भगवान की भी सुनो ( इक विचार ) डॉ लोक सेतिया
इक मंदिर में हादसा हो गया , आग लगी और लोग जल कर मर गये , कितने ही तड़प रहे दर्द से । क्या भगवान की यही मर्ज़ी थी । यही सवाल किया उसकी मूर्ति के सामने जाकर , क्या तुम थे वहां मंदिर में या कहीं और मस्ती कर रहे थे अपने परिवार और देवी देवताओं संग । क्या तुम बचा नहीं सकते थे अपने पास आये भक्तों को । क्या तुमने उनको खुद कोई सज़ा दी उनके पापों की ऐसे अपने ही मंदिर में । देखा भगवान की मूर्ति भी आंसू बहा रही है । मैंने कहा अब पछताने से क्या फायदा , पहले ही ये सब नहीं होने देना था । इक आवाज़ सुनाई दी , बस करो मुझे और परेशान न करो मैं पहले ही बहुत दुखी हूं । तुम लोग हर बात के लिए मुझे ही दोषी ठहराते हो , खुद क्यों नहीं सोचते क्या सही क्या गलत । जब खुद मंदिर का प्रशासन देखने वाले जो नहीं किया जा सकता वो करते हैं तो ये होना ही था , क्या भगवान ने कभी ऐसा कहा है कि नियम कायदे का पालन नहीं करो । अब जिस जगह ऐसे कायदे कानून की अनदेखी होती हो उस जगह कभी भगवान हो सकता है । लोग बेकार भटक रहे हैं इधर उधर , भला भगवान को उन सभी जगहों से क्या लेना देना जहां धन संम्पति की , सोने चांदी की , हीरे जवाहरात की , चढ़ावे की बात की जाती हो । मेरा कोई बाज़ार नहीं है , बिकता नहीं हूं मैं । तुम जहां खोजते वहां नहीं हूं मैं । देखना चाहते हो तो कहां नहीं हूं मैं । बस जहां समझते , वहां नहीं हूं मैं । भगवान की पलकें भीगी हुई थीं उसका दर्द कौन समझता है दुनिया में ।
2 टिप्पणियां:
Hmm
सही बात जिस जगह नियम कायदा न हो तो भगवान क्या होगा
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