ग़म का कारोबार नहीं करते ( आधी अधूरी कहानी ) डॉ लोक सेतिया
सच कहने और स्वीकार करने में संकोच नहीं करते हैं हम , लिखने वाले दुनिया के बाज़ार की परवाह नहीं करते हैं । हार जाते हैं हारते नहीं हैं , खरीदार ज़माना है झूठ का , और हम दुनिया के बाज़ार में बिकते नहीं हैं । कई बार कितने लोग मुझे चने के झाड़ पर चढ़ाते हुए कहते थे आपकी लेखनी कमाल की है । मैं बहुत बार जानता समझता था कहने वाले ने मुझे पढ़ा ही नहीं है सिर्फ खुश करने या कोई मतलब होने के कारण झूठी तारीफ करता है । निसंकोच बताएं कोई सहायता कर सकता हूं तो अवश्य ख़ुशी से करना चाहूंगा । 25 साल की उम्र में ज़िंदगी से सामना हुआ तो कुछ महीनों में दोस्ती रिश्ते अपनापन की वास्तविकता समझ आ गई थी , हर कोई मुझे इस्तेमाल करना चाहता था और कोई कीमत नहीं समझ कर खरीदार बन कर मुझे पाना चाहता था बदले में देना कुछ भी नहीं चाहता था । होशियारी हमने कभी नहीं सीखी जीवन भर नासमझ रहे हैं । मैं समझता हूं कि मेरा लेखन कोई बड़े ऊंचे स्तर का नहीं है और कभी बड़े बड़े साहित्य कारों से तुलना करने की मूर्खता नहीं की है । इसलिए कहता था मेरा लेखन उच्च कोटि का नहीं मगर वास्तविक और मौलिक एवं सच्चाई को उजागर करता है।
उनको शायद उम्मीद नहीं थी ऐसा होने की जबकि मुझे अक्सर जैसी आशंका रहती है वैसा ही होता है तभी मैं नाकामी निराशा से घबराता नहीं , उन्होंने कहा आपकी किताब को जैसा उन्होंने सोचा था पाठक वर्ग से उतना प्यार मिला नहीं है । बहुत कारण हैं पहला मुझे खुद को बाज़ार की वस्तु बनकर संवरना नहीं आता है और कभी लोग जैसा चाहते हैं लिखना मंज़ूर नहीं किया । और दूसरा आधुनिक युग में सोशल मीडिया से लेकर अन्य दुनियादारी के तौर तरीकों से तमाम हथकंडे अपना कोशिश करने की आदत नहीं है । किसी को झूठी चमक - दमक से आकर्षित करना भले बाद में उसको लगे विज्ञापन के झांसे में गलती कर बैठा उचित नहीं होता है । सच को समझने में वक़्त लगता है और कितनी बार किसी को ज़िंदा रहते स्वीकार नहीं किया गया लेकिन मौत के बाद या सूली चढ़ाने के बाद समझा दुनिया ने कि सच क्या था । मंच पर वाह वह और तालियां बटोरने वाले सार्थकता से अधिक नाम शोहरत पैसा बनाने पर ध्यान देते हैं शायद नहीं समझते ये कुछ पलों की बात है कालजयी रचना का महत्व अलग होता है । सभी जिस राह चलते हैं आसान राह सफलता हासिल करने की मुझे भाती नहीं है खुद अपनी बनाई पगडंडी पर चलना पसंद है ।
मेरी भी किताब बिकवा दो , व्यंग्य रचना लिखी थी बीस साल पहले जब अटल बिहारी बाजपेयी जी की किताब जननायक को लेकर यू जी सी से विश्वविद्यालयों को पत्र भेजा गया । 1000 रूपये मूल्य की किताब आज एक चौथाई कीमत पर उपलब्ध है कितनी पढ़ी गई खरीद कर कितनी विवश हो मंगवाई लायब्रेरी की अलमारी की शोभा बढ़ा रही ये राज़ की बात है । लेकिन अच्छे साहित्य लेखन की कटौती एक ही है वर्षों बाद कोई पढ़ता है तो क्या विचार आता है , क्या उस कालखंड में लोग यही सोचते समझते पसंद करते और लिखते पढ़ते थे या फिर ऐसा लगता हो कि तब भी ऐसे लीक से हटकर निडर होकर भीड़ में शामिल नहीं होने वाले विचारशील हुआ करते थे । मेरा मानना है कि कई साल बाद कोई पढ़ेगा मुझे तो यही समझेगा कि ये लिखने वाला शानदार शब्दों और कलात्मकता से प्रभावित भले नहीं कर सका हो लेकिन अपने समय की वास्तविकता को उजागर करने में पूर्णतया सफल रहा है । समाज की सही तस्वीर आईने में दिखलाना ही पहला और अंतिम मकसद होता है लेखन धर्म में।
अपनी चार अभी तक प्रकाशित पुस्तकों को लेकर मैं दावा कर सकता हूं की सभी अपने नाम के अनुरूप रचनाओं का संकलन हैं ।
1 फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी , ग़ज़ल संग्रह में ज़िंदगी का फ़लसफ़ा है ।
2 एहसासों के फूल , कविता संग्रह में भावनाओं की कोमल छुवन है ।
3 हमारे वक़्त की अनुगूंज , व्यंग्य रचनाओं में इस समय की सच्चाई है ।
4 दास्तानें ज़िंदगी , ज़िंदगी की कहानियों को बयां करती दास्तानें हैं ।
1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (27-08-2022) को "सभ्यता पर ज़ुल्म ढाती है सुरा" (चर्चा अंक-4534) पर भी होगी।
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कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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