जून 20, 2017

राजनीति की भटकी दिशा ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

     राजनीति की भटकी दिशा ( आलेख )  डॉ लोक सेतिया

     दूर की कौड़ी लाएं हैं देश का पहला सेवक होने का दावा करने वाले। इक दलित को देश के सब से बड़े पद पर बिठाकर एक तीर से दो नहीं कई निशाने साध रहे हैं। बिहार चुनाव पहला निशाना है और दलितों के नाम पर राजनीति करने वालों की बोलती बंद करना दूसरी। साथ में तमाम वर्ग भी किसी न किसी रूप में आते भी हैं। सब से विशेष बात ये भी होगी जो कभी सांसद का चुनाव नहीं जीत पाया , अर्थात एक संसदीय क्षेत्र की जनता ने नहीं चुना उसको पूरे देश के सांसद और विधायक चुनेंगे। अन्यथा नहीं लें तो यहां इक और बात भी स्पष्ट करना ज़रूरी है कि किसी का किसी कार्य में निपुण होना ये साबित नहीं करता कि वह वास्तव में देश की सही समझ रखता भी है। अक्सर किताबी ज्ञान वालों से मिला कुछ भी नहीं। मनमोहन सिंह जैसा अर्थशास्त्री भी वित्तमंत्री बन अपनी नीतियां लागू करने के बाद भी गरीबी को मिटा नहीं पाया अपितु और और बदहाल हो गए लोग। और कलाम जी को पूरा आदर देने के बावजूद कहना चाहता उनकी कल्पना का 2020 का भारत कभी बन नहीं सकता तीन साल बाद तक। किताबी ज्ञान की समस्या यही है , वास्तव में तो कभी आपको ये विचार भी करना ही होगा कि जिस देश में लोग भूखे और बदहाल हों उस देश को शांतिप्रिय कहलाने के साथ परमाणु हथियार बनाने पर इतना धन बर्बाद करना चाहिए था या नहीं। आप वही परमाणु हथियार होना अपने और पड़ोसी देश के पास इक बड़ी चुनौती बन गया है। 
 
         लेकिन मुख्य सवाल और है , किसी दलित को इक आलीशान महल में पहुंचाना सरल है राजनीति में , मगर कठिन है किसी का ये समझना कि क्या डेढ़ सौ एकड़ के राष्ट्रपति भवन में किसी को रहना चाहिए या उतनी जगह लाखों लोगों को रहने को मिलनी उचित होगी। कभी किसी नेता ने नहीं किया साहस इक सही कदम उठाने का कि जनता के सेवक होने की बात करने वालों पर देश का कितना धन बर्बाद क्यों हो। क्या ये अपराध नहीं है। बदलाव लाने की बातें सभी करते हैं लाता कोई भी नहीं। दिल्ली की सरकार से भारत की सरकार तक बदलाव की बातें करने वाले लोग खुद ही बदल गए , और वही पुरानी नीति अपनाने लगे। जो अच्छा वो नहीं जो ज़रूरी वो भी नहीं जो लोगों को खुश कर सके बहला सके आपकी लोकप्रियता बढ़ा सके वो करते हैं। कितना बड़ा धोखा है , योग्यता की बात बचती कहां है। ख़ास बात ये भी है कि आप कहते कुछ हैं करते कुछ और हैं। आम सहमति की बात दिखावा और करनी मनमानी है।  इस से अधिक डरने की बात किसी का एक मात्र निर्णय करने का अधिकार होना है।  किसी दूसरे दल क्या अपने दल में भी किसी को आप की बात से अलग कुछ कहने की इजाज़त नहीं है। चलो कुछ दिन नहीं पांच दिन बाद वही दिन आने वाला है जिस दिन आपत्काल की घोषणा की गई थी  । 25 जून 1975 को ।
  

 

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