अक्तूबर 30, 2013

कारोबार ( लघुकथा ) - डॉ लोक सेतिया

          कारोबार ( लघुकथा ) डॉ लोक सेतिया

प्रकाशक जी बोले , 
मैंने आपकी ग़ज़लें पढ़ ली हैं , बहुत ही अच्छे स्तर की रचनाएं हैं । मुझे आपका ग़ज़ल संग्रह छाप कर बेहद ख़ुशी होगी । मगर आपको हमें दो सौ पुस्तकों का मूल्य अग्रिम देना होगा , छपने पर आपको दो सौ किताबें भेज दी जायेंगी । 
 
शायर हैरान हो गया , बोला प्रकाशक जी अभी कुछ दिन पूर्व मेरे दो मित्रों की पुस्तकें आपने प्रकाशित की हैं और उनसे आपने एक भी पैसा नहीं लिया है । क्या आपको उन दोनों की ग़ज़लें अधिक पसंद आई थी ।
 
प्रकाशक  जी हंस कर बोले ,  वो बात नहीं है । 
सच कहूं तो आपकी रचनायें उन दोनों से कहीं अधिक पसंद आई हैं मुझे । मगर साफ कहूं तो उनकी किताबें बिना कुछ लिये छापना हमारी मज़बूरी थी , इसलिये कि वो दोनों ही हर वर्ष अपने अपने कालेज की लायब्रेरी के लिये हज़ारों की पुस्तकें हमारे प्रकाशन से खरीदते हैं । 
 
अब आप से हमें ऐसा कोई सहयोग मिल नहीं सकता इसलिये अपनी किताब छपवानी है तो आपको ये करना ही होगा । आपकी पुस्तक छापना हमारी मज़बूरी नहीं है । आपकी पुस्तक छापना  हमारे लिये केवल कारोबार है । आप हमसे छपवाना चाहते हों मोल चुका कर तो हमें बेहद ख़ुशी होगी । साहित्य से उनका यही रिश्ता है उनका धंधा है इधर थोड़ा मंदा है ।



1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

यही सच है सर👌👍