले वफ़ा नहीं जफ़ा ही मिलती हम उसे भी खुशनसीबी समझते और बेवफ़ाई का गिला भी नहीं करते। मगर काश कोई होता मुहब्बत इश्क़ प्यार का स्वाद पता चलता और कुछ नहीं तो तजुर्बा ही हासिल कर सकते। रोग है दिल का तो क्या हुआ दिल लगाना कोई दिल्लगी की बात तो नहीं है। हर कोई चाहता है कोई दिल को इतना भा जाये कि दिल जिस पर आये बिना उसके रहा ही नहीं जाये। जाने क्यों स्कूल तो क्या कॉलेज की पढ़ाई में भी इस पर कोई विषय ही नहीं था कि मुहब्बत प्यार इश्क़ क्या होता है कैसे होता है किया नहीं जाता। कहानियों में फिल्मों में गीतों में देखते सुनते थे दिल धड़कता है नींद नहीं आती ख्वाब देखते हैं और हसीन सपने सजाते हैं। लोग कहने को कहते थे प्यार खुदा की इबादत है मुहब्बत बिना ज़िंदगी बेकार है लेकिन कभी अख़बार में खबर छपती दो प्यार करने वालों का दुनिया वालों ने क्या बुरा हाल नहीं किया तो लगता दुनिया दुश्मन होती है मुहब्बत की क्यंकि उसकी आदत है जो खुद को हासिल नहीं किसी और को मिले तो जलते हैं। कहते हैं हर किसी को कोई न कोई दुनिया में सब से हसीन सब से अलग लगता है मुझे तो कोई भी लड़की ऐसी नहीं लगी जो बाकी लड़कियों से अलग हो। यकीन नहीं होता तो कुछ बातें बताता हूं जिस पर आप चाहो तो किसी भी लड़की से बात कर सकते हैं सभी की राय एक ही होगी। हर लड़की यही चाहती है कि .......
             
    खुद भले कैसी लगती हो उसे चाहने वाला बेहद खूबसूरत और समझदार होने के साथ पैसे वाला भी हो। जो उसको चांद तारे तक तोड़ कर लाकर दे सकता हो और ज़िंदगी भर उसकी हर आरज़ू पूरी करना चाहता हो। उसकी ख़ुशी की खातिर जान देने की बात करता हो और उसे फूलों की रानी बनाकर रखना चाहता हो। खुद कंगाल हो तब भी अपनी महबूबा को महल बना देने का वादा करता हो , सबसे बड़ी बात बड़े बड़े सपने सच करने की कसम खाता हो और कभी झूठ नहीं बोलने की भी बात करता हो। इतना ही नहीं हर लड़की जिस को दिल देती है उस से किसी भी हाल में नाराज़ नहीं होने और जैसे वो चाहती हो उसी तरह जीने को राज़ी होने की शर्त भी जोड़ती है। इस तरह की हज़ार बातों को मनवाने के बावजूद भी कोई मान सकता है कि प्यार मुहब्बत में सैदेबाज़ी नहीं होती है कोई बंधन नहीं शर्त नहीं रखी जाती है। मालूम नहीं लोग किस तरह से अपने लिए कोई आशिक़ या माशूका ढूंढ लेते हैं जो इन सारी बातों पर खरा साबित हो। मुझे तो यही समझ आया कि ये इश्क़ प्यार मुहब्बत राजाओं और रईसों के भी बस की बात नहीं है तो हम जैसे आम लोग इतना कीमती सामान देख सकते हैं हासिल नहीं कर सकते हैं।

                   हमारे समय में प्यार चोरी चोरी किया जाता था और बड़े साहस वाले किया करते थे। कुछ लोगों की बात पता चल जाती थी जब बात बिगड़ जाती और कभी कभी कोई खुद ही अपनी बात बताया करता था दोस्तों को। लेकिन सच तो यही है कि दोनों सूरत में अंजाम एक ही देखते थे। आपको कुछ घटनाओं की बात बताता हूं। इक हॉस्टल में कमरे में साथ रहे को कभी किसी कभी किसी दूसरी से इश्क़ होने का एहसास होता रहता था और आखिर में एक उसके साथ जन्म जन्म का रिश्ता निभाने को तैयार भी हुई थी। साल भर मुलाकात होती रही और अमीर लड़का खूब पैसे उड़ाता भी रहा मगर जब लड़की के घरवालों को पता चला तो जमकर पिटाई कर आशिक़ी का भूत उतारा गया और लड़की की शादी किसी और लड़के से कर दी गई। जी नहीं इसे उनकी कहानी का अंत नहीं समझना आप , घरवालों को इस बारे बताने वाली छोटी बहन बाद में उस से प्यार पींग पर झूलती रही और किसी तरह उस से शादी भी कर ली थी। मगर यहां भी कहानी खत्म नहीं हुई और एक तरफ उसे दूसरे शहर में घर लेकर साथ रखा पति पत्नी बनकर और उधर माता पिता के अनुसार एक और लड़की से शादी कर प्यार और शादी का खेल जारी रखा। अधिक विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं है बस इतना समझ लो प्यार जैसा कुछ भी नहीं था इक रोग था और लाईलाज था।

        इक और साथी की बात और भी अजीब है बेहद भले सवभाव का बहुत सुंदर लड़का था और डॉक्टर बनने वाला था साल भर बाद। शहर के बड़े अधिकारी की लड़की से प्यार हुआ और हॉस्टल के कॉलेज के दोस्त सोच भी नहीं सकते थे वो कोई ऐसा काम भी करता है। हंसमुख दोस्त जब उदास रहने लगा तब मुश्किल से पता चला कि जिस लड़की से मिलने शहर के दूसरे कॉलेज जाता था किसी खूबसूरत लड़की से उसकी सगाई अफ़्सर पिता ने किसी आईएएस लड़के से कर दी थी वो भी खुद लड़की की मर्ज़ी से ही। ये जनाब एक विकल्प थे और बेहतर विकल्प को चुना था लड़की ने। ऐसी तमाम कहानियों से समझ आया कि दिल आने और फ़िदा होने की कोई बात नहीं है बात अवसर पर चौका छक्का जड़ने की होती है। इक ग़ज़ल याद आई उस समय की फिल्म की। ज़माने में अजी ऐसे कई नादान होते हैं , वहां ले जाते हैं कश्ती जहां तूफान होते हैं। मुहब्बत सबकी महफ़िल में  शमां  बनकर नहीं जलती  , हसीनों की नज़र सब पर छुरी बनकर नहीं चलती। जो हैं तकदीर वाले बस वही क़ुर्बान होते हैं। शमां की बज़्म में आकर ये परवाने समझते हैं , यहीं पर उम्र गुज़रेगी ये दीवाने समझते हैं। मगर इक रात के वो तो फख्त महमान होते हैं। आप समझ गये होंगे हम तमाम लोग केवल किनारे पर बैठ कर लहर देखने वाले ऐसे ही रहते हैं।

                          अभी तलक आपको ये बात नहीं समझ आई होगी कि जब दिल लिया दिया नहीं और कोई तजरुबा ही नहीं तो फिर नसीब की बात कहां से बीच में ले आये हैं। कहने को हमने भी इश्क़ किया है लिखने से जुनून की हद तक मगर लोग बताते हैं कि ग़ज़ल कविता में बगैर आशिक़ी वो बात नहीं आती है। केवल ख्वाब में किसी को महबूबा समझ ग़ज़ल कहना और किसी से चोट खाकर ग़ज़ल कहना दोनों में ज़मीन आसमान का अंतर है। तभी ग़ज़लकार कविता पाठ करने वाले मंच पर बेवफ़ाई की खुलकर बातें किया करते हैं जबकि किसी कहानी में पढ़ा था जिसको चाहते उसकी रुसवाई नहीं कर सकते। तब सोचता हूं लोग जिनकी बेवफ़ाई के चर्चे करते हैं खुद भी वफ़ा निभाते तो कभी ऐसा नहीं करते। बेवफ़ा तो आप भी हैं फिर उनकी बेवफ़ाई की शिकायत किसलिए करते हैं। मुहब्बत करना आता है निभाना नहीं आता वर्ना कोई किसी को चाहता तो उसी की बुराई भला कैसे करता। मेरा इक शेर आखिर में पेश है।

किसी को बेवफ़ा कहना मुझे अच्छा नहीं लगता ,

निभाई थी कभी उसने भी उल्फ़त याद रखते हैं।


मायने बदल गये हैं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

         मायने बदल गये हैं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

      मकसद जनता का ध्यान सरकार के वास्तविक वादों को नहीं पूरा करने की सच्चाई से भटकाना है और अगले चुनाव को फिर एक बार नया झांसा देकर किसी भी तरह जीत कर सत्ता से चिपके रहने की ख्वाहिश को पूरा करना है। मगर ऐसे राजनीतिक कार्य को धर्म सभा नाम दिया जा रहा है अर्थात धर्म वालों को सोचना पड़ेगा कि क्या यही इस युग का धर्म है कि धर्म को ढाल बनाने से आगे तलवार बनाने का कार्य किया जाये। धर्म सभा धर्म को समझने को हुआ करती थी कभी इधर धर्म को समझना तो दूर धर्म का पालन करना भी उनका मकसद नहीं है उनको धर्म की आड़ लेकर वोटों की राजनीति करनी है। ऐसी इक सभा से लौटकर कोई अपने भगवान को लेकर एक नई आधुनिक कथा लिखने का कार्य कर रहा है उसे समझ आ चुका है भविष्य में यही सब से महत्वपूर्ण और आवश्यक बन सकती है और जिस तरह कभी अटल बिहारी वाजपेयी जी की जीवनी की किताब को बेचने में यूजीसी ने सभी विश्वविद्यालयों को निर्देश दिया था उसे फिर से दोहराया जा सकता है। पहले मेरे दो पुराने व्यंग्य। 

               1       मेरी भी किताब बिकवा दो ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

         मुझे भी अपनी किताब बेचनी है। अब मुझे ये भी पता चल गया है कि किताब कैसे बेची जा सकती है। बस एक सिफारिश का पत्र  यू.जी.सी. चेयरमैन का किसी तरह लिखवाना है। जैसा १६ अक्टूबर २००२ को यूजीसी के अध्यक्ष अरुण निगवेकर ने लिखा है सभी विश्व विद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थाओं को , प्रधानमंत्री जी की जीवनी की पुस्तक खरीदने की सलाह देते हुए। "जननायक " किताब की कीमत अगर चार हज़ार रुपये हो सकती है तो मुझ जैसे इक जनलेखक की किताब चालीस रुपये में बिक ही सकती है। कुछ छूट भी दे दूंगा अगर कोई सौ किताबें एक साथ खरीद ले। मुनाफा न सही छपाई का खर्च तो निकल ही आएगा। मुफ्त में मित्रों को उपहार में देने से तो अच्छा है। समस्या यही है कि यूजीसी वाले मुझे नहीं जानते , मैं उनको जनता हूं ये काफी नहीं। मगर अभी पूरी तरह कहां जानते हैं लोग उसको।  अभी तक सुना था वो अनुदान देते हैं , किताबें भी बिकवाते हैं अब पता चला है। इक सत्ताधारी मुझे समझा रहे थे कि ये ज़रूरी होता है , बिना प्रचार के कुछ नहीं बिकता , साबुन तेल से इंसान तक सब को बाज़ार में बिकने को तरीके अपनाने ही पड़ते हैं। अब प्रधानमंत्री जी के प्रचार के लिये क्या इस देश के गरीब चार हज़ार भी खर्च नहीं कर सकते। आखिर कल यही तो इतिहास में शामिल किया जायेगा। उधर पुस्तकालय वालों का कहना है कि उनको कोई एक दो प्रति थोड़ा खरीदनी होगी , थोक में खरीदनी होती है। यूजीसी कहेगी तो प्रकाशक से छूट या कमीशन कौन मांग सकता है। मुझे मेरी बेटी ने बताया कि दूसरी कक्षा में पास होने के लिये उसकी अध्यापिका ने भी सभी छात्रों को एक किताब खरीदने को विवश किया था। मैंने जब स्कूल के अध्यापक से पूछा कि आप कैसे किसी किताब को ज़रूरी बताते हैं तो उनका कहना था कि जो प्रकाशक उनसे मिलता है आकर उसी की किताब को ही अच्छा बता सकते हैं जो मिला ही नहीं आकर उसकी किताब को किसलिये सही बतायें। उनकी बात में दम है , मुझे भी किसी तरह यूजीसी के चेयरमैन से जानपहचान करनी ही चाहिये। क्या खबर वे भी यही सोचते हों कि मैं उनको मिलने आऊं तभी तो वे मेरी किताब की सिफारिश करें। शायद वो इसी इंतज़ार में हों कि मैं मिलूं तो वे पत्र जारी करें।
 
                                सोचते सोचते उन नेता जी की याद आई जिनकी सुना है राजधानी तक पहचान है। लगा कि वे फोन कर देंगे तो बात बन सकती है। मगर नेता जी को पता ही नहीं था कि यूजीसी किस बला का नाम है। वे आठवीं पास हैं , कभी सुना ही नहीं था कि ये किस चिड़िया का नाम है। फिर ध्यान मग्न हो कुछ सोचने लगे , अचानक नेता जी को कोई उपाय सूझा जो वो मुझे पकड़ कर अपने निजि कक्ष में ले गये। मुझे कहने लगे तुम चिंता मत करो , तुम जितनी किताबें छपवाना चाहो छपवा लो , मैं सारी की सारी खरीद लूंगा। अगर मैं भी उनका एक काम कर दूं। वे चाहते हैं कि मैं उनकी जीवनी लिखूं जिसमें उनको नेहरू -गांधी से भी महान बताऊं। मैं अजीब मुश्किल में फंस गया हूं , इधर कुआं है उधर खाई। घर पर आया तो देखा श्रीमती जी ने रद्दी वाले को सारी किताबें बेच दी हैं तोल कर , पूरे चालीस किलो रद्दी निकली मेरी अलमारी से आज शाम को। एक और रचना भी भगवान को लेकर है जो शायद आपको कल्पना से बढ़कर वास्तविकता लग सकती है। मैंने धर्म मीडिया वालों से लेकर भगवान तक को लेकर व्यंग्य लिखने का कार्य किया है और कई लोग समझते हैं ऐसा करना नास्तिकता की बात है मगर वास्तव में धर्म समझने की बात है और जिस को अपने समझना है उस पर मन में सवाल खड़े होना लाज़मी है। धर्म सभा आयोजित की इसी लिये जाती रही हैं कि विचार विमर्श किया जाये और अपने धर्मं की विसंगतियों विडंबनाओं को सही किया जाये। मैं मंदिर जाता हूं और आगे जिस घटना की बात है वो मंदिर जाने पर ही संभव हुई मगर उस रचना को छापना हर संपादक को मंज़ूर नहीं था फिर भी छपी थी। पढ़ सकते हैं।

            2          लेखक से बोले भगवान ( कटाक्ष ) डा लोक सेतिया 

          आज फिर वही बात , जब मैंने हाथ ऊपर उठाया मंदिर का घंटा बजाने को तो पता चला घंटा उतरा हुआ है। मन ही मन मुस्कुराते हुए भगवान से कहना चाहा " ऐसा लगता है तुम्हारे इस मंदिर के मालिक फिर आये हुए हैं "। जब भी वह महात्मा जी यहां पर आते हैं सभी घंटे उतार लिये जाते हैं , ताकि उनकी पूजा पाठ में बाधा न हो। ऐसे में उन दिनों मंदिर आने वाले भक्तों को बिना घंटा बजाये ही प्रार्थना करनी होती है। कई बार सोचा उन महात्मा जी से पूछा जाये कि क्या बिना घंटा बजाये भी प्रार्थना की जा सकती है मंदिरों में , और अगर की जा सकती है तब ये घंटे घड़ियाल क्यों लगाये जाते हैं। पूछना तो ये सवाल भी चाहता हूं कि अगर और भक्तों के घंटा बजाने से आपकी पूजा में बाधा पड़ती है तो क्या जब आप इससे भी अधिक शोर हवन आदि करते समय लाऊड स्पीकर का उपयोग कर करते हैं तब आस-पास रहने वालों को भी परेशानी होती है , ये क्यों नहीं सोचते। अगर बाकी लोग बिना शोर किये प्रार्थना कर सकते हैं तो आप भी बिना शोर किये पूजा-पाठ क्यों नहीं कर सकते। बार बार मेरे मन में ये प्रश्न आता है कि किसलिये महात्मा जी के आने पर सब उनकी मर्ज़ी से होने लगता है , क्या मंदिर का मालिक ईश्वर है अथवा वह महात्मा जी हैं। ये उन महात्मा जी से नहीं पूछ सकता वर्ना उनसे भी अधिक वो लोग बुरा मान जाएंगे जो उनको गुरु जी मानते हैं। इसलिये अक्सर भगवान से पूछता हूं और वो बेबस नज़र आता है , कुछ कह नहीं सकता। जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि भगवान ऐसे मंदिरों में कैद है , छटपटा रहा है।

                   कुछ दिन पहले की बात है। मैं जब मंदिर गया तो देखा भगवान जिस शोकेस में कांच के दरवाज़े के पीछे चुपचाप बैठे रहते हैं उसका दरवाज़ा खुला हुआ था। मुझे लगा शायद आज मेरी आवाज़ भगवान सुन सके , कांच की दीवार के रहते हो सकता है मेरी आवाज़ उस तक नहीं पहुंच पाती हो। मैं अपनी आंखें बंद कर प्रार्थना कर रहा था कि अचानक आवाज़ सुनाई दी " हे लेखक तुम सब की व्यथा लिखते रहते हो , कभी तो मेरे हाल पर भी कुछ लिखो " मैंने चौंक कर आंखें खोली तो आस-पास कोई दिखाई नहीं दिया। तभी उस शोकेस से भगवान जी बोले , " लेखक कोई नहीं है और यहां पर , ये मैं बोल रहा हूं तुम सभी का भगवान"। मैंने कहा प्रभु आपको क्या परेशानी है , कितना बड़ा मंदिर है यह आपके लिये , कितने सुंदर गहने - कपड़े आपने पहने हुए हैं , रोज़ लोग आते हैं आपकी अर्चना करने , सुबह शाम पुजारी जी आपका भोग लगाते हैं घंटी बजा बजा कर। किस बात की कमी है आपको , कितने विशाल मंदिर बने हुए हैं हर शहर में आपके। जानते हो भगवान आपके इस मंदिर को भी और बड़ा बनाने का प्रयास किया जा रहा है , कुछ दिन पहले मंदिर में सड़क किनारे वाले फुटपाथ की पांच फुट जगह शामिल कर ली है इसको और सुंदर बनाया जा रहा है। क्या जानते हो भगवान आपकी इस सम्पति का मूल्य अब करोड़ों रूपये है बाज़ार भाव से , और तेरे करोड़ों भक्त बेघर हैं। साफ कहूं भगवान , जैसा कि तुम सभी एक हो ईश्वर अल्ला वाहेगुरु यीशू मसीह , तुम से बड़ा जमाखोर साहूकार दुनिया में दूसरा कौन हो सकता है। अकेले तेरे लिए इतना अधिक है जो और भी बढ़ता ही जाता है। अब तो ये बंद कर दो और कुछ गरीबों के लिये छोड़ दो। अगर हो सके तो इसमें से आधा ही बांट दो गरीबों में तो दुनिया में कोई बेघर , भूखा नहीं रहे।

       प्रभु कहने लगे " लेखक क्यों मज़ाक कर रहे हो , मेरे जले पर नमक छिड़कने जैसी बातें न करो तुम। मुझे तो इन लोगों ने तालों में बंद कर रखा है। तुमने देखा है मेरे प्रमुख मंदिर का जेल की सलाखों जैसा दरवाज़ा , जिस पर पुजारी जी ताला लगाये रखते हैं। क्या जुर्म किया है मैंने , जो मुझे कैद कर रखते हैं। इस शोकेस में मुझे कितनी घुटन होती है तुम क्या जानो , हाथ पैर फैलाने को जगह नहीं। ये कांच के दरवाज़े न मेरी आवाज़ बाहर जाने देते न मेरे भक्तों की फरियाद मुझे सुनाई पड़ती है। सच कहूं हम सभी देवी देवता पिंजरे में बंद पंछी की तरह छटपटाते रहते हैं "।

                     तभी किसी के क़दमों की आहट सुनाई दी और भगवान जी चुप हो गये अचानक। मुझे उनकी हालत सर्कस में बंद शेर जैसी लगने लगी , जो रिंगमास्टर के कोड़े से डर कर तमाशा दिखाता है , ताकि लोग तालियां बजायें , पैसे दें और सर्कस मालिकों का कारोबार चलता रहे। पुजारी जी आ गये थे , उन्होंने शोकेस का दरवाज़ा बंद कर ताला जड़ दिया था। मैंने पूछा पुजारी जी क्यों भगवान को तालों में बंद रखते हो , खुला रहने दिया करो , कहीं भाग तो नहीं जायेगा भगवान। पुजारी जी मुझे शक भरी नज़रों से देखने लगे और कहने लगे आप यहां माथा टेकने को आते हो या कोई और ईरादा है जो दरवाज़ा खुला छोड़ने की बात करते हो। आप जानते हो कितने कीमती गहने पहने हुए हैं इन मूर्तियों ने , कोई चुरा न ले तभी ये ताला लगाते हैं। जब तक मैं वहां से बाहर नहीं चला गया पुजारी जी की नज़रें मुझे देखती ही रहीं। तब से मैं जब भी कभी मंदिर जाता हूं तब भगवान को तालों में बंद देख कर सोचता हूं कि सर्वशक्तिमान ईश्वर भी अपने अनुयाईयों के आगे बेबस हैं। जब वो खुद ही अपनी कोई सहायता नहीं कर सकते तब मैं इक अदना सा लेखक उनकी क्या सहायता कर सकता हूं। इन तमाम बड़े बड़े साधु , महात्माओं की बात न मान कौन इक लेखक की बात मानेगा और यकीन करेगा कि उनका भगवान भी बेबस है , परेशान है। 
 
              भगवान आज भी बेबस हैं क्योंकि बात भगवान के मंदिर की नहीं की जाती कभी भी , मंदिर भगवान की ज़रूरत नहीं हैं उनकी मज़बूरी हैं जो धर्म की राजनीति करते हैं। वास्तविक धर्म से उनको कुछ लेना देना नहीं है उनके लिए भगवान आस्था का नहीं सत्ता हासिल करने का रास्ता हैं। धर्म सभा में चर्चा तो इसको लेकर की जानी चाहिए कि भगवान को ऐसे लोगों के चंगुल से कैसे मुक्त करवाया जाये जो धर्म का कारोबार करते हैं। धर्म समझाता है संचय मत करो और दीन दुःखियों की सेवा उनके कष्ट दूर करना भगवान की पूजा है इबादत है जबकि तमाम धार्मिक स्थल अकूत धन वैभव संम्पति जमा किये हुए हैं। मानव कल्याण पर धन खर्च करने की जगह मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे बनाना धर्म नहीं हो सकता है। 

दिसंबर 08, 2018

अनुभव फिल्म से फ़िल्मी यादों का सफर ( अपनी बात ) डॉ लोक सेतिया

          अनुभव फिल्म से फ़िल्मी यादों का सफर ( अपनी बात ) 

                                             डॉ लोक सेतिया 

      संजीव कुमार और तनुजा की श्वेतश्याम फिल्म थी वो। ऐसी फ़िल्में कम हैं जो मुझे न केवल पसंद आईं बल्कि जिनकी कहानी संगीत और डायलॉग तक मुझे याद रहे इसलिए कि उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा जीवन में सार्थक सोच विकसित होने के कारण। सच्चा प्यार क्या है जब मैंने इस पर आलेख लिखा तब उस में नायिका का ये डायलॉग शामिल था , " हां हम दोनों कॉलेज के समय से इक दूजे को चाहते रहे हैं। तब हमें मिलने को कभी दस कभी बीस मिंट मिला करते थे। अगर उस सारे वक़्त को जोड़ें तो मुश्किल से हम सात घंटे भर साथ रहे होंगे , लेकिन उन सात घंटों में मुझे जितना प्यार उससे मिला आपसे शादी के सात सालों में भी नहीं मिला है और हां उसने मुझे कभी छुआ तक नहीं। " उस फिल्म का इक गीत मन्नाडे जी आवाज़ में भी ऐसा बहुत कुछ समझाता है , फिल्म में वो गीत रिकॉर्ड प्लेयर पर बजता है सुन कर देखते हैं। 
 
 
      फिर कहीं कोई फूल खिला चाहत न कहो उसको , फिर कहीं कोई दीप जला मंदिर न कहो उसको। 
 
             मगर आज इस फिल्म की याद किसी और कारण से आई है। संजीव कुमार इक अख़बार का संपादक है जो समझता है कि समय को बर्बाद नहीं करना चाहिए , कुछ इस तरह से समझाता है इक डायलॉग उसी फिल्म का ये भी ध्यान से पढ़िए। नायक कहता है , हम रोज़ दिन में आठ घंटे सोते हैं जिसका मतलब है कि अगर हम साठ साल ज़िंदा रहे तो उसके बीस साल का समय हमने केवल सोकर बिता दिया इसी तरह दो तीन साल हमने  खाना खाने में गुज़र दिये पांच सात साल नहाने में लगा दिए और इस तरह वास्तविक काम करने को हमने कितना समय दिया ये हिसाब ही नहीं लगाया कभी। 
 
       ये बात मुझे मोदी जी की बात से याद आई कि उन्होंने अभी तक एक दिन भी अवकाश नहीं लिया है , मगर जब जानने की कोशिश की गई तो पता चला देश के पीएम को अवकाश लेने का कोई प्रावधान ही नहीं है और उनसे पहले भी किसी ने भी छुट्टी नहीं ली है। मगर ऐसा भी नहीं कि चौबीस घंटे काम करते रहे हैं। खुद अपने लिए ऐसा प्रचार भी उनको छोड़ किसी ने नहीं किया क्योंकि उनको मालूम था ये उनका कर्तव्य है कोई एहसान नहीं जैसा मोदी जी समझाना चाहते हैं। फिर भी जब उन्होंने हिसाब की किताब खोली है तो पल पल का हिसाब रखते भी होंगे। ऐसे में आप उनका हिसाब जांचने लगे तब पता चलेगा जनाब कितने साल इधर उधर देश विदेश घूमते रहे , दिन में कितने घंटे सजने संवरने पर लगाए और अपनी छवि बनाने को विज्ञापन फोटोशूट करने में खर्च किये , कितने हज़ारों दिन अपने दल को चुनाव जितवाने को भाषण देने पर लगाए और अपने खुद के धार्मिक आयोजन करने धार्मिक स्तलों पर माथा टेकने पूजा अर्चना करने पर व्यतीत किये कितने समय अपने दल को चंदा देने वाले कारोबारी दोस्तों के संग बिताये कितने दिन मनोरंजन करते रहे ढोल नगाड़े बजाते रहे। अगर इन सब को साथ जोड़ा जाये तब पता चलेगा देश और जनता के काम करने को अपने घर या दफ्तर में कितने घंटे काम किया है। इसी के साथ ये भी हिसाब जोड़ना होगा कि उनके ऐसे तमाम रहन सहन आने जाने और ठाठ बाठ पर देश का कितना धन खर्च किया गया तब पता चलेगा देश की चौकीदारी करने वाले पर हर मिंट कितने करोड़ खर्च हुआ है। बदले में किसे क्या मिला है। अनुभव।

दिसंबर 07, 2018

भीड़ और दंगों में जीने का कर ( आधुनिक मांग ) डॉ लोक सेतिया

  भीड़ और दंगों में जीने का कर ( आधुनिक मांग ) डॉ लोक सेतिया 

     जान है तो जहान है , आज़ादी है मगर ज़िंदगी की सुरक्षा आपकी अपनी ज़िम्मेदारी है। ओह माय गॉड फिल्म की तरह से बीमा वाले भी भीड़ से बचाने की सुरक्षा नहीं देते हैं। अक्षय कुमार समझाते हैं बीमा करवाते तो पछताते नहीं शायद उनके पास कोई पॉलिसी इस बारे भी हो। सरकार फसल बीमा से स्वस्थ्य बीमा तक देने की योजना बनाती है अब इस समस्या का भी समाधान ढूंढना चाहिए। जीना मरना ऊपर वाले की मर्ज़ी पर है हम सब तो उसके हाथ की कठपुतलियां हैं कब कौन कैसे उठेगा कोई नहीं जानता , हाहाहाहा। आनंद फिल्म में राजेश खन्ना जी अमिताभ बच्चन जी को बाकायदा रिकॉर्डिंग कर दे जाते हैं। बाबूमोशाय। 
 
     पहले गली में सड़क पर शोर सुनाई देता था तो लोग किवाड़ खोलकर बाहर निकल खड़े होकर देखा करते थे। बरात निकल रही हो या किसी राजनेता का जुलूस या कोई धार्मिक सुबह की फेरी या शाम की शोभा यात्रा निकलती हो। अब तो हर धर्म के त्यौहार तक इक डर के साये में गुज़रते हैं और शांति से बीत जाने पर राहत महसूस होती है। उल्लास नाम की बात अब गायब हो चुकी है।

           सरकार को पैसे की बहुत ज़रूरत होती है और जनता को बिना कर चुकाए कोई सुविधा नहीं हासिल हो सकती है। मगर संविधान जीने का अधिकार देता है ऐसा समझा जाता है इसलिए हर किसी को जितना भी सरकार उचित समझती हो उतना कर वसूल करने के बाद भीड़ और दंगों में जीने का उपाय अवश्य जिस भी तरह से संभव हो उपलब्ध करवाना चाहिए। अब इस में कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए राज्य कोई भी हो धर्म कोई भी हो काम कोई भी करता हो या बेरोज़गार भी हो। ज़िंदगी की कीमत बराबर होनी चाहिए आम ख़ास वीआईपी सब इक समान हैं। शिक्षा स्वास्थ्य रोटी घर की छत और न्याय सब की बात बाद में पहले जीने का अवसर मिलना ज़रूरी है। जिनको भीड़ बनकर दंगे करने की आदत हो या जो भी ये सब करने को बढ़ावा देते हैं उनको शराफत का सबक कोई और नहीं पढ़ा सकता है और उनको देश कानून संविधान की कोई परवाह नहीं होती है। सरकार चलाने वाले राजनेताओं और विपक्ष के दलों को अगर भीड़ जमा करनी है तो भीड़ के अपकर्मों का भी फल भुगतना चाहिए। इसलिए जिस किसी ने भीड़ जमा की और उस भीड़ को दंगे करने से नहीं रोका उनको सार्वजनिक जीवन से बाहर करना ही उपाय है। उन पर रोक लगाना ज़रूरी है और सामूहिक सज़ा मिलनी चाहिए। ऐसी हर घटना साबित करती है कि सरकार पुलिस न्यायव्यवस्था नाम की कोई चीज़ बाकी नहीं रही है। ऐसे लोग खुद अपराधी हैं जनता को सुरक्षा की जगह दहशत देने लगे हैं।  
 
            तथाकथित विशिष्ट कहलाये जाने वाले मुट्ठी भर आपराधिक तत्वों को  जिनको इंसान का लहू बहाने में लुत्फ़ आता है को शराफत का पाठ पढ़ाना मुमकिन नहीं है । इनका कोई नाम नहीं है मगर तमाम संगठन और संस्थाएं जो भीड़ जमा करती हैं उन पर रोक लगाने से लेकर उनके सभी मौलिक अधिकार छीन लिए जाने चाहिएं और उन सभी को कोई काला पानी जैसी जगह भेजा जाना चाहिए ऐसी घटना होते ही । इंसानों की बस्तियों में कोई हैवान रहे इसकी इजाज़त नहीं दी जा सकती है। देश का हर सभ्य नागरिक इसके लिए बाकायदा कर देने को राज़ी है। महानगरों में डॉन हुआ करते थे या होंगे जो हफ्ता महीना वसूली कर लोगों को जान की खैर मनाने और चैन से रहने का अधिकार देते हैं और कोई बहरी डॉन आंख उठाकर नहीं देख सकता है। ऐसा नहीं हो लोग सरकार को छोड़ ऐसे लोगों से अपनी सुरक्षा हासिल करने लग जाएं।  

 

दिसंबर 06, 2018

इक बेनाम चिट्ठी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

         इक बेनाम चिट्ठी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

    किताब लाया था पुराना इतिहास समझने को मगर किताब में इक चिट्ठी संभाल कर रखी हुई मिल गई है। बाहर लिफ़ाफ़े पर कोई पता नहीं लिखा किसने किसको लिखी कब लिखी  क्यों लिखी। मुनासिब तो नहीं मगर ये सोचकर कि शायद किसी की ज़रूरी बात नहीं लिखी हो खोल कर पढ़नी पड़ी ताकि जिस किसी के नाम लिखी हो उस तलक पहुंचा दी जाये। लिखा हुआ है ध्यान से पढ़ना और समझाना किसने किसके नाम लिखी है और हो सके तो मुझे उसका नाम पता बताना या उसी को कहना आपके नाम की चिट्ठी रखी है ले ले आकर।

       .................  आपका  नाम तो मन आत्मा पर लिखा है पल पल याद करती हूं मगर लिखना उचित नहीं आपके आदर की बात है आपस की बात है। सिंहासन पर बैठ कर भी मुझे भूले नहीं होगे जाने क्यों दिल कहता है कोई विवशता रही होगी मुझे अकेली को बेसहारा बेबस बिना कोई अपराध बतलाये छोड़ कर जाने की। पता चला महिलाओं की इधर बहुत चिंता होने लगी है शायद मुझे भी नारी होने की सज़ा से मुक्ति मिल जाये आपके राज में। ये मत समझना आपके इतने बड़े महल में दासी बनकर भी रहना चाहती हूं ऐसा कहूंगी। राजा की रानी बनने का ख्वाब नहीं देखती हूं और अब साथ आकर रहने का तो सवाल ही नहीं है। आपको पास बुलाने की भी बात नहीं है बात केवल न्याय की है इंसाफ की है। अपनी गलती पत्नी को इस तरह बीच अधर में छोड़ने की गलती स्वीकार करनी तो चाहिए। औरों को तलाक देने की चिंता है खुद किस खातिर त्याग दिया था कोई कारण तो बताओ मुझे भी। समाज पुरुष से सवाल नहीं करता है नारी पर लांछन लगाते हैं अग्नि परीक्षा लेने के बाद भी शक बाकी रहता है।

               कई जगहों पर जाते रहते हो कभी अयोध्या की खबर ली। राम को बड़ा होने दो शासन करने दो बहलाओ मत बच्चा मानकर अब तो समझने लगे हैं भगवान भी कलयुगी राजनीति को। राम का नाम ज़ुबान पर लाने से पहले मर्यादा की बात याद रखना और राम मन में रहते हैं मंदिरों में नहीं। राम के नाम पर देश के कानून संविधान की धज्जियां उड़ाने वाले किसी और के भक्त होंगे। सत्ता हासिल करना किसी काम का नहीं होता अगर शासक बनकर देश जनता की सेवा करने की जगह खुद को महान बताने का कार्य करते हुई समय व्यतीत कर दिया। बड़े बढ़ाई न करें बड़े न बोलें बोल , रहिमन हीरा कब कहे लाख टका मेरा मोल। देश की जनता को नासमझ मत समझना हीरे और पत्थर को पहचानती है। बड़ी बड़ी बातें करने से कोई बड़ा बन नहीं जाता है पहाड़ पर खड़े हो दूर से नज़र आते रहते हो और भी बौने लगते हो। जिनको छोटा बनाने की बात करते हो उनको हंसी आती होगी उनके बाद उनकी जगह कोई ऐसा भी उनकी जगह आया है देख कर।

      ये भारत देश है अहिंसा का पुजारी है प्यार मुहब्बत और भाईचारे की राह दुनिया को दिखलाता रहा है। यहां स्वार्थी अहंकारी और ताकत से राज करने वालों को कोई आदर से नहीं देखता है। कथनी और और वास्तविक जीवन में आचरण और ऐसे व्यक्ति से दूर रहना अच्छा है। महिला हूं इस से बढ़कर कुछ नहीं कह सकती हूं मगर शायद अभी भी मेरे साथ किये अन्याय की बात को स्वीकार करने का साहस जिस में नहीं उस से कोई अपेक्षा रखना फज़ूल है। मेरी कहानी में आपका कोई वजूद नहीं है मगर आपके धर्म में मेरे बिना आपका कोई भी कर्म अधूरा समझा जाता है। राम को भी यज्ञ करने को पत्नी सीता का सोने का पुतला बनवाना पड़ा था आपके बस में तो वो भी नहीं शायद। मुझे सोने की चाहत भी नहीं कभी सोने का हिरण मांगा भी नहीं क्योंकि जानती हूं ये छल होता है राजनीति का या अधर्म का। देश की जनता को भी समझ आ चुका है कि आपकी सोने के हिरण लाने की बात का वास्तविकता क्या है। 

          जाने ये कैसी देशभक्ति है जिस में सत्ता भगवान लगती है और भगवान सत्ता की सीढ़ी लगते हैं। हर बात की सीमा होती है अपने ही घर को आग लगाने वाले समझते हैं खुद बच जाएंगे। सच से इतना डर लगता है कि झूठ की शरण जाने में भी संकोच नहीं है। दावे करते हैं अपराधी पकड़े हैं गुनहगार को सज़ा मिलेगी जबकि वास्तविकता और ही है। चोर मचाये शोर क्या वास्तव में चौकीदार ही चोर साबित होगा दिल धड़कता है ऐसा हुआ तो कयामत होगी। लोग भरोसे शब्द का उपयोग करने से घबराने लगे हैं अब किस पर यकीन करे कोई। झूठ को इतना बार बार बोलने का कीर्तिमान किस के नाम होगा सब पूछते हैं क्या सच में झूठ बोलने से पाप लगने की बात सही है अगर है तो कितने झूठ बोलने पर कितनी सज़ा देते हैं भगवान। कम से कम भगवान के मंदिर मस्जिद गिरजाघर गुरूद्वारे को तो झूठ से अलग रखते। धर्म की राजनीति से आगे क्या झूठ को भी तख्त पर बिठाने का इरादा है। साजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है।

दिसंबर 04, 2018

किसी बहाने बात दिल की सुनाते हैं ( हाले दिल ) डॉ लोक सेतिया

   किसी बहाने बात दिल की सुनाते हैं ( हाले दिल ) डॉ लोक सेतिया 

          हां ज़िंदगी का साथ ऐसे निभाते हैं , किसी बहाने बात दिल की सुनाते हैं। सवाल इतना है करते क्या हैं मगर जवाब देने को तमाम ज़िंदगी कम पड़ जाती है। करना चाहते कुछ हैं करना पड़ता कुछ है और जो किया वो होता कुछ और है। लोग समझते हैं करने का मतलब यही है कि कमाई किस तरह करते हैं अगर आप उनको बताओ हम लिखते हैं तो कहते हैं वो ठीक है मगर काम क्या करते हो। बात इतनी भी नहीं है लिखने को काम समझने वाले इस से आगे पूछते हैं क्या लिखते हैं। माना जाता है कि कोई एक ढंग समझ कर उसी तरह जो चाहो लिखो। ये बंधन तो नहीं है मगर इस तरह लिखने से आप हर बात कह नहीं सकते हैं तभी मैंने कहा है।

  " कहानी हो ग़ज़ल हो बात रह जाती अधूरी है , करें क्या ज़िंदगी की बात कहना भी ज़रूरी है। "

              बात को साहित्य से अलग जीवन में भी समझते हैं। अधिकतर लोग सोचते हैं उनको उस कार्य में दक्षता हासिल करनी है जिस से आमदनी या व्यवसाय या कारोबार अथवा नौकरी में फायदा हो। मगर जीवन पैसे कमाने भर से नहीं चलता है। जिस तरह आपको पांव हैं मगर साइकिल कार चलाना आना चाहिए उसी तरह आपको बाहर के काम के साथ घर के काम भी आते हों तो आपको बेबसी नहीं होती है और समाज के बारे भी समझ होना कोई बेकार की बात नहीं है। जब हम चाहते हैं अच्छा समाज हो रहने को तो उसे अच्छा बनाना भी हमने ही है। जीवन में पग पग पर समस्याओं से घटनाओं से वास्ता पड़ता है मगर जब हम उनसे परिचित नहीं होते तो उनसे डरते हैं घबराते हैं। अगर समझ सकते हैं तो उनसे बाहर निकल जाते हैं। सबको इक सीमा तक जानकारी हर विषय की हासिल करनी चाहिए भले काम कोई भी एक जो चाहते हैं करें हम। मगर ध्यान रखने की बात ये भी है कि बिना समझे जाने हर विषय की बात करना और भी नुकसान देने का काम करता है। आपको जो नहीं मालूम किसी से समझना उचित है और समझे बिना किसी राह जाना उचित नहीं है। जिसका ज्ञान नहीं उसकी सलाह देकर आप किसी को खतरे में डालते हैं। राजनीति की बात हम समझते हैं बहुत आसान है मगर अक्सर हम बिना समझे उस पर बहस में उलझे रहते हैं। और हमारे देश के राजनेता हर बात पर भाषण देते हैं मगर समझते शायद किसी भी बात को कम ही हैं। तभी जिनकी हर बात भरोसे के काबिल होनी चाहिए उनकी किसी बात का कोई भरोसा नहीं करता है। ऐसा इसलिए है कि राजनीति में आये ही लोग राजनीति को बिना समझे हैं और उनको राजनीति केवल सत्ता अधिकार शान शौकत और धन ताकत पाने का माध्यम लगती है देश और जनता की भलाई या संविधान की भावना को नहीं जानते हैं। वास्तव में इनका धर्म की बातें करना भी ऐसे ही होता है इनका कोई धर्म नहीं भगवान नहीं खुदा नहीं उनको अपने स्वार्थ से सबसे महत्वपूर्ण लगते हैं। जब तक हम इनकी वास्तविकता को समझेंगे नहीं और सोचते नहीं हैं कि जो खुद संविधान की लोकतंत्र की उपेक्षा करते हैं दलगत राजनीति में जो मर्ज़ी करते हैं हमें कुछ भी नहीं दे सकते हैं। आपको किसी एक बात में तमाम जानकारी होना पैसा हासिल करवा सकता है मगर अच्छा जीवन नहीं क्योंकि हर समस्या का हल पैसे से होना संभव नहीं है। इस दायरे से बाहर आइये और समाज घर की हर तरह की जानकारी हासिल करिये। टीवी चैनल सोशल मीडिया पर समय बर्बाद होता है इन से आजकल मनोरंजन भी स्वस्थ रूप से नहीं होता बल्कि भटकाने का काम अधिक होता है। लोग सही गलत की परख किये बिना इन पर यकीन कर धोखा खाते हैं। लोगों से मिलना स्वस्थ चर्चा करना विचारों का आदान प्रदान करना छोड़ दिया है हमने और केवल वहीं जाते हैं जहां हम जो चाहते हैं वही सब होता हो। इसको कुवें का मेंढक कहते हैं जो इक बंद दुनिया को समझता है यही सब कुछ है। आजकल बच्चों को सब सिखाने की बात की जाती है किताबी पढ़ाई के साथ साथ कला नृत्य संगीत तैरना जैसे अनेक काम। खुद हम भी कोशिश कर बाकी चीज़ों को भी जानने का कार्य कर सकते हैं। ये संक्षेप में जीवन की बात थी अब अपने लिखने को लेकर बाकी बात।

        लिखना मेरे लिए अपनी और समाज की वास्तविकता को समझना और अपनी बात कहना है। कई लोग समझते हैं किसी एक विधा में निपुण होने से नाम शोहरत दौलत हासिल की जा सकती है मगर मुझे लगता है कोई एक विधा आपकी सभी बातों को बयां करने में नाकाफी है। ग़ज़ल में आप जो कह सकते हैं उस में निर्धारित मापदंड में ज़िंदगी की कहानी कहना मुमकिन नहीं है और अगर कोई ये समझता है कि सर्वोत्तम लिखना है तो इसकी सीमा कोई नहीं है कोई भी ग़ालिब निराला दुष्यंत मुंशी जी टैगोर दुनिया भर के लाजवाब लिखने वालों की कोई हद नहीं बना सकता है। इतना अवश्य है कि आपको जो भी जिस विधा में लिखना है उसके नियम समझ कर लिखना चाहिए कमियां रह सकती हैं और उस से बेहतर लिखा जा सकता है मगर गलतियां नहीं होनी चाहिएं और ऐसा नहीं होना चाहिए कि पढ़ने वाला कहे लिखना ज़रूरी ही नहीं था। आपके लिखने का कुछ मकसद होना चाहिए और लिखने की सार्थकता सबसे अहम है। मुझे लिखना ऐसे लगता है जैसे जो किसी से नहीं कह सकते खुद अपने आप से बात कर लिया करते हैं। मुझे जो काम नहीं आता वो है दुश्मनी करना जबकि मेरे दुश्मनों की कोई कमी नहीं है। दोस्ती की है निभाई भी बार बार फिर भी दोस्त बनाकर रखना मुझे नहीं आया अभी। लोग समझते हैं और बताते भी हैं कि वो फ़रिश्ते हैं मगर मैं तो गुनहगार इंसान हूं और कभी फरिश्ता होने की बात समझी नहीं सोची भी नहीं। आदमी बनकर रहना इस दुनिया में आसान भी नहीं है। किसी से गिला नहीं शिकवा नहीं है जफ़ा की जिस किसी ने कभी वफ़ा भी निभाई थी ये याद रहता है। कभी कभी सोचता हूं क्या लिखना चाहता हूं तो लगता है अभी लिखने की शुरुआत भी ठीक से नहीं हुई है मगर कुछ है ज़हन में जो लिखकर दुनिया से अलविदा होना चाहता हूं कोई इक ग़ज़ल ही सही और नहीं तो कोई शेर ही हो या कोई कविता कहानी व्यंग्य आलेख जो संक्षेप में सार में बयां कर दे मुझे जो भी कहना है। अधिक पढ़ने की फुर्सत किस के पास है।

         मैं कैसा हूं कहां हूं कोई नहीं जानता , बदनसीब ऐसा हूं कोई नहीं पहचानता मुझे। यहीं ज़िंदा हूं और इसी जगह मरना भी है इक दिन जहां कोई मेरी तरफ देखता तक नहीं। ज़िंदगी के पिंजरे में कैद हूं और अपने पिंजरे से पंछी को क्या प्यार होता है मुझे पिजंरा लगता ही नहीं अपना है। मगर पिंजरे में चहचहाता रहता हूं बाहर आसमान पर उड़ते पंछियों को देखता हूं तो सोचता हूं उड़ने लगा हूं। इस पिंजरे से देखता हूं कितना बड़ा है ये जहान ज़मीन आसमान लेकिन मैं न आकाश में हूं न ही ज़मीन पर ही। ज़मीं अपनी न आसमान अपना फिर है ये सारा जहान अपना।