जनवरी 22, 2019

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो ( बहुत हो चुका है ) आलेख - डॉ लोक सेतिया

      अब तो इस तालाब का पानी बदल दो ( बहुत हो चुका है ) 

                                  आलेख - डॉ लोक सेतिया

    मुझे दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लें बेहद ज़रूरी लगती हैं अगर देश की तमाम समस्याओं पर लंबी बातें और इक कभी खत्म नहीं होने वाली बहस को छोड़ संक्षेप में सार की बात कहनी करनी समझनी समझानी हो। लोग स्वीकार कर लेते हैं कि जो व्यवस्था चली आ रही है उसको बदलना संभव नहीं है और उसी को कुछ बदलाव कर थोड़ा सुधार काम चला सकते हैं। यही किया जाता रहा है और करना चाहते हैं हम जो भी गलत है उसको पूरी तरह से मिटाने का हौंसला करना नहीं चाहते हैं। बनी बनाई राह पर चलते जाना आसान है और कोई नई राह बनाना दुश्वार है और हम दुश्वारियों से बचते हैं। मगर अगर हमको मोती तलाश करने हैं तो किनारे पर बैठने से बात नहीं बन सकती है और गहराई में उतरना होगा। जब भी गांव में तालाब का पानी गंदा हो जाता था और कीचड़ भर जाता था तब गांव के लोग मिलकर उस तालाब को खाली करते उसकी तले की जमा गाद को निकालते और उसको खुदाई से साफ सफाई करने के बाद फिर से नहर से साफ़ पानी लेकर डालते और भरते थे। क्योंकि अगर गंदे पानी में और साफ़ पानी मिलाते जाते तो साफ़ पानी भी गंदा होता जाता। अपनी दूसरी ग़ज़ल के दूसरे शेर में इस समस्या का हल समझाते हैं दुष्यंत कुमार। 

            अब तो इस तालाब का पानी बदल दो , ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।

अब बात वास्तविक समस्या की , एक तरफ बहुमंजिला इमारतें और चमकती सड़कें और आलीशान भवन और आधुनिक साधन जिन पर केवल बीस फीसदी लोग सुविधाओं और आराम का जीवन जीते हैं। दूसरी तरफ चालीस फीसदी मध्यम वर्ग हर दिन जीने की कोशिश करता है और इक और तीसरा वर्ग है जिस को दो वक़्त रोटी भी नसीब नहीं है और तीस से चालीस फीसदी लोग बुनियादी सुविषओं से वंचित हैं। पहला अमीर वर्ग धन को उड़ाता है बर्बाद करता है अनावश्यक कार्यों पर दिल बहलाने को , मध्यम वर्ग भी यथासंभव कोशिश करता है अपनी ज़रूरतों को और बढ़ाने को अपनी आमदनी को खुद बेहतर साधन हासिल करने को। अपने से ऊपर वाले को हर कोई देखता हैं नीचे वालों को देखना नहीं चाहते और दिखाई देते हैं तो हिकारत से देख सोचते हैं कि उनकी बदनसीबी है और काबिल नहीं हैं किसी काम के। जबकि उनको बराबरी का अवसर मिलता ही नहीं किसी भी तरह से। उनकी शिक्षा उनका रहन सहन उनकी स्वास्थ्य सेवाएं निम्न स्तर की और पीने को पानी रहने को झुग्गी झौपड़ी भी बसीब नहीं। ये बेहद खेद की बात है कि अभी तक किसी भी सरकार ने उनको उनके अधिकार देना लाज़मी नहीं समझा है। उनको भीख की तरह खैरात पाकर खामोश रहने को विवश किया जाता रहा है और उनकी भलाई भाषण और फाइलों की भाषा बनकर रह गई है।  दुष्यंत कुमार कहते हैं। 

         ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल लोगो , कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगो। 

          किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में , तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नकल लोगो। 

   ये जो सत्ताधारी और विपक्षी राजनेताओं को राजनीति इक देश और जनता की सेवा करने की जगह नहीं केवल अपने लिए सब कुछ और सबसे अधिक उचित अनुचित पाने का साधन लगने लगी है और इक लूट का कारोबार बन चुकी है उसका अंत होना चाहिए। सबसे पहले हमने जिसे सांसद विधायक चुनना है उसी से शुरुआत की जानी होगी। कोई भी दल हो अगर अपराधी और लोभी लालची को खड़ा करते हैं तो हम उसे नकार सकते हैं जिस दिन सभी दल वालों को संदेश मिलेगा कि जो लोगों से जुड़ा नहीं और खुद जनता के पास जाकर उनकी वास्तविक समस्याओं की बात कभी नहीं पूछता उसको लोग नहीं चुनेंगे उस दिन किसे टिकट देना है इसका निर्णय कोई आलाकमान नहीं इलाके के वोटर करेंगे। और हमको उस को वोट देने से पहले कुछ सवाल करने होंगे। क्या उसको पता है उसका अधिकार क्या है और कर्तव्य क्या हैं। क्या उसको देश का संविधान बड़ा लगता है और कानून का शासन या अपने दल के नेताओं की चाटुकारिता और उनकी हर अनुचित बात पर चुप रहना। दल किसे प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री बनाये इसका निर्णय जनता के निर्वाचित सदस्य करेंगे या कोई दो चार लोग। मनोनयन की गलत चली आई परंपरा का अंत करना होगा और देश के संविधान की भावना के अनुसार सांसद और विधायक अपनी मर्ज़ी से सही व्यक्ति को अपना नेता चुनेंगे। कुछ शेर इस को भी बयां करते हैं। 

      हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए , इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। 

        मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही , हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए। 

 हमने अपने आप को शायद खुद ही बहुत छोटा कर समझ लिया है। जिनको हमने बनाया है उन राजनेताओं और जो हमारे लिए नियुक्त किये जाते हैं उन सरकारी कर्मचारी और अधिकारी वर्ग की जीहज़ूरी करना खुद अपने स्वाभिमान को नीचे दिखाना है। उनको कर्तव्य नहीं निभाने पर सवाल करना छोड़ उन्हीं से अपने हक भी उपकार करने की तरह मांगना आज़ादी की नहीं गुलामी की बात है। अपनी गुलामी की मानसिकता को छोड़ गर्व से स्वाभिमान से जीना होगा। मगर केवल खुद अपने लिए नहीं उन की खातिर भी आवाज़ उठानी होगी जो शोषण के शिकार हैं डरे सहमें हैं। स्वार्थ की भावना को छोड़ किसी के लिए कुछ त्याग की बात करना हम को भी सीखना होगा। सच बोलने का साहस करना ज़रूरी है और कायरता से खामोश रहना जीना नहीं हो सकता है। आलोचना आपका अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी है देश के लिए और अनुचित कार्य का चुप रहकर समर्थन करना भी अपराध ही है। कुछ शेर बाकी तमाम बातों को संक्षेप से समझने को हैं। 

          मत कहो आकाश में कुहरा घना है , यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।

         मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं , मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं। 

         बहुत मशहूर है आयें ज़रूर आप यहां , ये मुल्क देखने के लायक़ तो है हसीन नहीं। 

           ज़रा सा तौर-तरीकों में हेर-फेर करो , तुम्हारे हाथ में कालर हो आस्तीन नहीं। 

     रोज़ अख़बारों में पढ़कर ये ख़्याल आया हमें , इस तरफ आती तो हम भी देखते फस्ले-बहार।  

     अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार , घर की हर दिवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहार।

बात ये नहीं कि बदल सकता नहीं ये सब , समस्या ये है कि हर कोई सोचता है कोई और सामने आएगा मसीहा बनकर और सब ठीक कर देगा।  मगर ऐसा किस्से कहानी में होता है वास्तविक जीवन में नहीं। इक बुरी आदत है किसी न किसी को फरिश्ता समझ मसीहा मानकर उसकी इबादत करने की जो अच्छी नहीं है। इस युग में आदमी आदमी बनकर रहे इतना भी बहुत है गांधी भक्त सिंह को कोई रहने नहीं देगा। अब खुद आपको हमें सामने आकर देश समाज को बदलने का जतन करना होगा क्योंकि किसी शायर का शेर है आखिर में समझने को।

         तो इस तलाश का अंजाम भी वही निकला , मैं देवता जिसे समझा था आदमी निकला। 


 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

दुष्यंत की कालजयी पंक्तियों से सजा हुआ...तीसरे वंचित वर्ग की बात करता धारदार लेख👌👍