जून 26, 2018

शांति का नहीं तो जंग करने का समझौता ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

 शांति का नहीं तो जंग करने का समझौता ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

       आधी दुनिया की सैर के बाद उपाय आखिर मिल ही गया है। किसी एक देश के साथ ही नहीं सभी देशों को लेकर इस से अच्छा सस्ता बढ़िया और आसान की तरह का उपाय आपसी तालमेल बिठाने का कोई और हो ही नहीं सकता है। शांति समझौता नेहरू जी जैसे लोग किया करते थे , अहिंसा की बात करने वाले गांधी जी को हिंसा का शिकार होना ही पड़ा और गोली खाई। हे राम ! नहीं राम भी नहीं ये रामरहीम की शरण जाने वालों का स्वर्णिम युग है जिस में अपनी सुरक्षा को अपनी महिला और नपुंसकों की सेना की ज़रूरत होती है। पड़ोसी देश को भी शांति समझौते की नहीं जंग लड़ने की ज़रूरत है। हज़ार साल तक जंग लड़ने की कसम खाई हुई है अभी पचास साल गुज़रे हैं नौ सौ पचास साल बाकी हैं। नये नये ढंग अपनाना और प्रयोग करना उनको आता है , गुजरात को प्रयोगशाला बनाया गया था। चार साल से प्रयोग जारी हैं , प्रयोग दवा कंपनियों वाले चूहों पर करते हैं या भारत के लोगों को बिना बताये भी उनपर आज़माते हैं इंसानों पर असर देखना हो जब। 
 
             उनके मन की बात सब से अधिक महत्व रखती है। उनको सब से अधिक भरोसा ऐप्स पर है। उन्होंने पड़ोसी देश के शासक को मन की बात चुपके से बताई किसी और को सुनाई नहीं दी। हम दोनों को वोट पाने हैं और सत्ता हासिल करनी है , लोगों की समस्याओं को हल करने से कितनी बार जीत मिलेगी। आखिर जनता को जोश तो नफरत और जंग लड़कर सबक सिखाने के भाषणों से ही आएगा। मगर हम बिल्लियों की लड़ाई में अमेरिका बंदर बनकर हथियार बेच कर सब खुद खाता रहता है। गोली कारतूस और मिज़ाइल से कोई जीत नहीं सकता कोई हारता भी नहीं है। इस से अच्छा है हम तय कर लें कि हम आमने सामने खून खराबा करने वाली लड़ाई नहीं लड़कर अपने सैनिकों को स्मार्ट फोन पर लड़ाई लड़ाई का खेल खेलने का अभियास करवा भविष्य में नया चलन जंग का शुरू करें। सुबह सब से पहले गुड मॉर्निंग का सन्देश भेजना शुरुआत से पहले और शाम को समय होते ही गुड नाईट का आदान प्रदान कर जंग को विराम देकर रिलैक्स करें। सैनिकों को हम होली पर या कॉमेडी शो की तरह की बंदूकें जिनसे रंग बिरंगे फूल या हवा में बुलबुले निकलते हों ही उपलब्ध करवाएं जो लड़ाई को मनोरंजक बना दे। 
 
       वायुसेना को बच्चों की तरह कागज़ से जहाज़ बनाकर उड़ाने का मज़ा लेने फिर से बचपन की याद दिला देगा। जलसेना को जगजीत सिंह जी की गए ग़ज़ल गाकर , वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी गाने को कहा जा सकता है। मुश्किल तो है कि बारिश नहीं होती जब हम चाहते हैं और पानी को हमने बचने कब दिया है मगर उसका भी उपाय कोई ऐप निकाल देगा। 
 
        समझौता मौखिक तौर पर हो चुका है। अड़चन एक ही बाकी है। नकली खिलौने वाली बंदूक एक देश की शर्त है वही बनाकर बेचता है उसी से खरीदनी होगी। हम अपने ख़ास उद्योगपतियों को ये अधिकार देना चाहते हैं जो सबसे अधिक चंदा देते हैं हमें। सवाल वापस वहीं आकर अटक गया है।  जंग इक मुनाफे का करोबार बन चुका है और किस कारोबारी को कितना हिस्सा मिले तय किया जाना है। कोई बाबा जी भी इस दौड़ में शामिल हो गए हैं , उनकी लंगोटी लंगोट बन गई है।

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