सितंबर 23, 2016

कौन किसको समझे समझाये ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कौन किसको समझे समझाये  ( कविता )  डॉ लोक सेतिया

आखिर
आज जान ही लिया मैंने
बेकार है
प्रयास करना भी ।

यूं ही
अभी तलक मैंने
घुट घुट कर
ज़िंदगी बिताई
इस कोशिश में
कि कभी न कभी
मुझे समझेंगे
सभी दुनिया वाले ।

शायद
अब खुद को खुद मैं ही
समझ सकूंगा
अच्छी तरह से
अपनी नज़र से
औरों की नज़रों को देख कर नहीं ।

दुनिया
बुरा समझे मुझे , चाहे भला
नहीं पड़ेगा कोई अंतर उस से
मैं जो हूं , जैसा भी हूं
रहूंगा वही ही हमेशा
किसलिये खुद को
गलत समझूं
खुद अपनी
वास्तविकता को भुला कर ।

नहीं अब और नहीं
समझाना किसी को भी
क्या हूं मैं
क्या नहीं हूं मैं ।

यूं भी किसको है ज़रूरत
फुर्सत भी किसे है यहां
दूसरे को समझने की
खुद अपने को ही
नहीं पहचानते जो
वही बतलाते हैं
औरों को उनकी पहचान ।

चलो यही बेहतर है
वो मुझसे उनसे मैं
रहें बनकर हमेशा ही
अजनबी अनजान ।
 

 

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