अगस्त 12, 2020

इक गुनहगार जैसी ज़िंदगी ( हिक़ायत ) डॉ लोक सेतिया

   इक गुनहगार जैसी ज़िंदगी ( हिक़ायत ) डॉ लोक सेतिया 

मैंने भूलना चाहा था भुलाया भी मगर भूली हुई कहानी हमेशा की तरह फिर से याद आई और मुझे तेरे मंदिर की चौखट पर ले आई चुपचाप आंसू बहाने को। कितनी बार पहले भी निराशा के घनघोर अंधेरे में चला आता रहा तेरे पास कोई और नहीं जिसको अपनी व्यथा कहता। जिनको हंसी ख़ुशी नहीं दे सका उनको अपने दर्द और बेबसी के आंसू कैसे दिखलाता उनके मन को और तकलीफ़ देने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। मैंने कभी किसी को कुछ भी नहीं दिया देना चाहा मगर दे पाया नहीं विवशता थी चाहे बदनसीबी। तुम हो भी कि नहीं हो क्या खबर लेकिन अपनी बदनसीबी का इल्ज़ाम और किसी पर कैसे धरता भला। भरोसा था कभी तो कोई उजाला होगा मेरे जीवन में पर इतनी लंबी ज़िंदगी में घना अंधेरा छोड़कर कोई सवेरा रात के बाद लेकिन मेरे जीवन में कभी किसी रात की कोई सुबह नहीं हुई। शायद कभी कभी थोड़ी रौशनी मुझे मिली भी तो जैसे मांगी हुई क़र्ज़ की तरह या उधार की अथवा चुराई हुई जिस पर मेरा हक नहीं था। मेरे हाथ खाली रहे और दामन में कांटे ही कांटे भरे हुए कोई फूल नहीं था किसी को देने क्या तुझे चढ़ाने तक को। मेरे आंसू मेरी आहें शायद तुझ पर भी कोई असर नहीं ला सकीं कभी। बस तेरे दर पर आकर रोने आंसू बहाने से मन का बोझ कुछ हल्का हो जाता रहा और मुझे इक झूठी उम्मीद इक दिलासा मिलता रहा कि अब शायद मेरी फरियाद सुनकर तुझे रहम आएगा और मेरी परेशानियों का अंत हो जाएगा। 

     मुझे दुनिया से कोई गिला शिकवा शिकायत करने का कोई अधिकार ही नहीं था क्योंकि मैंने कभी किसी अपने की दोस्तों की आशाओं को पूरा नहीं किया था। चाहना कोशिश करना ये तो झूठे बहाने हैं अपनी हर नाकामी को छुपाने को। वास्तविकता यही है मुझसे किसी की उम्मीदें पूरी हुई नहीं कभी। हर कोई मुझे बड़ा खुशनसीब और अमीर समझता रहा जबकि मैंने हर दिन जीने को अपने दर्द आंसू और बेबसी का सौदा किया हालात से विवश होकर। भगवान मैंने कोई बहुत अधिक नहीं मांगा तुझसे बड़े छोटे छोटे सपने रहे हैं मेरे पल भर कोई हंसी ख़ुशी और जीवन में कुछ साल महीने या गिनती के दिन ऐसे जैसे कोई ख्वाब हो। मेरी मज़बूरी है तुझ पर आस्था विश्वास खोकर जीने को और कोई साहरा ही नहीं था। ये भी सच है कि मुझे आता नहीं है तुझे किसी तरह से मनाना भी जाने कैसे करते हैं तेरी पूजा आरती इबादत सभी लोग। मेरा मन भटक जाता है जब भी तेरे सामने बैठकर कोशिश की तुझे मनाने की तेरा गुणगान भजन कीर्तन करना नहीं आता है मन ही मन तुझसे अपनी बात कहना आता है अपने दुःख दर्द और अनचाहे भी बहने वाले आंसू रोकना नहीं आया मुझे तुझे भी देखना भला कैसे भाएगा जब कोई किसी को रोते बिलखते देख कर खुद को परेशान नहीं करना चाहता है। 

   कितनी बार सोचा था अपनी व्यथा कथा जीवनी लिखने को मगर लिखी गई नहीं क्योंकि दुनिया में किसी को दोष देना उचित नहीं था मुझे किसी अपने पराये से कोई शिकायत क्यों होती जब मैंने भी किसी की आशाओं को पूरा किया नहीं कभी। सभी का मुजरिम मैं रहा गुनहगार बनकर सज़ा मांगता रहा मिलती भी रही जीवन भर मुझे सज़ाएं। कभी तो तुझसे शिकवा गिला करता रहा कि तुमने मुझे दुनिया में जन्म दिया तो क्या इस तरह बेबसी भरी ज़िंदगी जीने को। कुछ तो लिखता मेरे नसीब में जो वास्तव में ज़िंदगी कहलाता। मांगना क्या है बताना किसे है तुम सभी कुछ जानते हो खुद ही समझ लो पता नहीं कितना और जीना बाकी है आखिर वक़्त ही सही चाहता हूं अपने मन के बोझ को उतार अपने सभी क़र्ज़ बकाया उधार चुकाकर तेरे पास कोई और दुनिया अगर है तेरी तो आकर इतना ज़रूर पूछूं मेरा कसूर क्या था जो इस तरह की ज़िंदगी मिली मुझे। 
 

 

कोई टिप्पणी नहीं: