मार्च 31, 2014

अनुमति लेना ज़रूरी है ( ब्लॉग की पोस्ट शेयर करने को )

    अनुमति लेना ज़रूरी है ( ब्लॉग की पोस्ट शेयर करने को )

अब किसी का नाम लेना सही नहीं है। और ऐसे लोग हैं भी बहुत कम , अधिकतर लोग जो साहित्य सेवा से जुड़े हैं वे ऐसा नहीं करते। मगर अभी इन दिनों किसी ने मुझे कमेंटस के स्थान पर ये सूचित किया कि हमने आपकी इस रचना को अपनी जगह पर लिख दिया है। वे ये भी लिखते हैं कि मुझे सूचित करना ज़रूरी समझते हैं। मगर उनको मालूम होना चाहिये कि मैंने अपने ब्लॉग पर सपष्ट निर्देश दे रखा है कि मेरी बिना अनुमति किसी रचना या पोस्ट को उपयोग नहीं कर सकते। क्या आप किसी की कोई चीज़ बिना उसकी अनुमति उपयोग कर सकते हैं और करने के बाद सूचित करते हैं कि मुझे पसंद आई थी उठा ली थी। बुरा नहीं माने मैं इसको बेहद आपतिजनक कार्य मानता हूं। आप साहित्य का साथ अनाचार को साहित्य कर्म या साहित्य सेवा कदापि न कहें। बहुत बार फेसबुक पर भी मेरी रचना किसी ने अपनी पोस्ट पर लिखी , मना करने पर कहते हैं कि लिंक से लोग नहीं पढ़ते इसलिये उन्होंने ये किया मेरे लिये कि और लोग पढ़ सकें। भाई आपको मेरी चिंता नहीं करनी है , न ही इस बात की कि लोग पढ़ते हैं या नहीं। मुझे किसी को विवश नहीं करना पढ़ने को। जो चाहे पढ़ सकता है और नहीं पढ़ना चाहता तो वो भी हर किसी का अधिकार है। आप किसी के अधिकार में हस्ताक्षेप क्यों करना चाहते हैं। जो भी ये सब किया करते हैं , जो कर चुके उसको अपनी जगह से मिटा दें और दोबारा ऐसा नहीं किया करें। मुझे इतनी ईमानदारी और नैतिकता की आपेक्षा हर उस व्यक्ति से है जिसको साहित्य से कोई सरोकार है।

मार्च 30, 2014

इक पतित नारी की जीवन गाथा ( सत्य कहानी ) डा लोक सेतिया

 इक पतित नारी की जीवन गाथा ( सत्य कहानी ) डा लोक सेतिया

        बहुत साल पहले की घटना है , इक पत्रिका में किसी महिला की आपबीती प्रकाशित हुई थी। तब उम्र नहीं थी गहराई से उसको लेकर सोचने की , मगर मैं उस नारी की व्यथा को कभी भुला नहीं सका। जब फेसबुक पर मित्रता के नाम पर अशलीलता का फैला हुआ जाल देखा तब उसको अपनी कल्पना के माध्यम से इक लघुकथा का रूप दिया। आज कुछ कुछ उसी तरह की कहानी लिखने जा रहा हूं जो मुझे लगता है कि बहुत लोग जो फेसबुक पर हैं उनको खुद से जुड़ी लग सकती है। शायद जितना मैं लिख सकता उससे कहीं बढ़कर। चलो भूमिका को छोड़ आपको इक नारी की पीड़ा की उसकी बेबसी की उसके गंदगी में कीचड़ में फसने से रसातल में गिरने की कहानी सुनाता हूं। और उसका अंत जो हुआ वो भी , जो शायद होना ही था , होता ही है , लेकिन जो ऐसा करते हैं वो ये शायद ही सोचते हैं कि किसी दिन उनका बनाया जाल ही खुद उनको फंसा सकता है।

             नीता इक अध्यापिका थी , रौशन शर्मा की बेटी को टयूशन पढ़ाने उसके घर जाया करती थी। उसके घर की आर्थिक दशा उसको ऐसा करने को विवश करती थी। एक दिन जब नीता गई टयूशन पढ़ाने तब घर पर उनकी बेटी और पत्नी नहीं थी और रौशन अकेला था। नीता को रोक लिया था उसने ये बता कर कि बेटी अभी आने वाली है मां के साथ बाज़ार तक गई है। और उस दिन रौशन ने ज़ोर ज़बरदस्ती करके नीता की अस्मत लूट ली थी। अपना सर्वस्व लुटा कर जब नीता बिलख रही थी तब रौशन ने उसको बहुत सारे पैसे जितने शायद वो टयूशन से वर्ष भर में लेती थी देकर कहा था लो मेरी तरफ से कोई उपहार ले लेना। और ये बात किसी से मत कहना वरना तुम्हारी ही बदनामी होगी। नीता ने लिखा था तब अपना नाम बदल कर पत्रिका को कि तब उसको समझ नहीं आ रहा था कि अपनी अस्मत लुटने पर रोये या पहली बार इतने पैसे पाकर खुश हो। रौशन को आता था महिलाओं को चिकनी चुपड़ी बातों से बहलाना। उसने जब अपनी बात का असर होता देखा नीता पर तो कहने लगा मुझसे भूल हो गई है तुम्हारे हुस्न का जादू चल गया था मुझ पर और मैं तुमसे सच में प्यार करता हूं। लेकिन मुझे तुम्हारे साथ ज़बरदस्ती नहीं करनी चाहिये थी , कसम खाता हूं अब कभी नहीं करूंगा ऐसा दोबारा। लेकिन अगर तुम चाहोगी तो मैं तुमको जो भी चाहिये देता रहूंगा। तुम ये बात मन से निकल दो कि हमने कुछ गलत किया है , जिस बात से हमको ख़ुशी मिलती हो और किसी का कोई बुरा नहीं उसमें बुराई नहीं है। आखिर अपना तन मन हमारा है , हम जो पसंद हो करें , किसी को बताने की कोई ज़रूरत नहीं , इस तरह रौशन ने नीता को मना लिया था कि इस घटना का ज़िक्र किसी से नहीं करेगी। मगर अभी तक वो कश-म-कश में उलझी थी कि क्या करे क्या नहीं , इसलिये उसने अब किसी के घर जाकर टयूशन पढ़ाना ही बंद कर दिया था। जिनको पढ़ना हो वो उसके घर आ सकते हैं , रौशन चाहता था नीता को अपने जाल में फंसाये रखना इसलिये उसने भी बेटी को नीता के घर टयूशन पर भेजना शुरू कर दिया। नीता चाह कर भी उस घटना को भुला नहीं पा रही थी। मगर फिर उसने अपनी आर्थिक मज़बूरी से विवश हो कर एक दिन रौशन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। रौशन उसके घर आता अपनी वासना पूरी करता और नीता को बहुत से पैसे देता। मगर क्योंकि नीता अपने घर पर हमेशा अकेली नहीं मिलती थी इसलिये उसने नीता को अपनी ही एक जगह उपलब्ध करवा दी थी टयूशन का काम करने को। यूं सब को यही मालूम था कि किराये पर ली है जबकि किराया उसको अपना बदन सौंप कर ही चुकाना होता था।

                  वक़्त बीतता गया और नीता ने खुद को बदल लिया था समय के साथ। अब वो दिखाने को टयूशन का काम करती थी मगर वास्तव में उसी को अपना कारोबार बना लिया था , हर किसी से शारीरिक संबंध बनाना और पैसे लेना। रौशन की बेटी जवानी की दहलीज पर थी और नीता के घर अभी भी नियमित आती जाती थी। नीता उसको कई प्रकार से सहयोग किया करती , उसको परीक्षा में नकल करवाना , उसकी बुरी आदतों को पूरा करने को जब तब पैसे देना। रौशन की बेटी को नीता बहुत प्यारी लगती थी , क्योंकि वो उसको जो चाहती वो करने में सहायता देती रहती थी। शायद कहीं अनजाने में वो अपने साथ उसके पिता द्वारा किये अपकर्म का बदला ले रही थी उसकी बेटी को उसी राह जाते देख कर। अक्सर जब कोई नीता के पास आता तब वो रौशन की बेटी को कुछ अशलील तस्वीरें देखने को , कुछ ऐसे पत्रिकाएं पढ़ने को देकर साथ के कमरे में चली जाती अपना कारोबार करने। तब वो छुप कर दरवाज़े की दरार से नीता को सब करते देखती कितनी बार। और ऐसे में उसने एक दिन नीता को ये बता दिया था कि क्या मुझे ये सब सिखा सकती हैं। और इस तरह रौशन की बेटी ही नहीं और लड़कियों को भी नीता ने उसी जाल में फंसा लिया जिसमें खुद मज़बूरी में फंस गई थी।

                रौशन नहीं जनता था कि जिस रास्ते पर उसने नीता को डाला था आज उसकी जवान बेटी उसी राह पर भटक रही है। ऐसे में इक दिन रौशन ने नीता को होटल में आने को कहा तो उसने पूछा क्या मेरी बजाय कोई नई जवान लड़की अगर हो तो आपको क्या चाहिये मैं या वो। और रौशन ने कहा था कि अगर कोई नई और जवान मिल जाये तो अधिक पसंद है। जब होटल के कमरे में नीता अपने साथ उसी की बेटी को लेकर पहुंची तब उसको होश ही उड़ गये। बहुत नाराज़ हुआ वो नीता को बदचलन बताया , नीता ने वही बात दोहराई जो कभी रौशन से उसको कही थी। किसी को भी अपना बदन अपनी मर्ज़ी से किसी को भी ख़ुशी से सौंपने में बुराई नहीं है। जो तुमने किया और मुझे सिखाया वही तुम्हारी बेटी ने भी सीख लिया है , अब तुम लाख चाहो जो हो चुका उसको बदल नहीं सकते। रौशन ने नीता को और अपनी बेटी को वहां से जाने को कह दिया था और ये विनती की थी कि ये सब किसी को नहीं बताना , मैं समझ गया मुझे अपने कर्मों का फल ही मिला है। वो चली आई थी , अगली सुबह होटल के कमरे से रौशन की लाश मिली थी।  उसने ख़ुदकुशी कर ली थी। सुसाईड नोट छोड़ गया था कि अपनी मौत का वो खुद जिम्मेदार है।

मार्च 27, 2014

भगवान का पेटेंट ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

      भगवान का पेटेंट ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

      अभी पिछली पोस्ट पर मैंने भगवान नहीं आदमी को इंसान बनाने की बात कही थी। इक महिला मित्र ने उसको तुरंत हटा दिया अपनी टाइम लाईन से। ऐसा नहीं कि उनको मेरी बात अनुचित लगी , उनका कहना था कि कोई भगवान नाराज़ हो जाएगा। ये कितनी हैरानी की बात है कि हम ये सोच रहे कि सच बोलने से भगवान नाराज़ हो सकता है। आपको बता दूं मैं जिस धर्म को जानता हूं उसका आदर्श वाक्य ही यही है सत्य ही ईश्वर है। बहुत सारे सिख भाई नहीं जानते कि जब वो सात सिरी अकाल बोलते हैं तो उसका अर्थ क्या है। सत्य ही ईश्वर है , यही उसका अर्थ है। जो बोले सो निहाल सत सिरी अकाल का अर्थ है कि जो कोई भी ऐसा बोलता है कि सत्य ही ईश्वर है भगवान उस पर कृपा करते हैं। मैंने ये पहले भी ज़िक्र किया है बार बार कि मेरी माँ इक भजन गाती रहती थी। भगवन बन कर तूं मान न कर तेरा मान बढ़ाया भक्तों ने , तुझे भगवान बनाया भक्तों ने। मेरा विचार है ये वही कह सकता है जो ईश्वर को अपना और खुद को उसका मानता हो। मुझे माँ जैसा निश्छल सवभाव , किसी के प्रति कोई दुर्भावना न रखना , किसी से कभी कटु वचन नहीं कहना और हमेशा मुस्कुराते रहना विरला ही कभी दिखाई देता है। मेरी धर्म पत्नी अक्सर जब भी सास बहू की बात आती है किसी से चर्चा में तब यही बोलती है कि उनको तो सासू माँ ने कभी एक बार भी कोई बात गुस्से या नाराज़गी से नहीं की थी। ये तो केवल परिभाषा थी , अब विषय की बात। व्यंग्य है भगवान का पेटेंट।

             खबर छपी थी कि पेटेंट कानून पास हो गया। अमेरिका वाले नीम का हल्दी का तुलसी का और जाने किस किस की खोज का पेटेंट पहले ही करवाये बैठे हैं। खेती के बीज तक उनके नाम पर पेटेंट हैं और दवायें भी। अब इनका उपयोग उनको रायल्टी चुका कर ही कर सकते हैं। कल ऐसा भी मुमकिन है कि कोई खुद को भगवान घोषित कर दे ये पेटेंट करवा कि ये दुनिया उसी की बनाई हुई है। दूर की कौड़ी लगती है आपको , पर सब कुछ मुमकिन है। देखा नहीं टीवी पर कोई करोड़ों कमा रहा है अपने तथाकथित भक्तों को यही बतला कर कि आप पर अमुक देवी देवता की कृपा क्यों नहीं हो पा रही और कैसे होगी। बहुत आसान सी बातें बताता है जो कोई भी कर सकता है। जलेबी खाना क्या कठिन है , रोज़ खा सकते अगर शुगर नहीं हो। सोचो कोई भगवान बन कर सभी से हवा में सांस लेने , सूरज की रौशनी , पीने का पानी , धरती पर कदम रखने तक की रायल्टी वसूल सकता है अगर उसके नाम पेटेंट हो जाये कि वही ईश्वर है। ये फज़ूल बात है कि ये उसने बनाया था कि नहीं। ऐसे तो हज़ारों साल से अपने देश के घर घर में देसी घरेलू इलाज दादी मां के बताये नुस्खे से होता ही है। हमारे आयुर्वेद के विद्वानों ने कोई रायल्टी मांगे बिना ये जानकारी हर खास-आम तक पहुंचा दी। अब इनकी रायल्टी उसी को मिलेगी जिसने इनका पेटेंट करवा लिया अपने नाम। हम अब भी सोचते ही रहे तो कोई अमेरिका वाला पेटेंट करवा लेगा भगवान को खोजने का अपने नाम पर। तब सब मंदिर मस्जिद गिरजाघर गुरुद्वारा उनका अधिकार क्षेत्र में आ जायेगा , उनको अपनी आमदनी से रायल्टी के रूप में हिस्सा देना होगा। तब हम क्या करेंगे।  क्या वही दोहरायेंगे जो डंकल प्रस्ताव पर किया था। कुछ दिन विरोध सभायें कर भाषण देने के बाद खुद ही हस्ताक्षर कर हथियार डाल देंगे अमरीका वालों के दबाव में। जो वामपंथी कसमें खाते थे कभी गैट समझौते को न मानने की , खुद शामिल थे उस सरकार को समर्थन करने वालों में जिसने उसको स्वीकार किया। चुपचाप मोहर लगा दी संसद में। ये अब कोई मुद्दा ही नहीं रह गया , किसी भी दल को नहीं लगता कि इसको उठा कर कोई सरकार बनाई या गिराई जा सकती है या इसको उठाने से वोट मिल सकते हैं। जो ये नहीं कर सके वो विषय वो मुद्दा नेताओं को फज़ूल लगता है।

              मैंने कहा था कि अगर कोई ईश्वर होने का पेटेंट करवा ले , मगर हम भारत वासी खुद को भगवान हरगिज़ नहीं कह सकते।  भले है बहुत जो भगवान कहलाते हैं , मीडिया ने बना दिया अपने मकसद से , कुछ ताकत शोहरत मिलते ही खुदा बन जाते हैं इंसान नहीं रहते। मगर भगवान हैं ये नहीं कहते क्योंकि भगवान से उनको भी डर लगता है। मगर इतना तो हम कर ही सकते हैं कि ये पेटेंट अपने नाम करवा लिया जाये कि भगवान को हमने ही खोजा था। ये झूठ भी नहीं है , हम साबित कर सकते हैं। हमारे साधू संत , सन्यासी , ऋषि मुनि , देवी देवता तक वर्षों बन बन भटकते रहे , तपस्या करते रहे पर्मात्मा को पाने को। इस अपने देश में करोड़ों देव वास किया करते थे , तो बहुमत भी अपना ही साबित किया जा सकता है। अब वो सब किधर गये ये सवाल मत पूछना , कलयुग में राक्षस ही मिलते हैं उनके रूप में। लेकिन जब हमने खोजा था भगवान को तो इसका पेटेंट अपने नाम होना ही चाहिये। अब आप सोचोगे कि ऐसा करने से क्या हासिल होगा। तो समझ लो जब भगवान पर अपना पेटेंट होगा तब उसकी बनाई हर चीज़ पर अपना अधिाकर खुद ही हो जायेगा। तब उनको पता चलेगा जिन्होंने हमसे गैट समझौते पर हस्ताक्षर लिये थे। हवा पानी चांद सूरज , रौशनी अंधेरा सब की यहां तक कि बरसात की रायल्टी देनी होगी , इंद्र से लेकर सभी देवता अपने ही हैं। तब पता चलेगा उनको भी कि पेटेंट करवाना क्या होता है।

मार्च 25, 2014

भगवान के लिए अब तो इंसान बनाएं ( आलेख ) डा लोक सेतिया

 भगवान के लिए अब तो इंसान बनाएं ( आलेख ) डा लोक सेतिया

सब से पहले सभी धर्मों के अनुयाईयों से निवेदन कि कृपया इसको सही परिपेक्ष्य में समझें। मेरा किसी देवी देवता धर्म गुरु के प्रति , किसी की आस्था के प्रति रत्ती भर भी विरोध नहीं है। सच कहूं तो जो भी सभी धर्म सिखाते हैं मैंने उसी को समझने का प्रयास ही किया है। कल इक मित्र की वाल पर उनके किसी मित्र की पोस्ट को पढ़ा। जिसमें बताया गया था कि वे अपने धर्मस्थल की यात्रा पर गये और उनके साथ कोई घटना घटी और उनको सहायता की ज़रूरत आन पड़ी। उनके पास किसी का दिया एक कार्ड था और जब सम्पर्क किया तो जिन का निकला वो भी तब वहीं उस धर्मस्थल की यात्रा पर थी। इसको उन्होंने अपने ईष्ट देव की अनुकंपा बताया हुआ था। मैंने इसको उनकी इंसानियत समझा जिन्होंने उनकी सहायता की। मैंने सोचा क्या सभी देवी देवताओं को इसी तरह गुणगान कर ही भगवान नहीं बनाया गया है। और यहां सबसे पहला प्रश्न यही मन में आया कि वहां कितने ही लोग थे क्या उनमें कोई भी सहायता नहीं करता अगर उनकी जान पहचान का कोई नहीं मिल पाता। क्या ये तो और भी विडंबना की बात नहीं होती कि इतने धार्मिक लोगों में सच्चा धर्म किसी को याद नहीं होता। मगर सच तो यही है , शायद ही कोई असहाय को सहारा देने को तत्पर रहता है। मैंने देखा कि हम जिस धर्म ग्रंथ की पूजा करते हैं उसकी शिक्षा को मानते क्या समझते तक नहीं। हैरानी है ऐसे में हम सोचते हैं ईश्वर प्रसन्न हो जाता होगा सर झुकाने से और चढ़ावा चढ़ाने से। जिसको दाता कहते उसको भिखारी समझते हैं क्या हम , सोचना चाहिए। शायद अब इस बात को समझना होगा कि इंसान की इंसानियत बड़ी है किसी भी इष्ट देव देवता गुरु खुदा से। यकीन करें अगर हम अब भगवान बनाना छोड़ इंसान को इंसान बनाने का प्रयास करें तो न कोई भूखा रहेगा न कोई बेसहारा। वही पुराना गाना , इंसान का इंसान से हो भाईचारा , यही पैगाम हमारा। मैं देखता हूं फेसबुक पर हर कोई अपने अपने देव की तस्वीर को टैग कर जय जयकार करता रहता है। मुझे नहीं लगता ऐसा करने से किसी का कोई कल्याण होता होगा। काश लोग अपने धर्म का डंका पीटने की जगह उसका पालन कर कोई सार्थक काम कर रहे होते औरों की सहायता करने का। तब ऐसे एक कहानी नहीं होती कभी कभी , हर जगह कोई इंसान इंसानियत निभा रहा होता। शायद भगवान की किसी को ज़रूरत ही नहीं होती। किसी शायर का शेर है , अब कोई धर्म ऐसा भी चलाया जाये , जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाये। 

 

मार्च 20, 2014

अपनी महबूबा पर कवि की कविता ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

अपनी महबूबा पर कवि की कविता ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      

कवि की महबूबा ने कवि से
इक दिन कहा मनुहार से
कोई कविता मुझ पर लिखो
बोली पहली बार बड़े प्यार से ।

कवि उलझन में पड़ गया
सोचने लगा आज मर गया
कल तुमको सुनाऊंगा ये
वादा करके वापस घर गया ।

जब दोनों अगले दिन मिले
भूले सभी के सब थे गिले
इक बस वही तमम्ना थी
सुन प्रेमी की कविता दिल खिले ।

बोला कवि सुन मेरी सनम
आती है बहुत ही तुमको शर्म
आधी सुनाऊंगा मैं कविता तुझे
बाकी समझ लेना खा मेरी कसम ।

तब सुनाई कवि ने कविता नई
लिखे थे जिसमें हसीं के गुण कई
सुकोमल सुमधुर सुंदर बदन
ढूंढू तुम में हमेशा गुण यही ।

सुन कर सपनों में खो गई
तन मन से कवि की हो गई
कोई है मेरा भी इतना दीवाना
धरती से उड़ आकाश को वो गई ।

इक कसक रही सुनाई अधूरी
सोचा खुद पढ़ लूंगी कभी पूरी
चुपके से चुरा लाई वो डायरी
हो गया जब पढ़ना बहुत ज़रूरी ।

आगे कवि ने था लिखा प्रेमिका
जो चाहता वो ही सुनाने को लिखा
तुझमें नहीं कभी आता नज़र वो
रहता यही हरदम मैं तुममें ढूंढता ।

इक दिन चुरा कर ले जाओगी
कसम को मेरी तुम भुलाओगी
नहीं तुम्हारा खुद पर बस चलता
सच जान कर फिर पछताओगी ।

तुम क्या हो अब ये जान लो
सूरत को अपनी ज़रा पहचान लो
न चाल है न कोई सलीका हुस्न का
सच तो है इक कर्कश जाल हो ।

पर क्या करता था लिखना ज़रूरी
श्रोता होती है कवि की मज़बूरी
बस यही इक मुश्किल थी मेरी
वर्ना भाती है सबको तुमसे दूरी । 




मार्च 17, 2014

बेघर हैं इस घर के मालिक ( तरकश ) डा लोक सेतिया

      बेघर हैं इस घर के मालिक ( तरकश ) डा लोक सेतिया

     बहुत बड़ा ही ये मकान , कहते हैं ये भारत देश है। माना जाता है देश की सवा सौ करोड़ जनता खुद इसकी मालिक है , मगर उनको इसकी खबर ही नहीं कि ये देश उनका है। इस जनता में वे करोड़ों लोग भी हैं जो सड़कों -फुटपाथों को अपना ठिकाना बना ज़िंदगी बसर कर रहे हैं। इस देश रूपी भव्य मकान पर आज़ादी के बाद से कुछ राजनेताओं ने कब्ज़ा जमा रखा है। वे रात दिन जनसेवा की बात कर शासन के नाम पर इस घर को लूट रहे हैं बेरहमी से। इन नेताओं के कई गुट बने हुए है जिनको ये अपना दल कहते हैं , हर इक गुट का दावा है कि इस आलीशान मकान का कोई न कोई हिस्सा उसी का है। कोई किसी खिड़की को अपनी विरासत समझता है कोई दरवाज़े को अपनी मलकियत बताता है। किसी का अधिकार आंगन पर है , किसी ने छत को निजी जगह समझ लिया है। खिड़की को पकड़े कोई जब चाहे उसको बंद कर देता है और हवा रौशनी तक को नहीं आने देना चाहता तो कभी जब चाहे तब उसको खुला छोड़ देता है चाहे आंधी तूफान से तबाही मच जाये।कोई किवाड़ को पकड़े हुआ है जो चाहता है कि वही लोग भीतर जा सकें जो हर दम उसकी जय जयकार किया करें। किसी गुट ने मुख्य हाल पर अपना अधिपत्य जमा रखा है बाकी गुटों ने किसी न किसी कमरे को हथिया लिया है। इस मकान की हर चौखट पर , एक एक ईंट पर किसी न किसी का नाजायज़ कब्ज़ा है। सब की नज़र माल गोदाम और रसोई घर पर रहती है , हर कोई अधिक से अधिक खा जाना चाहता है। पूरे मकान में दरारें ही दरारें हैं भ्रष्टाचार की , जिधर भी नज़र जाती है प्रशासन की मनमानी कामचोरी का जाला दिखाई देता है। लगता है किसी को भी इसकी साफ सफाई की बिल्कुल भी चिंता नहीं है। अभी इक नया गुट इनमें आ मिला है जो हाथ में झाड़ू पकड़े हुए था और सफाई की बात कहने के वादे पर इस मकान में घुसा था लेकिन दो दिन में ही उसकी वास्तविकता सामने आ गई है उसको बाकी सभी से अधिक जगह पर अपना अधिपत्य चाहिये। जाने ये कैसी सफाई करना चाहते हैं कि खुद ही गंदगी को बढ़ाने का काम करने लगे हैं।

    कहते हैं कि इस मकान का सब से खूबसूरत जो कक्ष है उसी में सत्ता रूपी सुंदरी वास करती है। ये तमाम नेता उसी के दीवाने हैं , सब रंगरलियां मनाना चाहते है उस सुंदरी के साथ। नेताओं के लिये इस से बढ़कर कोई भी सुख नहीं है , स्वर्ग का सुख इस के सामने कुछ भी नहीं है उनके लिये। सत्ता रूपी सुंदरी को हासिल करने को ये नेता कुछ भी कर सकते हैं। लाज शर्म , ईमानदारी नैतिकता सब को त्याग सकते हैं सत्ता सुंदरी के लिये। एक बार उसको अपने बाहुपाश में जकड़ लेने का सपना सब नेता उम्र भर देखता है। नेताओं को किसी मोक्ष की कामना नहीं होती कभी , जान जा रही हो तब भी इनको सत्ता सुंदरी को छोड़ और कुछ याद नहीं होता। हर नेता जल बिन मछली की तरह तड़पता रहता है उसी के लिये। इस मकान में जो सभा भवन है उसको हम्माम कहते हैं जहां पर सभी नग्न होते हैं। इसलिये उस सभा में किसी को कुछ भी करते रत्ती भर भी शर्म का एहसास नहीं होता है।

                     हर पांच वर्ष बाद और कभी उससे पहले भी चुनाव रूपी इक मेला लगता है। लोकतंत्र नाम का इक खेल खेला जाता है। नेता एक दूसरे पर कीचड़ उछालते हैं , इक दूजे पर कालिख पोत कर होली खेलने का मज़ा लेते हैं। तब थोड़े दिन तक सड़क - फुटपाथ पर रहने वाली जनता को खुश करने , उसको मूर्ख बना फिर से अपने अपने जाल में फसाने के प्रयास सभी गुट के नेता करते हैं। इस समय नेता गुट को भी त्याग देते हैं जब उनको लगता है कि सत्ता सुंदरी विरोधी गुट में शामिल होने से उसको वरमाला पहना सकती है। जनता को हर बार नये नये सपने दिखाये जाते हैं , रोटी कपड़ा घर , विकास की बातें , उसको जीते जी स्वर्ग दिखलाने तक का दावा या वादा किया जाता है। हर बार जनता इनकी बातों के जाल में फंस जाती है वोट दे देती है इनको विश्वास करके। सत्ता के सिंहासन पर बैठते ही नेता सारे वादे सारी कसमें भूल जाते हैं और कुर्सी मिलते ही जनता रूपी द्रोपदी का चीर हरण होता है भरे दरबार में। वहां तब सब धृतराष्ट्र बन जाते हैं। और ऐसे में कोई कृष्ण भी नहीं आता है उसकी लाज बचाने को। जनता की चीख पुकार इस मकान की दीवारों में दब कर रह जाती है।

              देश की आज़ादी के बाद से यही होता आया है , नेता इस देश रूपी जिस मकान में रहते हैं उसी की नींव को खोखला करने का काम करने को देश सेवा बता रहे हैं। ये नेता और प्रशासन के लोग जिस डाल पर बैठे हैं उसी को ही काटने का कार्य कर रहे हैं। तब भी खुद को बहुत अकलमंद समझते है ये सब। इसी मकान में तमाम जयचंद , मीर जाफर , विभीषण जैसे लोग भी रहते हैं जो बाहर वालों से मिलकर घर की ईंट से ईंट बजाने को व्याकुल हैं। कायदे कानून , जनता के हक़ सब इनकी मर्ज़ी पर हैं , जनता के हित पूरे करने में कोई काम नहीं आता और नेताओं का हित साधने में सब तत्पर रहते हैं। देखा जाये तो देश का कानून भी मकान के असली मालिक का कोई अधिकार नहीं समझता है , सारे कायदे कानून उनके हितों की रक्षा के लिये हैं जिनका कब्ज़ा होता है मकान पर। बस एक बार किरायेदार बन कर घुस गये तो फिर निकलने का नाम ही नहीं लेते। मालिक को किराया तक देना ज़रूरी नहीं है , केवल झूठा वादा करते हैं कि चुनाव के बाद पूरा किराया भी देते रहेंगे और मकान की देखभाल भी बराबर करेंगे। लेकिन चुनाव बीत जाने के बाद न वो याद रहता है जो कर्ज़ चुकाना है देश की मालिक जनता का न ही उसकी हालत को सुधारने का कोई प्रयास ही किया जाता है। हर बार हालत और भी खराब हो जाती है।
  

मार्च 15, 2014

ज़िंदा मुर्दा ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

       ज़िंदा मुर्दा ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

एक सरकारी अस्प्ताल में एक डॉक्टर और एक नर्स को निलम्बित कर दिया गया। क्योंकि उन्होंने इक ज़िंदा आदमी को मरा हुआ घोषित कर दिया था। बुद्धिजीवी लोग तो हमेशा से ये कहते रहे हैं कि जो व्यक्ति सब कुछ देख कर भी अपने स्वार्थ के लिये या डर के मारे चुप रहता है और बुराई का विरोध नहीं करता वो जीवित होते हुए भी मरा हुआ ही है। अब उनकी बात को सच मान लें तो देश में बहुमत ऐसे ही लोगों का है जो जीते जी मर चुके हैं। राजनीति में जिनको हाशिये पर धकेल दिया जाता है उन नेताओं की किसी को खबर नहीं होती कि कभी जिसकी जय जय कार किया करते थे वो हैं भी कि स्वर्ग सिधार चुके हैं। राजनेताओं को सब से बड़ी इच्छा यही होती है कि उनको मौत सत्ता में रहते हुए कुर्सी पर ही आये ताकि उनका मातम पूरी शान से मनाया जाये।

         हम ये खबर बहुत बार बहुत कलाकारों के बारे पढ़ चुके हैं कि अपने युग का कोई महान अभिनेता अपने जीवन के अंतिम समय गुमनामी और मुफलिसी में दिन काटता रहा। ऐसे में उन डॉक्टर और नर्स को कोई लावारिस अगर मरा हुआ लगा तो इसमें हंगामा बरपाने जैसी कोई बात नहीं थी। ज़िंदा होना ही ज़िंदगी नहीं होता। शायरी में ये आम सी बात है , आशिक प्रेमिका की बेवफाई से खुद को मरा हुआ बताते हैं। ज़िंदा हूं इस तरह कि ग़म-ए-ज़िंदगी नहीं , जलता हुआ दिया हूं मगर रौशनी नहीं। अगर रूठी हुई प्रेमिका मान जाये तो फिर से जान में जान आ जाती है। हमने तो सुना है जीना मरना बस इक सपने की तरह है , आत्मा अजर अमर है वो केवल शरीर रूपी वस्त्र बदल लेती है। वे दोनों शायद यही कामना कर रहे थे कि इसको नया शरीर मिल जाये। असल में किसी नर्स को किसी को मृत घोषित करने का अधिकार नहीं होता। शायद उसका दोष ये था कि वो मरीज़ को इतनी ज़रा सी बात नहीं समझा पाई कि जब डॉक्टर साहब कह रहे हैं कि तुम ज़िंदा नहीं हो तो तुमको उनकी बात मान खुद ही मर जाना चाहिये। अक्सर मरीज़ नर्स की प्यार से कही बात मान लिया करते हैं।

                  यूं ऐसे भी बहुत सारे लोग हैं जिनको उनके अपनों ने ही मृत साबित कर दिया उनके नाम की जायदाद की वसीयत अपने नाम करवा कर बेचने के लिये। आजकल बैंक वाले ये प्रमाणपत्र लाने को कहते है कि मैं जीवित हूं , तभी पैंशन मिलती है। खुद डॉक्टरों को अपना पंजीकरण का नवीनीकरण ऐसा प्रमाणपत्र देकर करवाना होता है पांच वर्ष बाद। मैंने एक चाय की दुकान वाले को भी कितने लोगों को मरा हुआ घोषित करते देखा। कमाल का ढंग था उसका , उसकी ये आदत थी कि जो कोई चाय पी कर अपना बकाया नहीं चुका रहा हो बहुत दिनों से , सब के सामने उसके हिसाब के पन्ने पर लिख देता ये मर गया है। जब उसको पता चलता तब शर्मसार हो कर वो खुद पैसे दे जाया करता। लेकिन ये तीस साल पुराने युग में होता था , आजकल तो लोग शहर भर से कर्ज़ा लेकर रफूचक्कर हो जाते हैं। लोग सोचते शायद कर्ज़ों से तंग आ उसने ख़ुदकुशी कर ली है जबकि वो दूर किसी शहर में ठाठ बाठ से शान से जी रहा होता है।

                  ये मौत का फलसफा बड़ा ही अजीब है। कोई मरने की दुआ मांगता है लेकिन मौत नहीं आती तो कोई जानता है अब नहीं बच सकता मगर जीना चाहता है। किसी शायर ने तो कहा भी है "मांगने से जो मौत मिल जाती कौन जीता इस ज़माने में "। सच ये भी है कि लोग मौत के डर से जी ही नहीं रहे , रोज़ ही मरते हैं। चचा ग़ालिब भी कह गये हैं "मौत का एक दिन मुईयन है , नींद क्यों रात भर नहीं आती "। एक और शायर ये कहता है "मौत है एक लफ्ज़-ए-बेमानी , जिसको मारा हयात ने मारा "।   

मार्च 10, 2014

पणिहारी और मुसाफिर ( हरियाणवी कहानी ) लोक कथा के लेखक अनाम होते हैं

        पणिहारी और मुसाफिर ( हरियाणवी कहानी ) 

                           ( लोक कथा के लेखक अनाम होते हैं )

         किसै गाम में एक बीरबानी रहया करै थी। वा बात बहोत जाणे थी। निरे किस्से कहाणी उसकी जीभ पै धरै रहैं थे। वा बोलण में इतनी चातर थी कि अच्छे अच्छे सयाणा की भी बोलती बंद कर देती थी।

       एक दिन दोपहर में वा पाणी भरण चली गई। कुये धोरे कै चार आदमी राह चलै जाँ थे। वे उस पणिहारी तैं बोले -ए हमनै पाणी प्या दे। वा बोली -देखो भाई मैं अणजाण माणस नै पाणी कोन्या प्याऊं। पहले न्यू बता दो अक तुम कूण सो। उन मैं तैं एक बोल्या -हम तो मुसाफिर सैं। वा बोली -झूठ। मुसाफिर तो इस जगत में दोए सैं। एक सूरज और दूसरा चाँद तम कड़े के मुसाफिर ? न्यू सुण कै दूसरा बोला -हम तो तिसाये सैं। फेर वा पणिहारी बोली -तिसाये तो दुनियां में दो ए सैं एक चातक और दूसरी धरती माँ तम कड़े के तिसाये। उसका यो जवाब सुण कै तीसरा बोल्या -ए हम तो बेबस हैं। इब की बार वा बोली -बेबस तो इस दुनियां मैं दो ए सैं एक कन्या और दूसरी गऊ। तुम कड़े के बेबस।वा उन चारां गैल्यां बात करण लाग री थी कि उसका पति खेतां कान्ही तैं चालता उसी रास्ते ओड़ी आ ग्या जड़ै कुआ था। उसने दूर तैं देख्या मेरी घर आली इन चार मलंगा गैल्यां बात घडण लाग री सै। वो तावला- तावला कुएं कान्ही चल पड़या। इतने मैं उस चौथे नै भी खिज कै कह दिया -हम तो मूर्ख सैं मूर्ख एक तूं है स्याणी सै। वा फेर बोली -मूर्ख तैं इस दुनियां मैं , वा अपणी बात पूरी ना कहण पाई इतने मैं उसका पति आ गया। वो छोह मैं थर भर कै बोल्या -मैं बहोत हाण का देखूं सूं इन चार मुस्टंडा गैल्यां के मस्ती मारै सै। घर ने हो ले। घरां जा कै वो बोल्या -तेरा चाल चलण ठीक कोन्या। वा बोली -झूठ सै। मैं तो खरी सूं खरी। चाहे जिसी परीक्षा ले ले। मैं तैयार सूं।
                        उसके पति ने राजदरबार में फरियाद कर दी। राजा ने न्यायधीश बुला कै इन दोनां की बात उसके आगै रख दी। पति की बारी आई तै वो बोल्या -जी या दोपहरी मैं कुंए पै खड़ी हो कै चार मुस्टंडा गैल्यां गिरकावै थी। बस इस नै मैं ना राखूं। मेरा पीछा छुड़या दो इस तैं। राजा ने भी उसके पति की बात साच्ची मान ली।

                                   न्यायधीश बोल्या -मैं पहल्यां इसका पक्ष बी तो सुण ल्यूं फिर पाछै फैसला करूंगा। न्यायधीश इस तांही बोल्या -इस नै तो अपणी बात कह दी। तेरे चाल चलण पर इल्ज़ाम ला दिया। इब तू अपणी सफाई मैं के कहणा चाहवै सै कह दे तनै पूरा मौका दे रह्या सूं अपना पक्ष सामणे रखण ताहीं।

                        वा बोली- ना तै मैं बदचलन सूं अर ना मैं उन चारयां गैल्यां कोए मस्ती मारूं थी। वे कुएं धौरे कै जां ये। उन्नह पाणी मांग लिया। मन्नै कह दिया -दिखै मैं अणजाण ताही पाणी कोन्या प्याऊं। तुम न्यू बता दो अक तम कूण सो। उन मैं एक बोल्या -मुसाफिर। मन्नै कहा -मुसाफिर तो इस दुनियां में बस दो ए सैं एक सूरज और दूसरा चाँद। न्यायधीश ने बूझ्या -ये क्यूकर। वा बोली -न्यूं तो सब सफर करै सैं। पर अपणे मतलब खात्यर करैं सैं मगर सूरज अर चाँद तै अपना सफर जगत की भलाई ताहीं करैं सैं। सच्चे मुसाफिर तै ये दो ए सैं ना। बता मन्नै के गलत कह दिया। न्यायधीश बोल्या -बात तो तेरी ठीक लागै सै। चल आगै बता के कहणा चाहवे सै। फिर वा बोली -उन मैं तैं दूसरा बोल्या -हम तिसाये है। मन्नै कहा -तिसाये तो दुनियां मैं बस दो ए सैं एक चातक अर दूसरी धरती माता। न्यायधीश बोल्या -अपणी बात साफ -साफ समझा कै बता। वा बोली -तिस लागै पीछै सारे प्राणी कितै न कितै तिस मिटाण का राह ढूंढ ले सैं। पर धरती माता अर चातक पंछी की प्यास तो जिब बुझै सै जिब भगवान मींह बरसावै। ना तै ये दोनों तो तिसाये ए मरते रहै सैं। ये दो ए सच्चे तिसाये सैं।

                                न्यायधीश को उसकी या बात भी माननी पड़ी। वो फेर बोल्या -आगे के होया। इब उसनै  बताया कि तीसरा बोल्या -हम तो बेबस सैं। मन्नै कह्या -बेबस तो दुनियां मैं दो ए सै कन्या अर गऊ। न्यू सुण कै न्यायधीश बोल्या -या बात भी तनै खोल समझाणी पड़ेगी। उसने जवाब दिया -देखो जी गऊ का मालिक उसका जेवडा खोल कै किसै के हाथ में पकड़ा दे वा बेचारी कुछ नहीं कर सकती। अर याहे बात कन्या पै लागू हो सै। उसके माँ बाप जिस गैल्यां उसके फेरे फेर दें वा भी उसै गैल्यां ज़िंदगी भर के लिये त्यार हो जा। दोनों बेबस तो होगी ना।

                        न्यायधीश को उसकी या बात भी सही जचगी वो बोल्या - फेर क्या होगा। वा बोली - जी चौथा बोल्या हम तो मूर्ख सैं। मन्नै कहा -मूर्ख तो इस जगत में दो ए सैं। बस इस बात का जवाब देण तै पहल्यां यो मेरा पति उड़ै आ गया और मन्नै घरां ले आया। फिर थारे दरबार में मेरी शिकायत कर दी और बदचलन कहण लागया।

                        इब न्यायधीश बोल्या - देख इतना तै हम समझगे कि तू बदचलन कोन्या। पर इस सवाल का जवाब तो दे दे कि संसार में दो मूर्ख कोण कोण सैं। वा बोली - जाण दो जी के करोगे जवाब सुण कै। बस न्याय कर दो। न्यायधीश बोल्या - ना इस सवाल का जवाब भी तन्नै देणा ए पड़ेगा। वा बोली - आप नै इब ताही मेरे सारे जवाब ठीक लागै सैं। के बेरा यो जवाब गलत हो ज्या। न्यायधीश बोल्या -तू समझदार लुगाई सै। तेरा जवाब गलत नहीं हो सकता। वा बोली - ठीक सै मैं जवाब दे तै दयूंगी मगर जै कोई बुरा मान गया तै इसकी जिम्मेदारी थारी। बोलो जै मन्ज़ूर करते हो तो मैं जवाब दयूंगी। न्यायधीश व राजा बोले मन्ज़ूर।

                  इब वह बोली -पहला मूर्ख तो वो सै जो बिना पूरी बात की सच्चाई जाणे किसी पै इल्ज़ाम लगा दे जुकर मेरे पति ने ला दिया कि मैं चार मुस्टंडा गैल्यां गिरकाऊं थी। और दूसरा मूर्ख वो हो सै जो किसी की कही ओडी बात पै बिना सोचे समझे यकीन कर ले जुकर म्हारे राजा साहब नै मेरे पति की बात मान ली और मन्नै बदचलन समझण लाग्गे। छोटा मुहं बड़ी बात कहण के लिये माफी चाहूँ सूं।
                                उसकी ये बात सुण कै राजा वा न्यायधीश की आँखे खुली की खुली रहगी। वे उसके पति ताही बोले -तू तै भागवाला सै जो इतनी समझदार बीरबानी तेरी पत्नी सै। इसकी सारी बात मान्या कर सुखी रहेगा।

           ( सूचना - ये रचना हरिगंधा पत्रिका के फरवरी मास के अंक में प्रकाशित हुई है । 
   जिस का नाम पत्रिका में दिया गया है उस लेखिका की अनुमति से ही प्रकाशित किया गया है मेरे द्वारा      अपने ब्लॉग पर । 
साभार ।  मुझे बताया गया है कि ऐसी सभी कथायें कुछ अनाम लेखकों की रचना होती हैं ) 
 

 

मार्च 08, 2014

कहां से कहां आ गये हम लोग ( आईने के सामने ) डा लोक सेतिया

 कहां से कहां आ गये हम लोग (आईने के सामने) डा लोक सेतिया

सच कहूं तो अभी समझ नहीं आ रहा कि आज लिखना क्या है। बस यही चाहता हूं कि कुछ नया लिखा जाये सार्थक लिखा जाये। विषय तमाम हैं मन में फेसबुक से लेकर समाज तक , देश की राजनीति से लेकर पत्रकारिता तक। अपनी गली की बात से देश की राजधानी तक। इधर उधर यहां वहां सब कहीं का हाल। बहुत ही आश्चर्य की बात है जिस किसी से भी चर्चा करो सभी जानते हैं कि कहीं भी सब ठीक नहीं है। मगर किसी को सच में इस बात से सरोकार नहीं है कि उसको कब कौन कैसे सही करेगा। क्या हम किसी और देश की बात करते हैं , ये अगर हमारा अपना वतन है तो इसकी बदहाली को देख कर हम भला चैन से कैसे रह सकते हैं। कभी कभी लगता है जैसे हम लोग संवेदनहीनता का शिकार हो गये हैं। किसी को किसी के जीने मरने से कुछ फर्क नहीं पड़ता है। जिसको देखो अपना ही रोना रो रहा है। ये बेहद चिंता का विषय है कि लोग शोर भले मचाते हों सब देशवासी एक हैं ये देश सभी का है और हम एक हैं मगर ये बात वास्तव में दिखाई देती नहीं है। क्या यही आधुनिक होना है , क्या हम सभ्य नागरिक बन रहे हैं या यहां हर कोई अपने स्वार्थ की बात ही सोचता है। प्रश्न बहुत हैं सामने जवाब कोई भी नहीं। एक तरफ करोड़ों लोग दो वक्त रोटी को तरसते हैं तो दूसरी तरफ कुछ लोग बेरहमी से हर चीज़ की बर्बादी दिन रात करते हैं। क्या ये देश दो हिस्सों में बटा हुआ है , विशेष लोगों को सभी कुछ और बाकी आम लोगों को कुछ भी नहीं। कितने राजनैतिक दल कितने तथाकथित नेता हैं देश में , लेकिन सभी का ध्येय सत्ता की राजनीति करना मात्र हो गया है। सब जोड़ तोड़ सारी भागमभाग कुर्सी हथियाने का एकमात्र मकसद लेकर। कोई विचारधारा नहीं , कोई योजना नहीं देश में सभी को एक समान जीने के हक़ मिलने की। ये कैसा विकास हो रहा है जिसमें गरीब और अमीर के बीच अंतर खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा , बल्कि और अधिक बढ़ता ही जा रहा है। क्या ये हैरानी की बात नहीं है कि जब देश समाज रसातल की तरफ जाता नज़र आता है तब हम तथाकथित पढ़े लिखे लोग कोई चिंतन करने की बजाय फेसबुक पर ट्विटर पर चैटिंग पर मौज मस्ती कर अपना समय बिताते नहीं व्यर्थ बर्बाद करते हैं। कभी काश सोचते कि यही वक़्त यही साधन यही ऊर्जा किसी और की भलाई करने पर लगाते। ऐसा लगता है हम आंख वाले अंधे बन चुके हैं , आस पास कुछ भी घटता रहे हम विचलित नहीं होते। पत्रकारिता करने वाले कभी निष्पक्ष और निडर ही नहीं होते थे बल्कि उनका उदेश्य धन कमाना कभी नहीं होता है। तब कहा जाता था कि पैसा ही बनाना है तो और कोई काम कर लो अगर पत्रकारिता करनी है तो अपना घर जला कर भी रौशनी करो। आज वही पत्रकारिता शुद्ध कमाई का कारोबार बन चुकी है , विज्ञापन , प्रसार संख्या , टी आर पी , यही मापदंड बन गये हैं इनके। सच बोलते नहीं हैं , झूठ को सच का लेबल लगा कर बेचने का काम करते हैं। एक अंधी दौड़ में शामिल हो चुके हैं ये सब , एक नीचे गिरता है तो बाकी भी उससे भी नीचे गिरने को तैयार हैं , अवल आने के लिये। लगता है इनमें यही प्रतियोगिता चल रही है कि कौन मूल्यों का कितना अवमूल्यन करता है। धर्म जो दीन दुखियों की सेवा की बात किया करता था आज वो भी धन संपति जोड़ने और अहंकार करने की राह चल पड़ा है। हर बात में लाभ हानि का गणित होता है चाहे वो शिक्षा के विद्यालय हों , स्वास्थ्य सेवा देने वाले अस्प्ताल या फिर समाज सेवा ही क्यों नहीं हो। वो जिनके पास दौलत के अंबार लगे हैं वे भी दौलत की हवस में अंधे हो बिना जाने समझे हर उचित अनुचित रास्ता अपना रहे हैं। ये फिल्मी सितारे हों या खिलाड़ी या फिर येन केन प्रकरेण धन कमाने वाले यही आज के आदर्श बन गये हैं और इनका गुणगान किया करता है आज का मीडिया जो खुद इन के जैसा ही बनना चाहता है। जनहित , देशहित , त्याग और समाजिक मूल्यों की बातें शायद किस्से कहानी की बात लगती है या कुछ ऐसी पुरानी किताबों में लिखी हुई है जो अब उपयोगी समझी ही नहीं जाती। राम और कृष्ण का देश नहीं रह गया ये देश अब , रद्दी के भाव बिकती हैं आदर्शवादिता की सारी बातें।सच कहूं तो अपने देश की , अपने समाज की इस बर्बादी के लिये हम सभी किसी न किसी रूप में ज़िम्मेदार हैं। चलो सब आगे बढ़ें और अपने अपने हिस्से की धूल को साफ करें। दोष उसका नहीं जो आईना दिखाता है , दाग़ अपने चेहरे पर जो हैं , साफ उनको करना होगा।  
 

 

मार्च 02, 2014

ज़िंदगी के दो किनारे ( तरकश ) डा लोक सेतिया

      ज़िंदगी के दो किनारे ( तरकश ) डा लोक सेतिया

       ज़िंदगी इक बहते हुए पानी की नदी है जिसके दो किनारे होते हैं। शादी इस तरफ का किनारा है तो प्यार इश्क़ मुहब्बत उस दूसरी तरफ का किनारा। साफ बात तो ये है कि शादी और प्यार मुहब्बत दो अलग अलग चीज़ें हैं। जाने क्यों कुछ लोग गुमराह करते हैं ये समझा कर कि प्यार करने वालों को विवाह के बंधन में बंध जाना चाहिये , कुछ लोग ये अफवाह भी फैलाते हैं कि शादी कर ली जिस किसी से उसी से प्यार खुद-ब-खुद हो ही जाता है। सच कहा जाये तो शादी और इश्क़ दोनों दुनिया की सब से गंभीर समस्याओं के नाम हैं जिनका आज तक हल कोई भी खोज नहीं पाया है। ये सवाल बेहद कठिन है कि जो एक दूसरे को सच्चा प्यार करते हों उनको आपस में शादी करनी चाहिये या नहीं। देखा जाये तो जिसे सच्चा प्यार करते हैं उसकी भलाई चाहते हैं तो उसको आज़ाद ही रहने देना चाहिये , बंधन में जकड़ कर खुद ही अपने प्यार का गला न दबायें। जीवन  भर साथ जीने मरने का शौक आप दोनों के सपनों को बिखर जाने टूट कर चूर चूर होने का कारण बन सकता है। जैसे कोई अदालत किसी बेगुनाह को सूली पर चढ़ाने के बाद किसी भी तरह भूल सुधार नहीं कर सकती , किसी को फिर से जिवित नहीं कर सकती उसी तरह शादी की गलती को भी सुधारा नहीं जा सकता है। शादी करने के बाद तलाक लेना देना भी इक नई गलती है न कि पहली गलती को सुधारना। शादी एक ऐसा चक्रव्यूह है जिस से कोई अभिमन्यु बाहर नहीं निकल पाता है एक बार फस जाने के बाद।


             ऐसा लगता है कि विवाह की परंपरा कुछ लोगों ने अपना कारोबार चलाने को शुरू की होगी। बैंड बाजे वाले , टेंट वाले , हलवाई , रौशनी करने के काम में लगे लोग यही चाहते हैं कि हर दिन ऐसा कुछ न कुछ चलता ही रहे। कभी नाई और पंडित किया करते थे कुंवारों को सपनों के जाल में उलझाने का काम तो आजकल मैरिज ब्यूरो से लेकर इंटरनेट तक हर तरफ जाल ही जाल बिछा रखा है। अब कोई बच कर जाये तो जाये किधर। शायद मन पसंद वर वधू की तलाश करना दुनिया का सब से कठिन कार्य है , लगभग असंभव। इक सिनेमा की नायिका ने कई साल पहले टीवी पर शो शुरू किया था जोड़ियां बनाने का। " कहीं न कहीं कोई है " नाम सुनते ही सिरहन सी होती थी , मुझे तो ये किसी हॉरर फिल्म का शीर्षक लगता था। मैं उस कार्यकर्म को देखने का साहस कभी नहीं कर पाया था। बाद में भी टीवी पर सवयंबर होते रहे किसी तमाशे की तरह। जिस नायिका ने शुरुआत की थी उसको जीवन साथी विदेश में कहीं मिल सका। अब सब लोग तो देस को छोड़ परदेस नहीं जा सकते , यहां की नायिका तो हर दम गुनगुनाती है " परदेसियों से न अखियां मिलाना "।

                 अपने जीवन साथी को लेकर सभी की मधुर कल्पना होती है। कौवा भी खुद को हंस समझ कर सच्चे मोती की तलाश करता है। हर लड़का हर लड़की अपने लिये हज़ारों नहीं लाखों में एक की तलाश करते हैं। जब किसी को चुन कर विवाह कर लेते हैं तब पता चलता है कि जल्दबाज़ी में सही निर्णय नहीं लिया जा सका। तब पछताये कुछ हासिल नहीं होता , चुप रहने में ही भलाई है , गले पड़ा ढोल बजाना पड़ता है उम्र भर। असली ज़िंदगी में सपनों की हसीन दुनिया का नामो-निशान तक नज़र आता नहीं। दूर के ढोल सुहावने लगते हैं इसका पता पति पत्नी दोनों को बहुत जल्द चल जाता है। कुछ लोग शादी को दो दिलों का मिलन समझते हैं , कुछ इसको शुद्ध लेन देन का इक कारोबार। दहेज की कीमत चुकाने के बाद ही दूल्हा खरीदा जाता है। शादी में रिश्तेदार और जान पहचान वाले सभी बुलाये जाते हैं ये खबर देने को कि दो लोग आज से कुंवारे नहीं रह गये हैं। जैसे किसी शोरूम में कोई माल सोल्ड का लेबल चिपका कर रखा हो , उसको कोई खरीदने की बात नहीं कर सकता। आजकल अच्छे दूल्हे का खरीदार ही नहीं मिलता , कितने दूल्हे बिक्री के लिये शोरूम में रखे रहते हैं। यूं शादी करने को उम्र की कोई सीमा तो नहीं होती लेकिन इक उम्र के बाद डिमांड खत्म हो जाती है। सब कुछ की चाहत में कुछ भी हासिल नहीं होता। मूर्ख लोग ही दोबारा शादी किया करते हैं , उनके लिये रिजेक्टेड माल ही उपलब्ध होता है। तब लगता है कि पहली वाली इससे अच्छी थी , तलाक नहीं देना था।

                टीवी सीरियल की बात और है। उनके पास विषय ही यही बचा है , शादीशुदा नायक की कुंवारी प्रेमिका या किसी कुंवारे का विवाहित पर फिदा होना। असल जीवन में सब को नयापन ही पसंद होता है। असली ज़िंदगी में शादी भी मुश्किल से हो पाती है और तलाक तो बहुत ही मुश्किल। लेकिन फ़िल्म वालों की कहानी में और टीवी सीरियल में कुछ कागज़ों पर हस्ताक्षर करते ही तलाक हो जाता है। कई सीरियल में दर्शक याद तक नहीं रख सकते कि कब कौन किसका पति था , कौन किसकी पत्नी और अब किसका किससे क्या रिश्ता हो गया है। आजकल प्रेम विवाह का प्रचलन बढ़ गया है ऑनर किलिंग्स के बावजूद। लेकिन अब प्रेम भावनात्मक नहीं रह गया है , बिना सोचे समझे नहीं होता , ठोक बजा कर किया जाता है। पुराने युग का इश्क़ केवल कहानियों तक सिमित हो गया है। इस दौर के आशिक़ तू नहीं और सही में यकीन रखते हैं। शायद ये जान चुके हैं कि ये इश्क़ नहीं आसां। सच तो ये है कि शादी और प्यार मुहब्बत नदी के दो किनारों की तरह है , इनके बीच बने पुल अधिक दिन तक टिका नहीं करते।

1 तू पी - तू पी ( लोक कथा ) 2 धरती का रस ( नीति कथा ) अनाम लेखक की रचनाएं होती हैं लोक कथाएं

                तू पी -तू पी ( लोक कथा )

ये राजस्थानी लोक कथा है। बचपन की दो सखियां रेगिस्तान से गुज़र रही होती हैं। रास्ते में उनको एक विचित्र दृश्य नज़र आता है। हिरणों का इक जोड़ा वहां मृत पड़ा होता है और पास में थोड़ा सा पानी भी होता है। इक सखी पूछती है दूसरी सखी से भला ऐसा क्योंकर हुआ होगा , ये दोनों प्यासे कैसे मरे हैं जब यहां पानी भी था पीने को। दूसरी सखी बताती है ये दोनों इक दूजे को प्रेम करते थे , प्यास दोनों को बहुत लगी थी लेकिन पानी कम था इतना जो इनमें से एक की प्यास ही बुझा सकता था। दोनों इक दूजे को कहते रहे तू पी - तू पी , मगर पिया नहीं किसी ने भी। दोनों चाहते थे कि जिसको प्रेम करते वो ज़िंदा रहे और खुद मर जायें , साथ साथ मर कर अपने सच्चे प्रेम की मिसाल कायम कर गये। सखी इसको ही प्यार कहते हैं।

                       बहुत साल बीत गये और वो दोनों सखियां बूढ़ी हो गई। फिर रेगिस्तान में उनको वही दृश्य दिखाई दिया और फिर एक सखी ने कहा दूसरी से कि देख सखी वही बात आज भी नज़र आ रही है। दूसरी सखी बोली अरी सखी तू किस युग की बात करती है ये वो बात नहीं है। हालत वही थी कि दोनों प्यासे थे मगर पानी थोड़ा था जो किसी एक को बचा सकता था। ये दोनों आपस में लड़ते रहे पानी खुद पीने के लिये। दूसरे को नहीं पीने देने के लिये लड़ते हुए मर गये , किसी ने भी दूसरे को पानी नहीं पीने दिया। ये आज के प्रेमियों के स्वार्थ की बात है सखी , अब वो प्यार कहां जो दूजे के लिये जान देते थे।

             धरती का रस ( नीति कथा )

एक बार इक राजा शिकार पर निकला हुआ था और रास्ता भटक कर अपने सैनिकों से बिछड़ गया। उसको प्यास लगी थी , देखा खेत में इक झौपड़ी है इसलिये पानी की चाह में वहां चला गया। इक बुढ़िया थी वहां , मगर क्योंकि राजा साधारण वस्त्रों में था उसको नहीं पता था कि वो कोई राह चलता आम मुसाफिर नहीं शासक है उसके देश का। राजा ने कहा , मां प्यासा हूं क्या पानी पिला दोगी। बुढ़िया ने छांव में खटिया डाल राजा को बैठने को कहा और सोचा कि गर्मी है इसको पानी की जगह खेत के गन्नों का रस पिला देती हूं। बुढ़िया अपने खेत से इक गन्ना तोड़ कर ले आई और उस से पूरा गलास भर रस निकाल कर राजा को पिला दिया। राजा को बहुत ही अच्छा लगा और वो थोड़ी देर वहीं आराम करने लगा। राजा ने बुढ़िया से पूछा कि उसके पास कितने ऐसे खेत हैं और उसको कितनी आमदनी हो जाती है। बुढ़िया ने बताया उसके चार बेटे हैं और सब के लिये ऐसे चार खेत भी हैं। यहां का राजा बहुत अच्छा है केवल एक रुपया सालाना कर लेता है इसलिये उनका गुज़ारा बड़े आराम से हो जाता है। राजा मन ही मन सोचने लगा कि अगर वो कर बढ़ा दे तो उसका खज़ाना अधिक बढ़ सकता है। तभी राजा को दूर से अपने सैनिक आते नज़र आये तो राजा ने कहा मां मुझे इक गलास रस और पिला सकती हो। बुढ़िया खेत से एक गन्ना तोड़ कर लाई मगर रस थोड़ा निकला और इस बार चार गन्नों का रस निकाला तब जाकर गलास भर सका। ये देख कर राजा भी हैरान हो गया और उसने बुढ़िया से पूछा ये कैसे हो गया , पहली बार तो एक गन्ने के रस से गलास भर गया था। बुढ़िया बोली बेटा ये तो मुझे भी समझ नहीं आया कि थोड़ी देर में ऐसा कैसे हो गया है। ये तो तब होता है जब शासक लालच करने लगता है तब धरती का रस सूख जाता है। ऐसे में कुदरत नाराज़ हो जाती है और लोग भूखे प्यासे मरते हैं जबकि शासक लूट खसौट कर ऐश आराम करते हैं। राजा के सैनिक करीब आ गये थे और वो उनकी तरफ चल दिया था लेकिन ये वो समझ गया था कि धरती का रस क्यों सूख गया था।

              ( ये दोनों कहानियां आज की वास्तविकता को भी दर्शाती हैं )