ज़माने को बदलना है , नई दुनिया बसाना है ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
ज़माने को बदलना है , नई दुनिया बसाना हैउठा कर हाथ अपने , चांद -तारे तोड़ लाना है।
कभी महलों की चाहत में , भटकती भी रही हूं मैं
नहीं पर चैन महलों में , वो कैसा आशियाना है।
मुझे मालूम है , तुम , क्यों बड़ी तारीफ़ करते हो
नहीं कुछ मुझको देना , और सब मुझसे चुराना है।
इसे क्या ज़िंदगी समझूं , डरी सहमी सदा रहती
भुला कर दर्द सब , बस अब ख़ुशी के गीत गाना है।
मुझे लड़ना पड़ेगा , इन हवाओं से ज़माने की
बुझे सारे उम्मीदों के चिरागों को जलाना है।
नहीं कोई सहारा चाहिए मुझको , सुनो लोगो
ज़माना क्या कहेगा , सोचना , अब भूल जाना है।
नहीं मेरी मुहब्बत में बनाना ताज तुम कोई
लिखो "तनहा" नया कोई हुआ किस्सा पुराना है।
2 टिप्पणियां:
nice one
बहुत अच्छा
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