ज़िन्दगी चाहती है ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
चाहती है ज़िंदगीअभी शायद
और बहुत कुछ दिखाना
तभी चलते चलते
थोड़ा सा थामकर
कहती है बार-बार
सोचो देखो समझो
क्या है हासिल
और हर विपति मुझे
कुछ और ताकत
देकर जाती है हमेशा ।
मालूम होता है तभी
कौन कैसा है अपना-पराया
जो नहीं जान सकते थे
बर्सों में भी हम
ज़िंदगी का कठिन दौर
दिखा देता है ,
समझा देता है
चंद ही दिनों में ।
नहीं सोचता हूं मैं
जीना है कब तलक
न कोई डर है मौत का
मगर चाहता हूं
समझना अपने जीवन की
सार्थकता
नियति ने जो भी तय
किया होगा मेरा किरदार
मुझे निभाना है उसे
निष्ठा से इमानदारी से ।
2 टिप्पणियां:
सही बात
doctor sahib may i use this poem in my article ?
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