वजूद की तलाश में ( कविता ) - डॉ लोक सेतिया
जाने कहां खो गया हूं मैंखोजना चाहता हूं अपने आप को
वापस चला जाता हूं
ज़िंदगी की पुरानी यादों में
समझना चाहता हूं दोबारा
किस मोड़ से कैसे मुड़ गया था
रास्ता ज़िंदगी की राह का कभी ।
शायद चाहता हूं जानना
कि क्या होता अगर तब मैंने
चुनी होती कोई और ही राह चलने को
तब कहां होता मैं आज और क्या होता
मेरा वर्तमान भी और भविष्य भी ।
लेकिन समझ आता है तभी मुझे
ये सच कि कोई कभी भी
लिखी हुई किताब को दोबारा पढ़कर
बदल नहीं सकता है लिखी हुई
इबारत को
गुज़रे हुए पलों को ।
हो सकता है
मेरी ज़िंदगी की किताब में
बीते हुए ज़माने की ही तरह
पहले से ही लिखा हुआ हो मेरा
आने वाला कल भी भविष्य भी
शुरुआत से अंत के बीच
न जाने कब से भटकता रहा हूं
और भटकना है जाने कब तलक
अपने खोये हुए वजूद की तलाश में
मुझे ।
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