अप्रैल 19, 2018

हसरत ही रही ( अधूरा ख़्वाब ) डॉ लोक सेतिया

       हसरत ही रही ( अधूरा ख़्वाब ) डॉ लोक सेतिया 

अकेला चला जा रहा था
राह में मिले कुछ लोग 
 
वही पुरानी पहचान थी
वही बचपन की बातें हुईं ।

उन्हें भी गांव ही जाना था
रास्ता कब कैसे कट गया 
 
पैदल चलते चलते नहीं पता
कोई थकान नहीं थी किसी को ।

घर की गली में आते याद आया
किसी जगह जाना था सभा में 
 
थोड़ा समय अधिक हो गया था
सोचा पहले मां से मिलता हूं ।

दिल में इक हसरत थी उठी
आज अपनी झाई ( मां ) से 
 
पांव छूने की जगह पहले जाते
कस कर लगना है मुझे गले ।

याद नहीं आता मुझे कभी भी
हुआ होगा ऐसा वास्तव में 
 
सोचा भी नहीं लगता अजीब
दरवाज़ा खोला गया करीब ।

सब अपनों से राम राम हुई
रसोई में बना रही थी मां कुछ 
 
बाहर से खुशबू आ रही थी
सुनाई दिया स्वर मां गा रही थी ।

गले मिलता पांव छूकर तभी
पास जाता अपनी मां के करीब 
 
नींद खुली अधूरा रह गया ख़्वाब
हसरत दिल की हसरत ही रही ।

कितने बरस बीत गए इस बीच
दुनिया से चली गई मां भी 
 
बचपन कहां अब बुढ़ापा है
नहीं उस गली गांव से नाता है ।
 

 

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