समझाने वालों ने बर्बाद किया ( हक़ीक़त ) डॉ लोक सेतिया
इधर व्हाट्सएप्प फेसबुक पर जैसे कोई आग जल रही है दोस्तों को जानपहचान वालों को प्यार शुभकामनाओं के संदेश औपचरिकता निभाने को भेजने वाले समाज को धर्म या विचारधारा के नाम पर बांटने वाले वीडियो और संदेश बड़ी शिद्दत से भेजते हैं। मुझे कितनी बार समझाना पड़ा है निवेदन किया कृपया मुझे ये किताब मत पढ़ाओ मुझे सिर्फ मुहब्बत का सबक याद रखना है। दोस्त दोस्ती भुला बैठे करीबी लोग रिश्ते नाते सभ्य शिष्टाचार की मर्यादा लांघ कर ऐसे वार्तालाप करने लगे कि बोलचाल बंद है। जाने ये कैसा धर्म कैसी आस्था कैसी अंधभक्ति है जिस ने तमाम लोगों को पागल कर दिया है । मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना वाली कहानी पुरानी है आजकल धर्म मज़हब लोगों को क़त्ल करना दंगे फसाद करने की सीख देने लगे हैं। कभी चालबाज़ अशिक्षित नासमझ लोगों को झूठ को सच बताते थे अब तो पढ़े लिखे लोग भी ऐसे स्वार्थी लोगों की बातों में आकर इस हद तक मूर्ख बन गए हैं कि झूठ की जय जयकार करने लगे हैं। बड़े बड़े पद नाम शोहरत वाले लोग किरदार में ख़लनायक को पीछे छोड़ चुके हैं। देश के रखवाले होने की नकाब पहन नेता देश की संपदा लूट कर खाने लगे हैं चालीस चोर अलीबाबा के दिल को लुभाने लगे हैं।
इतनी छोटी सी बात समझते समझते ज़िंदगी गुज़र गई कि समझदार कहलाने वाले लोगों ने मुझे उन राहों पर चलने को विवश कर बर्बाद किया जिन पर मुझे चलना पसंद नहीं था। अभी तुम छोटे हो बच्चे हो नासमझ हो जानते नहीं अच्छा बुरा क्या है हम तेरे शुभचिंतक हैं तुझसे बेहतर समझते हैं तुम्हें क्या करना चाहिए और किस तरह कहां कैसे जीना चाहिए। जीवन के अधिकांश महत्वपूर्ण निर्णय मुझे इसी तरह लेने पड़े हैं क्योंकि मुझे भयभीत किया गया कि अपनी मर्ज़ी से चुनी राह पर चलना सुरक्षित नहीं नतीजे खतरनाक होंगे। शायद उनकी आशंका उचित रही हो लेकिन खुद अपनी समझ से अपनी पसंद की डगर चलता तो इस बात का पछतावा नहीं होता कि मुझे अनचाही राहों पर चलकर हासिल कुछ भी नहीं हुआ। और आज वही कहते हैं कि मुझे औरों की समझाई बात पर भरोसा नहीं करना चाहिए था खुद अपनी मंज़िल चुननी चाहिए थी। मगर कितनी अजीब बात है कि आज भी मुझे समझाया जाता है कि आपको तजुर्बा नहीं है हम शिक्षक हैं अनुभवी हैं तजुर्बेकार हैं तुम्हें वही करना चाहिए जैसा हम समझते हैं। कोई नहीं सोचता कि जिसकी ज़िंदगी जुड़ी है उसकी अपनी सोच इच्छा सबसे अधिक महत्व रखती है। मुझे जो चाहिए उसको छोड़ कर जो और समझते हैं उस को अपनाना चाहिए। जबकि खुद ऐसे लोग हमेशा वही करते हैं जो उनको अच्छा लगता है उनको किसी की सलाह ज़रूरी नहीं लगती लेकिन सबको नसीहत देना पसंद है। हमारी मुश्किल ये भी है कि हम उनसे शिकायत भी नहीं कर सकते कि उन्हीं के भरोसे उनकी बातों को मानकर हम चलते रहे अनचाही राहों पर खुद की मर्ज़ी को छोड़कर और नतीजा हम नहीं पहुंचे कहीं भी। नहीं ये मेरी ज़िंदगी की कहानी नहीं है उन लोगों की बात है जो धार्मिक आस्था के नाम पर या किसी गुरु की भक्ति किसी व्यक्ति नेता अभिनेता खिलाड़ी के प्रशंसक बनकर अपने विवेक की समझ की तर्क की बात नहीं समझते और नफरत भेदभाव की इंसानियत को शर्मिंदा करने वाली बातें करते हुए खुद को देशभक्त एवं धर्म के झंडाबरदार समझते हैं। सारे जहां से अच्छा गीत लिखने वाले इक़बाल की दो रचनाओं से समस्या और समाधान की राह ढूंढते हैं।
1 नई तहज़ीब ( अल्लामा इक़बाल )
उठाकर फेंक दो बाहर गली में , नई तहज़ीब के अण्डे हैं गन्दे ।
इलेक्शन , मिम्बरी , कौंसिल , सदारत , बनाए खूब आज़ादी के फंदे।
2 फ़लसफ़ा - ओ - मज़हब ( इक़बाल )
यह आफ़ताब क्या यह सिपहरे बरी है क्या
( ये सूरज ये ऊंचा आकाश क्या है )
समझा नहीं तसलसुले शाम ओ सहर को मैं।
अपने वतन में होके गरीबुद्दयार हूं
डरता हूं देख देख के इस दश्त-ओ - दर को मैं।
खुलता नहीं है मेरे सफरे - ज़िंदगी का राज़
लाऊं कहां से बंदा ए साहब नज़र को मैं।
हैरां हूं बू अली कि मैं आया कहां से हूं
रूमी यह सोचता है कि जाऊं किधर को मैं।
जाता हूं थोड़ी दूर हर इक राहे - रौ के साथ
पहचानता नहीं हूं अभी रहबर को मैं।
जब कोई भी सोच कोई व्यवस्था कोई औषधि कोई आहार सड़ गाल जाता है तब उसका उपयोग ख़तरनाक जानलेवा साबित हो सकता है। हमारी राजनैतिक धार्मिक संस्थाओं संगठनों की हालत यही हो चुकी है। दुष्यंत कुमार के शब्दों में " अब तो इस तालाब का पानी बदल दो , ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।
2 टिप्पणियां:
आप का आकलन सही है, जी।
पढ़े लिखे लोग...झूठ की जय जयकार..👌 अपनी पसंद की डगर चलता तो...कोई भी सोच कोई व्यवस्था....👍👌👌 अच्छा लेख सर
एक टिप्पणी भेजें