जून 08, 2018

जीवन के दोराहे पे खड़े सोचते हैं हम ( कुछ सच कुछ सपना -- टीवी शो की बात ) डॉ लोक सेतिया

  जीवन के दोराहे पे खड़े सोचते हैं हम ( कुछ सच कुछ सपना )

       सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया ( टीवी शो की बात )

                             आलेख -  डॉ लोक सेतिया 

     बहुत कुछ और भी याद आया , मगर पहले कल रात की बात। क्रॉस रोड नाम भी आकर्षित करता है और जब देखा तो नाम सार्थक भी लगा। जीवन में कभी कभी नहीं जैसा बताया गया शो में , मुझे लगता है अक्सर हम इक दुविधा में खड़े होते हैं , इधर जाएं कि उधर जाएं। कहानी वास्तव में लिखी ही किसी मकसद को लेकर जाती है और लिखने वाला जानता है जो सन्देश देना है उसे कहानी को मनपसंद और मर्ज़ी के अंत से ही समझाया जा सकता है। यही तय था और हुआ भी। कल रात की कहानी में जवाब बहुत मिले मगर हर जवाब अपने में कई सवाल खड़े करता हुआ। किसी को मज़बूरी है बेटी के इलाज और उसकी जान बचाने को जितने पैसे ज़रूरत हैं , ठीक उतने दस लाख उसे किसी और के पड़े बस में मिल जाते हैं। एक तरफ कहानी में उस इमानदार बस कंडक्टर का साथी सही मार्ग से भटकाता है दूसरी तरफ टीवी स्टूडियो में बैठे दर्शक उपदेशक बन कर अपनी अपनी राय देते हैं। किसी को भी कहानी के किरदार के लिए रोना नहीं आया , बात करते करते सब अपनी व्यथा सुना रहे थे। इस में कोई बुराई नहीं है कि औरों को दर्द में देखकर अपना दुःख दर्द याद आये , मगर क्या वास्तविक जीवन में हम हमदर्द बनते हैं , शायद नहीं। किसी ने टीवी स्टूडियो में मानवता की बात करने वाले से उल्टा सवाल पूछ ही लिया आप डॉक्टर जब किसी को मरते देख उपचार करने से पहले हज़ारों नहीं कभी लाखों रूपये जमा करवाने को कहते हैं तब मानवधर्म नहीं याद आता , उनका कहना था अब ऐसा नहीं होता , मगर उनको भी पता है हर दिन यही होता है। कहानी का नायक ज़मीर की बात सुनकर उस बैग को पुलिस थाने में देने जाता है मगर देने के बाद पता चलता है कि ये सभी थाने वाले खुद ही मिल बांट रखने की बात करते हैं। ऐसे में वो चुपके से बैग वापस उठाकर भागता है ताकि सही मालिक को पहुंचा सके। ये इक कड़वा सच है वही पुलिस वाले अब उसी के पीछे लगे हैं और एंकर उसको चोर बन गया बता रहे थे , मगर चोर तो पुलिस बनकर इमानदार को चोर घोषित करना चाहती है। ये कैसा समाज है , इस टीवी शो के साथ इक और टीवी रियल्टी शो भी आता है दस का दम। एक दिन पहले ही उसमें सवाल था कितने फीसदी लोग भगवान को मानते हैं और जवाब था नब्बे फीसदी। ये झूठ है अगर इतने लोग भगवान को मानते हैं तो समाज में सब इतना बुरा क्यों है। मेरा ख्याल है हम में अधिकतर भगवान को मानते नहीं हैं न ही आत्मा अंतरात्मा और ज़मीर की आवाज़ सुनते ही हैं , केवल दिखावा करते हैं और भगवान को भी छलना चाहते हैं। भगवान हमें याद अपनी सुविधानुसार आते हैं जब खुद परेशानी होती है , औरों को परेशान करते भगवान क्यों भूल जाते हैं। तब नहीं सोचते ऊपर वाला सब देख रहा है , टीवी का इक शो ये भी है , मगर क्या टीवी चैनल वाले मानते हैं ऊपर वाला भगवान सब देख रहा है , नहीं। इनका ऊपर वाला इक कैमरा है जो चुपके से सब देख सुन रहा है। कहानी का अंत सुखद होता है और पैसा जिस का था उसे मिल भी जाता है और इमानदार की बेटी का उपचार भी हो जाता है।  लेखक यही करते हैं सच नहीं कल्पना करते हैं कि ऐसा हो , मगर जीवन में वास्तविकता कल्पना से विपरीत होती है। सत्य पराजित होता या नहीं होता सत्य को प्रताड़ित अवश्य किया जाता है। झूठ खिलखिलाता है सत्य को ही रोना पड़ता है। बिग बॉस भी फिर आएगा और कोई फिर से करोड़पति भी बनाएगा। मगर इक सच है जो कभी सामने नहीं आएगा। हर शो से कोई और ही मालामाल होता जाएगा , दर्शकों और खिलाडियों के लिए ऊंठ के मुंह में जीरे की तरह बचा खुचा रह जाएगा। इस शो के एंकर से कोई नहीं सवाल करेगा , करोड़पति खेल अपने खेल की वास्तविकता पर सवाल नहीं बनाएगा। इतने सालों में कितना धन लोगों से किस किस तरह वसूला और किस किस को कितना मिला कभी नहीं बताएगा। ये मनोरंजन के नाम पर कमाई का धंधा किसी के योग के कारोबार करने , किसी के गुरु बनकर व्यौपार करने की तरह है।  सभी भगवान को मानते हैं मगर ऊपर वाले भगवान को नहीं , पैसा ही खुदा है सबका।  इक राजनेता मुफ्त बदनाम हो गए थे टीवी वालों के स्टिंग ऑपरेशन में ये बोलकर कि पैसा खुदा तो नहीं है कसम से पर खुदा से कम भी नहीं है। लोग ये बोलते नहीं हैं मगर वास्तव में उनका खुदा पैसा ही है , और ये पैसे की खातिर आम जनता दर्शकों और भोले भाले लोगों को मीठी मीठी बातों से ठगने वाले बेहद अमीर लोग हैं करोड़ों की आमदनी होने के बावजूद भी पैसे की खातिर सब कुछ करते हैं।

                   इक नया एपिसोड , नया विषय , नई कहानी

   टीवी शो की कल रात की कहनी की बात बताने से पहले कुछ कहना लाज़मी है। कुछ बातें ख़ास होती हैं जिनकी चर्चा खुली महफ़िल में नहीं की जा सकती है। कुछ लोग होते हैं जो खुद स्नानघर में भी नाहते हैं तो अंगोछा लेकर , मगर दावा करते हैं कि जब बच्चा जन्म लेते समय नंगा होता है तो बड़े होकर भी शर्माने कोई बात नहीं।  ये टीवी और अख़बार के खबरची ही नहीं कुछ घटिया सोच वाले लेखक भी किसी के मरने के बाद उसके इश्क़ के किस्से लिखते हैं उसकी आधी सच्ची आधी झूठी घटनाओं पर लिखते हैं जैसे सब सामने देखा था। इतना ही नहीं कुछ लेखक अपने ही तमाम महिलाओं के साथ निजि संबंधों की बात लिखकर अपने रिश्तों को बीच बाज़ार बेचने का अपराध करते हैं। कल का विषय ऐसा ही था। आधुनिकता की ये परिभाषा घड़ी जा रही है , बच्चे अब बच्चे नहीं हैं समझदार हैं और उनको अपने फैसले करने दो , आप राय भी नहीं लो , वो कहें मुझे ज़हर पीकर देखना है अगर कड़वा लगा तो वापस उगल देंगें। बेटी आकर पिता से अपने प्रेमी के साथ बिना शादी किये पांच छह महीने रहकर तजुर्बा करना चाहती है कि जान सके हम इक दूसरे के साथ निभा सकते हैं जीवन भर। और पिता अपनी पत्नी के विरोध के बावजूद भी इजाज़त दे देते हैं। यहीं दो सवाल आपके तथाकथित आधुनिक समाज को लेकर उठते हैं। लड़की को पिता से अनुमति लेनी है , लड़के के माता पिता कहीं नहीं हैं अर्थात लड़के को बिना अनुमति जो मर्ज़ी करने की छूट है। अगर ऐसे में लड़की बिना विवाह मां बनने की दुविधा में पड़ती है तो लड़के के पास खोने को कुछ नहीं , उसको तब भी कुंवारा समझा जायेगा। चलो साथ साथ लिविंग रिलेशनशिप के बाद भी सब ठीक रहता है और दोनों आकर शादी करने की घोषणा करते हैं।  मां भी खुश , घर टीवी देखने वाले दर्शक भी ऑनलाइन राय बताने वाले भी और स्टूडियो में बैठे लोग भी। पर ये ख़ुशी अगले पल खत्म हो जाती है जब लड़की घर वापस आकर पिता को फिर बताती है कि हमने अलग अलग रहने का निर्णय किया है और मुझे उस लड़के को तलाक देना है और उस से तलाक लेने में पिता का सहारा इक वकील के रूप में चाहती है। किसी पुरानी फ़िल्मी कहानी की तरह पिता उनको फ़िल्मी अंदाज़ से राह पर ले आता है। ऐसा वास्तव में संभव होता नहीं है , मगर मुझे अनुमान था लेखक अपनी बात को सही ठहराने की खातिर दिन में तारे दिखला सकता है। यहां मुझे अपनी इक कविता याद आई है , शायद ठीक लगे आपको।

                  है अधूरी कहानी ( कविता )

ज़िंदगी  नहीं है ,
कागज़ पे लिखी ,
पर्दे पर दिखाई गई , 
कोई पटकथा ,
जिसे ले जाता है ,
मनचाहे अंत तक ,
लिखने वाला लेखक , 
भटकने नहीं देता ,
कहानी के पात्रों को ,
बचाये रखता है ,
अपने पात्रों के ,
वास्तविक चरित्र को ,
संबल बन कर।

छोड़ दिया है शायद ,
अकेला और बेसहारा ,
विधाता ने ,
जीवन में हर पात्र को।

भटक जाती है ज़िंदगी ,
धूप - छावं में,
अनजान पथ पर चलते हुए ,
बार बार।

जाने कब ,
कहाँ कैसे ,
भटक जाते हैं ,
सभी पात्र ,
सही मार्ग से जीवन में ,
सभी करते रह जाते हैं प्रयास  ,
कहानी को ,
उचित परिणिति तक ,
ले जाने का ,
मगर आज तक ,
पहुंचा नहीं पाया कोई भी ,
पूर्णता तक उसको।

रह गयी है अधूरी ,
सब के जीवन की ,
वास्तविक कहानी ,
त्रिशंकु बन कर ,
रह गये  हैं ,
जीवन में तमाम लोग। 

 

कोई टिप्पणी नहीं: