मई 03, 2021

POST : 1492 जनता का आह भरना जुर्म शासकों की लापरवाही उनकी मर्ज़ी ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

   जनता का आह भरना जुर्म शासकों की लापरवाही उनकी मर्ज़ी 

            ( आलेख - कड़वी सच्चाई तथ्य सहित ) डॉ लोक सेतिया 

    ये संवेनहीनता की हद है सरकार नेता पुलिस सभी जनता को दोषी समझते हैं उनके आदेशों और निर्देशों का पालन नहीं करते कोरोना को हराने बढ़ने से रोकने और बचाव के तरीकों पर गौर नहीं करते हैं। ये समय आरोप लगाने का नहीं है मगर जब सत्ताधारी अपनी नाकामी और वास्तविक कर्तव्य नहीं निभाने की वास्तविकता को स्वीकार करने की जगह जो मर रहे हैं उनकी गलतियां बताने लगे तो जले पर नमक छिड़कने का काम लगता है। सोलह महीने में कोरोना को लेकर देश और राज्यों का स्वास्थ्य विभाग कितना कुछ कर सकता था ये सवाल भी छोटा है आपको असली कारण समझने को और पीछे जाकर देखना समझना होगा। सोलह साल पहले जो शुरआत की जा सकती थी सरकारें नेता बदलते रहे बदलाव करना किसी को ज़रूरी नहीं लगा। शिक्षा और स्वास्थ्य को बजट नाम को निर्धारित किया जाता रहा आबादी को देखते हुए इक नागरिक पर एक दो से बढ़कर अधिकांश पांच रूपये जो इमारत कर्मचारी वेतन के बाद वास्तव में दवा अदि के लिए कुछ भी नहीं बचता। मगर विकास के नाम पर बुत बनाने से आडंबर करने पर बेतहाशा धन बर्बाद किया जाता है हर दिन। मानव जीवन की सुरक्षा से बढ़कर चांद और मंगल पर जाने को अधिक ज़रूरी समझते रहे।
 
मनमोहन सिंह की सरकार में डॉ अंबुमनी रामदासा स्वस्थ्य मंत्री बने थे मई 2004 में तब उन्होंने देश की स्वास्थ्य सेवाओं की दुर्दशा को सुधारने को सख्त नियम कानून बनाने को बिल संसद में पेश किया था। अस्पताल क्लिनिक सरकारी या निजी सभी को मापदंड अनुसार न केवल पंजीकरण करने बल्कि उपचार को लेकर शुल्क की सीमा तक निर्धारित करने तथा ईलाज और अस्पताल में दाखिल करने को मरीज़ की हालत को सामने रखना न कि पैसे या सिफारिश को महत्व देने का नियम की बात थी और निर्धारित कानून और नियम का अनुपालन नहीं करने पर अस्पताल पर कठोर करवाई की बात भी शामिल थी। लेकिन उस कानून को संसद की कमेटी को भेजकर ठंडे बस्ते में डालकर भुला दिया गया राजनितिक कारणों से और जो डॉक्टर देश की स्वास्थ्य सेवाओं को सही करना चाहता था उसको पद से हटवा दिया गया। नागरिक स्वास्थ्य से अधिक महत्व आर्थिक कारणों को दिया गया क्योंकि देश में अधिकांश नर्सिग होम अस्पताल निजी क्या सरकारी खरे साबित नहीं होते थे। मतलब ये कि उनको मनमानी करने और मरीज़ों की ज़िंदगी की कोई कीमत नहीं समझने की की गई और भविष्य में जो जैसा चल रहा था जारी रहने दिया गया। हमारे देश के शासक नेताओं अफसरों को नागरिक की स्वास्थ्य सेवा पाने की उम्मीद को कभी समझना ज़रूरी नहीं माना क्योंकि उनको जब ज़रूरत हो बड़े अस्पताल और विदेश जाकर ईलाज की सुविधा हासिल होती है।
 
पिछले कुछ सालों से जनता की समस्याओं को खिलौना समझने की बात की जाती रही है। आपको हर बात के लिए ऐप्प्स बना कर समझाया गया चुटकी बजाते समाधान मिलेगा। मगर वास्तव में तमाम ऐप्प्स नाकारा और बेकार साबित हुई क्योंकि अफसरशाही बाबूशाही और सरकारी कर्मचारी दर्ज शिकायत को जब मर्ज़ी हटा देते बिना समाधान किये अपने आंकड़े सही करने को। झूठ और फरेब का मायाजाल रचा गया वास्तविक हल नहीं किया गया। अधिकारी नेता मनमर्ज़ी से अपनी सुविधा के नियम बनाते बदलते रहे। पुलिस नेता अपराध को बढ़ाते रहे और कानून व्यवस्था का बंटाधार करते रहे। अपराधी को पकड़ना सज़ा देना छोड़ अपराध करवाना उनका कारोबार बन गया। जनता पर लाठी भांजने वाले खुद मुजरिमों के साथी बनकर आगे बढ़ते बढ़ते वहां तक पहुंच गए कि संसद विधानसभा में बहुमत बाहुबली और गंभीर अपराध करने के आरोपी का होने लगा। वोटों की खातिर बलात्कार के आरोपी को बचाते उसके गैरकानूनी काम को वैध करते रहे। 
 
अब तो चुनाव जीतना ध्येय बन गया और सत्ता पाना और शासक बनकर जनविरोधी विचारधारा जनमत विरोधी कार्य और कानून बनाना आदत बनता गया। देश समाज के कल्याण को छोड़ अपनी विचारधारा थोपने को हथकंडे अपनाकर संविधान तक की अनदेखी की जाती रही। विरोध की आवाज़ को दबाने कुचलने से टीवी अख़बार मीडिया को खरीदने का तानाशाही ढंग अपनाया जाता रहा। भूल गए देश की करोड़ों की आबादी को रोटी शिक्षा स्वास्थ्य चाहिए मंदिर मस्जिद धर्म के नाम पर बांटना अनुचित है। कितनी बड़ी अर्थव्यवस्था की बात कहां रह गई जब सपनों की कांच की बुनियाद पर खड़ी ऊंची इमारत विकास की चरमरा कर ढह गई। कोरोना की आपदा कड़वा सच कह गई। झूठ की नगरी में सच का कत्ल होता रहा शासक मुस्कुराता रहा आमजन रोता रहा। क्या होना चाहिए था और क्या होता रहा। हालत ये है कि ऑक्सीजन नहीं मिलने से अस्पताल में बिस्तर नहीं मिलने से लोग बेमौत मर रहे हैं। आह भरते हैं तो सरकार जनाब को लगता है गुनाह कर रहे हैं। लाशों पर राजनीती की बात सच होती लगती है सावन के अंधों को मगर हरियाली नज़र आती है। 
 
आखिर में भयानक तस्वीर आपको दिखाते हैं कभी गूगल पर सर्च करना तो किसी अख़बार में आपको डॉ अंबुमणी रामदासा का संसद में पेश किया स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने वाले बिल का मसौदा मिल जाएगा। पढ़कर दंग रह जाओगे कि इतने साल पहले किसी ने इतनी गहनता से विमर्श कर स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने की कोशिश की थी जो नाकाम नहीं कर दी गई होती तो आज जो बेबसी और दर्द खुद डॉक्टर्स और नगरिक महसूस कर रहे हैं कदापि नहीं होती। जिन को हम चुनते हैं देशभक्ति की समाज सेवा की बातें सुनकर वो सांसद विधायक बनते केवल अपने खुद के लिए सब हासिल करने वाले कानून पल भर में पारित कर लेते हैं जबकि जनता की भलाई की खातिर कोई पहल करता भी है तो उसको सही अंजाम तक नहीं पहुंचने देते हैं। बीस तीस साल पहले बनाये अच्छे कानून राज्य सरकारें लागू नहीं करती मगर अपने ख़ास लोगों की ज़रूरत को उनकी गलत मांग को भी अध्यादेश लेकर तुरंत पूरा किया जाता है। हम खुद को देशभक्त कहते हैं मगर देश समाज विरोधी आचरण करने वाले लोगों के सामने सर झुकाये खड़े रहते हैं। स्वार्थी खुदगर्ज़ सत्ता का अनुचित उपयोग करने वालों की बातें सुनकर तालियां बजाते हैं। अपने देश को बर्बाद करता देख हमारा खून खौलता नहीं हैं जैसे हमारी धमनियों में खून नहीं पानी बहता है। अनुचित को अनदेखा करना विरोध नहीं करना कायरता है फिर कैसे हम अपने गैरवशाली इतिहास की बात करते हुए सीना चौड़ा करते हैं। जिन्होंने देश को आज़ाद करवाया गुलामी की जंज़ीरें तोड़कर उनके सामने हम शर्मसार नहीं होते जब उनकी महिमा का गुणगान करते हैं और उनके सपनों को तार तार करने वालों को मसीहा कहते हैं। 
 
आपको लग सकता है कि कुछ ऐसे कानून बन जाने से क्या वास्तव में बदलाव हो सकता है , तो आपको बताना चाहता हूं कि स्वस्थ्य शिक्षा को मुनाफे का कारोबार नहीं बनाने दिया जाता और स्कूल अस्पताल को शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं सभी को उपलब्ध करवाने का लक्ष्य दिया जाता और ऐसा नहीं करने वालों को ये पेशा करने की अनुमति नहीं मिलती तब क्या हो सकता था। तब फार्म हॉउस बड़ी बड़ी गाड़ियां खरीदने और रहने को ऊंचे भवन बनाने की जगह चिकिस्तक अपने अस्पताल में नर्सिंग होम या सरकारी नागरिक अस्पताल में अपनी सुविधाओं से पहले रोगी का उपचार और निदान करने को ज़रूरी साधन उपलब्ध करवाने पर ध्यान देते। भगवान के बाद जिनको महान समझा जाता है उनको खुद कुछ पाने की चाहत नहीं त्याग की भावना महत्वपूर्ण लगती। 

 

मई 01, 2021

POST : 1491 कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं ( अजब-ग़ज़ब ) डॉ लोक सेतिया

 कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं ( अजब-ग़ज़ब ) डॉ लोक सेतिया 

   जिसको देखते हैं वही भगवान को लेकर ईश्वर परमात्मा खुदा जीसस वाहेगुरु को लेकर सबको बहुत कुछ समझाता नज़र आता है जबकि सच ये है कि खुद नहीं समझता समझाना किसे है समझना क्या है। सदियों से लोग उलझे हुए हैं उस विषय की चर्चा में जो कोई उलझन ही नहीं है उलझाने को उलझन बनाकर नासमझ लोगों ने विश्वास आस्था को काल्पनिकता का सहारा लेकर मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे को उसका घर बता दिया है जिसका निवास कण कण में है हर इंसान जीव जंतु पेड़ पौधे से हवा पानी कुदरत की हर वस्तु में है। आजकल कोरोना को लेकर कुछ उसी तरह से होने लगा है जिसका किसी को कुछ पता नहीं उसको लेकर हर कोई समझाने लगा है दुनिया को। शायद हम अपनी नासमझी पर शर्मिंदा नहीं होते गर्व करते हैं। किसी दार्शनिक ने कहा था जो समझता है उसको सब मालूम है वो कुछ भी नहीं जानता और जो कहता है कि उसे सब पता नहीं वो कुछ समझता है। ये विडंबना है हैरानी है या इत्तेफ़ाक़ है कि भगवान की तरह कोरोना का शोर सभी जगह है लेकिन उसको पहचानता नहीं ठीक से कोई भी। इक भूलभुलैयां में भटकाते हैं लोग और ऐसे भी हैं जो भगवान की ही तरह कोरोना का भी कारोबार करते हैं भयभीत कर अपना अपना स्वार्थ पाने को। कोई उपचार नहीं होने की बात जानकर भी अपने फायदे को उपचार की बात कहकर अपना मकसद तलाशता है तो कोई वैज्ञानिक और विशेषज्ञ लोगों की खोज वैक्सीन पर अनावश्यक टिप्पणी कर आशा की बात को निराशा में बदलने की कोशिश करता है। खेद की बात है मानवीय आपदा को भी निजी हित को उपयोग करने की अमानवीय कोशिश करना। 
 
सोशल मीडिया पर इतनी झूठी सच्ची और आधाररहित जानकारी लोग भेजते हैं और हम बिना विचारे औरों को भेजने का कार्य कर भागीदार बन जाते हैं इक सच को रहस्य बनाने में। जिस का जो काम है जिस विषय की समझ और जानकारी है उन्हीं पर उस विषय को छोड़ना उचित है। सभी को सब कुछ समझ आना संभव नहीं है। कम से कम निराशाजनक और तर्करहित बातों को बढ़ावा देना कभी नहीं करना चाहिए। इन आधी अधूरी कच्ची पक्की बातों से लोग सच पर संदेह और झूठ पर विश्वास कर सकते हैं जिस से उनको ऐसा नुकसान हो सकता है जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती है। सोचिए कोई भटका हुआ आपसे किसी गांव नगर या जगह का रास्ता पूछता है और आपको वास्तव में मालूम नहीं होने पर बिना सोचे किसी डगर पर इशारा करते हैं तब मुमकिन है आप विपरीत दिशा दिखलाकर अच्छाई की जगह बुराई का कार्य कर रहे हैं। व्हाट्सएप्प फेसबुक पर यही पागलपन दिखाई देता है। 
 

          चलो कोशिश करते हैं कुछ समझने की ( चिंतन ) बाकी बात आगे 

  जिनको हमने क्या क्या समझा उन सभी को लेकर सोचना चाहिए। भगवान का नाम लेने से क्या भगवान खुश हो जाएंगे जैसे नेता उपदेशक भगवाधारी अपनी शोहरत के भूखे होते हैं। कभी इस कभी उस स्थल जाकर दर्शन करते हैं अगर दर्शन हो गए तो दूसरी जगह जाना ही नहीं पड़ता सब मिल जाता ईश्वर से मिलकर बाकी क्या रह जाता पाने को। मगर उनको कुछ और चाहिए जितना मिला कम लगता है दाता नहीं भिखारी हैं ये कभी संतुष्ट नहीं होते। और पैसा और ताकत और सत्ता का विस्तार इनकी हवस की कोई सीमा नहीं। आपको जो कलाकार जो टीवी सिनेमा खेल के खिलाड़ी भगवान की तरह लगते हैं उनको पैसे पद और दिखावे के आदर की भूख रहती है ये किसी को कुछ भी देते नहीं देने की बात करते हैं बदले में और पाने को। तथाकथित बाबा लोग कितना धन जमा हो उनको थोड़ा लगता है बातें बड़ी बड़ी करते हैं। अख़बार टीवी वाले लिखने वाले भी खुद को सब जानने समझने की बात कहते हैं वास्तव में पैसे की खातिर रसातल में पहुंच चुके हैं उनका भगवान पैसा है जो खरीदता है उसी को अपना ज़मीर बेचते हैं। धर्म की जनसेवा की बात करने वाले खुद अपने लिए अधिक पाने को पागल होते हैं। इनको आपने आदर्श समझ लिया है यही सब से बड़ा गुनाह है क्योंकि सत्य को छोड़ आप झूठ की महिमा का गुणगान करते हैं। 
 
राम राम जपने से कल्याण होता है तो कोरोना कोरोना की रट लगाने से भी मुमकिन है कोरोना को आप पर दया आ जाये मगर ऐसा नहीं होता लगता है। कोरोना का जाप छोड़ कोई और अच्छा काम करें तो बेहतर होगा और माला फेरने से मोमबत्ती जलाने से इबादत करने से अच्छा है किसी को जाकर सहारा दो किसी भूखे को रोटी खिलाओ किसी बीमार को उपचार उपलब्ध करवाओ किसी को शिक्षा का वरदान देने का दर्दमंद बनकर इंसान को इंसान समझ भाईचारा और मेलजोल बढ़ाने की बात करो। नफरत की अहंकार की बातों से बचकर सही राह अपनाओ।
 

 

अप्रैल 29, 2021

POST : 1490 ज़िंदा नहीं क्यों ख़ौफ़ मौत का है ( दरसल ) डॉ लोक सेतिया

    ज़िंदा नहीं क्यों ख़ौफ़ मौत का है ( दरसल ) डॉ लोक सेतिया 

   सोचते रहते हैं सांस की गिनती कितनी है कितनी बाक़ी है दिल की धड़कन बढ़ती घटती रहती है नींद रात रात भर नहीं आती क्या ये जीना है मौत का ख़ौफ़ ज़िंदगी पर भारी है। सच तो ये है हमने जीना कभी सीखा ही नहीं जितना जिये जैसे जिये उसको ज़िंदा रहना कहते ही नहीं बस समझते रहे कि हम ज़िंदा हैं जीना क्या होता है समझा नहीं सीखा नहीं। सच को सच झूठ को झूठ अच्छे को अच्छा बुरे को बुरा कहने का साहस नहीं किया जब जिसने मज़बूर किया हमने सर झुका कर उसको अपना मालिक और खुद को गुलाम बना लिया। बड़ी इज्ज़त से घर बुलाकर बेइज्ज़त किया हर किसी ने और हम डरे सहमे ख़ामोश रहे किसी की दिलफ़रेब बातों को सुनकर झूठी तसल्ली खुद को देते रहे कि ये सितमगर कभी हमारे दुःख दर्द को समझेगा और हमको जीने की आज़ादी देगा। वास्तव में हम बेहद कायर लोग हैं जो अपनी आज़ादी अपने अधिकार की लड़ाई खुद लड़ना नहीं चाहते बस ख़ैरात में हासिल करना चाहते हैं। धीरे धीरे हम पर ज़ुल्म और हम पर शासन करने वाले लोग हमें इतने भाने लगे कि उनसे नफरत करना उनसे जंग लड़ना छोड़ हम उन्हीं के कदमों पर चलने उन जैसा बनने लग गए। सभी अपने से नीचे और अपने से कमज़ोर पर ज़ोर आज़माने लगे और झूठ को सच बताकर सच से नज़रें चुराने लगे। ज़मीर को मारकर  बेजान किसी  लाश जैसे चलते फिरते लोग क्या क्या हैं इसका शोर मचाने लगे। मौत तो हर हाल सभी को इक दिन आनी ही है मगर अफ़सोस इसका है कि हम में से अधिकांश लोग कभी ज़िंदा रहने जीने का ढंग भी नहीं समझ पाये। सालों की गिनती को जीना नहीं कहते हैं जीना कहते हैं हौंसलों से ज़िंदगी की हर चुनौती से हराकर जीतना साहस से अपने दम पर। 
 
  जीना उसी का सार्थक होता है जो सिर्फ अपनी खातिर नहीं देश समाज की खातिर सही मार्ग पर चलकर सच्चाई ईमानदारी और निडरता पूर्वक रहता है हर हालात में कठिनाई से घबराकर गलत से समझौता नहीं करता कभी। धन दौलत से सामान मिलता है ईमान नहीं और पढ़ लिख कर उच्च शिक्षा अथवा पद पाकर भी नैतिकता और आदर्शों का पालन नहीं करना तो अज्ञानता से भी खराब है जैसे आंखें होते आंखों पर स्वार्थ की पट्टी बांध अंधा बनकर जीना। जो उजाला करने को जलने की जगह अंधेरों का कारोबार करते हैं बड़े बदनसीब लोग होते हैं। ऐसी शिक्षा जो आपको अच्छा इंसान नहीं बनाती उसको हासिल करना किस काम का है। हैरानी की बात है लोग शोहरत दौलत को पाकर अहंकार करते हैं ये समझते हैं कि उनके बाद उनका नाम रहेगा जबकि वास्तव में जीते जी ऐसा कुछ नहीं करते जो समाज देश और विश्व कल्याण के लिए उपयोगी साबित हो। हमने इंसान बनकर अपना कर्तव्य निभाना ज़रूरी नहीं समझा है हमने जो कहा आचरण में नहीं किया खुद को अच्छा सच्चा महान कहना वास्तव में छोटे होने का सबूत है। लोग आपको बड़ा समझें ये आपकी चाहत नहीं होनी चाहिए बल्कि सही मार्ग पर चलते इसकी चिंता ही नहीं करनी चाहिए। खुद को अपने सामने रखकर विवेक से सवाल करना चाहिए कि क्या सच में मुझे ऐसा होना चाहिए जैसा हूं। 
 
हम समझते हैं दुनिया को अपनी चतुराई से समझ से धोखा देकर खुद ऊपर बढ़ रहे हैं जबकि असल में हम अपने आप से नज़रें नहीं मिलाते खुद से सबसे अधिक छल कपट करते हैं। जो लोग बौने कद वाले होते हैं समझते हैं जिनका कद हैसियत उनसे बड़ी ऊंची है उनको छोटा साबित कर खुद उनसे महान और बड़े बन जाएंगे वास्तव में पहाड़ पर चढ़ कर और भी छोटे लगते हैं। ऊंचाई पर खड़े होने से कोई बड़ा नहीं होता है इसी तरह बड़े पद पर आसीन होने से कोई ऊंचाई को नहीं हासिल कर सकता है। ज़िंदगी जीने का अर्थ है देश समाज को सभी को कुछ देने का कार्य करना जो शायद ही हम करते हैं हम तो सिर्फ खुद अपने लिए अपने स्वार्थ सुख सुविधा अधिकार पाने को लालायित रहते हैं किसी पागलपन की तरह धन दौलत शोहरत की अंधी दौड़ में शामिल होकर ज़िंदगी को जीने का अर्थ ढंग सलीका सीखते नहीं कभी। बस जिये और मर गए इक नाम बनकर।
 

 
 
    

अप्रैल 24, 2021

POST : 1489 अपना गुणगान खुद करने वाले ( सारे जहां से अलग हम ) डॉ लोक सेतिया

     अपना गुणगान खुद करने वाले ( सारे जहां से अलग हम ) 

                                       डॉ लोक सेतिया 

इसको पागलपन कहते हैं अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना। हमारा कौमी तराना यही है शान से गाते हैं सारे जहां से अच्छा। बड़े बढ़ाई ना करें बड़े ना बोलें बोल , रहिमन हीरा कब कहे लाख टका मेरो मोल। बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय , जो दिल खोजा आपना तो मुझ से बुरा न कोय। रहीम और कबीर कह गये हम समझे नहीं रटते रह गये। हम ऐसे लोग हैं जो अपनी सूरत को कभी दर्पण में सामने रख कर देख कर विचार नहीं करते कि हम कितने डरावने चेहरे वाले हैं अच्छाई और खूबसूरती का मेकअप या मुखौटा लगाकर भले बने रहते हैं मन में कालिख़ और स्वार्थ लोभ मोह अहंकार भरा है मगर हाथ में माला है मनके फेरते रहते हैं गिनती करते हैं लेकिन जपते जपते जो कहना करना भूल जो नहीं करना चाहिए वही करने को सोचते रहते है राम छोड़ मरा मरा बोलने लगते हैं। हर कोई खुद को महान समझता है अपने सिवा सभी को नासमझ नादान समझता है। इंसान से भयानक कोई जीव जंतु जानवर पशु पंछी धरती आकाश दुनिया भर में नहीं है जिस शाख पर बैठे हैं उसको काटने को विकास और जाने क्या क्या समझते हैं। राजनेता देश को बदलने की बात कहते हैं खुद को नहीं बदलते हैं ये परजीवी हैं जनता का लहू पीकर पलते हैं गिद्ध मुर्दा लाश खाते हैं ये शासक लोग सरकार बनते ज़िंदा इंसान के जिस्म को नोंचते हैं। चुनाव जीतने को इंसानियत धर्म क्या नियम कानून संविधान तक को क़त्ल करते हैं। 
 
अदालत में बैठ कर न्यायधीश बन सवाल करते हैं किस किस ने क्या अपराध किया पाप की पुण्य की परिभाषा गढ़ते हैं। न्यायव्यवस्था की बदहाली की चर्चा से डरते हैं ज़िंदगी की कालाबज़ारी है पुलिस पर अपराधी भारी है हर गुनाहगार से सत्ता की यारी है ये सबसे बड़ी महामारी है। इक दिन सबकी आनी बारी है आखिर ख़त्म हुआ दुनिया का हर ज़ालिम अत्याचारी है। सरकार जो लोग चलाते हैं आग से आग को बुझाते हैं लाशों के अंबार पर सत्ता की रोटियां पकाते हैं। सबको बातों से बहलाते हैं झूठ को सच बताकर उल्लू बनाते हैं जितना नीचे गिरते जाते हैं उतना गर्व से खुद को ऊंचा पहाड़ समझ इतराते हैं। देश का धन चोरी का माल समझ कर बांसों के गज से नापकर कारोबार चलाते हैं चोर जब साहूकार बन जाते हैं चोर औरों को कहते हैं चोर चौकीदार मिलकर मौज मनाते हैं। हमने यही अपराध किया है बिना परखे ऐतबार किया है बस यही हर बार किया है किसी बड़बोले को सरदार किया है। अपने कर्मों की सज़ा पाई है आगे कुंवां पीछे खाई है नौकर ने अपनी असलियत दिखाई है बन बैठा घरजंवाई है। 
 
चलो उनसे भी चल के मिलते हैं जो सच की कथा सुनाते हैं चौबीस घंटे हज़ार चैनल लाख अख़बार खुद को सबसे बड़ा बतलाते हैं। बेचते हैं ज़मीर पहले खुद अपना फिर सवालात पूछते जाते हैं जो बिक गये खरीदार वही हैं अपनी कीमत बढ़ाते जाते हैं। उनसे बढ़कर कोई और नहीं हराम की खाते हैं मगर हरामखोर नहीं उन पर चलता किसी का ज़ोर नहीं। शोर उनका है जिनको पसंद किसी और की आवाज़ नहीं ये बात कोई राज़ की बात नहीं। सोशल मीडिया के जितने बंदे हैं सभी आंखों वाले अंधे हैं सच खोजना नहीं आता है झूठ से उनका गहरा नाता है नैतिकता से उनको बैर है बचना उनसे मनानी खैर है। दाता बनकर जो भीख देते हैं ये उनकी हाज़िरी लगाते हैं बात जनता की करते हैं पर सत्ता के गुण गाते हैं कभी कभी सरकार को आंखें दिखाते हैं ये मज़बूरी है करना पड़ता है पल भर में बात को बदलते हैं सरकार ने सब ठीक किया इसको अपनी खबर का असर बताते हैं। सच्चाई शराफत ईमानदारी धर्म ईमान नैतिकता ये सभी चलते नहीं आजकल खोटे सिक्के हैं। आप खुद हैं तीन गुलाम बेगम बादशाह हाथ में लिए असली खिलाड़ी है जिसके पास तीन इक्के हैं। जिसको समझे थे बापू के बंदर वो लकंदर बन गये हैं सिकंदर। उनका इतिहास कौन लिखेगा ये सब झूठ है है कोरी बकवास कौन लिखेगा। 
 

 



अप्रैल 22, 2021

POST : 1488 शिकायत है कोरोना को ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

      शिकायत है कोरोना को ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

अपनी तो ये आदत है कि हम कुछ नहीं करते , कोरोना को भी शिकायत है कि हम कुछ नहीं करते। कोरोना कौन है बिन बुलाया महमान है या मुफ्त में हुआ बदनाम है जाने क्या क्या उस पर इल्ज़ाम है। कोरोना से लड़ना मज़बूरी है जब कुछ नहीं समझ आये तो ये कहना ज़रूरी है। सरकार ने उसको अवसर बताया था शायद वोटर समझ प्यार से मनाया था। राजनेताओं ने राजनीति का हथियार तक बनाया मगर कोरोना नासमझ नहीं चालाक निकला किसी दल किसी नेता के हाथ नहीं आया। बात की तह तक जाना होगा सबको आईना दिखाना होगा। एक एक कर सबको मिलवाना है कोरोना का पता क्या है कहां ठिकाना है। हम सभी रोज़ खुद ही मरते हैं जीना नहीं सीख सके बेमौत मरते हैं ज़िंदगी से प्यार नहीं करते हैं मौत पर तोहमत धरते हैं। सोचते हैं क्या क्या किस किस ने करना था जो नहीं किया सभी ने यही किया कुछ भी नहीं किया। कब क्यों किसे क्या क्या करना था क्या नहीं किया कैसे बताएं किस किस को सामने लाएं किसको बचाएं छुपाएं। शामिल हैं इस तरफ से उस तरफ सभी जुर्म के मुजरिम सच सच बताएं।
 
  सरकारों ने अस्पताल कितने बनवाये मगर स्वास्थ्य सेवाओं को तंदरुस्त नहीं रख पाए। अस्पताल नर्सिंग होम डॉक्टर वैद हकीम सरकारी विभाग संस्थाएं नियम कानून सभी कहने को बहुत करते हैं मगर सच समझते नहीं बड़ी बड़ी बातों का दम भरते हैं। दुनिया चांद पर पहुंचने की बात करती है धरती पर इंसान को कैसे जीना है उसकी चिंता नहीं इंसानियत शासकों से डरती है। आपने महल अपने बनाये हैं दुनिया भर को नाप आये हैं देशवासी भूखे नंगे बदहाल हैं आपको नहीं लगते अपने लोग जो अपने हैं बने पराये हैं। कानून कितने बनाये हैं स्वास्थ्य सेवा की बात पर कोई नियम नहीं है धोखे देते हैं धोखे खाये हैं। जैसे अस्पताल नर्सिंग होम क्लिनिक डॉक्टर स्वस्थ्य सुविधाएं होनी चाहिएं सभी को हासिल उसकी वास्तविकता बड़ी निराशाजनक खराब है। लापरवाही बेहिसाब है कोई नहीं देता सवाल का जवाब है। मर्ज़ बढ़ते गए ईलाज करने से ये क्या आशिक़ी निभाई है। ये चिकिस्या है कि राम नाम की लूट है मनमर्ज़ी की छूट है।
 
 पुलिस वालों को समझ नहीं आया इतना बड़ा गुनहगार उनके हाथ नहीं क्यों आया है। जाल बिछाया नाका लगाया है हिरासत में नहीं आया है नहीं तो उनसे बच नहीं पाता ज़मानत मिलती खिलाने पिलाने से भागता किस तरह पुलिस थाने से मुठभेड़ में मारा जा सकता था। अपनी असलियत छुपा सकता था झूठ को सच साबित करने को झूठी हवाही सबूत दिखला सकता था। कोई वकील अदालत को यकीन दिला सकता था बेवजह फंसाया है जुर्म कर नहीं सकता है। मासूम है बेचारा है कोरोना हालात का मारा है रहम की भीख मांगता है सब उसको ख़त्म करना चाहते हैं पनाह मांगता है। पुलिस को मिलता कोई सुराग नहीं सीबीआई का भी जवाब नहीं। लिखने वालों ने किया क्या है कोरोना की कहानी नहीं लिखी ये बताते कि कथा क्या है। धर्म वाले भी नहीं पहचान पाये दैत्य है कि कोई अवतार है उसका सारा संसार है क्या कलयुग का भगवान है उसका मंदिर कोई बनाया है ये शाम का लंबा होता साया है। न्यायपालिका हैरान है अदालत में अनचाहा महमान है अदालत का रखता नहीं सम्मान है नासमझ नहीं नादान है खो चुका पहचान इंसान है।
 
   टीवी अख़बार वाले ढूंढते आतंकवादी गुनहगार से साक्षात्कार करते हैं कोरोना को स्टूडियो में बुलाया नहीं अपनी हैसियत को बढ़ाया नहीं। चर्चा बहस बेकार झूठी बेमतलब बिना मकसद करते रहे विज्ञापन से तिजोरी भरते रहे कोरोना से यारी की न दुश्मनी की है भूल की है बहुत बड़ी की है। दर्शकों को क्या समझाया है खुद उनको कुछ भी नहीं समझ आया है। कोरोना को भगाना है हराना है बस यही इक तराना है दिन रात फोन पर बजाना है आपको सुनाना है समझाना नहीं डराना है। डर के आगे जीत नहीं होती है जग की ऐसी रीत नहीं होती है बॉलीवुड महात्मा गब्बर सिंह जी  समझाते थे जो डर गया समझो मर गया। अपनी हालत यही हो गई है तेरा क्या होगा कालिया सरकार मैंने आपका नमक खाया है अब गोली खा। कितने आदमी थे सांभा खामोश है बसंती नाचेगी जब तक सांस चलती है कोरोना की बड़ी गलती है खुद सामने नहीं आता है जबकि उसके पास जाने किस किस का बही खाता है। जिनको जीना नहीं आया न मरना ही आया हम ऐसे लोग हैं जिनको कुछ करना नहीं आया। सोशल मीडिया पर बकवास लिखते हैं सच पढ़ना नहीं आया समझाते सभी को हर विषय खुद समझना नहीं आया। कोरोना को शिकायत है कि हम कुछ नहीं करते , अपनी तो ये आदत है कि हम कुछ नहीं करते।

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अप्रैल 20, 2021

POST : 1487 ज़िंदगी तू बेवफ़ा क्यों है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

    ज़िंदगी तू बेवफ़ा क्यों है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

ज़िंदगी तू बेवफ़ा क्यों है 
मौत भी रहती खफ़ा क्यों है । 
 
बेगुनाहों को सज़ा देना 
इस जहां का फ़लसफ़ा क्यों है । 
 
क्यों इनायत है रकीबों पर 
और हम से ही जफ़ा क्यों है । 
 
तू ही क़ातिल भी मसीहा भी 
बेवफ़ा तुझसे वफ़ा क्यों है ।  
 
ऐतबार सबके मिटा देना 
ये ही "तनहा" हर दफ़ा क्यों है ।  
 

 

POST : 1486 हम जिएं कैसे हम मरें कैसे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

   हम जिएं कैसे हम मरें कैसे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हम जिएं कैसे हम मरें कैसे 
क्या करें और क्या करें कैसे । 
 
जिस्म घायल है रूह भी घायल 
ज़ख़्म ही ज़ख़्म हैं भरें कैसे । 
 
उनके झांसों में लोग आ जाते 
चाल समझे नहीं डरें कैसे । 
 
दुश्मनी उनको है ज़माने से 
लोग उल्फ़त भला करें कैसे । 
 
लोग खुद जाल में फंसे "तनहा"
दोष तकदीर पर धरें कैसे । 
 

 

 

अप्रैल 18, 2021

POST : 1485 मुसीबत से डरने वाले ( जंग नहीं लड़ना ) डॉ लोक सेतिया

    मुसीबत से डरने वाले  ( जंग नहीं लड़ना  ) डॉ लोक सेतिया

    ये ऐसे कैसे पेड़ लगाए हैं हमने जो छाया नहीं देते कोरोना की धूप में। कोरोना इक दुश्मन है जिसने हमला किया तब सीमा पर तैनात सैनिक सोये हुए थे अर्थात सरकार स्वास्थ्य विभाग और विश्व स्वास्थ्य संघठन निक्क्मे नाकाबिल साबित होने के बाद नसीहत देकर अपनी गलती को स्वीकार ही नहीं करते हैं। सोचो अगर सीमा पर तैनात फौजी दुश्मन के हमले पर सामने डटकर लड़ने की बजाय लोगों को भागो अपनी जान बचाओ घर में बंद हो जाओ अपने आप को छुपाओ किसी को नज़र नहीं आओ सबको दुश्मन समझो हाथ से हाथ नहीं मिलाओ दूर होकर उसको दूर भगाओ। ये कोई नहीं बता सकता है सरकारी रोज़ बदलते आदेश किस काम आये मुमकिन है जिनको कोरोना से बचाया जा सकता था नहीं बचे क्योंकि बचाने वाले सैनिक अपनी जान को खतरे में नहीं डालना चाहते थे उनको छूना तक नहीं जांच और उपचार कैसे संभव है आडंबर किया जाता है। जिनको पैसा और शोहरत अधिक महत्वपूर्ण लगते हैं उनको फ़र्ज़ की खातिर जान जोखिम में डालना कैसे मंज़ूर होगा। भगवान जानता होगा अगर कोई भगवान वास्तव में कहीं है कि कितने रोगी किसी और रोग से पीड़ित थे मगर कोरोना के नाम पर बलि चढ़ा दी गई। जब दवा ईलाज वैक्सीन तक सब जगह वास्तविक उपयोग से अधिक महत्व अन्य बातों पर विचार किया जाए और सरकार कंपनी तक इसको खेल समझने का अपराध करते हैं तब नतीजा क्या होगा। 
 
  जो लोग किसी राजनेता को कोई लड़ाई हारने का दोषी बताते रहे खुद उसी दुश्मन की चाल में फंसकर अपनी साख को दांव पर लगाते रहे। जिस समय दुश्मन दोस्ती की आड़ में पीठ में छुरा घोंपता है तब लापरवाही कह सकते हैं मगर जब वही दुश्मन फिर से आपके साथ उसी बात को दोहराता है तब हम मूर्ख साबित होते हैं। सरकार टीवी सोशल मीडिया स्वास्थ्य विभाग ने साल में कोरोना से जंग लड़ने का शोर किया है लड़ने की तैयारी नहीं की बस टोटके आज़माते रहे और केवल अपने बचने के रस्ते ढूंढते रहे। 130 करोड़ जनता की जान से अधिक उनको सत्ता चुनाव और धर्म के नाम पर भीड़ जमा कर अपनी नासमझी से हालत बिगाड़ने का काम किया है। असली जंग का मैदान छोड़कर ये सभी खुद को जो बन नहीं सकते होने कहलाने की कोशिश करते रहे। क्या ऐसे नेताओं और सरकारों के आपराधिक आचरण की अनदेखी की जा सकती है। अस्पताल श्मशानघाट सभी शहर गांव उनकी नाकामी और विवेकहीनता विचारहीनता की मिसालें सामने देख रहे हैं। अंधी पीसे कुत्ता खाये यही हो रहा है क्या अपने इस से बदतर हालात पहले कभी देखे हैं। 

 

अप्रैल 15, 2021

POST : 1484 अथ: कोरोना कथा : सुनसान हैं सारे तीरथ नदियां सारी ( दिलकश नज़ारा ) डॉ लोक सेतिया

सुनसान हैं सारे तीरथ नदियां सारी ( दिलकश नज़ारा ) डॉ लोक सेतिया 

दुनिया भरके तमाम लोग जीवन भर घूमते रहे जिसकी मिलन की दर्शन की आस लिए नदियां पर्वत तीरथ कभी उसको कभी इसको विधाता समझ कर उसको छोड़ और जाने क्या क्या देखा। प्यास बढ़ती गई इक बूंद पीने को नहीं मिली उस प्यार के अथाह सागर से। ज़िंदगी कब गुज़री मौत सामने खड़ी दिखाई दी तब समझे व्यर्थ भटकते रहे हासिल क्या हुआ। पाप धुले नहीं दर्द मिटे नहीं राहत का कोई एहसास हुआ नहीं। जो खुद हमारे भीतर रहता है कस्तूरी मृग की तरह हम भागते रहे दुनिया भर में उसके पीछे और पाया नहीं अंदर झांका नहीं कभी। आसान था मुश्किल बना दिया मन आत्मा परमात्मा का संबंध बनाना। अंतिम घड़ी तक बाहरी शोर तमाशे को समझते रहे सच है और सच अपने अंदर मरता रहा कभी पहचाना नहीं सत्य ईश्वर को। बोध किया नहीं बुद्ध को पढ़ते रहे दुनिया को जाना खुद को जानना भूल गए।  
 
पावन नदी तालाब और बड़े बड़े आलीशान भवन जिन में तमाम धर्म के ईश्वर देवी देवता खुदा अल्लाह वाहेगुरु जीसस का नाम लिखा है सुनसान नज़र आते हैं। ऊपर किसी आसमान पर बैठा भगवान सोच रहा है कैसे ये करिश्मा हो गया है। शायद लोगों ने पाप करना छोड़ दिया है तभी पाप धोने को पावन नदी में नहाने की ज़रूरत नहीं रही और खुदा से ईश्वर से जीसस वाहेगुरु से हाथ जोड़ मांगने की आदत छोड़ दी खुद कोशिश महनत से काबलियत से जितना हासिल कर सकते हैं उसको पाकर संतुष्ट रहने लगे हैं। इंसान को अपनी ताकत और समझ पर यकीन हो गया है किसी भी भगवान की कोई ज़रूरत ही नहीं रही है। सभी ईश्वर खुदा भगवान अल्लाह यीशु एक ही हैं और अपने बनाये इंसान को अपने खुद बनाये धर्म के जाल से मुक्त हुआ देख कर सभी चिंताओं से मुक्त होकर चैन महसूस करते हैं। 
 
दुनिया बनाने वाले ने इंसान बनाया था और सब कुछ दिया था जीवन बिताने रहने को। बस यही एक दुनिया बनाई थी मगर आदमी को जाने किसलिए क्या क्या हासिल करने की तलाश करने की चाह ने भटकाया इधर उधर और सपनों को सच करने को जो मिला था उसकी कीमत नहीं समझ कर उसको दांव पर लगा दिया। विकास और आधुनिकता के जुआघर में जीतने की धुन में हार का जश्न मनाते सदियां बिता दी इंसान इंसानियत को गंवाकर शराफ़त ईमानदारी छोड़कर ज़मीन पर रहना त्याग ऊपर चांद सूरज आकाश को पाने का लोभ लालच करते करते विनाश की तरफ बढ़ता गया। बेबस होकर झूठे सहारे ढूंढने लगा और नदी तालाब धर्म स्थल जा जाकर वास्तविक उजाले की जगह घने अंधकार और काल्पनिक स्वर्ग-नर्क अंधविश्वास में फंसकर खुद अपने साये से ख़ौफ़ खाने लगा। 

शिक्षा विज्ञान और तर्क शक्ति पर कायरता आडंबर अंधविश्वास अधिक भारी पड़े और समझदारी छोड़ मूर्खताओं की तरफ बढ़ता गया। आखिर इक ऐसा रोग फैला जिस ने दुनिया को विवश कर दिया ये समझने को कि कुदरत से खिलवाड़ कर विकास का आधुनिक ढंग कितना खतरनाक है। और जब सामने इक छोटा सा कीटाणु दैत्याकार खड़ा अट्हास करने लगा और कोई धर्म कोई ईश्वर कोई स्नान कोई दर्शन कोई धार्मिक आडंबर किसी काम नहीं आया करोड़ों लोग उपसना आरती ईबादत करते करते थक गए मगर समस्या मिटाने ये तथाकथित शक्तिमान उपयोगी साबित नहीं हुए तब जाकर इंसान की अक़्ल ठिकाने आई और उसको खुद अपने भरोसे जीने और अपनी दुनिया को वास्तव में अच्छी और रहने के काबिल बनाने को निर्णय करना पड़ा कि जो भगवान जो ख़ुदा अल्लाह जीसस देवी देवता इंसान की रक्षा करने उसको बचाने नहीं आया उसको कब तक मनाते रहें। जो सामने खड़ा है उसी दैत्य को मनाना उसकी मिन्नत करना शायद कारगर हो इस लिए सभी दिन रात उसी के नाम उसके गुणगान करने में लगे हैं। भगवान का बुलावा कभी भी आ सकता है ये बात झूठी साबित हुई है बस इक वायरस का साया हर जगह दिखाई देता है उसी से उस से बचाव की तरकीब पूछते हैं। 
 

                          अथ: कोरोना कथा

 


अप्रैल 13, 2021

POST : 1483 उलझन सुलझती नहीं उलझाने से ( भगवान से इंसान तक ) डॉ लोक सेतिया

     उलझन सुलझती नहीं उलझाने से ( भगवान से इंसान तक ) 

                                    डॉ लोक सेतिया 

        कौन बड़ा है भगवान या मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे।  हमने ईश्वर को सत्य में नहीं आडंबर में खोजा और बिना समझे बिना पाये ही पत्थर को किताब को इमारत को भगवान कहने लगे। किसी ने कहा तुमको ईश्वर से मिलवा सकता हूं और आप उसको ईश्वर से बड़ा समझने लगे और लोग भगवान को सामान बनाकर बेचने लगे। भगवान को इंसान क्या दे सकता है और भगवान को पैसा या कोई उपहार कुछ खाने को कपड़े गहने आरती पूजा ईबादत की अपने गुणगान की क्या ज़रूरत है क्या मिलता है ईश्वर को अपनी आराधना से ख़ुशी महसूस होती है नहीं उपासना करने से बुरा लगता है फिर वो भगवान कदापि नहीं हो सकता है। भगवान के इंसान के बनाये घरों में जाकर माथा टेकने उपसना आरती इबादत करने के बाद इंसान से झूठ छल कपट धोखा और स्वार्थ की खातिर तमाम अनुचित कार्य करते हैं और मानते हैं भगवान के भक्त उपासक हैं। इतना ही नहीं हम ईश्वर से हिसाब किताब रखते हैं लिया दिया बदले में क्या क्या। भगवान को बाज़ार समझ बैठे हैं। 
 
   संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहते हैं जिस में वो लोग बैठे हैं जिनको सत्ता के अधिकार और खुद अपने लिए तमाम साधन सुविधा चाहिएं जनसेवा के नाम पर चोरी ठगी लूट की जगह बना दिया। न्याय करने वाले न्याय का आदर नहीं अपने अनादर की चिंता करते हैं। न्यायालय में न्याय की हालत बदहाल है। कुछ नेताओं अधिकारी बने लोग कर्मचारी पुलिस सुरक्षा के लोग दफ़्तर में बैठ जनता को हड़काने वाले अपनी जेबें भरते लोग , कुछ धनवान बने लोगों और बाबा गुरु बनकर पैसा कमाने वाले लोगों ने इंसानियत को ताक पर रखकर कर्तव्य निभाने की जगह अनैतिक आमनवीय आचरण किया है। खुद नहीं जानते मगर आपको समझाते हैं ठग हैं साधु संत महात्मा बने हुए हैं।
 
स्कूल कॉलेज शिक्षक राह भटक कर शिक्षा का कारोबार कर अज्ञानता को बढ़ा रहे हैं। समाजसेवा कह कर अपने स्वार्थ सिद्ध करते हैं चालाक और मक्कार लोग और हम पापी अधर्मी अनुचित कार्य करने वालों को सर झुकाकर सलाम करते हैं और सच बोलने वालों को अपमानित करते हैं। कोरोना क्या है हम नहीं जानते उसका उपाय और रोकथाम को टीका बन गया फिर भी रोग नहीं होगा कोई  नहीं बताता बस यही भगवान सरकार धर्म उपदेशक सभी हैं कहने को भरोसा किसी का नहीं ज़रूरत और वक़्त पर सब बेकार साबित हुए हैं। हमारी नासमझी और मूर्खता कि हमने ऐसे पण्डित पादरी उपदेशक कथावाचक लोगों को ईश्वर से अधिक महत्व देना शुरू कर दिया और उनको धर्म भगवान के नाम पर उचित अनुचित जो मर्ज़ी करते रत्ती भर संकोच नहीं होता है। भगवान ये समझते हैं उनका बंधक बन गया है जिसको ये जैसे मर्ज़ी उपयोग कर सकते हैं। भगवान ने सबको बनाया है बताते हैं लेकिन समझते हैं ईश्वर को उन्होंने बनाया है उसको इनका आभारी होना चाहिए। 
 

 

अप्रैल 03, 2021

POST : 1482 दिखाने को पर्दा करते हैं ( कव्वाली ) डॉ लोक सेतिया

      दिखाने को पर्दा करते हैं ( कव्वाली ) डॉ लोक सेतिया 

हुस्न वाले जलवा अपना , 
दिखाने को पर्दा करते हैं 
 
समझना मत वो चेहरा 
छुपाने को पर्दा करते हैं । 
 
बस देख इक झलक कोई 
हो जाये आशिक़ दीवाना 
 
नज़रों से नज़र चुपके से 
मिलाने को पर्दा करते हैं । 
 
बनते हैं बेखबर तोड़कर 
दिल आशिकों का कितने 
 
बेवफ़ा अपनी बेवफ़ाई 
छिपाने को पर्दा करते हैं । 
 
दिल ही दिल खुश होते 
हुस्न की तारीफ सुनकर 
 
बुरा मानते शर्म हया को 
दिखाने को पर्दा करते है । 
 
जब बेपर्दा बाहर आये तो 
देखा न किसी ने उस दिन  
 
पर्दानशीं क्या बात उनकी 
समझाने को पर्दा करते हैं ।  
 
शोलों को और भड़काने 
आता है मज़ा सताने में  
 
दिलजलों की दिल्लगी 
बढ़ाने को पर्दा करते हैं । 
 
कौन कहता है हुस्न को 
छुपाने को पर्दा करते हैं 
 
चिलमन खुद उठाकर के 
गिराने को पर्दा करते हैं । 



 

POST : 1481 हम जो चाहत में आह भरते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हम जो चाहत में आह भरते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

हम जो चाहत में आह भरते हैं 
जैसे कोई गुनाह करते हैं । 
 
मार कर पत्थरों से अहले-जहां 
पेड़ से फल की चाह करते हैं । 
 
याद करके अतीत हम अपना 
अपनी रातें सियाह करते हैं । 
 
हमको उनसे नहीं गिला कोई 
दिल को हम खुद तबाह करते हैं । 
 
एक सहरा में हम- से दीवाने 
ख़्वाब में सैरगाह करते हैं ।  
 
सब मुसाफिर नये नई मंज़िल 
इक नई रोज़ राह करते हैं । 
 
कौन सुनता तुम्हें यहां "तनहा"
बस वो सुनकर के वाह करते हैं ।
 
 


अप्रैल 02, 2021

POST : 1480 सच की तिजारत करने वाले झूठ के पैरोकार लोग ( सोशल मीडिया ) डॉ लोक सेतिया

   छिपा है गंदगी का ढेर चमक- दमक के पीछे ( डरावना सच ) 

      सच की तिजारत करने वाले झूठ के पैरोकार लोग (  सोशल मीडिया ) डॉ लोक सेतिया

             पहले अपनी इक ग़ज़ल उसके बाद बात सच बेचने वालों की :-     
             
                     ग़ज़ल-   डॉ लोक सेतिया "तनहा"

वो जो कहते थे हमको कि सच बोलिये 
झूठ के साथ वो लोग खुद हो लिये। 
 
देखा कुछ ऐसा आगाज़ जो इश्क़ का 
सोच कर उसका अंजाम हम रो लिये। 
 
हम तो डर ही गये , मर गये सब के सब 
आप ज़िंदा तो हैं , अपने लब खोलिये। 
 
घर से बेघर हुए आप क्यों इस तरह 
राज़ आखिर है क्या ? क्या हुआ बोलिये। 
 
जुर्म उनके कभी भी न साबित हुए 
दाग़ जितने लगे इस तरह धो लिये। 
 
धर्म का नाम बदनाम होने लगा
हर जगह इस कदर ज़हर मत घोलिये।
 
महफ़िलें आप की , और "तनहा" हैं हम 
यूं न पलड़े में हल्का हमें तोलिये।
 
 बताने की ज़रूरत नहीं कि सबसे अधिक गंदगी उन्हीं के घरों में छिपी हुई है जो शानदार लिबास पहने चमकती रौशनी वाले महलों में बैठे मख़मली कालीन पर पांव रख कर चलते हैं। बड़ी बेशर्मी से ऊंची आवाज़ में सवाल करते हैं खुद जवाब नहीं देते कि उनका ज़मीर कितने में किस किस को कितनी बार बेचा है। ज़िंदा मुर्दा की ये मिसाल अलग है वो नहीं जिसको अस्पताल में डॉक्टर ने मरा घोषित किया था और वो बोल रहा था मुझ में जान बाकी है। ये वो नहीं हैं जिनमें थोड़ा ईमान बाकी है। ऊपर जाने की हसरत में कितना नीचे गिर गये ये टीवी चैनल अख़बार मीडिया वाले फिर भी इनका और भी उंचाई का अरमान बाकी है उन्होंने ज़मीन से नाता तोड़ लिया है और झूठ वाला आसमान बाकी है। कुछ लोग औरों की तकलीफ़ देखते हैं और रोमांच का आनंद का अनुभव करते हैं। जिस की हालत खराब हो उसकी तकलीफ़ नहीं समझते बल्कि सवालात करते हैं आपको कैसा महसूस हो रहा है। खबरची बनते मानवीय संवेदना छूट जाती है और इंसान मशीन बनकर बोलता चलता है टीवी वालों को आपराधिक कहानियां मनोरंजन के नाम पर परोसना अच्छा लगता है जानकारी देने को नहीं गुमराह करने के लिए। सवाल समाज का नहीं पैसे टीआरपी का है।
 
चलिये समझते हैं इनकी असलियत कोई पहेली नहीं है। बेईमानी झूठ लूट घोटाला अपराध से लेकर समाज में नग्नता और अश्लीलता के साथ नैतिकता के पतन को बढ़ावा देने के बाद खुद को सबसे महान आदर्शवादी घोषित करने का काम करते हैं। सरकारी विज्ञापन की लूट देश का ऐसा सबसे बड़ा घोटाला है जिस में देश का खज़ाना जनता की कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च होने की जगह इन मुट्ठी भर लोगों की तिजोरियां भरने में बर्बाद होता है और ऐसा 73 साल से नियमित होता रहा है जिसकी धनराशि बढ़ती बढ़ती दैत्याकार रूप ले चुकी है। ये लुटेरे मसीहाई की बात करते हैं चोर अधिकारी नेताओं से मिलकर डाका डालते सबसे बड़ा हिस्सा पाते हैं। 

इनके सीरियल से रियलटी शो और चर्चा तक नैतिकता की धज्जियां उड़ाते हैं हिंसा और अराजकता से लेकर जुआ अंधविश्वास और धार्मिक बैरभाव फैलाने का काम करते हैं। सच को छिपाते नहीं दफ्नाते हैं और झूठ को सच साबित करने को मनघडंत किस्से कहानी बनाकर दर्शक को उलझाते हैं। सच  का लेबल लगाकर झूठ को मनचाहे दाम बेचते हैं फिर भी सच के रखवाले कहलाते हैं। हर घटिया चीज़ को असली खरी और बढ़िया बताकर बिकवाते हैं ठगों चोरों से भाईचारा निभाते हैं। ये कमाल करते हैं उल्टी गंगा बहाते हैं और सत्ता की गंदगी के गंदे नाले को पाक साफ़ समझ उसमें डुबकी लगाते हैं। पाप और अधर्म की कमाई से गुलछर्रे उड़ाते हैं अपनी करनी पर कभी नहीं लजाते हैं हराम की खाकर शान से इतराते हैं। सदी के महानायक जिनको बनाते हैं वो पैसे को अपना भगवान समझते हैं मोह माया में फंसकर ज़हर को दवा कहकर धन दौलत बनाते हैं झूठ का इश्तिहार बन जाते हैं। खिलाड़ी नाम खेल से पाकर जुआ खेलने का रास्ता समझाते हैं। कलाकार खिलाड़ी बाबा बनकर लोग टीवी अखबार में धंधा बढ़ाते मालामाल हो जाते हैं। छोटे काम करते बड़े समझे जाते हैं। खबर ख़ास लोगों की सौ बार दोहराई जाती है उनकी सच्चाई नहीं सामने लाई जाती है। आवारगी उन लोगों की सच्ची मुहब्बत बताई जाती है। कितने कितने आशिक़ों से प्यार की पींगें झूलने वाली नायिका मल्लिका ए इश्क़ कहलाती है। शराफत खुद को गुनहगार समझती मगर गुनाह देख इनके ताली बजाती है।

हर गुनहगार से इनका मधुर नाता है आतंकवादी अपराधी क़ातिल हर कोई इनसे रिश्ता निभाता है। पास इनके सभी का बही खाता है बस इनका दाग़दार चेहरा कभी नहीं सामने नज़र आता है। मेकअप उनको सबसे खूबसूरत दिखलाता है। जो भी  टीवी चैनल अख़बार सोशल मीडिया का कारोबार चलाता है हर किसी को खराब बताकर खुद को सच्चा बतलाता है पर्दे पर नायक बनकर किरदार निभाता है। पीछे से सभी को अपनी उंगलियों पर नचाता  है। ये बंदर की तरह जनता का रक्षक बनकर उस्तरा उसी की गर्दन पर चलाता है। जनता की रोटी बिल्लियों में बांटने को ये सोशल मीडिया वाला बंदर तराज़ू बनकर खुद खाता जाता है। चौकीदार हुआ करता था पहले आजकल यारी चोरों से खूब निभाता है। सबसे बड़ा चोर यही है चोर - चोर का शोर भी मचाता है।

 

POST : 1479 वो जो कहते थे हमको कि सच बोलिये ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

         वो जो कहते थे हमको कि सच बोलिये ( ग़ज़ल ) 

                           डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

वो जो कहते थे हमको कि सच बोलिये 
झूठ के साथ वो लोग खुद हो लिये । 
 
देखा कुछ ऐसा आगाज़ जो इश्क़ का 
सोच कर उसका अंजाम हम रो लिये । 
 
हम तो डर ही गये , मर गये सब के सब 
आप ज़िंदा तो हैं , अपने लब खोलिये । 
 
घर से बेघर हुए आप क्यों इस तरह 
राज़ आखिर है क्या ? क्या हुआ बोलिये । 
 
जुर्म उनके कभी भी न साबित हुए 
दाग़ जितने लगे इस तरह धो लिये । 
 
धर्म का नाम बदनाम होने लगा 
हर जगह इस कदर ज़हर मत घोलिये ।
 
महफ़िलें आप की , और "तनहा" हैं हम 
यूं न पलड़े में हल्का हमें तोलिये । 
 

 

मार्च 31, 2021

POST : 1478 अजनबी लोगों में मुझको मेहरबां की तलाश है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया " तनहा "

       अजनबी लोगों में मुझको मेहरबां की तलाश है ( ग़ज़ल ) 

                            डॉ लोक सेतिया " तनहा " 

अजनबी लोगों में मुझको मेहरबां की तलाश है 
प्यार की दौलत हो जिस में उस जहां की तलाश है । 
 
छोड़ गलियां गांव की जो आ गया शहर भूल से 
खो गया है भीड़ में उस बदगुमां की तलाश है । 
 
दोस्तों को नाम लेकर कब बुलाते हैं दोस्त भी 
आईने जैसे किसी इक हमज़ुबां की तलाश है । 
 
कुछ मुसाफ़िर हैं जिन्हें खुद मंज़िलें ढूंढती रहीं 
और ऐसे लोग भी जिनको मकां की तलाश है । 
 
मौसमों से मिट गए हैं काफ़िलों के निशान तक 
पर सभी को आज तक उस कारवां की तलाश है । 
 
पूछती सब से सड़क की लाश बस ये सवाल है 
क़त्ल होना था हुआ क्योंकर निशां की तलाश है । 
 
गुफ़्तगू आवाम से करनी है "तनहा" निज़ाम ने 
दाद दे  हर बात पर उस बेज़ुबां की तलाश है । 



 
 
 
 
 

मार्च 27, 2021

POST : 1477 मुझे चलना पसंद है ठहरना नहीं ( मेरा परिचय ) डॉ लोक सेतिया

  मुझे चलना पसंद है ठहरना नहीं ( मेरा परिचय ) डॉ लोक सेतिया 

   कभी कभी खुद से अपने बारे चर्चा करता हूं। आत्मचिंतन कह सकते हैं। मुझमें रत्ती भर भी नफरत नहीं है किसी के लिए भी , उनके लिए भी प्यार हमदर्दी है जिनकी आलोचना करना पड़ती है सच कहने को। कोई व्यक्तिगत भावना दोस्ती की न विरोध की मन में रहती है। कुछ अधिक नहीं पढ़ा है मैंने जीवन को जाना समझा है और उसी से सीखा है। किताबों से जितना मिला समझने की कोशिश की है विवेचना की है। बहुत थोड़ा पढ़ा है शायद लिखा उस से बढ़कर है विवेकशीलता का दामन कभी छोड़ा नहीं है और खुद को कभी मुकम्मल नहीं समझा है। क्यों है नहीं जानता पर इक प्यार का इंसानियत का भाईचारे का संवेदना का कोई सागर मेरे भीतर भरा हुआ है। बचपन में जिन दो लोगों से समझा जीवन का अर्थ मुमकिन है उन्हीं से मिला ये प्यार का अमृत कलश। मां और दादाजी से पाया है थोड़ा बहुत उन में भरा हुआ था कितना प्यार अपनापन और सदभावना का अथाह समंदर। दुनिया ने मुझे हर रोज़ ज़हर दिया पीने को और पीकर भी मुझ पर विष का कोई असर हुआ नहीं मेरे भीतर के अमृत से ज़हर भी अमृत होता गया। और जिनको मैंने प्यार का मधुर अमृत कलश भर कर दिया उनके भीतर जाने पर उनके अंदर के विष से वो भी अपना असर खो बैठा। 

  मेरी कोई मंज़िल नहीं है कुछ हासिल नहीं करना है मुझे लगता है मेरे जीवन का मकसद यही है बिना किसी से दोस्ती दुश्मनी समाज और देश की वास्तविकता को सामने रखना। समाज का आईना बनकर जीना। भौतिक वस्तुओं की चाहत नहीं रही अधिक बस जीवन यापन को ज़रूरी पास हो इतना बहुत है। सुःख दुःख ज़िंदगी के हिस्सा हैं कितने रंग हैं बेरंग ज़िंदगी की चाह करना या सब गुलाबी फूल खुशबू और सदाबहार मौसम किसी को मिले भी तो उसकी कीमत नहीं समझ आएगी। हंसना रोना खोना पाना ये कुदरत का सिलसिला है चलता रहता है। लोग मिलते हैं बिछुड़ते हैं राह बदलती हैं कारवां बनते बिगड़ते हैं हमको आगे बढ़ना होता है कोई भी पल जाता है फिर लौटकर वापस नहीं आता है ये स्वीकार करना होता है। जो कल बीता उनको लेकर चिंता करने से क्या होगा और भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है नहीं मालूम फिर जो पल आज है अभी है उसी को अपनाना है जीना है सार्थक जीवन बनाने को। कितने वर्ष की ज़िंदगी का कोई हासिल नहीं है जितनी मिली उसको कितना जीया ये ज़रूरी है। 

    लोगों से अच्छे खराब होने का प्रमाणपत्र नहीं चाहता हूं खुद अपनी नज़र में अपने को आंखे मिलाकर देख पाऊं तो बड़ी बात है। मगर यही कठिन है। मैली चादर है चुनरी में दाग़ है और अपना मन जानता है क्या हूं क्या होने का दम भरता हूं। वास्तविक उलझन भगवान से जाकर सामना करने की नहीं हैं अपने आप से मन से अंतरात्मा से नज़र मिलाने की बात महत्वपूर्ण है। और अब यही कर रहा हूं। मैंने खुद को कभी भी बड़ा नहीं समझा है बल्कि बचपन से जवानी तक कुछ हद तक हीनभावना का शिकार रहा हूं। कारण कभी मुझे समझ नहीं आया क्यों हर किसी ने मुझे छोटा होने अपने बड़ा होने और नीचा दिखाने की कोशिश की है। बहुत कम लोग मिले हैं जिन्होंने मेरे साथ आदर प्यार का व्यवहार किया है। जाने कैसे मैंने अपना साहस खोया नहीं और भीतर से टूटने से बचाये रखा खुद को। मुझे कभी किसी ने बढ़ावा देने साहस बढ़ाने को शायद इक शब्द भी नहीं कहा होगा हां मुझे नाकाबिल बताने वाले तमाम लोग थे। मुझे किसी को नीचा दिखाना किसी का तिरस्कार करना नहीं आया और नफरत मेरे अंदर कभी किसी के लिए नहीं रही है। ऐसा दोस्त कोई नहीं मिला जो मुझे अपना समझता मुझे जानता पहचानता और साथ देता। अकेला चलना कठिन था मगर चलता रहा रुका नहीं कभी भी।

    जब भी मुझे निराशा और परेशानी ने घेरा तब मुझे इस से बाहर निकलने को संगीत और लेखन ने ही बचाया और मज़बूत होना सिखाया है। अपनी सभी समस्याओं परेशानियों का समाधान मुझे ग़ज़ल गीत किताब पढ़ने से हासिल हुआ है। इंसान हूं दुःख दर्द से घबराता भी रहा मगर जाने क्यों अपने ग़म भी मुझे अच्छे लगते रहे हैं ग़म से भागना नहीं चाहा ग़म से भी रिश्ता निभाया है। ग़म को मैंने दौलत समझ कर अपने पास छिपाकर रखा है हर किसी अपने ग़म बताये नहीं। इक कमज़ोरी है आंसू छलक आते हैं ज़रा सी बात पर हर जगह मुस्कुराना क्या ज़रूरी है कभी ऐसा हुआ कि हंसने की कोशिश में पलकें भीग जाती हैं। अपने आप को पहचानता हूं और अब तन्हाई अकेलापन मुझे अच्छा लगता है उन महफिलों से जिन में हर कोई अपने चेहरे पर सच्चाई भलेमानस की नकाब लगाए इस ताक में रहता है कि कब अवसर मिले और अपनी असलियत दिखला दे। ये दुनिया और उसकी रौनक मुझे अपनी नहीं लगती हैं। 
 

 

POST : 1400 खुद को आईने में देखना ( आत्म-अवलोकन ) डॉ लोक सेतिया

     खुद को आईने में देखना ( आत्म-अवलोकन ) डॉ लोक सेतिया 

  लोग अपनी पुस्तक के पहले पन्ने पर अपने बारे में लेखन और किताब की बात कहते हैं। मुझे लिखते हुए चालीस साल और अख़बार मैगज़ीन में रचनाएं छपते तीस साल से अधिक समय हो चुका है। ब्लॉग पर 1500 से अधिक पोस्ट हैं , दस साल से नियमित लिख रहा हूं और 250000  संख्या अभी  तक सभी पोस्ट की पढ़ने वालों की है। किताब छपवाने की हसरत है और काफी रचनाओं का चयन ग़ज़ल , कविता-नज़्म , व्यंग्य , कहानी , हास-परिहास की रचनाओं पांच हिस्सों में किया गया है जो इसी ब्लॉग पर लेबल से समझ सकते हैं। डायरी पर रचनाओं की फ़ाइल में दो पन्नों पर अपने लेखन को लेकर लिखा हुआ है जिसे किसी लेखक दोस्त की कैसे होते हैं साहित्यकार नाम की किताब में और कुछ अन्य साहित्य संबंधी मैगज़ीन में भी छापा गया है। शायद समय है कि ब्लॉग के पाठक वर्ग को भी अपना परिचय लेखक के बारे दिया जाना उचित है। 
 
     मेरा जन्म ऐसे परिवार में हुआ जिस में साहित्य या शिक्षा का कोई महत्व नहीं था। गांव के थोड़े पढ़े लिखे और किसान खेतीबाड़ी ठेकेदारी करने वाले बड़े बज़ुर्ग धार्मिक माहौल माता जी सादगी की मिसाल और भजन गाने में रूचि का तथा दादाजी का भगवद कथा अदि सुनने का असर शायद मुझे इस तरफ लाने की शुरुआत थी। पढ़ाई विज्ञान की फिर डॉक्टर बनने की शिक्षा का साहित्य से कोई तालमेल नहीं था। सच कहना है तो मुझे संगीत और गाने का बहुत चाव था जिसे परिवार में खासकर पिता जी पसंद नहीं करते थे उनको ये गाना बजाना मिरासी लोगों की बात लगती थी। 
 
   लिखना डायरी से शुरू किया अपने मन की बात किसी से कहना नहीं आता था खुद अपनी बात अपने साथ करना आदत बन गया। जैसे कोई डरकर चोरी छुपे इक अपराध करता है मैंने अपना लेखन इसी ढंग से किया है मुझे हतोत्साहित करने वाले तमाम लोग थे बढ़ावा देने पीठ थपथपाने वाला कोई भी नहीं। इसलिए मुझे सभी पढ़ने वालों से ये कहना ज़रूरी लगता है कि पढ़ते हुए इस अंतर को अवश्य ध्यान रखना। आपको शायद ये फर्क इस तरह समझ आ सकता है। जैसे कोई इक पौधा किसी रेगिस्तान में उग जाता है जिसे राह चलते कदम कुचलते रहते हैं आंधी तूफान झेलता है कोई जानवर उखाड़ता है खाता है मिटाता है मगर फिर बार बार वो पौधा पनपने लगता है। कुछ लोग जिनको साहित्यिक माहौल और मार्गदर्शन मिलता है बढ़ावा देते हैं जिनको उनके आस पास के लोग , वे ऐसे पौधे होते हैं जिनको कोई माली सींचता है खाद पानी देता है उसकी सुरक्षा को बाड़ लगाता है ऊंचा फलदार पेड़ बन जाते हैं। मेरा बौनापन और उनका ऊंचा कद दोनों को मिले माहौल से है इसलिए मेरी तुलना उनसे नहीं करना। 
 
    मैंने साहित्य पढ़ा भी बहुत कम है कुछ किताबें गिनती की और नियमित कई साल तक हिंदी के अख़बार के संपादकीय पन्ने और कुछ मैगज़ीन पढ़ने से समझा है अधिकांश खुद ज़िंदगी की किताब से पढ़ा समझा है। केवल ग़ज़ल के बारे खतोकिताबत से इसलाह मिली है कोई दो साल तक आर पी महरिष जी से। ग़ज़ल से इश्क़ है व्यंग्य सामाजिक विसंगतियों और आडंबर की बातों से चिंतन मनन के कारण लिखने पड़े हैं। कहानियां ज़िंदगी की सच्चाई है और कविताएं मन की गहराई की भावना को अभिव्यक्त करने का माध्यम। लिखना मेरे लिए ज़िंदा रहने को सांस लेने जैसा है बिना लिखे जीना संभव ही नहीं है। लिखना मेरा जूनून है मेरी ज़रूरत भी है और मैंने इसको ईबादत की तरह समझा है। 
 

 
 
 
 
 
 
 
 

मार्च 08, 2021

POST : 1476 संबंध लाल-कालीन का कंटीली राह से ( आईन की बात ) डॉ लोक सेतिया

    संबंध लाल-कालीन का कंटीली राह से ( आईन की बात ) 

                                डॉ लोक सेतिया 

संविधान को कहते हैं आईन जिसे घोषित किया गया है कि हम भारत के लोग इसको अपनाते हैं स्वीकार करते हैं मंज़ूर है। शायद सभी ने पढ़ा तक नहीं बिना पढ़े पढ़े लिखे लोगों ने हस्ताक्षर कर दिए अनपढ़ लोग अंगूठा लगाने को तैयार थे फिर भी मुमकिन नहीं कि इस में ऐसा समझाया गया होगा कि सरकार और जनता का रिश्ता लाल-कालीन का कंटीली राह से संबंध जैसा होगा। भला इस से बढ़कर चिंताजनक दशा क्या हो सकती है कि चुनकर सत्ता पर बिठाने वाले भूखे नंगे बदहाल हैं और जनता की सेवा का वादा करने वाले राजसी शान से ऐशो आराम का मज़ा लूटते राजा बनकर अय्याशी भरा जीवन जीते हैं। विडंबना की बात है संसद विधानसभाओं राजभवन सचिवालय से न्यायलय तक हर कोई देश के गरीबों के खून पसीने की कमाई पर मौज मनाते हुए समझता है ये आज़ादी है उनको मिला अधिकार है। जबकि वास्तव में ये सभी अपना अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाने में असफल ही नहीं हुए और नाकाबिल ही साबित नहीं हुए बल्कि इनका ज़मीर मर चुका है अन्यथा इन सभी को शर्म आती बिना कर्तव्य निभाए मनमर्ज़ी का वेतन सुविधाएं हासिल करने नहीं छीनने के लिए। देशभक्ति जनता की सेवा जनकल्याण की भावना जैसे शब्द इनके लिए कोई अर्थ नहीं रखते हैं इन्होने ऐसे शब्दों को अपने अपकर्म और कर्तव्यविमुख होने को ढकने का आवरण या मुखौटा बना रखा है। जिस देश की आधी आबादी को बुनियादी सुविधाएं जीने की उपलब्ध नहीं उस का शासन चलाने वालों का देश के ख़ज़ाने को अनावश्यक फज़ूल खर्चों पर बर्बाद करना अनुचित अमानवीय और अपराध ही नहीं सबसे बढ़कर अधर्म एवं पाप है। शपथ उठाने का कोई मतलब नहीं रह जाता है जब उठाने वाले की भावना ईमानदारी पूर्वक उस पर खरे उतरने की नहीं होकर केवल औपचरिकता हो पद और सत्ता पर काबिज़ होने को तोते की तरह कही बात को दोहराना। 
 
    आज़ादी के 73 साल बाद बहुत कुछ किया जाना संभव था जो किया नहीं किया बल्कि जो नहीं किया जाना चाहिए था वही निर्लज्जता पूर्वक डंके की चोट पर किया गया विकास के नाम पर सिर्फ ख़ास वर्ग को सभी कुछ उपलब्ध करवाने को। और अधिकांश सामान्य वर्ग को कुछ भी नहीं खोखले वायदे झूठे आंकड़े और उनको ऐसे जाल में फंसाना जिस में लोग गुलामी को भी सत्ता और सरकार की अनुकंपा समझने लगें। आज महिला दिवस है और हम महिलाओं को समानता के अधिकार और आदर मिलने की पैरवी करते हैं लेकिन क्या शासक वर्ग धनवान लोग और देश के एक चौथाई अमीर वो लोग जिनके पास पैसा दौलत का 75 फीसदी से अधिक है उनका बाकी जनता से बड़ा अंतर सबको सब बराबर नहीं मिलने का वास्तविक कारण सरकार की भेदभाव पूर्ण व्यवस्था नहीं है जो गरीब का शोषण और अमीर को और अमीर बनाने की नीतियों पर चल रही है। गांधी जी की सोच और समाजवाद की अवधारणा को दरकिनार कर पूंजीवादी व्यवस्था का नतीजा देश कंगाली के कगार पर खड़ा है। जिनको देश और समाज की समस्याओं का समाधान निकालना चाहिए था वही खुद सबसे विकराल समस्या बनकर सामने खड़े हैं और उन्होंने चालाकी और छलपूर्वक जनता को उस भंवर में ला दिया है जब कोई विकल्प सामने नहीं दिखाई देता है। जो कश्ती को खेवनहार बनकर पतवार थामकर पार लगाने की बात कहकर चले थे हमको डुबोने का काम कर रहे हैं खुद अपने लिए सुरक्षित बचने के उपाय पहले किए हैं। 
 
  अब हमारे पास बस एक ही रास्ता है ऐसे माझी पर भरोसा करना छोड़ खुद अपने साहस से इन मौजों से टकराना और तैर का पार करना हौंसलों के दम पर। इतिहास गवाह है मखमली बिस्तर पर चैन से सोने वाले ऊंचे महलों में फूलों पर चलने वाले कंटीली राह पर चलने वालों झौंपड़ी में रहने वालों पर कभी रहम नहीं किया करते हैं। उनको मसीहा समझना सबसे बड़ी भूल होती है जिनको सत्ता की हवस होती है बेरहम बन जाते हैं। मगरमच्छ के आंसू गिरगिट की तरह रंग बदलना उनकी फितरत है उनका भरोसा नहीं किया जा सकता है। जिन के शासन में कहा जाता है कि उनके राज में सूर्य कभी अस्त नहीं होता उनको उनकी हैसियत समझा सकते हैं तो ये मुट्ठी भर लोग जो बिना शासकीय अधिकार किसी काम के नहीं देश की जनता के बहुमत के सामने कब तक टिक सकेंगे। अब तलक संविधान को राजनेताओं ने अपने अनुसार स्वार्थ सिद्ध करने को परिभाषित किया और दुरूपयोग किया है अब समय आ गया है उनको संविधान की भावना समझाने और उनकी वास्तविक जगह शासक नहीं जनसेवक है दिखलाने का। 
 
आज हमारे देश और समाज में नैतिकता सच्चाई ईमानदारी खोखले शब्द बन कर रह गए हैं वास्तव में इनका कोई महत्व कोई मूल्य रह नहीं गया है। डॉक्टर शिक्षक स्कूल अस्पताल क्या धर्म उपदेशक तक अपने वास्तविक कर्म से अधिक ध्यान अपने स्वार्थ और धन दौलत हासिल करने पर देते हैं। ऊंचे पद पर बैठ कर मापदंड निम्न स्तर के दिखाई देते हैं। सरकारी कर्मचारी अच्छा वेतन पाकर भी ईमानदारी से कर्तव्य नहीं निभाते हैं। पुलिस अपराध मिटाने पर नहीं अपराध को बढ़ाने पर ध्यान देती है हर कोई अपने मतलब की खातिर दूसरे को धोखा देने को अनुचित नहीं समझता है। जो जिस व्यौपार धंधे कारोबार में है मुनाफा कमाने को सब कुछ करता है। मिलावट ही नहीं ज़हर तक बेचते हैं पैसे की खातिर आसानी से धनवान बनने को लोग। भगवान से कोई भी डरता नहीं है शायद सभी समझते हैं उनके अपकर्मों का हिसाब कोई नहीं करने वाला है। सोचा समझा जाये तो हम मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे गिरिजाघर जाते हैं दिखावे को आडंबर करने को क्योंकि वास्तविक जीवन में हमने धर्म की राह चलना छोड़ दिया है। शायद हमने ईश्वर और धर्म को भी लेन देन का कारोबार समझ लिया है और समझते हैं वहां भी रिश्वत चाटुकारिता चढ़ावे गुणगान आरती से बात बन जाएगी। अर्थात हमने भगवान को भी अपने जैसा मान लिया है जो खुश हो जाएगा उपहार पाकर या स्तुति सुनकर मतलब ये कि हमने भगवान ईश्वर को भी समझा तक नहीं है।  
 
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मार्च 07, 2021

POST : 1475 गांव का अपना सब मकां ढूंढते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

गांव का अपना सब मकां ढूंढते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

गांव का अपना सब मकां ढूंढते हैं 
गर्मियों की फिर छुट्टियां ढूंढते हैं । 
 
देख कर शायद उनको पहचान लेंगे 
पांव के बाक़ी कुछ निशां ढूंढते हैं । 
 
ख़्वाब सारे इक दिन तो होंगे ही पूरे 
उम्र भर हम ऐसे  गुमां ढूंढते हैं । 
 
हो गई धुंधली अब नज़र जब हमारी 
फिर पुराना हम कारवां ढूंढते हैं । 
 
आग नफरत की जल रही हर तरफ है 
प्यार वाली सब दास्तां ढूंढते हैं । 
 
अब कहां होते लोग पहले के जैसे 
हम उन्हीं जैसे रहनुमां ढूंढते हैं । 
 
अजनबी दुनिया बेरहम लोग सारे
और हम "तनहा" मेहरबां ढूंढते हैं ।
 

 
 

मार्च 02, 2021

POST : 1474 संवाद विवाह से पहले शादी के बाद ( वार्तालाप ) डॉ लोक सेतिया

 संवाद विवाह से पहले शादी के बाद ( वार्तालाप ) डॉ लोक सेतिया 

      बात घर घर की है जानते हम भी हैं समझते आप भी हैं मानते नहीं ज़माने से छिपाते हैं। पत्नी समझ नहीं पाई बड़ी हैरान है पति किस बात को लेकर परेशान है। बोली अपने नेता जी आपको क्यों भला खराब लगते हैं हमको बड़े लाजवाब लगते हैं उनके रंग ढंग सज धज देखते हैं सभी सच कहो वही असली नवाब लगते हैं। पति कहने लगे कितने झूठे हैं क्या क्या वादे किये थे नहीं निभाए हैं। पत्नी ने समझाया आप समझ नहीं पाये हैं अच्छे दिन उनके खूब आये हैं। वादे क्या आपने मुझसे  निभाए हैं चांद तारे तोड़ कर लाये हैं आपसे अच्छे हैं जो पत्नी को अकेली छोड़ आये हैं खुद कमाती है चैन से रहती है अपनी असलियत समझा आये हैं। नाज़ नखरे नहीं उठाये हैं इतनी सी बात है सितम जीवन भर नहीं ढाये हैं। कहा हमने आत्मनिर्भरता की किताब खुद नहीं पढ़ते जो लोग सबको सबक समझाते हैं। उनकी पढ़ाई में महनतकश लोग परजीवी कहलाते हैं। ये कैसे लोग हैं जो जिनके कांधे पर चढ़कर ऊपर पहुंचे उन्हीं को किनारे लगाते हैं। एहसानों का बदला क्या इसी तरह चुकाते हैं। पत्नी को बहस में कोई नहीं हरा सकता है बोली कोई सच सच बता सकता है , आप सभी पति खुद को गुलाम कहते रहते हैं ज़िंदगी भर शिकवा करते हैं छोड़ते हैं न पत्नी को छोड़ने देते हैं। आपको ज़माने की खबर नहीं है शान उनकी है जिन पर किसी बात का होता असर नहीं है। मुझे अध्यापिका जी ने कहानी सुनाई थी शादी की बात समझाई थी मैं सुनकर शर्माई थी हो चुकी अपनी सगाई थी पीछे कुंवां था सामने खाई थी। मत पूछो राम दुहाई थी जब मिलती मुझे बधाई थी मुसीबत सर पर खड़ी थी बजने लगी शहनाई थी। 
 
    शादी इक झमेला है असल में हर कोई अकेला है दुनिया क्या है इक मेला है मेले में खेल तमाशा होता है खेल जिसने खेला है बस वही अलबेला है। खेलने वाले होते खिलाड़ी हैं हम सभी तमाशाई हैं अनाड़ी हैं। तमाशे में खेल घड़ी भर होता है खेल ख़त्म पैसा हज़्म ये मनोरंजन कहलाता है , उनसे खूबसूरत खेल तमाशे रोज़ नहीं कोई दूसरा दिखलाता है। समझदार वही कहलाता है जो कुछ भी नहीं करता मौज मनाता है यार दोस्तों से यारी निभाता है उसका कोई नहीं बही खाता है। बस वो सभी का हिसाब बताता है अपना हिसाब कभी नहीं बताता है। उल्लू बनाना हुनर नहीं सभी को आता है। कोई बच्चा मिट्टी के खिलौने बनाता है कोई बाज़ार से खिलौने खरीद लाता है जो बच्चा दोनों से खिलौने छीन कर खेलने के बाद दिल भर जाए तोड़ डालता है दबंग कहलाता है। भविष्य में बड़ा होकर नेता बनकर राज चलाता है। ज़िंदगी का असली मज़ा वही उठाता है जो मैं चाहे ये करूं मैं चाहे वो करूं मेरी मर्ज़ी गाकर सबको चिढ़ाता है। नानी ने मुझे समझाया था नारी और पुरुष का अंतर बताया था। महिला पत्नी बनकर सुई से भी घर बना सकती है जिसको पति पुरुष होकर भी कस्सी से भी गिरा नहीं सकता है। मगर अविवाहित जो मिल जाये उसी से काम चलाता है वो किसी बात से नहीं घबराता है। लेकिन जो विवाहित होकर अकेला रहता है कुंवारा नहीं न शादीशुदा कहलाता है बीच में लटका मझधार में नैया लाकर डुबाता है उसको बर्बाद करने का बड़ा मज़ा आता है। शादी वाला लड्डू खाने वाला भी और बिना खाये भी हर शख़्स पछताता है बस कोई कोई इस हाथ लड्डू उस हाथ रस्सगुल्ला लेकर बहती गंगा में डुबकी लगाता है। चार दिन में विवाहित होने का अर्थ समझ कर भाग जाता है। जिसको गुलाम बनाना आता है आज़ाद पंछी पिंजरा छोड़ जाता है। 
 
 सभी विवाहित महिला पुरुष बंद पिंजरे के वासी हैं दिल चाहता है तोड़ कर पिंजरा उड़ने को मगर हिम्मत नहीं जुटाते हैं। पिंजरे से प्यार करने लग जाते हैं बाहर निकलने से डरते हैं घबराते हैं नसीब वालों को सोने का पिंजरा मिलता है मिट्ठू मिंयां समझाते हैं। पति पत्नी लड़ते हैं झगड़ते हैं फिर मिल जाते हैं जिसको सबसे खराब समझते हैं प्यार उसी पर लुटाते हैं। प्यार मुहब्बत इसी को कहते हैं रूठते हैं मनाते हैं मान जाते हैं रिश्ता निभाना है निभाते हैं। साथ साथ रहकर दोस्ती और दुश्मनी दोनों निभाते हैं। आपसे अच्छा कोई दुनिया में नहीं बहुत खराब हैं आप दुविधा को इस तरह बढ़ाते हैं। उनको भूला हुआ नहीं कहते हैं जो सुबह घर से जाते शाम ढले लौट आते हैं। चलो इक गीत सुनते हैं वार्तालाप को विराम लगाते हैं। 
 

 
 
     

फ़रवरी 18, 2021

POST : 1473 उनकी दी सज़ा है प्यार का मज़ा है ( हास्य-व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

 उनकी दी सज़ा है प्यार का मज़ा है ( हास्य-व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

ये आशिक़ी है प्यार है वफ़ा है उनके हर सितम को करम समझना कभी नहीं थमता ये वो सिलसिला है। चलो इक ग़ज़ल से शुरुआत करते हैं। 
 

                              ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया " तनहा "

 
हमको जीने की दुआ देने लगे
आप ये कैसी सज़ा देने लगे।

दर्द दुनिया को दिखाये थे कभी
दर्द बढ़ने की दवा देने लगे।

लोग आये थे बुझाने को मगर
आग को फिर हैं हवा देने लगे।

अब नहीं उनसे रहा कोई गिला
अब सितम उनके मज़ा देने लगे।

साथ रहते थे मगर देखा नहीं
दूर से अब हैं सदा देने लगे।

प्यार का कोई सबक आता नहीं
बेवफा को हैं वफ़ा देने लगे।

कल तलक मुझ से सभी अनजान थे
अब मुझे मेरा पता देने लगे।

मांगता था मौत "तनहा" रात दिन
जब लगा जीने , कज़ा देने लगे।  
 
समझ गये ये उन्हीं की बात है जो कहते हैं तुम नासमझ हो नादान हो नहीं जानती तुम्हारी भलाई इसी में है। धर्म कहता है पति के आदेश का पालन पत्नी का धर्म होता है शासक की बात मानना जनता का कर्तव्य होता है। सवालात नहीं कर सकते भरोसा रखते हैं उन्होंने बुरा भला कहा लाठी डंडे से पिटाई की तो उनका अधिकार है जैसा उनको पसंद है वही करने को विवश करना अगर नहीं मानते तो मनवाना अपने तरीके से। यही सबक हमने फ़िल्मी नायक से समझा है जिस पर आशिक़ होते हैं उसके साथ छेड़खानी करने से लेकर उसको परेशान करने तक मनमानी करते हैं उसको सताते हैं। बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं , आखिर जान छुड़ाने को नायिका कहती है मज़बूर हो कर कहना पड़ता है। होगा होगा होगा। हमारे समाज के युवाओं ने यही सबक सीखा समझा है अपनी हवस को मुहब्बत का नाम देकर शारीरिक संबंध को प्यार कहकर बदनाम किया है। सत्ता मिलते ही राजनेता खुद को देश की जनता का स्वामी समझने लगते हैं और जब कोई उनकी जीहज़ूरी छोड़ सवाल जवाब करने लगता है तब अहंकारी पति की तरह पत्नी को ठीक करने को कमीनी हरामज़ादी जैसे आभूषणों से नवाज़ते हैं। जनता और पत्नी का कोई आदर सम्मान नहीं होता है बस जब उनकी ज़रूरत पड़ती है दो मीठे बोल बोलते हैं खुश करने को उपहार देने की बात कहकर मना लेते हैं। 
 
आप बिना कारण छोटी छोटी बात का बुरा मान जाती हो समझती नहीं पति की मार में भी प्यार है। इधर महिलाएं भी अपना प्यार दिखाने को बहुत कुछ करने लगी हैं ये होना था मगर ऐसा होने पर समाज को अखरने लगी हैं। ज़माना बदल गया है तराना बदला गया है पति पत्नी का अफ़साना बदल गया है। आजकल पति गुलाम पत्नी महारानी हो गई है औरत तेरी यही कहानी आंचल में है दूध आंखों में पानी , पुरानी हो गई है। लेकिन सरकार पहले से भी स्यानी हो गई है बिल्ली थी जो कभी शेर की नानी हो गई है। सारी महफ़िल जिन अदाओं की दीवानी हो गई है उनकी हर इक अदा क़ातिलानी हो गई है। ज़ख़्म जनता के बदन पर उनकी मोहब्बत की मोहर है टैटू गोदना निशानी है सबूत है लिख दिया नाम जिसका उसको भगवान बना दिया है लिख कर नाम अपना रेत पर उसने मिटा दिया उसका खेल था खाक़ में हमको मिला दिया। सरकार बनकर नेताओं ने यही सिला दिया है वादा निभाना जब नहीं वादा भुला दिया है। आली जनाब हिसाब सबसे मांगते हैं हम उनसे वो किताब मांगते हैं उनसे उनका हिसाब मांगते हैं। जो कल तक गरीब भिखारी थे कैसे इतने अमीर बन गए हैं राजा कैसे फ़क़ीर बन गए हैं। 
 
सत्ता के दरबार की असली कहानी और होती है ये वो दुल्हन है जो हंसती भी नहीं न कभी रोती है। नाचती है खुद किसी के इशारे पर नचाती है किसी को अपने इशारे पर। ये पतवार नहीं तलवार है मंझधार से निकल जाओ फिर भी डुबोती है किनारे पर। पति पत्नी जैसा संबंध रखते हैं लेकिन इक ऐसा अनुबंध रखते हैं ऊंची दीवारें होती हैं रास्ते छोटे और तंग रखते हैं। जब तक मतलब होता है प्यार का साथ अपना संग रखते हैं। कुर्सी का प्यार क्या होता है जो कभी अच्छा नहीं होता ऐसा बीमार होता है। राजनीति और जिस्मफ़रोशी दुनिया के सबसे पुराने धंधे हैं दोनों में समानताएं बहुत हैं हुस्न रहने तक ख़रीदार होते हैं कुर्सी पर रहते सभी इख्तिहार होते हैं। बिकना चाहते हैं कीमत कम लगती है कभी नहीं शर्मसार होते हैं। वैश्या की वफ़ा रात भर की होती है नेताओं की वफ़ा झूठी दिखावे की चुनाव तक रहती है। आखिर में सुनोगे इक ग़ज़ल जो कहती है। 
 
 

                            ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया " तनहा "

चंद धाराओं के इशारों पर
डूबी हैं कश्तियाँ किनारों पर।

अपनी मंज़िल पे हम पहुँच जाते
जो न करते यकीं सहारों पर।

खा के ठोकर वो गिर गये हैं लोग
जिनकी नज़रें रहीं नज़ारों पर।

डोलियाँ राह में लूटीं अक्सर
अब भरोसा नहीं कहारों पर।

वो अंधेरों ही में रहे हर दम
जिन को उम्मीद थी सितारों पर।

ये भी अंदाज़ हैं इबादत के
फूल रख आये हम मज़ारों पर।

उनकी महफ़िल से जो उठाये गये
हंस लो तुम उन वफ़ा के मारों पर।