समंदरों की गाथा ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
पहले पहले शुरुआत में ये सभी के सभी तपता हुआ रेगिस्तान हुआ करते थे पानी को तरसते और रेत का अंबार। उनकी आरज़ू तभी से विशाल समंदर बनने की रहती थी जैसे कोई बरसाती नाला मिला इन्होंने उसको अपने भीतर समा लिया। धीरे धीरे तालाब हुए और कोई करिश्मा कर जाने कितनी नदियों को अपनी तरफ आकर्षित उनको अपने में विलीन करते गए। धन दौलत नाम शोहरत बड़े होने की हैसियत पाकर खुद पर गर्व करने लगे और जिन से सब पाकर विशालता पाई उन्हीं का तिरस्कार करने लगे। समंदर कभी किसी से संबंध नहीं निभाते हैं उनसे दूर रहना अच्छा होता है उनके करीब जाते ही दरिया नदिया अपना अस्तित्व खो बैठते हैं। समंदर किसी का उपकार नहीं मानते हैं उनको लगता है हमारी शरण में आना सबकी ज़रूरत है चाहत है विवशता है। आखिर समंदरों को छोड़कर उनसे बचकर कोई जाएगा कहां उनसे बचना आसान नहीं क्योंकि समंदर का मिजाज़ बदलता है तो उनकी लहरें सीमा की परवाह नहीं कर तूफ़ान लाकर तबाही ला सकती हैं। समंदर में खज़ाना है मोती हैं भंडार है सब जाते हैं कुछ पाने की चाह में डूब कर गहराई समझ आती है नसीब वाले बचते हैं मिला किसको कितना और क्या क्या खोकर कोई नहीं समझ पाता है। हर समंदर खुद प्यासा होता है उस से किसी की प्यास नहीं बुझ सकती कभी। समंदर अपने भीतर अनगिनत राज़ छुपाए रहते हैं उनकी थाह पाना मुमकिन ही नहीं है। समंदर का खारा पानी बदल बनकर बरसता है मगर बारिश का पानी तालाब नदिया से मिलकर आखिर बहता बहता फिर समंदर में वापस मिलकर मिठास खोकर खारापन अपना लेता है।
पर्वत की ऊंचाई और समंदर की गहराई दोनों अलग अलग हैं। शासक सत्ताधारी बड़े नाम वाले ख़ास लोग दिखाई पहाड़ जैसे देते हैं मगर वास्तव में किरदार उनका छोटा होता है उनको नीचे वाले इंसान इंसान नहीं लगते हैं। अक्सर इंसान की लाश उनके पांव नीचे की ज़मीन बनी होती है। समंदर की ख़ामोशी तूफ़ान आने का संकेत हो सकती है तो उनकी लहरों का शोर अंदेशा लगता है अनहोनी घटना का भय पैदा करती हुई। शोर की खामोशी से मुलाक़ात और रौशनी का अंधेरों से रिश्ता कुछ उसी तरह का संबंध है जैसा महल का झौंपड़ी से अमीर का गरीब से सरकार का जनता से। एक का होना दूसरे का अस्तित्व बनाता है बिना झौंपड़ी महल की शान नहीं रहती है गरीब हैं तभी अमीरों की अमीरी कायम है जनता का आम होना सरकार को सरकार होने का एहसास दिलाता है। अन्यथा सरकार दाता नहीं भिखारी है और आम लोग नेताओं अधिकारियों का अनचाहा बोझ ढोने को विवश हैं। घोड़ा कभी घास से दोस्ती नहीं कर सकता है राजनेता घोड़े हाथी शेर की तरह हैं उनका अधिकार जंगल पर जिस तरह ताक़तवर का कमज़ोर पर ताकत आज़माने से समझा जाता है देश की राजनीति में सत्ता का संविधान से छीनते हैं राजनेता शासक वर्ग। हमने कानून अदालत संस्थाएं बनाई हुई हैं लेकिन उनकी अहमियत कठपुतलियों जैसी बन जाती है। जनता की चीख पुकार उन तलक नहीं पहुंचती क्योंकि सरकार ने उनको ऐसे भवनों में बंद किया होता हैं जहां बहरी आवाज़ सुनाई दे नहीं सकती और चकाचौंध रौशनी में बैठकर निर्णय करने वाले निगहबान करने वाले अंधेरे से परिचित नहीं होते हैं।
हम सभी कैफ़ी आज़मी की नज़्म में बतलाये गए अंधे कुंवे में कैद लोग हैं जो कुंवे के अंदर से आवाज़ देते रहते हैं , हमें आज़ादी चाहिए , हमें रौशनी चाहिए। लेकिन जैसे ही कोई बाहर निकालता है तो हम बाहर की खुली हवा से घबरा जाते हैं रौशनी से आंखें चुंधिया जाती हैं और आज़ादी से डरने लगते हैं। और फिर खुद ही उसी अंधे कुंवे में छलांग लगा देते हैं। और दोबारा शोर मचाने लगते हैं हमें आज़ादी चाहिए , हमें रौशनी चाहिए। हमने अपनी दुनिया को उसी कुंवे तक सिमित किया हुआ है और कुंवे के मेंढक खुद को समझते हैं यही दुनिया है।
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