कलयुगी भक्त , कलयुगी भगवान ( हास्य कविता ) डॉ लोक सेतिया
सभी धर्मों के ईश्वरवहीं पर थे
सभी के सामने
लगी हुई थी
भक्तों की लंबी लंबी कतारें।
सभी बढ़ा कर हाथ
दे रहे थे अपने भक्तों को आशीष
खुश हो रहे थे
पा कर ढेर सारा चढ़ावा।
किसी को नहीं था मतलब
कौन है अच्छा और कौन बुरा
कोई नहीं दे रहा था
जैसे जिसके कर्म हों
उसको वैसा फल।
देख कर चुप नहीं रह पाया
आखिर को वो था इक पत्रकार
छोड़ सभी को पीछे
चला आया था वो सबसे आगे
बढ़ा दिया अपना कैमरा
सामने उन सभी भगवानों के।
और माइक पकड़
पूछने लगा उन सब से
अपने सवाल
ये क्या देख रहा हूं मैं
क्या कर रहे हैं सभी आप
सोचते नहीं -देखते नहीं।
किसने किये कितने पुण्य
नहीं किसी को भी कह रहे
करते रहे कितने पाप।
मुस्कुराने लगे
सभी के सभी ईश्वर
सुन उसकी बात।
फिर समझाया उसको
किस युग की करते तुम बात
कलयुग में नहीं
लागू हो सकते नियम
सत्य युग वाले।
इस युग में खुली छूट है
लूट ले छीन ले
जैसे भी कमा ले
बस हर बार हमें याद रख
सर झुका चढ़ा चढ़ावा
खुश कर हमें।
और फलने फूलने का
हमसे आशीष पा ले
पत्रकार हो इतना नहीं जानते।
कलयुग कैसे कलयुग रहेगा
अगर पाप ही नहीं रहेगा
पापियों के लिये ही है ये युग
इसमें पाप हमेशा ही बढ़ेगा।
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