गांधारी ने सब देख लिया ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
आखों पर पट्टी बंधी रहती है न्याय की देवी की मगर न्याय करने वाले कह रहे हैं हमको सब दिखाई दे रहा है फिर भी आपको अवसर मिल रहा है कल तक विशेष जांच दल नियुक्त कर जो नज़र आ गया हर किसी को उसको ढकने छिपाने का उपाय कर सकते हैं। आपको नहीं समझ आया या अचरज हो रहा है कि जब आपको साफ साफ नज़र आने लगा है फिर किसलिए आंखों के डॉक्टर से लैंस डलवाने की बात कह रहे हैं। लगता है कुछ दिन पहले महभारत सीरियल देखा अभी खुमार बाकी है। गांधारी अपने बेटे को जीतने का आशिर्वाद नहीं देने के बाद भी मौत से बचाने को उपाय बना लेती है और दुर्योधन को नंगे आने को आदेश देती है ताकि जीवन भर बंद रखने के बाद आंखें खोलें तो सामने नज़र आया हाड़ मांस का इंसान पत्थर का बन जाएगा। कृष्ण के कहने से दुर्योधन अपने कमर से नीचे के भाग को पेड़ के पत्ते से ढक लेते हैं और वो भाग पत्थर नहीं बन सकता है। न्याय की देवी की पट्टी भी जाने कैसे खुल गई और लगता है सामने खड़ी व्यवस्था जैसे पत्थर की बेजान हो गई है।
देख कर अनदेखा करना ये कोई दोस्त की मुहब्बत की बेरुखी की बात नहीं है ये उनकी मज़बूरी है उनको अदालत की कुर्सी मिली ही ऐसी शर्त पर थी कि आपको वही देखना होगा जो सत्ता दिखाएगी। बड़ी वफ़ा से निभाई तुमने हमारी थोड़ी सी बेवफ़ाई , हज़ार रहें मुड़ के देखीं कहीं से कोई सदा न आई। अभी तक सब ठीक ठाक ही नहीं बढ़िया से बढ़कर लाजवाब क्या बेमिसाल चल रहा था। सरकार के पासे सीधे पड़ते रहे शकुनि की चाल की तरह कुशलता पूर्वक ये मामला इतना नंगा है की लोग शर्म से अपनी आंखें बंद कर लेते मगर क्या करते जब खेल खुला फर्रुखाबादी वाला हो। जो पहले हुआ ये उस से अगली कड़ी है तब सीबीआई के अधिकारी की शिकायत सीबीआई के अधिकारी ने दर्ज करवाई सीबीआई की जांच करने की टीम ने आधी रात को सीबीआई दफ्तर पर छापा मार कर सीबीआई की अदालत में मुकदमा दायर किया था। अब अदालत गुनहगार को क़त्ल करने वाले आरोपी पर उसी को जांच गठित करने को अवसर दे रही है। शायद किसी और देश की अदालत के इक मुकदमे की बात किसी फ़िल्मी कहानी में सुनी देखी थी दोहराई जा रही है।
कहानी यूं है इक न्यायधीश की अदालत में इक मुकदमा सामने लाया गया। अपराध साबित करने को दोनों पक्ष दलीलें देते रहे गवाह पेश करते रहे। सुनवाई करते करते घटना के समय स्थान की बात हुई तो न्यायधीश महोदय को ध्यान आया कि जो बताया जा रहा सब झूठ है क्योंकि खुद वो उस समय उसी जगह उपस्थित रहे थे। लेकिन न्याय करने वाला खुद अपनी गवाही नहीं दे सकता था। जब निर्णय देने का समय आया तो न्यायधीश ने वकीलों को ही सज़ा सुना दी ये कहकर कि उन्होंने जान बुझ कर अदालत को गुमराह किया है मनघड़ंत आरोप नकली सबूत और झूठे गवाह पेश किये गए हैं। फैसले में लिखा कि ये लोग नहीं जानते थे कि खुद मैं उस दिन उस समय उसी जगह उपस्थित था। लेकिन वकील फिर वकील ठहरे ऊपर की अदालत चले गए और न्यायधीश को ही कटघरे में खड़ा करवा दिया ये कहकर कि उनको पहले पता था तो उन्हें इस मुकदमे से ही हट जाना चाहिए थे उनकी गवाही की कोई अहमियत नहीं समझी जा सकती है। क्योंकि अदालत को खुद कुछ भी देखना नहीं होता है उसको जो वकील और गवाह दिखलाते हैं उसी को सच मानकर निर्णय देना होता है। बेशक उनको मालूम था मगर उन्हें अपने देखे को अनदेखा कर जो दिखलाया गया उसको सच मानकर निर्णय देना था। तब ऊपरी अदालत ने बेहद खेद जताते हुए फैसला किया था कि न्यायधीश को गवाह सबूत को देखने के बाद भी अपने विवेक से उचित निर्णय करने का अधिकार होता है और वकील और पुलिस का काम न्याय करने में सहयोग देना होता है न कि इंसाफ़ की आंखों में धूल झौंकने का काम करना अर्थात मुकदमा चलाने वाले वकील और सभी विभाग अपराधी ही नहीं बल्कि उनको भविष्य में इस काम करने का अधिकार भी नहीं हो सकता है। जनाब आपको सब दिखाई दे रहा है मगर आप चाहते हैं उसको सपना समझना तो फिर इंसाफ भी इक झूठा सपना बनकर रह जाएगा।
कहानी यूं है इक न्यायधीश की अदालत में इक मुकदमा सामने लाया गया। अपराध साबित करने को दोनों पक्ष दलीलें देते रहे गवाह पेश करते रहे। सुनवाई करते करते घटना के समय स्थान की बात हुई तो न्यायधीश महोदय को ध्यान आया कि जो बताया जा रहा सब झूठ है क्योंकि खुद वो उस समय उसी जगह उपस्थित रहे थे। लेकिन न्याय करने वाला खुद अपनी गवाही नहीं दे सकता था। जब निर्णय देने का समय आया तो न्यायधीश ने वकीलों को ही सज़ा सुना दी ये कहकर कि उन्होंने जान बुझ कर अदालत को गुमराह किया है मनघड़ंत आरोप नकली सबूत और झूठे गवाह पेश किये गए हैं। फैसले में लिखा कि ये लोग नहीं जानते थे कि खुद मैं उस दिन उस समय उसी जगह उपस्थित था। लेकिन वकील फिर वकील ठहरे ऊपर की अदालत चले गए और न्यायधीश को ही कटघरे में खड़ा करवा दिया ये कहकर कि उनको पहले पता था तो उन्हें इस मुकदमे से ही हट जाना चाहिए थे उनकी गवाही की कोई अहमियत नहीं समझी जा सकती है। क्योंकि अदालत को खुद कुछ भी देखना नहीं होता है उसको जो वकील और गवाह दिखलाते हैं उसी को सच मानकर निर्णय देना होता है। बेशक उनको मालूम था मगर उन्हें अपने देखे को अनदेखा कर जो दिखलाया गया उसको सच मानकर निर्णय देना था। तब ऊपरी अदालत ने बेहद खेद जताते हुए फैसला किया था कि न्यायधीश को गवाह सबूत को देखने के बाद भी अपने विवेक से उचित निर्णय करने का अधिकार होता है और वकील और पुलिस का काम न्याय करने में सहयोग देना होता है न कि इंसाफ़ की आंखों में धूल झौंकने का काम करना अर्थात मुकदमा चलाने वाले वकील और सभी विभाग अपराधी ही नहीं बल्कि उनको भविष्य में इस काम करने का अधिकार भी नहीं हो सकता है। जनाब आपको सब दिखाई दे रहा है मगर आप चाहते हैं उसको सपना समझना तो फिर इंसाफ भी इक झूठा सपना बनकर रह जाएगा।
1 टिप्पणी:
न्यायिक व्यवस्था को लेकर अच्छा लेख👌
शेर याद आ गया अपना..
देख कर भी मुझे न देख सके,
आप निकले हो कम नज़र कितने
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