मई 19, 2014

दर्द-ए-ग़ज़ल ( एक खत ग़ज़ल का ) { तीरे-नज़र } डा लोक सेतिया

 दर्द-ए-ग़ज़ल ( एक खत ग़ज़ल का ) { तीरे-नज़र } डा लोक सेतिया

मुझे चाहने वालो , मेरा सलाम। तुम मुझे बेहद चाहते हो , मेरे दीवाने हैं दुनिया भर में तमाम लोग। मुझे नाज़ है उन सब पर जिनको इश्क़ है मुझसे। मगर जाने क्यों ये कुछ नासमझ लोग मेरे साथ इक खिलवाड़ करने लगे हैं। और कहते हैं कि मेरे चाहने वाले हैं। मैं बेहद नाज़ुक हूं , मेरी सुंदरता मेरे स्वभाव की कोमलता , हर बात कहने के मेरे अपने सलीके और सभी को लुभाने वाले मेरे अंदाज़-ए-बयां में है। मेरे रंग रूप को जैसे चाहो वैसे बदलोगे तो मेरी सारी कशिश ही समाप्त हो जायेगी। मेरे साथ इस तरह छेड़खानी करने वाले मेरा नाम ही बदनाम कर देंगे। मैं तो उन शायरों की विरासत हूं जिन्होंने पूरी उम्र साधना करके मुझे सजाया , संवारा और निखारा है। मगर आजकल तो मुझे जाने समझे बिना ही हर कोई दावा करने लगा है कि मैं उसी की हूं। इनमें से कितने तो इतना भी नहीं जानते कि मेरा नाम ग़ज़ल क्यों रखा गया है , वे क्या मुझे समझेंगे और कैसे मुझे अपना बनायेंगे। हमेशा से मैं सभी का दर्द बयां करने का माध्यम रही हूं , मगर आज मुझे कोई नहीं नज़र आता जो मेरे दिल का दर्द दुनिया को बता सके। मैं किसके पास जाऊं इंसाफ मांगने , है कोई मुंसिफ जो उनको सज़ा दे सकता हो जो खेल रहे हैं मेरी अस्मत के साथ बार बार। मुझे क़त्ल करने वाले , मुझे खून के आंसू रुलाने वाले खुद को शायर बता रहे हैं। ये देख मुझ पर क्या बीतती है कौन समझेगा। इस खत से पहले भी मैंने कुछ खत लिखे थे उन शायरों के नाम जिन्होंने मुझसे मुहब्बत ही नहीं की , जो तमाम उम्र मेरी इबादत करते रहे।ग़ालिब , दाग़ , जिगर जैसे मुझे दिलो जान से चाहने वाले लोग। उन लोगों ने कभी भी मेरी नफासत को दरकिनार नहीं किया , मेरी खुशबू को मेरे मिजाज़ को हमेशा बचाये रखा। वो जानते थे बेहद नाज़ुक हूं मैं , छूने भर से मुरझा सकती हूं , उन्होंने मेरा एहसास अपनी रग रग में , अपनी हर सांस में भर लिया था। काश मुझे चाहने वाले वो शायर आज फिर से आ जायें और मैं खुद को उनकी आगोश में छिपा लूं।

                        ये खत भेजा है ग़ज़ल ने मुझे , मेरे नाम अपने सभी चाहने वालों के नाम। इस पर कोई नाम नहीं लिखा हुआ है , ये सभी ग़ज़ल को चाहने वालों के नाम है इक संदेश। पढ़कर परेशान हो गया हूं मैं , करूं तो क्या करूं , ग़ज़ल के इस दर्द को जाकर किसको समझाऊं और किस तरह। आज के लिखने वाले तो बड़े ही बेदर्द हो गये हैं।
"ग़म ज़माने के लिखते रहे उम्र भर , खुद जो एहसास-ए-ग़म से भी अनजान थे"।
हमसे कई बार भूल हो जाती है , जिसको फूल सा कोमल मान लेते हैं वो पत्थर सा कठोर होता है। आशिक़ भी प्यार में जब प्रेमिका को ग़ज़ल नाम दे बैठते हैं तो बाद में पछताते हैं जब उनकी कविता का रूप पहले सा नहीं रहता।

        "खुद ग़ज़ल हैं वो हमारे दिल की , क्या भला और सुनायें उनको"।

ग़ज़लकार ये अनर्थ कर बैठते हैं , अपनी महबूबा को ग़ज़ल नाम देना अर्थात उसको महफ़िल के हवाले कर देना। हर कोई उसकी तारीफ करे और उसको चाहने लगे ये देख कर खुद जलन होने लगती है। हर कोई समझता है उसी का अधिकार है ग़ज़ल पर बाकी तो कहने को ग़ज़ल कह रहे हैं। ग़ज़ल इक खूबसूरत ख़्वाब है। शायर हर बार सोचता है कि आज जो ग़ज़ल सुनाने जा रहा है वो लाजवाब है , मगर मुशायरे में सुनाने के बाद फिर सोचता है अगली ग़ज़ल ऐसी शानदार लिखेगा कि सब वाह वाह कर उठेंगे। ग़ज़ल का अंदाज़ कहां सभी को आता है , तभी तो कहा था ग़ालिब ने कि , है ग़ालिब का अंदाज़-ए-बयां और।

                 मैंने भी अपने दिल में ग़ज़ल की इक दिलकश सी तस्वीर बना राखी थी। आज जब मेरे सामने आई तो देख कर हैरान हो गया हूं , मैंने पूछा था ग़ज़ल से ये क्या हाल बना रखा है तुमने प्रिय। सुन कर रोने लगी थी अपनी दुर्दशा पर। बोली , देख लो छापने वाले ने मेरी कैसे दुर्गति की है , इससे तो बेहतर होता बिना छापे लिखने वाले को वापस ही भेज देता। इस तरह छपा देख कर मुझे लिखने वाले के दिल पर क्या बीत रही है ये वही जानता है या मैं समझती हूं। उस पर ये प्रकाशक मानता होगा कि उसने कोई उपकार किया है छाप कर। उसके लिये ग़ज़ल में या कुछ और छापने में कोई अंतर नहीं है , उसको किसी तरह जगह भरनी है , कुछ भी परोसना है पढ़ने वालों को। ग़ज़ल कहने लगी आजकल ग़ज़ल संध्या के नाम पर तमाशा किया जाता है , गाने वाले ऐसे गाते हैं कि वो सहम कर रह जाती है। ये गायक इतना भी नहीं जानते कि मुहब्बत या इबादत और बात है और किसी को ज़बरदस्ती अपना बनाना दूसरी बात। इक दर्द ये भी है ग़ज़ल का कि सभाओं में उसके शेरों को गलत ढंग से सुनाया जाता है बिना उसका अर्थ जाने , तालियां बटोरने के लिये। शायरी का ये क़त्ल उससे देखा नहीं जाता। बड़ा ही अनाचार होने लगा आजकल ग़ज़ल के साथ , उसपर हो रहे ज़ुल्म की शिकायत मैं जाकर किस से करूं। कौन उसको बचाये उनसे जो ग़ज़ल की आबरू तार तार करने पर तुले हैं। ग़ज़ल को बचा लो , कहीं बेमौत न मर जाये ग़ज़ल। कर सको तो ग़ज़ल के इस दर्द को आप भी दिल की गहराई से महसूस करो। आपकी पलकों पर अगर दो आंसू आ जायें ग़ज़ल का दर्द सुनकर तो समझना कि आप भी शामिल हैं ग़ज़ल के चाहने वालों में। 
 

 

मई 15, 2014

जब चले जायेंगे मेले के दुकानदार ( तरकश ) डा लोक सेतिया

जब चले जायेंगे मेले के दुकानदार  ( तरकश ) डा लोक सेतिया

          मेला कुछ दिन का ही होता है , जब कहीं मेला लगा हो तब वहां बहुत चहल पहल होती है , भीड़ होती है , शोर-शराबा होता है। मगर जब मेला खत्म हो जाता है तब वहां का मंज़र ही और होता है। मेले में सब कुछ मिलता है , खेल-तमाशा भी होता है और खाने-पीने से लेकर सभी तरह का सामान भी बिकता है। मेले में सामान बेचने वाले दुकानदार भी अपनी तरह के ही होते हैं। पीतल पर सोने की पालिश किये गहने मेले में असली सोने के गहनों से भी सुंदर दिखाई देते हैं। मेले भी कई तरह के होते हैं , कभी गांव में हर साल लगता था मेला। मेला नाम की फिल्म भी बनी थी शायद दो बार , बहुत सारी फिल्मों की कहानी मेले से ही शुरु होती रही है।  मेले में दो भाईयों का बिछुड़ना , ये कीतनी बार देखा है फिल्मों में। मेला देखने का शौक बच्चों से लेकर बूढ़ों तक हमेशा होता ही है। माशूक़ा महबूब से मिलने मेले में जाती है और आशिक़  से मेले से चांदी का छल्ला दिलवाने को कहती है , कहानी में। ये और बात है कि इधर प्यार  मॉल में कितनी मंज़िल ऊपर  चढ़ता है महंगे उपहार की खरीदारी से लेकर फ़िल्म देखने खाने पीने पर महीने भर की कमाई खर्च करवाता है।

      राजधानी दिल्ली में तो प्रगति मैदान इक जगह ही मेलों के लिये है , जहां हर दिन कोई न कोई मेला लगा ही रहता है। करीब दो महीने से देश में भी इक मेला लगा हुआ है , चुनाव का , लोकतंत्र का मेला। इसमें भी बहुत कारोबारी करोबार करते नज़र आ रहे हैं। नेता , राजनैतिक दल ही नहीं टीवी चैनेल से लेकर अखबार वाले तक सब का धंधा चोखा चल रहा है।  कई तो इतना कमा जाएंगे कि फिर बहुत दिन आराम से बैठ कर खाते रहेंगे। सबकी दुकानें सजी हुई हैं , दिन-रात उनका माल बिक रहा है मुंह मांगे दाम पर। कोई मोल भाव की बात नहीं करता , उनके पास फुर्सत कहां है इसके लिये। लेना हो तो लो वर्ना आगे बढ़ो , भीड़ मत करो ऐसा कहते हैं। बस खत्म होने को है ये मेला , देश की जनता मस्त रही बहुत दिन इस मेले में। अब देखते हैं कि मेले के बाद क्या मिलता है देश को आम जनता को। आपने कभी तो देखा होगा उस जगह का नज़ारा जहां लगा हुआ था कोई मेला दो दिन पहले , वहां लगता है जैसे कोई तबाही हुई हो।  अभी तलक देश की जनता को भी वही मिलता रहा है , इस बार क्या होगा , देखना है। अच्छे दिन ढूंढते ढूंढते थक गए और मिले भी तो बदहाली के दिन नसीब की बात है। तब राज़ खुला अच्छे दिन जुमला था सच में कोई अच्छे दिन मिलते नहीं जनता को अच्छे दिन उन्हीं के होते हैं जिनकी सत्ता सरकार होती है।

                     मेले से लोग जिस वस्तु को सस्ता समझ खरीद लाते हैं , जब वो दो ही दिन में बेकार हो जाती है तब समझ आता है कि महंगा रोये एक बार सस्ता रोये बार बार। मेले से खरीदे सामान की कोई गारंटी नहीं होती है न ही उसको बदला या वापस किया जा सकता है। कभी कभी शहर के बाज़ार में भी सेल लगती है भारी छूट पर बाकी बचे सामान की , तब उसपर भी मेले वाले बाज़ार के नियम लागू होते हैं। मेला कोई भी हो हर दुकानदार मुनाफे में रहता है। चुनाव के मेले में भी सब नेता , सभी दल फायदे में ही रहते हैं , चाहे सत्ता मिली हो चाहे गई हो हाथ से। इतने साल घोटालों में लूट की ये सज़ा कुछ भी नहीं। लेकिन चुनाव के इस मेले से आम लोग अपना बहुमूल्य वोट देकर जो जो वादे , उम्मीदें लेकर आये हैं वो सच साबित हों इसकी कोई गारंटी नहीं है। न ही आपकी पूंजी , आपका वोट आपको फिर वापस मिल सकता है , जिसको दिया वो पांच वर्ष तक उसी का ही है। चुनाव जीत कर नेता बाकी सब भूल कर सत्ता की दौड़ में शामिल हो जाते हैं , कल जो विरोधी थे आज सहयोगी बन जाते हैं। बहुमत की चिंता , सब को खुश रखने की बात , किसको क्या क्या मिले ये ही मकसद बन जाता है। सत्ता और शासन का चरित्र कुर्सी का चरित्र ही होता है , कुर्सी वहीं रहती है , उसपर बैठने वाले बदलते रहते हैं। जब लोग कुर्सी पर आसीन व्यक्ति को सलाम करते हैं तो वे वास्तव में कुर्सी को ही सलाम कर रहे होते हैं।

                   सवाल यही है , कि पहले की तरह इस बार भी क्या सत्ताधारी दल का नाम और कुर्सियों पर बैठने वाले नेताओं के नाम ही बदलेंगे या सच में कुछ बदलाव भी देखने को मिलेगा। क्या शासन का तौर-तरीका भी बदलेगा , या अब भी नेता शासक बन कर दाता और जनता याचक बनी रहेगी। क्या जनता मालिक की तरह अपना अधिकार पा सकेगी , क्या आज़ादी के सतसथ वर्ष बाद कुछ बदलेगा।  क्या सच अच्छे दिन आयेंगे। क्या वो हालत नहीं रहेगी कि जनता की थाली मात्र चंद रूपये की और सत्ताधारी लोगों की हज़ारों रूपये की। क्या योजना आयोग का शौचालय लाखों का और जनता को खुले मैदान में या किसी रेल की पटड़ी किनारे जाने का अंतर नहीं रहेगा। क्या जो जो नेता चुनाव में जनता की समस्यायें हल करने , उसको न्याय देने , सुरक्षा देने की बातें भाषण में कह रहे थे वे अपनी बात याद रखेंगे , या सब भुला कर खुद अपने लिये सुख सुविधा , सुरक्षा - अधिकार पाने पर ही ध्यान केंद्रित करेंगे। क्या इस गरीब देश का राष्ट्रपति सैंकड़ों कमरों वाले आलीशान महल में रहेगा जिसपर प्रतिदिन बीस लाख रूपये रख रखाव पर खर्च होते हैं।  और उससे गरीबों के हमदर्द होने की आपेक्षा करना फज़ूल होगा। क्या देश के प्रधानमंत्री के निवास का बिजली का बिल लाख रूपये महीना ही रहेगा और वो सरकारी खर्चों में कटौती की बात भी किया करेगा। क्या सांसदों-विधायकों का शाही खर्च जारी रहेगा , जनता के पैसे को यूं ही बर्बाद किया जाता रहेगा। देश का सब से बड़ा घोटाला जिसका आज तक कभी किसी ने ज़िक्र तक नहीं किया और जो हमेशा से चल रहा है , वो सरकारी विज्ञापनों का अपने प्रचार और मीडिया को प्रभावित करने का कार्य बंद होगा कभी। अभी कितनी उम्र ये मीडिया वाले इन बैसाखियों का सहारा पाकर ही चल सकेंगे। इस देश की जनता कब तक ये अनचाहा बोझ ढोती रहेगी। नेता-अफ्सर कब तक सफ़ेद हाथी बने रहेंगे। इनका राजा महाराजा की तरह रहना क्या अमानवीय अपराध नहीं है उस देश में जिसमें आधी आबादी को दो वक़्त रोटी तो क्या पीने को साफ पानी तक मिलता नहीं। जब करोड़ों बच्चे शिक्षा से वंचित हैं , जब जनता को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा तक नहीं मिलती है तब ये बातें करते हैं , देश की आर्थिक शक्ति की।  क्या ये देश कुछ मुठी भर लोगों की जागीर है , गरीब-अमीर में कितना अंतर हो ये कभी तो तय करना होगा , अगर वास्तव में सभी नागरिकों को समानता का हक देना है।

               चुनाव का मेला भले निपट गया हो , ऐसे कई प्रश्नों की धूल अभी बाकी है।  इसको क्या अभी भी अनदेखा किया जा सकता है। मेले के उजड़ जाने के बाद वहां भी बहुत कुछ ऐसा ही होता है जिसको कोई मुड़ कर नहीं देखता। मगर जब तक इन कठिन सवालों का हल नहीं खोजते , अच्छे दिन कैसे आयेंगे। फिर पांच साल बाद मेला लगाया वही दुकानदार देशभक्ति और धर्म की दुकान सजाकर दोबारा अपना कारोबार कर खूब कमाई कर गए लोग हाथ मलते रह गए। चुनावी मेला भी गांव के मेले जैसा होता है भीड़ और शोर में खो जाते हैं लोग और अपनी जेबें खाली कर ले आते हैं बनवटी नकली सामान की तरह मतलबी लोगों की कोई सरकार। मेले के खत्म होते ही बाकी रह जाता है ऐसा मंज़र जिसकी कल्पना नहीं की होती है। 

मई 12, 2014

इश्क़ में रात दिन आह भरते रहे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 इश्क़ में रात दिन आह भरते रहे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इश्क़ में रात दिन आह भरते रहे
वो अभी आएंगे राह तकते रहे ।

सबकी नज़रें उधर देखती रह गईं
हम झुकी उस नज़र पर ही मरते रहे ।

चुप रहे हम नहीं कुछ भी बोले कभी
बात करते रहे खुद मुकरते रहे ।

पांव जलते गये , खार चुभते रहे
राह से इश्क़ की हम गुज़रते रहे ।

आपसे कर सके  हम न फरियाद तक
ज़ख्म खाते गये , अश्क़ झरते रहे ।

किसलिये देखते हम भला आईना
देखकर आपको हम संवरते रहे ।

तोड़ दीवार दुनिया की मिलने गये
फिर भी इल्ज़ाम "तनहा" कि डरते रहे ।
 

 

मई 04, 2014

इक हमदर्द अपना , इक हमराज़ अपना ( कहानी ) डा लोक सेतिया

        इक हमदर्द अपना  ,  इक हमराज़ अपना  ( कहानी )

                               डा लोक सेतिया

       संदीप आज फिर बहुत उदास है , अकेला है। कितनी बार उसको यही मिलता है , बार बार संदीप किसी से दोस्ती करता है , और बार बार उसको दोस्त कोई नया ज़ख्म दे जाते हैँ। काश आज उर्मिला होती उसका दर्द बांटने को। जब भी परेशान होता है संदीप , उसे याद आ जाती है उर्मिला की वो कसम खुदखुशी न करने की। कभी कभी सोचता है संदीप कि क्या सच में वो इसीलिये जी रहा है या ये इक बहाना है खुदखुशी न करने का। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह मरने से डरता है , उसके पास जीने का कोई भी मकसद ही नहीं है , वो बस इसलिये ज़िंदा है क्योंकि ख़ुदकुशी करने का साहस ही नहीं कर पा रहा। उर्मिला की वो कसम केवल इक बहाना है। संदीप को याद है वो दिन जब वो अपनी ज़िंदगी से बेहद निराश हो चुका था और ख़ुदकुशी करने ही वाला था कि उसकी खिड़की के बाहर से किसी ने आवाज़ दी थी उसका नाम लेकर और कहा था कि उसे इक ज़रूरी बात करनी है थोड़ी देर को अपने कमरे का दरवाज़ा खोल दो। बिना कुछ भी समझे संदीप ने आपने कमरे का दरवाज़ा खोल दिया था। उर्मिला बदहवास सी भीतर चली आई थी। आकर बोली थी मुझे जानते तो होगे तुम्हारे घर की साईड वाली गली में ही रहती हूँ मैँ। हां देखा है आपको अक्सर इधर से गुज़रते हुए , संदीप ने कहा था , बतायें क्या बात करना चाहती हैं मुझसे।

                उर्मिला ने कहा था क्या आप मेरे साथ फवारे वाले पार्क तक चल सकते हैं , यहां बात करना उचित नहीं होगा। संदीप आपसे निवेदन है कि बस थोड़ी देर मेरे साथ चलकर मेरी बात सुन लो , उसके बाद चाहे जो मर्ज़ी आप कर सकते हैं , मुझे मालूम है आप आज ख़ुदकुशी कर रहे थे। संदीप ये सुन कर चकित रह गया था , बोला था कि आपको कैसे पता चला और आप मेरा नाम भी जानती हैं , मुझे तो आपके बारे कुछ भी पता नहीं है। मेरा नाम उर्मिला है , अब बाकी बातेँ  अगर कहीं बाहर चल कर करें तो अच्छा होगा। और वो दोनों कुछ दूरी पर उस पार्क में चले आये थे। पार्क के सबसे पीछे वाले कोने में जहां सीढ़ियां बनी हुई थी , जाकर बैठ गये थे दोनों। संदीप पूछता उस से पहले ही उर्मिला बोली थी , संदीप जी आपको हैरानी होगी कि मुझे आपके बारे बहुत कुछ पता है। मेरा कमरा आपकी खिड़की के ठीक सामने है और इस तंग गली जो हमारे दोनों घरों के बीच है के बाहर से मैंने कितनी बार आपकी बातेँ सुनी हैं , जब भी आपके दोस्त आपको बिना किसी कारण के बुरा भला कहते रहे और आप चुप चाप सुनते रहे तब मेरी पलकें भीगती रही हैं। ये दर्द मुझे भी मिला है उम्र भर , तभी मैंने आपके दर्द को हमेशा अपना समझा है। जानती हूँ आपको किसी सच्चे दोस्त की तलाश है और ये भी जानती हूँ कि चाह कर भी मैँ वो नहीं बन सकती। मगर मैं चाहती हूँ की हम दोनों इक दूजे के हमदर्द और हमराज़ बन कर , आपस के दुःख - दर्द बांटा करें। मैंने ये पहले भी कई बार कहना चाहा है मगर कभी कह नहीं पाई , आज खिड़की से देखा आपको छत से रस्सी टांगते हुए और ख़ुदकुशी करने की कोशिश करते हुए , तब लगा ये शायद आखिरी अवसर है इक पहल करने का। मैं आज अपना हाथ बढ़ा रही हूं , क्या मेरा हाथ थामोगे मेरे हमदर्द और हमराज़ बनोगे हमेशा के लिये। आपको हो न हो मुझे आप पर पूरा यकीन है कि अगर कोई मेरा राज़दार और हमदर्द बन सकता है तो वो केवल आप ही हैं दूसरा कोई शायद ही मिले जीवन में। संदीप ने खामोशी से थाम लिया था वो हाथ जो उर्मिला ने उसकी तरफ बढ़ाया था। शायद इसकी ज़रूरत आज संदीप को भी बहुत थी। तब उर्मिला ने कहा था कि आज आपको मुझे ये वादा करना ही होगा कि भले कितनी ही मुश्किलें आयें , कितनी परेशानियां हों जीवन में , आप कभी हार नहीं मानोगे जीवन से। मुझे जब भी कोई मुश्किल होगी मैं आपको ज़रूर बताया करूंगी और आप भी मुझसे कभी कोई परेशानी नहीं छिपाओगे। और तब से संदीप और उर्मिला इक ऐसे नाते में बन्ध गये जिसका कोई नाम नहीं था। हां उसके बाद संदीप की खिड़की हमेशा खुली रहती थी , और जब भी दोनों को कोई बात करनी होती दोनों उसी पार्क के कोने में जाकर बैठ जाते और बातें किया करते। संदीप की तरह ही उर्मिला को भी हर किसी से नफरत ही मिली थी बिना किसी कारण। मगर जब से उर्मिला इस बेदर्द दुनिया से चली गई हमेशा के लिये तब से संदीप को उसकी कमी हर पल खलती है। अब उसको जीना और भी कठिन लगने लगा है , उसका अपना तो कोई कभी भी था ही नहीं। मगर इक हमदर्द और हमराज़ तो था , जो काफी था किसी भी हालात में ज़िंदा रहने के लिये।

भीख की महिमा ( तरकश ) डा लोक सेतिया

     भीख की महिमा ( तरकश ) डा लोक सेतिया

      ये बात सभी धर्म के ग्रंथ एक समान कहते हैं कि जिसके पास धन दौलत , सुख सुविधा सब कुछ है मगर उसको तब भी और अधिक पाने की लालसा रहती है वो सब से दरिद्र है। आप जिनको बहुत महान समझते हैं वे भी क्या ऐसे ही नहीं हैं। उनको अपने काम से सब मिलता है , नाम-पैसा-शोहरत , फिर भी उनकी दौलत की हवस है कि मिटती ही नहीं। विज्ञापन देने का काम करते हैं , पीतल को सोना बताते हैं , अपनी पैसे की हवस पूरी करने को। हम तब भी उनको भगवान बता रहे हैं। ईश्वर तो सब को सब कुछ देता है , कभी मांगता नहीं , उसको कुछ भी नहीं चाहिये।  इन कलयुगी भगवानों को जितना भी मिल जाये इनको थोड़ा लगता है। ये जब समाज सेवा भी किया करते हैं तो खुद अपनी जेब से कौड़ी ख़र्च नहीं किया करते , यहां भी इनके चाहने वाले उल्लू बनते हैं। उल्लू मत बनाना कह कर खुद उल्लू सीधा कर लेते हैं अपना। देश के नेता हों या प्रशासन के अधिकारी ये सारे भी इसी कतार में शामिल हैं। देश की गरीब जनता इनकी दाता है और ये लाखों करोड़ों की संपत्ति पास होने के बाद भी उसके भिखारी। ये लोग भीख भी मांग कर नहीं मिले तो छीन कर ले लिया करते हैं , इनको भीख पाकर भी देने वाले को दुआ देना नहीं आता। हर भिखारी मानता है कि भीख लेना उसके हक है , भीख लेकर ख़ाने में उनको कोई शर्म नहीं आती। वेतन जितना भी हो रिश्वत की भीख बिना उनका पेट भरता ही नहीं। ये भीख मज़बूरी में पेट की आग बुझाने को नहीं लेते , कोठी कार , फार्महाउस बनाने को लेते हैं। ये जो भीख लेते हैं उसको भीख न कह कर कुछ और नाम दे देते हैं।

                                            भीख भी हर किसी को नहीं मिला करती , उसी को मिलती है जिसे भीख मांगने का हुनर आता हो। ये गुर जिसने भी सीख लिया वो कहीं भी चला जाये अपना जुगाड़ कर ही लेता है। भीख और भ्र्ष्टाचार दोनों की समान राशि है , बताते हैं कि रिश्वत की शुरुआत ऐसे ही हुई थी। पहले पहले अफ्सर -बाबू किसी का कोई काम करने के बाद ईनाम मांगा करते थे , धीरे धीरे ये उनकी आदत बन गई और वह काम करने से पहले दाम तय करने लगे जो बाद में छीन कर लिया जाने पर भ्र्ष्टाचार कहलाने लगा। आज देश में सब से बड़ा कारोबार यही है , तमाम बड़े लोग किसी न किसी रूप में भीख पा रहे हैं।  जिनको हम समझते हैं देश के सब से अमीर लोग हैं उनको भी सरकारी सबसिडी की भीख चहिये नहीं तो वो रहीस रह नहीं सकते। जाँनिसार अख़्तर जी का इक शेर है ऐसे लोगों के नाम , "शर्म आती है कि उस शहर में हैं हम कि जहाँ , न मिले भीख तो लाखों का गुज़ारा ही न हो "। आजकल भीख मांगने वाले भी सम्मान के पात्र समझे जाते हैं , जिसे देखो वही इस धंधे में शामिल होना चाहता है। भीख नोटों की ही नहीं होती , वोटों की भी मांगी जाती है , वोट जनता का एकमात्र अधिकार है वो भी नेता खैरात में देने को कहते हैं , वोट पाने के हकदार बन कर नहीं। कई साल से देश की सरकार तक समर्थन की भीख से ही चल रही है। देश की मलिक जनता को जीने की बुनियादी सुविधाओं की भी भीख मांगनी पड़ रही है , मगर नेता-अफ्सर सभी को नहीं देते , अपनों अपनों को देना पसंद करते हैं। अफ्सर मंत्री से मलाईदार पोस्टिंग की भीख मांगता है तो मंत्री जी मुख्य मंत्री जी से विभाग की। हर राज्य का मुख्य मंत्री केंद्र की सरकार के सामने कटोरा लिये खड़ा रहता है। राजनीति और प्रशासन जिंदा ही भीख के लेन देन पर है। विश्व बैंक और आई एम एफ के सामने कितनी सरकारें भिखारी बन ख़ड़ी रहती हैं। इनको भीख किसी दूसरे नाम से मिलती है जो देखने में भीख नहीं लगती। मगर जिस तरह गिड़गिड़ा कर ये भीख मांगते हैं उस से सड़क के भिखारी तक शर्मसार हो जाएं। सच तो ये है कि सड़क वाले भिखारी भीख अधिकार से और शान से मांगते हैं , उनको पता है लोग भीख अपने स्वार्थ के लिये देते हैं , बदले में पुण्य मिलेगा ये सोच कर।

                                 बड़े बड़े शहरों में रोक लगा दी गई है सड़क पर भीख मांगने पर , जो पुलिस वाले खुद सड़क पर खड़े होकर भीख लिया करते वो आजकल जुर्माना करते हैं उन पर जो भीख दे रहा होता है।  भिखारी पर नहीं होता जुर्माना। मतलब यही है कि भीख मांगना नहीं देना अपराध है। देश की तमाम जनता इस कानून के कटघरे में खड़ी नज़र आती है , इस युग में किसी पर दया करना कोई छोटा अपराध नहीं है।