मार्च 08, 2014

कहां से कहां आ गये हम लोग ( आईने के सामने ) डा लोक सेतिया

 कहां से कहां आ गये हम लोग (आईने के सामने) डा लोक सेतिया

सच कहूं तो अभी समझ नहीं आ रहा कि आज लिखना क्या है। बस यही चाहता हूं कि कुछ नया लिखा जाये सार्थक लिखा जाये। विषय तमाम हैं मन में फेसबुक से लेकर समाज तक , देश की राजनीति से लेकर पत्रकारिता तक। अपनी गली की बात से देश की राजधानी तक। इधर उधर यहां वहां सब कहीं का हाल। बहुत ही आश्चर्य की बात है जिस किसी से भी चर्चा करो सभी जानते हैं कि कहीं भी सब ठीक नहीं है। मगर किसी को सच में इस बात से सरोकार नहीं है कि उसको कब कौन कैसे सही करेगा। क्या हम किसी और देश की बात करते हैं , ये अगर हमारा अपना वतन है तो इसकी बदहाली को देख कर हम भला चैन से कैसे रह सकते हैं। कभी कभी लगता है जैसे हम लोग संवेदनहीनता का शिकार हो गये हैं। किसी को किसी के जीने मरने से कुछ फर्क नहीं पड़ता है। जिसको देखो अपना ही रोना रो रहा है। ये बेहद चिंता का विषय है कि लोग शोर भले मचाते हों सब देशवासी एक हैं ये देश सभी का है और हम एक हैं मगर ये बात वास्तव में दिखाई देती नहीं है। क्या यही आधुनिक होना है , क्या हम सभ्य नागरिक बन रहे हैं या यहां हर कोई अपने स्वार्थ की बात ही सोचता है। प्रश्न बहुत हैं सामने जवाब कोई भी नहीं। एक तरफ करोड़ों लोग दो वक्त रोटी को तरसते हैं तो दूसरी तरफ कुछ लोग बेरहमी से हर चीज़ की बर्बादी दिन रात करते हैं। क्या ये देश दो हिस्सों में बटा हुआ है , विशेष लोगों को सभी कुछ और बाकी आम लोगों को कुछ भी नहीं। कितने राजनैतिक दल कितने तथाकथित नेता हैं देश में , लेकिन सभी का ध्येय सत्ता की राजनीति करना मात्र हो गया है। सब जोड़ तोड़ सारी भागमभाग कुर्सी हथियाने का एकमात्र मकसद लेकर। कोई विचारधारा नहीं , कोई योजना नहीं देश में सभी को एक समान जीने के हक़ मिलने की। ये कैसा विकास हो रहा है जिसमें गरीब और अमीर के बीच अंतर खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा , बल्कि और अधिक बढ़ता ही जा रहा है। क्या ये हैरानी की बात नहीं है कि जब देश समाज रसातल की तरफ जाता नज़र आता है तब हम तथाकथित पढ़े लिखे लोग कोई चिंतन करने की बजाय फेसबुक पर ट्विटर पर चैटिंग पर मौज मस्ती कर अपना समय बिताते नहीं व्यर्थ बर्बाद करते हैं। कभी काश सोचते कि यही वक़्त यही साधन यही ऊर्जा किसी और की भलाई करने पर लगाते। ऐसा लगता है हम आंख वाले अंधे बन चुके हैं , आस पास कुछ भी घटता रहे हम विचलित नहीं होते। पत्रकारिता करने वाले कभी निष्पक्ष और निडर ही नहीं होते थे बल्कि उनका उदेश्य धन कमाना कभी नहीं होता है। तब कहा जाता था कि पैसा ही बनाना है तो और कोई काम कर लो अगर पत्रकारिता करनी है तो अपना घर जला कर भी रौशनी करो। आज वही पत्रकारिता शुद्ध कमाई का कारोबार बन चुकी है , विज्ञापन , प्रसार संख्या , टी आर पी , यही मापदंड बन गये हैं इनके। सच बोलते नहीं हैं , झूठ को सच का लेबल लगा कर बेचने का काम करते हैं। एक अंधी दौड़ में शामिल हो चुके हैं ये सब , एक नीचे गिरता है तो बाकी भी उससे भी नीचे गिरने को तैयार हैं , अवल आने के लिये। लगता है इनमें यही प्रतियोगिता चल रही है कि कौन मूल्यों का कितना अवमूल्यन करता है। धर्म जो दीन दुखियों की सेवा की बात किया करता था आज वो भी धन संपति जोड़ने और अहंकार करने की राह चल पड़ा है। हर बात में लाभ हानि का गणित होता है चाहे वो शिक्षा के विद्यालय हों , स्वास्थ्य सेवा देने वाले अस्प्ताल या फिर समाज सेवा ही क्यों नहीं हो। वो जिनके पास दौलत के अंबार लगे हैं वे भी दौलत की हवस में अंधे हो बिना जाने समझे हर उचित अनुचित रास्ता अपना रहे हैं। ये फिल्मी सितारे हों या खिलाड़ी या फिर येन केन प्रकरेण धन कमाने वाले यही आज के आदर्श बन गये हैं और इनका गुणगान किया करता है आज का मीडिया जो खुद इन के जैसा ही बनना चाहता है। जनहित , देशहित , त्याग और समाजिक मूल्यों की बातें शायद किस्से कहानी की बात लगती है या कुछ ऐसी पुरानी किताबों में लिखी हुई है जो अब उपयोगी समझी ही नहीं जाती। राम और कृष्ण का देश नहीं रह गया ये देश अब , रद्दी के भाव बिकती हैं आदर्शवादिता की सारी बातें।सच कहूं तो अपने देश की , अपने समाज की इस बर्बादी के लिये हम सभी किसी न किसी रूप में ज़िम्मेदार हैं। चलो सब आगे बढ़ें और अपने अपने हिस्से की धूल को साफ करें। दोष उसका नहीं जो आईना दिखाता है , दाग़ अपने चेहरे पर जो हैं , साफ उनको करना होगा।