दिसंबर 31, 2013

घोटालों का देश हमारा है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     घोटालों का देश हमारा है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

          दिल पर किसी का बस नहीं है , दिल गधी पर आया तो परी क्या चीज़ है। इश्क़ बुरा उन्हीं को लगता है इन्होंने कभी किया नहीं। रिश्वत नहीं मिलती तभी ईमानदारी पसंद आती है मज़बूरी है। नशाबंदी अभियान वाले थककर शाम को जाम छलकाते हैं। भ्र्ष्टाचार को नाहक बदनाम किया है जिस ने भी रिश्वत खाई है काम किया है। ईमानदारी जन्नत की तरह ख्वाब है दिल को बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है। घोटाले देश की शान हैं इनसे बना देश महान है। जो कहते हैं गरीबी है बस उनकी बदनसीबी है। युगों से ये कला चलती आई है भला लेन देन भी कोई बुराई है। जिसने भी नहीं खाने की कसम खिलाई है खुद उसी को मिली सारी मलाई है। सरकार इस तरह बनाई है , रिश्वत सुंदर कन्या है सत्ता संग बियाही है नेता अधिकारी दो भाई है। जनता जैसे जीजे का साला है उसके मुंह पर लगाया ताला है , ससुराल पर दामाद का अधिकार क्यों कहलाता घोटाला है। घोटालों की जांच जो करते हैं अपनी जेबें ही बस भरते हैं। कब किसी ने सज़ा पाई है , खोदा पहाड़ मरी चुहिया नज़र आई है। सच कहने में किस बात की शर्म है , भ्रष्टाचार सरकार का धर्म है। पैसा नेताओं का भगवान होता है झूठ कहते हैं नेताओं का भला ईमान होता है। सत्ता को मिला खाने का वरदान होता है जो नहीं जनता बड़ा नादान होता है। आदि है न कोई अंत है भ्र्ष्टाचार कथा अनंत है। सुबह शाम पाठ जो भी करता है वो किसी से भी नहीं डरता है। बचा लो इसको भ्र्ष्टाचार को जो मिटाओगे , अभी भी सोच लो वर्ना बाद में बहुत पछताओगे।

          अचार सब को पसंद होते हैं , दाल रोटी के साथ अचार भी ज़रूरी होता है। खाने का मज़ा कई गुणा बढ़ जाता है। वेतन तो दुल्हन की तरह है , और रिश्वत दहेज की तरह। अभी तक तो कोई बिना दहेज की दुल्हन नहीं चाहता। कोई जितना भी अमीर हो और कितना भी कमाता हो फिर भी क्या लड़की वालों के सामने दोनों हाथ ही नहीं पूरी झोली तक नहीं फैलाते सभी। क्या हो गया कानून बनने से और क्या बदल गया अच्छी शिक्षा अच्छी नौकरी मिलने से। देखा जाये तो यहां हर कोई भिखारी है , कोई भगवान से मांगता है कोई इंसान से।  कोई न मिले तो छीन लेना जनता है। कौन है जो दूसरों को देना चाहता हो बेशक उसके पास कितना भी अधिक क्यों न हो। डॉक्टर लोग जब अचार पर पाबंदी लगा देते हैं तब खाने का मज़ा ही नहीं आता , और अगर दुल्हन दहेज नहीं लाई हो अपने साथ तो वो भी कम ही भाती है ससुराल वालों को। रिश्वत को नाहक बदनाम किया गया है , ये एक विशुद्ध शाकाहारी चीज़ है जो लेने वाले से अधिक भला उसका करती है जो दे रहा होता है। जो दोनों का भला करे उसे बुरा बताना बुरी बात है। वास्तव में भ्रष्टाचार पर रोक लगाने की बात वही लोग करते हैं जिनको खुद अवसर नहीं मिल पाता भ्रष्ट बनने का। और तब वे झूठा प्रचार करते हैं कि भ्रष्टाचार ने देश का बंटाधार किया है। सच पूछो तो देश का उद्धार करने के लिये भ्रष्टाचार भी उतना ही ज़रूरी है जितना विश्व बैंक या आई एम एफ से क़र्ज़ लेना। हमारे देश की कोई बड़ी परियोजना बिना कोई क़र्ज़ लिये शुरू ही नहीं हो सकती न ही बिना रिश्वत के लालच के इस देश का प्रशासन कभी कुछ करना ही चाहता है। जिस तरह गंगा लाख पापियों के स्नान करने के बाद भी पावन ही रहती है उसी तरह भ्रष्टाचार भी तमाम रुकावटों विरोधों के बावजूद भी फलता फूलता रहता है। हमारे देश के नेताओं और अफसरों ने भ्रष्टाचार में कितने ही नये आयाम स्थापित किये हैं जिससे भारत देश विश्व में किसी भी दूसरे देश से कभी पीछे नहीं रह सकता। इसके लिये कभी पदक मिलने लगे तो सवर्ण , रजत , कांस्य सभी अपने ही नाम पर होंगे। जैसा कि आप जानते हैं कुछ लोग फिर से भ्रष्टाचार को मिटाने की बात करने लगे हैं। पहले भी होता रहा है ऐसा। मगर ये उचित नहीं होगा , भ्रष्टाचार को किसी से भी कोई खतरा नहीं है , लेकिन जिस दिन देश से भ्रष्टाचार का खात्मा हो गया उस दिन जाने क्या होगा। जिस तरह दमे का मरीज़ बिना दमे की दवा एक पल जिंदा रह नहीं सकता उसी तरह ये देश बिना भ्रष्टाचार कैसे रहेगा ये सोच कर भी डर लगता है। कभी ये ऐलान किया गया था कि गरीबी को खत्म करेंगे और सरकार के आंकड़े हमेशा गरीबी की रेखा से नीचे के लोगों को कम होता बताने का ही काम करती रहती है , फिर भी गरीबों की संख्या कभी कम नहीं हो सकी है। आज जब विवाह करना हो तो वेतन से पहले ऊपर की कमाई के बारे पूछा जाता है। इस महंगाई में वेतन से गुज़ारा करना बहुत ही कठिन है।

                 मगर सब से ज़रूरी बात और है , ये जो हर कोई नेता बनना चाहता है और उसके लिये सब जोड़ तोड़ करता है वो किसलिये। अगर भ्रष्टाचार के अवसर नहीं होंगे तो कौन मूर्ख नेता बन जनता की सेवा करना चाहेगा। और जब नेता नहीं होंगे तो लोकतंत्र का क्या होगा। इसलिये नेता और भ्रष्टाचार दोनों को बचाना होगा , इनका आपस में बेहद करीबी रिश्ता है। पता नहीं कौन किसकी नाजायज़ औलाद है। अब तो कानून भी मानता है कि नाजायज़ औलाद को भी सभी अधिकार मिलने चाहिएं । कहीं ऐसा न हो कि भ्रष्टाचार को मिटाते मिटाते हम नेता नाम की प्रजाति को ही मिटा बैठें। जब किसी प्रजाति के लुप्त होने का खतरा हो तब उसको संरक्षण दिया जाता है , शायद कल नेता और भ्रष्टाचार दोनों को संरक्षण की ज़रूरत आन पड़े। नेताओं के बिना हमारा लोकतंत्र भी अनाथ न हो जाये। सब जानते हैं कि आज तक देश में कोई भी ऐसा कार्य नहीं हुआ है जिसमें भ्रष्टाचार नहीं हुआ हो , सच तो ये है कि नेता और अफसर अभी तक विकास का हर काम करते ही इसलिये रहे हैं कि उनके खाने पीने का समुचित प्रबंध हो सके। जिस काम में भ्रष्टाचार की संभावना न हो उसे कोई करना ही नहीं चाहता। जब भ्रष्टाचार समाप्त हो गया तो कौन विकास के काम करना चाहेगा , गरीबी और भूख की तरह हर योजना अधर में लटकती रहेगी। अपने अफसर और मंत्री अभी भी फाईलों को दबाये रहते हैं अपने पास या इधर उधर सरकाते रहते हैं लेकिन फैसला नहीं करते। जब कुछ मिलना ही नहीं होगा तो कौन फैसला करने का सरदर्द अपने ऊपर लेना चाहेगा। सब सोचेंगे जाने कब कुछ गड़बड़ हो जाये और उनपर कोई मुसीबत आ जाये। और विकास के काम रुकने से देश व जनता को कुछ हो न हो उसका पहला असर दलालों कमीशनखोरों और ठेकेदारों पर होगा ही , क्या ये सब के सब भी लुप्त प्रजाति के प्राणी बन जाएंगे। लगता है जो भ्रष्टाचार का विरोध कर रहे हैं उन्होंने सोचा तक नहीं कि इसके क्या क्या दुष्प्रभाव किस किस पर हो सकते हैं। यूं भी जिस तरह हम लोग चाय , सिगरेट , शराब , सिनेमा और आजकल केबल टीवी के आदि हो चुके हैं और इनमें लाख बुराईयां होने पर भी इनको छोड़ कर नहीं रह सकते हैं , उसी तरह हमारी रग रग में भ्रष्टाचार समा चुका है , इसको ख़त्म कर हम कैसे जी सकेंगे। बेहतर यही होगा कि भ्रष्टाचार मिटाने की बात को भूल जायें। खाओ और खाने दो की आदर्श परंपरा को क्या इतनी आसानी से छोड़ा जा सकता है। राजनीति का यही नारा है घोटालों का देश हमारा है। 

दिसंबर 30, 2013

चुनाव अध्यक्ष का ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        चुनाव अध्यक्ष का ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

हम शांति पूर्वक घर के अंदर बैठे हुए थे कि तभी बाहर से कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें आने लगी। श्रीमती जी देखने गई कि इतनी आवाज़ें किसलिये हो रही हैं। और तुरंत घबरा कर वापस भीतर आ गई और कहने लगी कुछ ख्याल भी है कि बाहर क्या हो रहा है। हमने पूछा ये इतना शोर क्यों है , लगता है गली से बाहर का कोई कुत्ता आया होगा , और अपनी गली के सारे कुत्ते उस पर भौंकने लगे होंगे। श्रीमती जी बोली आप बाहर निकल कर तो देखो यहां अपने घर के सामने वाले पार्क में सारे शहर के कुत्ते जमा हो गये हैं और वे एक दूसरे पर नहीं भौंक रहे , जो आदमी उनको भगाने का प्रयास करे उसको काटने को आते हैं। अपना टौमी भी उनके बीच चला गया है , ऐसे आवारा कुत्तों में शामिल हो कर वो भी आवारा न बन जाये , उसको बुला लो। घर से बाहर निकल कर हमने जब अपने टौमी को आवाज़ दी तो पार्क में जमा हुए सभी कुत्ते हमारी तरफ मुंह करके भौंकने लगे। जब हमने देखा कि हमारा टौमी भी उनमें शामिल ही नहीं बल्कि हम पर भौंकने में सब से आगे भी है तो हम घबरा गये। तब हमें कुत्तों के डॉक्टर की बात याद आई कि अगर कभी टौमी कोई अजीब हरकत करे तो तुरंत उसको सूचित करें। हमने तभी उनसे फोन पर विनती की शीघ्र आने की और वे आ गये। आते ही सीधे वे उन कुत्तों की भीड़ में चले गये और उनको देख कर कोई कुत्ता भी नहीं भौंका सब के सब खामोश हो गये। जैसे बच्चे चुप हो जाते हैं अध्यापक को देखकर। हम दूर से देख कर हैरान थे और वे एक एक कर हर कुत्ते को पास बुलाते और उसके साथ कुछ बातें करते इशारों ही इशारों में। हम कुछ भी समझ नहीं पा रहे थे मगर लग रहा था उनको मालूम हो गया है क्या माजरा है। थोड़ी देर बाद डॉक्टर साहब ने आकर बताया कि चिंता की कोई बात नहीं है , आपका टौमी और बाकी सभी कुत्ते तंदरुस्त हैं। आज उनकी एक विशेष सभा है। हमने उनकी फीस दी और उनसे पूछा कि ये कैसी सभा है , ऐसा तो पहले नहीं देखा कभी भी हमने। उन्होंने बताया कि वे कुत्तों की भाषा को समझते हैं और हमें बता सकते हैं कि आज क्या क्या हो रहा है इस सभा में। वे कुत्तों से बातें करते रहे हैं और आज उन सब ने बताया है कि यहां आज शहर के कुत्तों ने अपना प्रधान चुनना है।
          डॉक्टर साहब ने बताया हमें जो जो भी बातें आपस में कर रहे थे सब कुत्ते। कई कुत्ते चाहते हैं प्रधान बनना और वो अपना अपना दावा पेश कर रहे हैं। आप विश्वास रखें उनमें कोई लड़ाई नहीं हो रही है , हर कोई अपनी बात रख रहा है और सब की बात सुनी जा रही है।  जिसको भी ज़्यादातर सदस्य पसंद करेंगे वही प्रधान घोषित कर दिया जायेगा , प्रयास है कि चुनाव सभी की सहमति से ही हो। कोई वोट नहीं , बूथ कैप्चरिंग नहीं ,जात पाति , रिश्ते नातों का कोई दबाव नहीं , न ही कोई प्रलोभन , सब खुले आम पूरे लोकतांत्रिक ढंग से हो रहा है। जो बातें उन्होंने देख कर बताई वो वास्तव में दमदार हैं ज़रा आप भी सुनिये।
                सब से पहले शहर के प्रधान का कुत्ता बोला कि उसको ही प्रधान बनाया जाना चाहिये। जब तुम सभी के मालिकों ने मेरे मालिक को अपना प्रधान चुना है तो तुम सब को वही करना चाहिये , शहर के प्रधान का कुत्ता होने से मेरा हक बनता है प्रधानगी करने का। इस पर कई सदस्यों ने सवाल उठाया कि शहर वाले तो हमेशा प्रधान चुनने में गलती कर जाते हैं और जिसको समझते हैं काम करेगा वो किसी काम का नहीं होता है। प्रधान बनने के बाद सारे वादे भूल जाता है और कुर्सी को छोड़ने को तैयार नहीं होता चाहे लोग न भी चाहते हों। प्रधान का कुत्ता बोला कि मैं ऐसा नहीं करूंगा , जब भी कहोगे हट जाउंगा , मैं कुत्ता हूं आदमी जैसा नहीं बन सकता। तब एक सदस्य ने सवाल उठाया कि तुमने अपना धर्म नहीं निभाया था , जब तुम्हारे मालिक के घर में चोरी हुई थी तब तुम भौंके ही नहीं। प्रधान के कुत्ते ने कहा ये सच है कि मैं नहीं भौंका था लेकिन तुम नहीं जानते कि ऐसा इसलिये हुआ कि प्रधान के घर से जो माल चोरी गया वो माल भी चोरी का था और उसको जो चुराने वाले थे वो भी प्रधान के मौसेरे भाई ही थे। इस पर पुलिस वाले का कुत्ता खड़ा हो कर बोला हम सभी को अपनी सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिये , आजकल चोर चोरी से पहले कुत्ते को जान से मारने का काम करने लगे हैं , हमें पुलिस से रिश्ता बनाना चाहिये ताकि वो हमारी सुरक्षा कर सके। तब एक सदस्य ने कहा क्या हम पुलिस पर यकीन कर सकते हैं ,पुलिस खुद चोरों से मिली रहती है। जान बूझकर चोरों को नहीं पकड़ती है , उनसे रिश्व्त लेकर चोरी करने देती है। तब पुलिस के कुत्ते को क्रोध आ गया और वो बोला था , और तुम खुद क्या करते हो। तुम्हारा मालिक जनहित का पैरोकार बना फिरता है और सब से फायदा उठाता रहता है ये क्या मुझसे छुपा हुआ है। इस बीच शहर के बड़े अधिकारी का कुत्ता खड़ा हो गया और बोला आप सभी ख़ामोशी से ज़रा मेरी बात सुनें। जब सब चुप हो गये तो वो पार्क के बीच में बने चबूतरे पर खड़ा हो लीडरों की भाषा में बातें करने लगा। कहने लगा मैं ये नहीं कहता कि मुझे अपना प्रधान बनाओ , मगर जिसको भी बनाया जाये उसको पता होना चाहिये कि हम सब को क्या क्या परेशानियां हैं। हमारी तकलीफों को कौन समझता है , हम केवल चोरों से घर की रखवाली ही नहीं करते हैं , अपने अपने मालिक के शौक और उनका रुतबा बढ़ाने के लिये भी हमारा इस्तेमाल किया जाता है। मालकिन के साथ कार में , उसकी गोदी में , उसके साथ खिलौना बन कर पार्टियों में जाकर हमें कितनी घुटन होती है , और कितना दुःख होता है सब के सामने उसके इशारों पर तमाशा बन कर। हम क्या उसके पति हैं। इसके इलावा हम में बहुत सदस्य ऐसे भी हैं जिनके मालिक न भरपेट खाना देते हैं न ही रहने को पूरी जगह ही। हम बेबस जंजीर में जकड़े कुछ भी नहीं कर पाते। हमें जब मालिक बचाव के टीके न लगवायें और हम बीमार हो जायें , तब खुद ही हमें गोली मार देते हैं ये क्या उचित है। आपको पता है कितने मालिक अपने कुत्तों से पीछा छुड़ाने के लिये उसको दूर किसी जंगल में छोड़ आते हैं भेड़ियों के खाने के लिये। और भी बहुत सारी बातें हैं जिनसे हम अनजान ही रहते हैं। मेरे को यूं भी फुर्सत नहीं है कि प्रधान बन कर ये सब काम करूं , आप किसी को भी अपना प्रधान चुनो मगर वो ऐसा हो जो ये बातें जनता हो समझता हो और इनका समाधान कर सके। सभी कुत्ते तब एक साथ बोले थे कि वो आपके बिना दूसरा कोई हो ही नहीं सकता है। और आला अधिकारी के कुत्ते को प्रधान चुन लिया गया , उसको फूलमाला पहना दी गई। 

क्या वास्तव में बदल रहा देश ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

   क्या वास्तव में बदल रहा देश ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

अभी कुछ भी कहना बड़ी जल्दबाज़ी होगी। मगर जो सामने नज़र आ रहा है उसको अनदेखा करना भी उचित नहीं है। दिल्ली में सरकार बदल गई , बहुत शोर भी हो रहा बदलाव का , मगर क्या सब कुछ बदल गया है। मैंने तो बहुत कुछ वही दोहराते हुए देखा है। मुख्यमंत्री बनते ही किसी का गुणगान होना कोई पहली बार नहीं हो रहा। उसका गांव , उसके माता पिता यहां तक कि उसका बेटा तक टीवी पर साक्षात्कार देता है। उसकी बचपन की कहानियां सुनाई देने लगी हैं , उसकी जन्मपत्री की बात हो रही है , उसके लिये पूजा पाठ हो रहा है। और ये सब कुछ उसके लिये हो रहा है जिसका दावा है वी आई पी कल्चर को समाप्त करने का। क्या वो मीडिया वालों की मानसिकता को बदल सकता है , जिनके खुदा रोज़ बदलते रहते हैं। हां एक बात पहली बार सुनी है कि कोई कहता है सरकार तो हम बना रहे हैं मगर विधान सभा में बहुमत साबित करने की ज़िम्मेदारी किसी और की है। आप को प्रशासन के ढंग को बदलना है , लोकतंत्र की परिभाषा को नहीं। और विश्व में जहां भी कहीं लोकतंत्र होता है सत्ताधारी लोगों का फ़र्ज़ होता है बहुमत से सरकार चलाना। भारत में पहले भी सरकारें बनाई बहुत लोगों ने बहुत बार मगर कभी ऐसा नहीं कहा गया कि बहुमत की व्यवस्था करना उनका काम नहीं है। अगर कोई घर का मुखिया कहे कि मैं घर के सभी सदस्यों की हर मांग पूरी कर सकता हूं लेकिन इसके लिये धन की व्यवस्था किसी और को करनी होगी। जहां तक आम और खास का फर्क है , तो जो विधायक - मंत्री बन जाता है वो आम आदमी नहीं रहता खास बन जाता है। आम आदमी को अपने सीने पर कोई तमगा नहीं लगाना पड़ता कि मैं आम आदमी हूं। वास्तव में हम लोग हमेशा से आदी रहे हैं गुलामी करने के , किसी न किसी के सामने सर झुकाये  रहना आदत बन गई है। सोचते हैं कोई मसीहा कहीं से आयेगा और हमारी सभी परेशानियों को दूर कर देगा। मगर एक छोटा सा सवाल है जिसका जवाब किसी को नहीं मालूम। देश में किसी भी चीज़ की कमी नहीं है , समस्या है कि कुछ प्रतिशत को बहुत अधिक मिलता है और अधिकतर को बहुत कम। देश की दो तिहाई जनता को न के बराबर मिलता है। अब अगर सब को एक समान होना चाहिये तो जो अमीर हैं उनसे लेना होगा और देना होगा उनको जो गरीब हैं। यहां बात केवल धन दौलत की नहीं है , अधिकारों की भी है , न्याय की भी है। भाषण देने से क्रांती के गीत गाने से ये सब हो सकता तो कभी का हो गया होता। सब से पहले हमें खुद को बदलना होगा। जब जो बुलंदी पर हो उसको खुदा समझने की आदत छोड़नी होगी। जो आज सत्ता पर आसीन हैं उनको खाली बयानबाज़ी करना छोड़ कुछ कर के दिखाना होगा। जनता ने बदलाव चाहा है , आप अगर बदलाव नहीं ला सके तो आप को भी बदला जा सकता है इस बात को याद रखें। आप अभी पास नहीं हुए हैं , अभी तो बहुत सारी परीक्षायें आपका इंतज़ार कर रही हैं।
           क्या दस मंत्रियों के पुलिस सुरक्षा नहीं लेने से सब हो जायेगा। क्या हज़ारों सरकारी अफसरों के सरकारी वाहनों और साधनों के दुरूपयोग रोक सकते हैं आप। पुलिस की जिप्सी अफसरों की बीवी को बच्चों को स्कूल बाज़ार नहीं ले जायेगी अब से। क्या सत्ताधारी लोगों को हर चीज़ कतार में खड़े हो कर लेनी मंज़ूर होगी। बात करने में और उसपर अमल करने में अंतर होता है ज़मीन आसमान का। बताएं भला जब भी सरकारी लोगों की मीटिंग होती है तब उसपर खाने पीने पर इतना खर्च किसलिये। ये काम की मीटिंग हैं या तफरीह करने को जमा हुए हैं लोग। मीटिंग में क्या चाय काफी ही काफी नहीं , क्या ये सब वी आई पी कल्चर नहीं है। हां एक खास बात और , मुख्यमंत्री बनते ही ये बयान देना कि कोई रिश्व्त मांगे तो मना नहीं करना ,उससे तय कर लेना और शिकायत कर पकड़वा देना , इस में नई बात क्या है , ऐसा लोग पहले भी कर सकते हैं। आप ऐसा क्या करेंगे कि लोग रिश्वत मांगे ही नहीं। असल में आपको मालूम ही नहीं कि जनता से छोटे छोटे कामों में रिश्वत मांगी नहीं जाती है , उसको विवश किया जाता है कि वो वो खुद चाहे किसी तरह रिश्वत दे कर अपना काम करवाना। आपके पास ये सबूत नहीं ये कागज़ नहीं , ऐसा नियम है , ये भी चाहिए , जैसे काम किये जाते हैं। आखिर कायदा कानून भी कोई चीज़ है और हम लोग आदि हैं किसी कायदे कानून का पालन नहीं करने के। इसलिए बहुत बार रिश्वत लोग अपनी आसानी के लिये देते ही नहीं बल्कि तलाश करते हैं कोई जो बीच में बात तय करवा काम दे रिश्वत देकर। पूरी की पूरी प्रणाली प्रदूषित है।  सवाल तालाब के पूरे पानी को बदलने का है। और ये आपको करना होगा बहुत सोच समझ कर और बिना शोर मचाये। अभी तो आप का ढोल बज रहा है , बहुत शोर है , आपको छोड़ दूसरी कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही है। जब ढोल की पोल खुलेगी तब पता चलेगा उसके भीतर क्या है। अधिक शोर यही बताया करता है कि अंदर खोखलापन है कहीं । 

 

दिसंबर 29, 2013

उत्पत्ति डॉक्टर की ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

       उत्पति डॉक्टर की ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

पृथ्वी का भ्रमण कर नारद जी ब्रह्मलोक वापस आये तो बहुत उदास लग रहे थे। ब्रह्मा जी ने उनको आदर सहित आसन देकर पूछा "आपको सफर में किसी प्रकार की कोई परेशानी तो नहीं हुई। लगता है बेहद थक गये हैं अब कुछ पल आराम कर लें , फिर बताएं आकर कि क्या समाचार खोज कर लाये हैं मृत्युलोक से"। नारद जी बोले ब्रह्मा जी मैं थका हुआ नहीं हूं , किसी बात से परेशान हो गया हूं और उदास भी। मैं सीधा आपके पास आया हूं एक प्रश्न का जवाब पूछने और जब तक मुझे अपने सवाल का उत्तर नहीं मिल जाता मैं न आराम कर सकता हूं न ही मुझे चैन ही आ सकता है। वैसे तो पृथ्वी लोक में कुछ भी सही नहीं है , राजा बेईमान है , अफसर भ्रष्ट हैं , आतंकवाद है , चोरी - लूट , ठगी - धोखा , हत्या - बलात्कार जैसी तमाम बातें हैं जो बुराई की हर सीमा को लांग चुके हैं। धर्म के नाम पर अधर्म का कारोबार फल फूल रहा है , संत महात्मा कहलाने वाले तक व्यभिचारी हैं , लोभ लालच , मोह माया के जाल में फंसे हुए हैं। मगर एक ऐसे प्राणी को मैंने देखा जिसको वहां डॉक्टर कह कर बुलाया जाता है , और मैं समझ नहीं पा रहा कि आपने उस जीव की उत्पत्ति किस प्रयोजन से की है। वो जीव तो बहुत सारे दुःखों का कारण लगता है। सब उसको भगवान का दूसरा रूप कहते हैं जबकि वो मरीज़ों को दुःखी देख कर भी दुःखी नहीं होता बल्कि उनको रोगी देख कर खुश होता है , उनका ईलाज करता है मगर उनको बेरहमी से लूट भी रहा है। कई बार ईलाज में लापरवाही बरतता है और खराब अंग की जगह ठीक अंग को ही काट देता है। अब बड़े बड़े अस्प्तालों में इंसान के भीतर के अंगों की चोरी तक होती है और इंसानियत को भुला कर उनका कारोबार होता है। एक और नई समस्या उसने पैदा कर दी है , कन्या के भ्रूण को जन्म लेने से पहले ही कोख में ही मार दिया जाता है। इतनी अच्छी शिक्षा पाने के बाद भी उसको न उचित अनुचित का अंतर समझ आता है न ही मानव धर्म। मुझे लगता है आपसे बहुत बड़ी भूल हो गई है उस जीव की उत्पत्ति करके। नारद जी की बात सुनकर ब्रह्मा जी बोले , मुनीवर आपकी बातें सच हैं , लेकिन उस डॉक्टर नाम के जीव को बनाना भी बहुत आवश्यक हो गया था। उसे कब कैसे और किसलिये बनाया गया मैं आपको विस्तार पूर्वक बताता हूं , तभी आपकी चिंता का निदान हो पाएगा।

            एक बार एक नगर में बहुत सारे लोग रहते थे , उनमें से एक व्यक्ति बहुत भोला और मासूम था , उसका मस्तिष्क अविकसित था , और वो मंद बुद्धि था कुछ कारणों से। सब नगर वासी उसको पगला पगला कह कर तंग किया करते थे। बच्चे उसपर पत्थर फैंकते , बड़े उसको अपमानित किया करते। इसके बावजूद भी वो सब के सामने हाथ जोड़ता और हर किसी का कहना मानता , जो भी कोई काम करने को कहता वो उसे चुपचाप कर दिया करता। लोग उसे डांटते फटकारते व अपने से नीचा समझते। अपने काम करवाने के बाद भी उसको बदले में कुछ भी नहीं दिया करते। कोई नहीं देखता कि वो भूखा है तो उसको दो रोटी ही दे दे। वो भूखा प्यासा रहता और अकेले में कभी खुद ही हंस लेता कभी खुद ही रो भी लेता। वहां किसी को उसकी ख़ुशी उसके दर्द से कोई सरोकार नहीं था। उन लोगों को उसमें एक इंसान नहीं दिखाई देता था , अपने अपने स्वार्थ सभी को नज़र आते थे। वक़्त आने पर वो सभी लोग मृत्यु को प्राप्त होने के बाद यमराज के सामने लाये गये। चित्रगुप्त जी ने देखा उनका सभी का बहुत बड़ा अपराध था एक अकेले भोले मनुष्य पर उम्र भर करते रहना बिना किसी भी कारण के। जबकि वो मनुष्य उनके अत्याचार सह कर भी उनको आदर और सम्मान देता रहा था। उसपर ज़ुल्म करने का उनको न कोई अधिकार ही था न ही कोई कारण ही। धर्मराज जी ने अपने सलाहकारों से ये विचार करने को कहा कि ऐसे बेरहम लोगों को क्या सज़ा दी जानी चाहिये। उनकी राय थी कि इन सब को जानवर बना दिया जाये और उस को जिसपर ये अत्याचार करते रहे कसाई बना दिया जाये। मगर ये सुन कर वो मनुष्य बोला कि क्या ऐसा करने से मुझे इंसाफ मिल जायेगा। मैं तो हमेशा सभी का आदर करता रहा हूं , जबकि मेरे कसाई बनने पर मुझे सब नफरत किया करेंगे। और मैं तो पूरी उम्र तड़पता रहा इनके अत्याचार सहते हुए जबकि इस तरह इनको केवल एक ही बार कष्ट सहना होगा। आप देखें अपने इंसाफ के तराज़ू की तरफ क्या दोनों पलड़े बराबर होते हैं। धर्मराज जी ने देखा उनके इंसाफ के तराज़ू के पलड़े एक समान नहीं लग रहे हैं। जब उनको नहीं समझ आया कि कैसे उसको सही मायने में इंसाफ दिया जा सकता है तब उन्होंने विष्णु जी और महेश जी से चर्चा की तब फैसला किया गया कि डॉक्टर नाम से उस जीव की उत्पत्ति करना ही एक मात्र समाधान है , उनके अपराधों की सज़ा देने के लिये।

                इस प्रकार उसको न्याय देने के लिये अगले जन्म में एक ऐसे जीव के रूप में पृथ्वी लोक पर उसको भेजा गया जो जो इन सब अपने पिछले जन्म के अत्याचारियों को दुःख दे और इनके दुःखों को देख कर वो भी राहत का अनुभव करे। इनके कष्टों की बिलकुल परवाह नहीं करे और इनसे ईलाज की मनमानी कीमत वसूल करे और चैन से रहे। ये कोठी कार और हर तरह के ऐशो-आराम हासिल करने में व धन दौलत जमा करने में ही लगा रहे। इसके बावजूद भी ये सब इसको आदर देते रहें और कहते रहें कि आप ईश्वर का दूसरा रूप हैं। इस तरह अपने पूर्व जन्म में हुए सभी अत्याचारों का बदला लेने के लिए इसको डॉक्टर बनाया गया और इस पर जो लोग पूर्व जन्म में अत्याचार करते रहे उन सब को इसका मरीज़ बनाया गया। इस प्रकार दोनों अपने पिछले जन्म का हिसाब बराबर कर सकते हैं। अब ये इनके साथ कोई सहानुभूति नहीं रखता है और कई बार तो रोगी रोग से नहीं मरता बल्कि इसके ईलाज से ही मर जाता है। ब्रह्मा जी बोले मुनिवर इस तरह न्याय व्यवस्था को नया आयाम देने का कार्य किया गया था इस जीव की उत्पत्ति करके। आप व्यर्थ की चिंता त्याग दें , बिना प्रयोजन पृथ्वी का कोई भी जीव नहीं बना है। ब्रह्मा जी से डॉक्टर की उत्पत्ति की ये कथा सुनते ही नारद जी की उदासी दूर हो गई थी। जो भी प्राणी इस कथा को ध्यान पूर्वक सुनेगा उसको जीवन में कभी किसी डॉक्टर के पास जाना नहीं पड़ेगा। वो ईलाज से नहीं , रोग से ही मर सकेगा। 

दिसंबर 26, 2013

नेता जी की नैतिकता ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      नेता जी की नैतिकता ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     नेता जी को सदा चिंता रहती है नैतिक मूल्यों की। वे जो करते हैं केवल नैतिकता के आधार पर ही करते हैं। और उनके हर इक कदम से नैतिकता और भी मज़बूत होती है , बेशक उनका वो कदम कुर्सी पाने के लिये अपने दल को छोड़ दूसरे दल में जाना ही क्यों न हो। रिश्व्त लेना उनके उसूल के खिलाफ है , मगर भेंट स्वीकार करने से नैतिक मूल्यों की कोई हानि नहीं होती है ये उनका मानना रहा है। जो भी लोग नेता जी के पास आते हैं अपना कोई काम करवाने के लिये , नेता जी के सचिव उनको समझा देते हैं कि नकद पैसों की रिश्वत नेता जी अनैतिक कार्य मानते हैं इसलिये कुछ भी काम करवाने के लिये छुप कर रिश्व्त देने की जगह आप खुले आम कोई महंगा उपहार अथवा भेंट दें। इस बार सत्ता में आने के बाद जिन लोगों ने बड़े बड़े काम करवाने थे उनहोंने नेता जी को सोने के मुकुट , चांदी की गदा , सोने की तलवार जैसी कीमती चीज़ें उपहार में दी हैं और उन सब के काम हो चुके हैं। ये सब कीमती उपहार नेता जी की बैठक की शोभा बड़ा रहे हैं। ये फिक्स डिपॉज़िट हैं नेता जी के जो आयकर से भी मुक्त हैं , नेता जी को जिस दिन ज़रूरत होगी इनको बाज़ार में बेच देंगे। सोने चांदी का दाम कभी कम नहीं होता है , नेता जी को खूब पता है ।

                          एक हादसा हो गया है। नेता जी के घर से वो सारा कीमती सामान चोरी हो गया है। नेता जी बेहद दुःखी हैं , उन्हें लग रहा है जैसे उनकी सारी की सारी नैतिकता की पूंजी कोई लूट कर ले गया हो। नेता जी ने पुलिस वालों को दो दिन का समय दिया है चोर का पता लगाने और चोरी का माल बरामद करने के लिये। खबर है कि नेता जी के घर से पचास लाख कीमत के उपहार चोरी हो गये हैं। चोरों को कीमत पता चली तो वे बहुत खुश हुए। मगर जब वे सारा सामान बाज़ार में बेचने गये तो उनके पैरों तले से ज़मीन खिसक गई है। सोना चांदी का सामान खरीदने वालों ने जब परखा तो पाया कि सब का सब नकली है। बाहर सोने की पॉलिश है और अंदर पीतल ही पीतल है , चांदी की जगह कोई बहुत सस्ती धातु है सफेद रंग की। इसलिये चोरों ने खुद सारा सामान थानेदार जी से भाईचारा निभाने के लिये जाकर उनके हवाले कर दिया है ताकि वो नेता जी को खुश कर नौकरी में तरक्की हासिल कर सकें और अपनी पुलिस की बदनामी से बच सकें। थानेदार जी ने पूरा सामान नेता जी के हवाले कर दिया और कहा चोरों से गलती हो गई थी जो अपने ही भाई के घर घुस आये थे , जब पता चला तो गलती को सुधारने के लिये खुद ही चोरी का माल वापस कर गये हैं। आप भी उनको माफ़ कर दें और चोरों को छोड़ने की इजाज़त दे दें। ये सुनते ही नेता जी नाराज़ हो गये और बोले कि जो उनको ठगे भला उसको कैसे छोड़ा जा सकता है। जब नेता जी नहीं माने और चोरों को सज़ा देने की ज़िद पर अड़ गये तो थानेदार जी ने पूरी असलियत उनको बता ही दी। कहा नेता जी ये सारा सामान ही नकली है और इसकी कीमत कुछ भी नहीं है। आपको ठगा उन लोगों ने है जो आपको ये सब उपहार दे कर अपने काम करवा गये हैं , इन चोरों को तो ईनाम मिलना चाहिये आपको अपने लोगों की असलियत बताने के लिये। नेता जी उदास हो कर कह उठे कि उनके साथ लोग वही करते रहे जो कहा जाता है कि हम नेता लोग किया करते हैं। नेता जी बोले सच बताना कहीं तुम पुलिस वालों ने तो असली को नकली नहीं बना दिया। थानेदार बोले हज़ूर पुलिस वाले राजनेताओं कि तरह बेईमान नहीं हुए अभी तक भी कि जिस पेड़ की छांव में बैठें उसकी ही जड़ों को काटने का काम करें। नेता जी सोच में पड़ गये कि अब क्या किया जाये ।

                      तभी विरोधी दल के नेता का फोन आया चोरी की घटना पर अफ़सोस जताने के लिये। वे नेता जी के भरोसे के मित्र हैं इसलिये नेता जी ने सारा मामला उनको बता कर पूछा आप ही मेरे मार्गदर्शक रहे हो , आप की बात मान कर ही आज मैं इस जगह पहुंचा हूं। आप ही बतायें उनके साथ क्या किया जाये जो मेरे साथ इतना बड़ा छल कर गये , सब को जानता हूं , सब को फायदा पहुंचाया है। उन विरोधी दल के नेता जी का कहना था कि इस बात का किसी से ज़िक्र नहीं करें कि सब नकली है। ये राज़ राज़ ही रहने दें कि कोई आपको मूर्ख बना अपने काम करवा गया है। जैसे लोग आपको मूर्ख बना खुश कर अपना मतलब हल करते रहे हैं वैसे ही अब आप भी करें। सच पूछो तो ये सामान नौटंकी वालों का है , भला इस युग में मुकुट , गदा , तलवार कोई उपयोग करता है। आप भी इसको किसी और को देकर अपना काम निकलवा सकते हैं। अगर आपको सच में ताज पहनना है तो ये सब आप ले जाकर मुख्यमंत्री जी को उनके जन्म दिन पर दे आयें और बदले में मंत्री पद पक्का समझें। सभी समाचार पत्रों में खबर छपी है कि नेता जी राजधानी जा कर मुख्यमंत्री जी को सोने की तलवार सोने का मुकुट और चांदी कि गदा भेंट कर आये हैं। नेता जी ने बयान दिया है कि उनको जो भी उपहार मिलते हैं जनता से वे उसे अपने पास नहीं रखते है बल्कि पार्टी को ही दे देते हैं। उनकी नैतिकता ऐसे उपहार अपने पास रखने की अनुमति नहीं देती है। उनको मंत्री बना दिया गया है और उनका कहना है कि वे सदा की तरह नैतिक मूल्यों पर आधारित राजनीति ही करते रहेंगे ।

दिसंबर 22, 2013

बाल की खाल ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

            बाल की खाल ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

    आखिर शर्मा जी का आप्रेशन हो ही गया। पांच साल से पेट दर्द का इलाज कराते कराते शर्मा जी जितना तंग आ चुके थे उससे ज़्यादा डॉ सिंह कोई आराम नहीं है की शिकायत सुनते सुनते। इसलिये उन्होंने ये आखिरी कोशिश करने का फैसला किया था कि पेट को चीर कर ही देखा जाये। अभी तक किसी भी टैस्ट से कुछ नहीं मिला था , शायद आप्रेशन से ही किसी रोग का पता चल सके। डॉ सिंह जब वार्ड का राउंड लेने आये तब शर्मा जी को होश आ चुका था , आते ही मुस्कुरा कर बोले लो शर्मा जी आपकी परेशानी का अंत हो गया है। आपकी आंतड़ियों में रुकावट थी उसको पूरी तरह दूर कर दिया है। बस अब किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं होगी। अब आप बिलकुल ठीक हैं , केवल दो तीन दिन तक कुछ भी खाना नहीं है , ग्लुकोज़ से ही खुराक देंगे। डॉ सिंह वापस जाने लगे तो शर्मा जी ने पूछ ही लिया डॉक्टर साहिब अब फिर से तो दर्द नहीं होगा कभी ! "नहीं अब कभी नहीं होगा वो दर्द लेकिन आपको एक बात का ख्याल रखना होगा खाना खाते समय कि खाने में बाल नहीं हों "। शर्मा जी को उनकी बात समझ नहीं आई इसलिये सवाल किया डॉ साहिब क्या मतलब। डॉ सिंह बोले , देखो शर्मा जी आपके पेट से बालों का गुच्छा निकला है उसी से सारी गड़बड़ थी , अब वो रुकावट फिर से नहीं हो इसके लिये एतिहात बरतनी होगी कि खाने के साथ बाल न खाओ। अच्छा ये बताओ शर्मा जी क्या श्रीमती शर्मा के बाल काफी लंबे हैं। "हां लंबे तो हैं "शर्मा जी ने जवाब दिया। डॉ सिंह बोले तब तो उनकी कटिंग करवा दो , आजकल फैशन भी है छोटे बालों का , न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। हंसते हुए डॉ साहिब तो सलाह दे गये लेकिन शर्मा को एक नई चिंता दे गये। अब तक शर्मा जी को पत्नी से ये शिकायत रहती थी कि वो खाने में मिर्च मसाले ज़्यादा डालती हैं और शायद दर्द का यही कारण है। मगर ऐसा तो कभी नहीं सोचा था शर्मा जी ने कि जिस नागिन सी चोटी पर वो फ़िदा थे वो इस कदर खतरनाक भी हो सकती है। कितनी बार उन्होंने रोटी से बाल निकाल कर फैंक दिये थे और बस इतना ही कहा था श्रीमती जी बालों को बांध कर रखा करो , यूं खुला न छोड़ा करो। वो भी मुस्कुरा भर देती थी , मगर उनसे बाल कटवाने को कहना एक बड़ी समस्या थी। वो कितनी बार घने लंबे और रेशमी बालों की प्रतियोगिताओं में प्रथम आ चुकी थी और अगर उनको अपने पति और बालों में से किसी एक को चुनना पड़े तो शायद वो अपने बालों को ही चुनेंगी , शर्मा जी को लगता था ।

    फिर भी सहस बटोर कर शर्मा जी ने डॉ सिंह की कही बात अपनी पत्नी से कह ही दी जब वो मिलने को आई। एक बार तो थोड़ा परेशान और हैरान हुई वो फिर कुछ देर खामोश रहने के बाद सोचते हुए कहने लगी ये सब डॉ सिंह कि मिसेज़ कि चाल लगती है। दो बार मुझसे प्रतियोगिता में मुझसे पीछे रही है तो ऐसे मेरा पत्ता साफ करवाना चाहती है। शर्मा जी को लगा कहीं वो बात का बतंगड़ न बना दे इसलिए समझा कर कहने लगे भला डॉ सिंह ऐसा क्यों करने लगे , वो जाने माने सर्जन हैं , कभी भी कोई गलत काम नहीं कर सकते। ऐसे उनपर शक करना गलत है और बालों का गुच्छा निकला है ये वो नर्स भी जानती है जो तुम्हारी सहेली है और आप्रेशन में डॉ सिंह के साथ ही थी। लेकिन श्रीमती शर्मा कब मानने वाली थी , कहने लगी आप बताओ डॉ सिंह को क्या मालूम कि वो मेरे बाल हैं। शादी से पहले आप माता जी के हाथ की रोटी खाते रहे हैं उनके भी तो हो सकते हैं। फिर भी आपको मुझे ही दोष देना है तो लो आज से मैं रोटी नहीं बनाया करूंगी , आप घर के लिये एक नौकरानी का प्रबंध कर दो , ये कह श्रीमती जी ने गेंद उनके पाले में डाल दी थी।
                   शर्मा जी को आने वाले तूफान का एहसास होने लगा था , मगर ये सोच कर चुप हो गये थे कि अस्पताल से छुट्टी के बाद इसका कोई हल खोजेंगे। और बहुत विचार करने के बाद शर्मा जी को लगा कि श्रीमती जी को समझने से सरल काम है नौकरानी रख लेना। ऐसे थोड़ा प्रयास करने पर पांच सौ रूपये महीना पर एक नौकरानी मिल ही गई थी , मगर जब पहले ही दिन जब छमियां उलझे और बिखरे बाल लिये आई तो शर्मा जी से रहा नहीं गया और कह दिया ,छमियां ज़रा अपने बालों की ठीक से चोटी बना कर आया करो। लेकिन छमियां तो गर्ज ही पड़ी , साहब हमको ऐसी वैसी न समझियो हां … । वह तो श्रीमती जी ने बात संभाल ली वर्ना शर्मा जी तो घबरा गये थे कि जाने समझ बैठी छमियां। इसलिये शर्मा जी ने ये समस्या हल करने का काम श्रीमती जी को ही सौंप दिया था। अगले दिन श्रीमती शर्मा ने एक पुरानी साड़ी देकर और सौ रूपये पगार बढ़ा कर छमियां को मना ही लिया था उसके बाल कटवाने के लिये। मगर जब छमियां ने अपने बाल कटवाने पर पगार बढ़ने की बात कही तो उसका मर्द बिदक ही गया , तू वहां काम करना जा रही है कि साहब से शादी करने , बोल क्या सारी उम्र वहां रहना है तुझे।  छोड़ दो दिन की पगार और मत जाना कल से काम पर उनके घर। लगता है उनका मगज़ ही खराब है , छमियां ने भी इसी में अपनी भलाई समझी थी ।

         दो महीने बीत गये लेकिन ऐसी किसी नौकरानी का प्रबंध नहीं हो सका जिसके बाल गिरने का खतरा न हो। इस बीच शर्मा जी के पुराने मित्र मल्होत्रा साहब घर आये तो उनको अपना दुखड़ा सुना ही दिया शर्मा जी ने। बस इतनी सी बात पर परेशान हो , मल्होत्रा जी बोले थे , याद है जब हम दोनों साथ रहते थे तब मैं सब्ज़ी बनाया करता था और तुम रोटी बनाते थे। अब मुझे भी रोटी बनाना आ गया है , तुम्हें भी थोड़ी प्रैक्टिस करने से फिर से रोटी बनाना आ जायेगा। सुन कर शर्मा जी कुछ दुविधा में पड़ गये तो मल्होत्रा जी कहने लगे यार क्या सोचने लग गये।  मैं बताऊं आपको मैंने खाना बनाना किसलिये शुरू किया था , मैंने एक सर्वेक्षण की बात पढ़ी थी अख़बार में कि जिनकी पत्नियां मज़ेदार खाना खिलाती हैं उनको बहुत सारी बिमारियां होने का खतरा होने और जल्दी मरने की संभावना अधिक होती है। फिर तुम्हारी समस्या का तो सब से बेहतररीन हल ही यही है। गंजे होने का ये फायदा तुम्हें अब समझ आयेगा , जब बाल ही नहीं तो गिरेंगे कैसे।  दोनों ने ठहाका लगाया था। मल्होत्रा जी के तर्क अचूक थे और शर्मा जी को अपनी समस्या का समाधान मिल गया था।  

दिसंबर 15, 2013

सत्ताशास्त्र ( व्यंग्य ) डा लोक सेतिया

           सत्ताशास्त्र ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

    किसी ज़माने में जो शिक्षा राज्य के राजकुमारों को दी जाती थी ताकि वो जब राजा बनें तो शासन करने के तौर तरीके ठीक से जानते हों। वही बातें इस किताब में विस्तार से समझाई गई हैं। यह पुस्तक एक अति गोपनीय दस्तावेज़ है , विकिलीक्स की तरह मैं बड़ा जोखिम लेकर इस में लिखी हुई सभी राज़ की बातें आपको बताने जा रहा हूं। मैंने इस पुस्तक की जानकारी किसी सरकारी वेबसाईट से हैक नहीं की है , वास्तव में इसके बारे में सरकारी उच्च पदों पर बैठे लोगों तक को कुछ भी पता नहीं है। इस पुस्तक की गिनी चुनी प्रतियां ही उपलब्ध हैं और इसके प्रकाशन या फोटोप्रति बनाने तक पर देश में प्रतिबंध है। जब भी कोई प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री बनता है तब शपथ लेने के बाद  उसको ये पुस्तक सीलबंद मिलती है ताकि उसको शासन करने के गुर पता चल सकें। और जब वो पदमुक्त हो जाता है तब वो इस पुस्तक को सीलबंद कर के रख जाता है अपने बाद आने वाले नये शासक को देने के लिये। इस पुस्तक की सुरक्षा का कड़ा प्रबंध रखा जाता रहा है हमेशा से , आम जनता का इस पुस्तक के बारे जानने का प्रयास तक बहुत संगीन अपराध है। आप तक इस पुस्तक की जानकारी पहुंचाने का वास्तविक श्रेय उस चोर को जाता है जिसने अपने मौसेरे भाई , सत्ताधारी शासक के पास से इस पुस्तक को चुराने का साहसपूर्ण कार्य कर दिखाया है। क्योंकि वह चोर खुद अंगूठा छाप है और खुद पढ़ने में असमर्थ है इसलिये ये किताब मुझे दे गया है , इस ताकीद के साथ कि इसको ठीक प्रकार से पढ़ कर समझ कर उसको सत्ता के सभी गुर सिखला दूं। अब आगे उस पुस्तक की हर बात जस की तस।

               आज से आप शासन की बागडोर संभाल रहे हैं अर्थात आप शासक बन गये हैं , अब इस बात को पल भर को भी भुलाना नहीं है कि आज से आप राजा हैं और बाक़ी सब आपकी प्रजा। याद रखना है कि प्रजा को प्रजा ही बनाए रखना है कभी भी उसको अपनी बराबरी पर नहीं आने देना है अन्यथा आप राजा या शासक नहीं रह सकते हैं एक दिन को भी। आपका सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण कार्य है सदा राजा बन कर शासन करना। आपके लिये तमाम अधिकार आवश्यक हैं सरकार चलाने के लिये और सभी कर्तव्य आप बाकी लोगों के लिये छोड़ दें। जनता को , प्रशासन के अधिकारियों को , मंत्रियों , सचिवों और अपने सब सहायकों को बताते रहें कि उनका कर्त्तव्य है आपके हर आदेश का पालन करना। लेकिन आप खुद जो भी चाहें कर सकते हैं , कोई भी सीमारेखा आपके लिये नहीं है। कभी भी अगर कोई नियम कोई कानून कोई संविधान का प्रावधान आपकी राह में बाधा बने तो उसको तुरंत बदल डालें जनहित का नाम देकर।
         अब आपको किसी भी धर्म के लिये नहीं सोचना है , आज से सत्ता ही आपका धर्म है ईमान है भगवान है। पाप और पुण्य बाकी धर्म वालों के वास्ते हैं , आपका हर इक कर्म राज्य के हित में आवश्यक है। आपको नैतिक अनैतिक की चिंता को छोड़ हर प्रकार से मनमानी करनी है , अन्यथा शासन प्राप्त करने की क्या ज़रूरत थी। आपने चुनाव जीतने के लिये जो जो वादे जनता से किये थे उनको सदा याद रखना है और ये भी देखना है कि वो कभी भी पूरे नहीं हों। अगर शासक जनता की समस्याएं हल करने लगे और जनता को उसके सभी अधिकार देने लगे तो वो शासक नहीं रह जाएंगे बल्कि सेवक बन कर रह जाएंगे। लेकिन आपको भूल कर भी सेवक नहीं बनना है , आपको शासक बन कर राज करना है राजा बन कर , चाहे देश में लोकतंत्र हो। मगर आप जनता के सेवक हैं ऐसा प्रचार करना ज़रूरी है लोकशाही के नाम पर राजशाही कायम रखने के लिये।

   आप शासक जनता को कुछ भी देने के लिये नहीं बने हैं , आपको बार बार नये नये कर लगाने हैं अपने सरकारी खज़ाने को भर कर उसका उपयोग अपने लिये , अपने परिवार वालों के लिये , अपने प्रशासन के लोगों के लिये सभी सुःख सुविधायें उपलब्ध करवाने बेरहमी से करना है। जनता तक अपने बजट का बहुत छोटा सा भाग पहुंचने देना है ऊंठ के मुंह में जीरे के समान। लेकिन ऐसा करने को बहुत ही महान कल्याणकारी कदम घोषित करते रहना ज़रूरी है। आपको ऐसे हालात बनाने हैं कि जनता आपके सामने भिखारी की तरह भीख मांगने को मज़बूर रहे।

                 राज्य का प्रशासन , पुलिस ,न्यायपालिका आम जनता को इंसाफ देने के लिये नहीं बनाये गये हैं। इनको कभी भी ऐसा करने नहीं देना है। इन सब को अपने इशारों पर चलाने का काम करना है , इसलिये इन्हें भी अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते रहने की अघोषित छूट देनी है और ज़रूरत पड़ने पर इनको बलि का बकरा बना कर अपनी खाल बचानी है। अपने अफसरों , मंत्रियों के अपकर्मों की जानकारी सबूत समेत अपने पास छुपा कर रखनी है ताकि इनमें से कोई अगर कभी आपकी राह में रुकावट डालने का कार्य करे तो उससे निपटने का काम बखूबी लिया जा सके। अब जब सत्ता आपके हाथ आ गई है तो ये कभी विचार नहीं करना है कि कभी आपको कुर्सी से हटना भी है या कोई आपको हटा सकता है। आपको यही मान लेना है कि अब कुर्सी आपकी अपनी विरासत बन गई है और आपने न केवल जीवन भर इस पर काबिज़ रहना है बल्कि आपके मरने के बाद भी इसको अपने बेटे , पत्नी या दामाद के लिये आरक्षित करने का कार्य करना है। हर सुबह आपने अपना एक आदर्श वाक्य दोहराते रहना है कि राजा कभी भी गलत नहीं होता है। आप जो भी कर रहे हैं वही सही है। यकीन माने सभी राज्यों के मुख्यमंत्री और देश का हर प्रधानमंत्री इस पुस्तक की हर बात पर पूरी तरह से अमल करते हैं करते रहे हैं और आगे भी करते ही रहेंगे।

हमारा समाज , राजनीति , हमारी विचारधारा और हमारा लेखन कर्म ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

 हमारा समाज , राजनीति , हमारी विचारधारा और हमारा लेखन कर्म

                        ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

बहुत दिनों से देख कर हैरान था फेसबुक पर ये सब। लगता है हम सब की आदत सी हो गई है किसी न किसी को खुदा बना कर उसकी इबादत करने की। मैं इस सब से गुज़र चुका हूं करीब छतीस वर्ष पहले , संपूर्ण क्रांति का आवाहन किया था तब जयप्रकश नारायण जी ने। भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ थी वो जंग भी। नतीजा क्या निकला ? जनता ने आपात्काल के बाद सत्ताधारी दल को बुरी तरह परास्त कर एक नये बने दल को चुना था। मगर उसके बाद जो लोग आये वो भूल गये थे जनता क्या चाहती है और शामिल हो गये थे उसी सत्ता की गंदी राजनीति के गंदे खेल में। लालू यादव , मुलायम सिंह और भी सभी दलों के लोग , सब के सब शामिल थे। समाजवाद की बातें करने वाले आगे चलकर परिवारवाद को बढ़ावा देने और भ्रष्टाचार में नये कीर्तिमान स्थापित करने वाले बन गये। खुद जे पी तक निराश हो गये थे। जनता को फिर एक बार उसी दल को सत्ता में लाना पड़ा था , मध्यवती चुनाव हुए जब 1 9 8 0 में। किसी शायर का इक शेर है , तो इस तलाश का अंजाम भी वही निकला , मैं देवता जिसे समझा था आदमी निकला। मैं कभी किसी दल का समर्थक नहीं बना न ही किसी का अंधा विरोधी ही। लेकिन मुझमें कोई जे पी कोई भगत सिंह कोई लोहिया कोई गांधी रहा है जो मुझे देश की दुर्दशा देख खामोश नहीं रहने देता। और मैंने जो मुझे उचित लगता रहा हमेशा ही करता रहा , मैं हर दिन लिखा भ्रष्टाचार के खिलाफ। हर सरकार , हर अफसर , हर नेता को बेबाक लिखा मैंने। कुछ पाना मेरा मकसद नहीं था , कुछ मिला भी नहीं , मगर एक बात थी जो हासिल हुई। मैं अपने आप से नज़र मिला सकता था , क्योंकि मैं सब कुछ देख कर चुप नहीं बैठता था। अक्सर राजनीति से जुड़े लोग मिलते रहे मुझे और चाहते रहे कि मैं उनका समर्थक बन जाऊं। लेकिन मैंने उम्र भर किसी रंग का चश्मा नहीं पहना जो मैं हर चीज़ को उसी नज़रिये से देखता। लिखते लिखते पत्रकारिता को करीब से जाना और देख कर हैरानी हुई कि जो दावा करते हैं सब कोई आईना दिखाने का उनको खुद अपना पता तक नहीं है। कुछ लोग आये थे मेरे शहर में कुछ साल पहले , फिर से जे पी की संपूर्ण क्रांति की बातें करने। मिला जाकर उनसे , मेरे घर पर आये थे वो भी ,चर्चा की थी उनके साथ। समझ गया उनको भी किसी बदलाव की नहीं सिर्फ अपने को राजनीति में अपने आप स्थापित करने की ही चाहत है। देख कर हैरान हुआ कि वे जातिवाद का सहारा लेकर सत्ता की तरफ बढ़ना भी चाहते हैं और समाजवाद की बात भी करना चाहते हैं। मैंने इस सब को लेकर लिखा था इक लेख जो मुझे मालूम नहीं हुआ कि कब किस अख़बार में छप चुका था। बहुत सवाल उठाये थे उनके मकसद को लेकर , उनके तरीके को लेकर। शायद साल बीत गया था , वही लोग खुद चल कर आये थे मेरे घर , अचानक , बिना किसी सूचना के। स्वागत किया था , मैं चाय पानी का प्रबंध कर रहा था जब देखा वो कोई महीनों पुराना अख़बार लिये चर्चा कर रहे थे मेरे लिखे उस लेख को लेकर। मुझसे शिकायत करने आये थे कि मैंने उनके बारे लेख क्यों लिखा। मैंने उनसे लेकर वही लेख उनके सामने पढ़ा था और पूछा था कि इसमें जो लिखा है क्या वो सच नहीं है। आपको बता दूं वो कौन लोग थे और क्या करना चाहते थे। एक जनाब जो किसी विश्व विद्यालय में प्रोफैसर थे और टी वी पर चुनावों में समीक्षक का काम किया करते थे , अपने पिता के नाम पर नया राजनैतिक दल बनाना चाहते थे। ऐसे लोग दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं , उनको जो भी कहना है , करना है , कुछ पाने को ही करना है। फिर देखा दो साल पहले वही सब , किसी अंदोलन में स्वार्थी लोग जुड़ रहे थे किसी तरह राजनीति में प्रवेश करने के लिये। कई सारे लोग आये काले धन और भ्रष्टाचार की बात करने , जनता की समस्याएं इनके लिए समस्या नहीं साधन हैं सत्ता की ओर जाने के लिये। इस बीच कोई और नेता आगे आ गया प्रधानमंत्री बनने का दावेदार बन कर , और लोग उसकी जय जय कार में भी शामिल हो गये। वास्तव में हम बिना जाने बिना सोचे बिना समझे विश्वास कर लेते हैं कि कोई मसीहा कहीं से आयेगा और सब कुछ बदल कर रख देगा। लेकिन ऐसा होता नहीं है , हम जिनको मसीहा समझते हैं वो जो कहते हैं वो कर नहीं पाते। क्योंकि कहने में और करने में बहुत अंतर होता है। हमें इतनी सी बात ही समझनी है कि हमें अगर देश को बदलना है , लोकतंत्र को बचाना है , राजनीति को साफ करना है तो किसी और पर नहीं खुद अपने आप पर भरोसा करना होगा और इसके लिये हर दिन प्रयास करना होगा। निष्पक्ष रह कर देखना होगा सभी की कथनी और करनी के अंतर को। सब इंसान हैं यहां कोई भी खुदा नहीं है , सभी में कमियां हो सकती हैं। जब भी लोग किसी को चुनाव में जिताते हैं तो वो खुद को कहता भले आम आदमी हो , समझता नहीं है कि वो आम है। सत्ता मिलते ही सब पर इक नशा छा जाता है। 
 
( बात सत्ता शास्त्र की , व्यंग्य इसको लेकर है , अभी लिखना हैं ब्लॉग पर , इंतज़ार करें , पढ़ना ज़रूर ) 
 

 

दिसंबर 13, 2013

झूठे कहीं के ( व्यंग्य ) डा लोक सेतिया

              झूठे कहीं के ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

       वकील किसी के मित्र होते तो नहीं मगर वो खुद को मेरा मित्र बताते हैं तो मेरे पास नहीं मानने का कोई तर्क नहीं होता। तलाक के मुकदमों के माहिर समझे जाते हैं। आजकल सब को मिठाई खिला रहे हैं। जब से खबर पढ़ी है अख़बार में कि एक नया कानून बनाने जा रही है सरकार जिसमें प्रावधान होगा कि तलाक लेने पर पत्नी को पति की अर्जित सम्पति के साथ साथ उसकी पैतृक सम्पति से भी बराबर का हिस्सा मिलेगा। अभी तक उनकी तलाक दिलवाने के मुकदमें की फीस इस बात को देख कर तय की जाती थी कि तलाक लेने के बाद महिला को अपने पति से क्या कुछ मिलने वाला है। वैसे उनको पुरुषों के तलाक के मुकदमें लड़ने से भी इनकार तो नहीं लेकिन वे खुद को नारी शक्ति , महिला अधिकारों और औरतों की आज़ादी का पक्षधर बताने में गर्व का अनुभव करते हैं। इस नया कानून बन जाने से उनके पास महिलाओं के तलाक लेने के मुकदमों की बाढ़ आ जाएगी ऐसा उनको अभी से लग रहा है और वो अपनी फीस भी बढ़ाने की सोचने लगे हैं। मेरे घर खुद आये मिठाई बांटने और मेरी पत्नी से इस विषय पर ही चर्चा करने लग गये। मैंने कहा वकील साहब इन तिलों में तेल नहीं है , आपकी भाभी जी मुझसे कभी तलाक नहीं लेने वाली।  वे बोले मित्र बुरा मत मानना , मुझे तो हर इक महिला अपनी मुव्वकिल नज़र आती है। क्या पता कब भाभी जी का भी मन बदल जाये और उनको मेरी सहायता की ज़रूरत आन पड़े। इनसे तो मैं फीस भी नहीं ले सकूंगा , आखिर को हम मित्र हैं और मित्र की पत्नी से भला मैं फीस ले सकता हूं। तुम दोनों का विवाह भी मैंने ही करवाया था अदालत में , क्या गवाह बनने की कोई फीस मांगी थी। तुम दोनों ने जो उपहार दिया उसी को अपनी फीस समझ लिया था। लेकिन कभी मुझे तुम्हारी तरफ से तलाक का मुक़दमा लड़ना पड़ा तो फीस दोगुणी लूंगा तुमसे। तुम्हें आज़ादी की कीमत तो चुकानी ही होगी , तब मोल भाव मत करना। उनसे पुरानी मित्रता है इसलिये समझता हूं कि वकील कभी किसी के दोस्त नहीं हो सकते। भला घोड़ा घास से यारी कर सकता है। हर वकील को लड़ाई झगड़ा , दुश्मनी , चोरी डकैती जैसी बातें अपने कारोबार के लिये आशा की किरण नज़र आते हैं। समाज में अपराध और अपराधी न हों ये कोई वकील कभी नहीं चाहता , ऐसा हो गया तो सब के सब वकील भूखे मर जाएंगे।

          अभी वकील साहब हमें तलाक के फायदे समझा ही रहे थे कि उनकी धर्म पत्नी अर्थात हमारी भाभी जी भी आ गई। पत्नी को देख वकील साहब की हालत भी वैसी ही हो गई जैसी किसी भी पति की होती है जो पूरी दुनिया में बदलाव लाने की बात करता फिरता हो मगर खुद अपने घर कुछ भी बदलने को तैयार नहीं हो। भाभी जी मेरी तरफ मुखातिब हो कर बोली कि मैं जानती हूं ये किस ख़ुशी में मिठाई बांटते फिर रहे हैं। इसलिये आज इनके सामने ही आपसे पूछने आई हूं कि मुझे भी बताओ कोई ऐसा वकील जो मेरा इनसे तलाक करवा सके। मुझे भी देखना है कि दूसरों का घर बर्बाद करने वाले का जब खुद का घर बर्बाद हो तो उसकी कैसी हालत होती है। मैं आपसे सवाल करना चाहती हूं कि जो लोग , जो समाज कानून होने के बावजूद आज तक बेटियों को सम्पति का अधिकार नहीं देता है वो कानून बन जाने से बहुओं को आसानी से दे देगा। कहीं ऐसा न हो जैसे आजकल बलात्कारी बलात्कार कर के बच्चियों को जान से ही मार देते हैं वही तलाक चाहने वाली महिलाओं के साथ भी होने लग जाये। जायदाद की खातिर भाई भाई का दुश्मन बन जाता है तो जो पत्नी छुटकारा चाहती हो उसे छोड़ देगा उसका पति।

      आज तक आपका ये समाज महिलाओं को सुरक्षित जीने का अधिकार तो कभी दे नहीं सका न ही किसी सरकार ने कभी सोचा है कि जब आधी आबादी को इतना भी मिल नहीं सका तो फिर आज़ादी के क्या मायने हैं। और बात कर रहे हैं पैतृक सम्पति पति की से पत्नी को तलाक के बाद हक दिलाने का। मैं आपके सामने आपके इन वकील मित्र से पूछती हूं कि वे तैयार हैं मुझे तलाक देने के बाद अपनी सम्पति से बराबरी का हिस्सा देने को। आप ही बता दो कोई वकील जो मुझे भी ये सब दिलवा सकता हो , मिठाई मैं भी खिला सकती हूं आपको। ये सुनते ही वकील साहब का चेहरा देखने के काबिल था। उनके तेवर झट से बदल गये थे , अपनी पत्नी का हाथ पकड़ कर बोले से आप तो बुरा मान गई , भला आपको कभी तलाक दे सकता हूं मैं। मैं आपके बिना एक दिन भी नहीं रह सकता। आप ही मेरा प्यार हैं , मेरी ज़िंदगी हैं , मेरी दुनिया हैं , मेरा जो भी है सभी आपका ही तो है। बस दो बातों से उनकी पत्नी का मूड बदल गया था , और वो हंस कर बोली थी , बस ऐसे ही प्यार भरी बातों से बहला लेते हो आप सब पति लोग हम महिलाओं को हमेशा। वकील साहब कहने लगे कसम से सच कह रहा हूं।  उनकी पत्नी बोली थी जाओ झूठे कहीं के। सुन कर मुस्कुरा दिये थे वकील साहब , झूठे कहीं के सुन कर उन्हें बुरा क्यों लगता।

दिसंबर 08, 2013

सिनेमा के अनोखे सफ़र की दिलकश दास्तां ( आलेख ) डा लोक सेतिया

        सिनेमा के अनोखे सफ़र की दिलकश दास्तां 

                           ( आलेख )  डा लोक सेतिया

सौ वर्ष हो गये हैं सिनेमा के , फ़िल्म जगत के। इन सौ वर्षों में सिनेमा भी बदला है और शायद बाक़ी समाज से अधिक तेज़ी से बदला है। बाहरी रूप से भी और भीतर से भी। शायद सभी को एक अंतराल के बाद रुक कर इस बात पर विचार करना चाहिये कि हम चले कहां से थे , जाना किधर को था और आज किस जगह आ गये व आगे किस दिशा को जाना है। अक्सर लोग जब कभी सिनेमा की बात करते हैं तब अधिकतर उनकी बातचीत का विषय अदाकारों तक सिमित रहता है या ज़यादा से ज़यादा गीत संगीत नृत्य तक। जब कि परदे के पीछे तमाम लोग होते हैं , कैमरामैन , निर्देशक , निर्माता , कथाकार ही नहीं और तमाम तरह के कम करने वाले कितने ही लोग।  इनमें से सभी का अपना अपना महत्व है। हर एक पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है , एक एक फ़िल्म पर ही बहुत होता है लिखने को। ऐसे में सिनेमा के पूरे इतिहास को किसी एक लेख में तो क्या किसी ग्रंथ में भी लिखना संभव नहीं है। इस लेख में हम केवल फिल्मों के समाज को दिये योगदान , उसके हर तरह से समाज पर हुए प्रभाव की ही बात करेंगे। पहली बात तो यही समझनी होगी कि सिनेमा मात्र एक मनोरंजन का माध्यम ही नहीं है। समाज को तमाम बातों की समाजिक , भैगोलिक , राजनैतिक , धार्मिक एवं परिवारिक संबंधों की जानकारी देकर लोगों को शिक्षित करना , जागरूक करना प्रारम्भ से ही फिल्मों का मकसद रहा है। दहेज प्रथा , गरीबी , भूख , अन्याय , भेदभाव , आडंबर जैसी बातों यहां तक कि वैश्यावृति जैसी समस्या पर मुखर रही हैं हमारी पुरानी फ़िल्में। एक फ़िल्मी गीत विवश कर देता है समाज को , देश के कर्णाधारों को अपने भीतर झांकने के लिये। जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं , आज भी प्रसांगिक है ये गीत।
     
  अगर एक फ़िल्म की बात करें तो मुझे सबसे पहले नया दौर फ़िल्म की याद आती है , बलदेव राज चौपड़ा जी की ये फ़िल्म बदलते समय में मज़दूर  और मशीन को लेकर चिंता जताती है कि कैसे जब एक बस वाला कारोबार करने आता है तो कितने तांगे वालों कि रोटी का सवाल खड़ा हो जाता है। दिलीप कुमार और वैजंती माला की जोड़ी कई फिल्मों में लाजवाब रही है। नैय्यर जी का संगीत भी लाजवाब है इस फ़िल्म में , साथी हाथ बढ़ाना गीत आज भी मन में नया उत्साह नई उमंग जगाता है। रेशमी सलवार कुर्ता जाली का गीत हो या फिर मांग के साथ तुम्हारा मैंने मांग लिया संसार , कभी न भूलने वाले गीत हैं सभी। जिस देश में गंगा बहती है फ़िल्म डाकुओं के हृदय परिवर्त्तन की बात करती है। बहुत बार जो बात फ़िल्म में कितने ही दृश्य नहीं समझा पाते उसे किसी एक गीत की दो लाईनें सपष्ट कर देती हैं। आना है तो आ राह में कुछ फेर नहीं है , भगवान के घर देर है अंधेर नहीं है। फ़िल्म बैजूबावरा संगीत प्रधान फ़िल्म थी तो जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली , नृत्य एवं संगीत दोनों का संगम। संगम फ़िल्म से प्रेम त्रिकोण की कहानियों की शुरुआत हुई थी , प्रेम हमेशा से फिल्मों , कहानियों , कविताओं का पहला विषय रहा है। संगम फ़िल्म से दोस्ती और प्यार दोनों को एक अलग पहचान मिली है। एक दोस्त अपने दोस्त के लिये अपनी प्रेमिका को छोड़ ही नहीं देता बल्कि अंत में अपनी जान देकर भी दोनों को एक करने का काम कर जाता है। दिल एक मंदिर का प्यार भी ऐसा ही पावन है। मगर सच्चे प्यार की परिभाषा को जितना अच्छा फ़िल्म ख़ामोशी में दर्शाया गया है , वो अनुपम है। हमने देखी है इन आंखों की महकती खुश्बू ,हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्ज़ाम न दो , सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो।

    अमर प्रेम फ़िल्म भी प्यार को बुलंदी पर ले जाने का काम करती है। हालात से मज़बूर , समाज के स्वार्थी लोगों द्वारा नाच गाने के कोठे पर पहुंचाई गई नायिका से नायक का वो प्यार जो जिस्म नहीं रूह तक जाता हो , और एक नाचने वाली कोठे वाली का प्यार को तरसते छोटे बच्चे के लिये ममता का प्यार। प्यार एक इबादत बन जाता है जब इस बुलंदी तक आता है। रैना बीती जाये शाम न आये , क्या कोई सोच सकता कि ये भजन है या किसी गाने वाली की आवाज़ जो कोठे की ररफ ले आती है नायक को खींच कर। गीत संगीत अभिनय सभी शानदार हैं इस फ़िल्म के , राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर की जोड़ी भी क्या खूब रही कितनी ही फिल्मों में।

लीडर फ़िल्म दिलीप कुमार कि पुरानी बेहतरीन फिल्मों से एक है। अपनी आज़ादी को हम हर्गिज़ भुला सकते नहीं , सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं , अभी तक हर जुबां पर रहता है गीत , इक शाहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल , रफी और लता का गया युगलगीत क्या सुंदर प्रेम गीत है।

    धूल का फूल फ़िल्म हमारे समाज को इक और समस्या पर झकझोरती है , नाजायज़ समझी जाने वाली संतान की बात कर के। बी आर चौपड़ा जी की ही एक अन्य फ़िल्म साधना वैश्यावृति के हर इक पहलू को उजागर करने का काम करती है। लता जी का गाया गीत औरत ने जन्म दिया मर्दों को , मर्दों ने उसे बाज़ार दिया , जब जी चाहा मसला कुचला , जब जी चाहा धुतकार दिया। पूरा गीत रौंगटे खड़े कर देता है , एक एक शब्द शूल सा चुभता है। हर संवेदनशील व्यक्ति की पलकें नम कर देता है। आज जैसा माहौल बन गया है , हर दिन महिलाओं के साथ अनाचार की ख़बरें टीवी पर अख़बारों में भरी रहती हैं , तब इस गीत की सुनने ही नहीं समझने की भी ज़रूरत और भी अधिक महसूस होती है। दूसरी तरफ इन फिल्मों से हमें कितने ही भजन मिले हैं जो सुन कर चैन देते हैं , तोरा मन दर्पण कहलाये ,भले बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाये। मन तड़पत हरि दर्शन को आज , सुख के सब साथी दुःख में न कोई , इतनी शक्ति हमें देना दाता मन का विश्वास कमज़ोर हो न , हम चलें नेक रस्ते पे हमसे , भूल कर भी कोई भूल हो न। अल्लाह तेरो नाम , ईश्वर तेरो नाम , सब को संमति दे भगवान। लेकिन जब किसी फ़िल्म में फ़िल्मकार बुरे चरित्र को नायकत्व प्रदान करता है तब शायद वो अपनी राह से भटक जाता है। सारांश जैसी भी फ़िल्में बनती रही हैं जो सत्य के साथ अडिग खड़े रहने और अन्याय से टकराने को प्रेरित करने का काम करती हैं। मुगलेआज़म फ़िल्म एक शाहकार है , मधुबाला को अपने समय की सब से खूबसूरत अभिनेत्री माना जाता था , मगर आजकल की अभिनेत्रियों की तरह उसको अपना अधनंगा बदन दिखाने की ज़रूरत कभी नहीं पड़ी। आज हर नायिका आईटम नंबर करना चाहती है , नृत्य के नाम पर अशलीलता का प्रदर्शन केवल पैसों की खातिर। जब भी पुरानी किसी फ़िल्म में कहानी की मांग होती थी कल्ब आदि में नृत्य की तब हर फ़िल्म निर्माता - निर्देशक को ज़रूरत होती थी एक ही अभिनेत्री की। हेलन नाम नृत्य शब्द का जैसे पर्यायवाची बन गया था , नृत्य को ही पूरी तरह से समर्पित थी हेलन।

  अफसाना लिख रही हूं दिले-बेकरार का , आंखों में रंग भर के तेरे इंतज़ार का , बहुत ही मधुर थी उमा देवी की आवाज़ जो बाद में हास्य अभिनेत्री बन टुन टुन के नाम से विख्यात हुई। श्वेत श्याम फिल्मों में दोस्ती फ़िल्म एक मील का पत्थर है , बिल्कुल नये दो लोग अभिनय करने वाले ,मगर बेहद मर्म स्पर्शी कहानी। एक अंधे और एक अपाहिज मित्र की कहानी थी , फ़िल्म को राष्ट्रपति पुरुस्कार प्राप्त हुआ था। हर गीत बेमिसाल था , जाने वालो ज़रा , मुड़ के देखो मुझे , एक इंसान हूं मैं तुम्हारी तरह। जिसने सब को रचा अपने ही हाथ से उसकी पहचान हूं मैं तुम्हारी तरह। गुड़िया कब तक रूठी रहोगी , कब तक न हसोगी ,देखो जी किरन  सी मुस्काई , आई रे आई रे हसी आई। ऐसी फ़िल्में मन की गहराईयों में उतर जाया करती थी और फ़िल्म के पात्रों से दर्शक एक रिश्ता बना लिया करते थे। बार बार आंसू छलक आया करते थे फ़िल्म देखते हुए। हमें संवेदनशील बनाती थी उस दौर की फ़िल्में , मगर आजकल नई परिभाषा देने का काम करने लगे हैं कुछ लोग। मनोरंजन मौज मस्ती ठहाके लगाना न कि समाज को कोई राह दिखलाना। जाने ये समाज में आये पतन का असर है फिल्मों पर अथवा फिल्मों का असर समाज पर कि पैसा कमाना , सफलता हासिल करना ही ध्येय बन गया है सब का और जितने महान आदर्श हुआ करते थे सब भूल गये हैं। कुछ लोग बनाते रहे हैं किसी मकसद को लेकर फ़िल्में , आज भी कुछ लोग हैं जो ऐसा करते हैं। देवानंद की फ़िल्म गाईड वही बना सकता है जो भविष्य की बदलाव की चाह रखता हो वक़्त की आहट को पहचानता हो। एक पहले से विवाहित महिला को बंधन मुक्त करवा कर इक नई परिभाषा देना प्रेम की। कांटों से खींच के ये आंचल , तोड़ के बंधन बांधी पायल , आज फिर जीने की तमन्ना है , आज फिर मरने का इरादा है , कितनी महिलाओं को प्रेरित कर सकता है ये गीत। सचिन देव बर्मन की आवाज़ में गीत , वहां कौन है तेरा मुसाफिर जायेगा कहां , कभी कभी लिखे जाते हैं ऐसे गीत। हम दोनों भी देवानंद जी की ही फ़िल्म थी , दो हमशक्ल फौजियों की कहानी। मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया , कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया।  क्या गीत थे मन को छूने वाले।

           अशोक कुमार जी को दादा मुनि कहा जाता था प्यार और आदर के साथ। हर प्रकार का अभिनय किया उन्होंने , ज्वैल थीफ में खलनायक का भी और विक्टोरिया नंबर 203 में हास्य कलाकार का भी। बहुत ही विविधता थी उनके अभिनय में। ठीक ऐसे ही अभिनेता प्राण जो कभी खलनायक की पहचान समझे जाते थे ,मनोज कुमार की फ़िल्म उपकार में मलंग बाबा बन कर ऐसे आये कि उसके बाद उनका चरित्र अभिनेता का नया रूप नया अंदाज़ देखने वालों को लुभाता रहा। जिन फिल्मों ने सफलता के नये कीर्तिमान स्थापित किये उनमें शोले , मेरे महबूब , उपकार , हम आपके हैं कौन और दिल वाले दुल्हनियां ले जायेंगे के नाम शामिल हैं। नई फिल्मों में जब वी मैट , थ्री ईडियट जैसी फ़िल्में भी सफल रही हैं। फिल्मों ने देश प्रेम की भावना जागृत करने का काम भी बाखूबी किया है। आम जनता की समस्याओं को लेकर रोटी कपड़ा और मकान जैसी फ़िल्में भी बनी और शहीद भगत सिंह जी पर भी कई बार फ़िल्म बनी है। मनोज कुमार को अपना नाम भारत रखना पसंद रहा है , पूरब और पश्चिम फ़िल्म देशभक्ति को दर्शाती है। आमिर खान ने लगान और तारे जमीं पर जैसी सार्थक फिल्मों का निर्माण किया और अपनी इक पहचान बनाई है। आजकल की समस्या पर बागबां फ़िल्म एक अच्छी कहानी पर बनी लाजवाब फ़िल्म है। दामिनी फ़िल्म भी एक यादगार फ़िल्म कही जा सकती है , जिसमें समाज की मानसिकता उसका दोगलापन भी उजागर होता है , साथ ही हमारी व्यवस्था न्याय प्रणाली ,और प्रशासन के तौर तरीके पर सवाल खड़े करती है। नमक हराम फ़िल्म धनवानों द्वारा गरीब मज़दूर व कर्मचारियों का शोषण उनमें फूट डलवाना और अपने स्वार्थ के लिये हर अनुचित हथकंडे अपनाना जैसी बातों को उजागर करती है। माना इन सब फिल्मों के बावजूद भी समाज में हालत नहीं सुधरी है , मगर फिल्मकारों ने इस सब पर सोचने चर्चा करने को विवश तो किया ही है दोगले समाज को बार बार।

     फिल्मों ने एक और अच्छा काम किया है जाति धर्म और समाज कि अनुचित परंपराओं पर सवाल उठा कर।  प्रेम विवाह का प्रचलन फिल्मों के कारण ही आया है , बेशक आज भी इसका विरोध समाप्त नहीं हुआ है। कभी इक दूजे के लिये फ़िल्म से सच्चे प्रेम को दर्शाया गया तो इधर नई पीड़ी को गुमराह भी किया गया है डर और बाज़ीगर जैसी फिल्मों द्वारा , नतीजा आज अपना प्रेम स्वीकार नहीं करने पर तेज़ाब फैंकने जैसी घटनायें सामने हैं। सच है बुराई का असर जल्द होता है अच्छाई का बहुत देर से।  अमिताभ बच्चन जी जब निशब्द जैसी फ़िल्म करते हैं तो भूल जाते हैं कि इससे समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं। अपनी बेटी की सहपाठी , बेटी की उम्र की लड़की से विवाहित होने के बावजूद इश्क क्या कभी भी उचित समझा जा सकता है। आज समाज ऐसी बीमार मानसिकता का शिकार है तो फ़िल्म वाले टीवी वाले इसके लिये अपने ज़िम्मेदार होने से कैसे बच सकते हैं जब वे आज भी औरत को एक सजावट की वस्तु की तरह ही प्रस्तुत करने का ही कम करते हैं। खेद की बात है समाज की बदलाव की बड़ी बड़ी बातें करने वाले खुद अपने लिये कोई सीमा निर्धारित नहीं करते कि कहां नारी का सम्मान उनके अपने हितों से अधिक महत्व रखता है। बाकी लोगों की तरह सिनेमा का मकसद भी अगर मात्र पैसा बनाना ही हो जाये तो इसको उसकी प्रगति नहीं पतन ही समझा जायेगा। जब महान उदेश्यों को लेकर बनाई संस्थायें एक कारोबार बन जायें तो समाज को चिंता होनी चाहिये। अब यही सब जगह नज़र आता है , शिक्षा स्वास्थ्य , राजनीति प्रशासन हो या टीवी सिनेमा। आज सभी को चिंतन की ज़रूरत है और सिनेमा को आगे आना चाहिये ये बात कहने को कि बस बहुत भटक चुके सभी अब और नहीं।

   राजनीति कुछ फिल्मों का विषय रही है। मगर राजनीति का सच जिस बाखूबी से किस्सा कुर्सी का फ़िल्म और आंधी फ़िल्म में दिखाया गया वो सब में नहीं। इन दोनों फिल्मों को मुश्किलों का भी सामना करना पड़ा जो हर युग में सच की बात कहने वालों को करना ही पड़ता है , मगर इस से कभी रुकते नहीं हैं सच की राह पर चलने वाले। कहने को इन दिनों भी राजनीति को लेकर फ़िल्में बनी मगर उनमें ईमानदारी का आभाव खलता है , इन के पात्र नाटकीय अधिक नज़र आये। कई बार ऐसा प्रतीत हुआ मनो फ़िल्म कहानी पर नहीं बनी बल्कि किसी अभिनेता के लिये या किसी राजनेता की छवि के लिये लिखाई गई है कहानी। इस तरह आज का सिनेमा अपने मार्ग से भटक चुका लगता है।

               अब तो हालत ये है कि फ़िल्में पूरे समाज का आईना नहीं रह गई बल्कि एक वर्ग विशेष को ध्यान में रख कर बनने लगी हैं आज की फ़िल्में। शहरी सुविधा सम्पन्न , अच्छा वेतन , अच्छी आमदनी वाले लोग , इन के लिये फ़िल्में इन के जैसे पात्र।  पी वी आर में यही तो देखेंगे जाकर फ़िल्में। इस प्रकार आज का सिनेमा अपनी जड़ों से कटने लगा है। देश की दो तिहाई जनता की इनके पास कोई जानकारी नहीं , जो देश गांवों में बसता है उसके लिये इनको न खुद कुछ समझना है न किसी को समझाना ही। हैरानी की बात है अब आज के फ़िल्मकार नया कुछ भी प्रस्तुत करने से घबराते हैं , तभी जो फ़िल्म सफल होती है उसका दूसरा तीसरा भाग बना कर धन कमाना चाहते हैं केवल और केवल। कोई पुरानी फ़िल्म को फिर से बनता है , रचनात्मता का आभाव साफ छलकता है। सृजन में नवीनता बहुत ज़रूरी होती है , कब तक आप लकीर के फ़कीर बने रहोगे। प्रकृति का नियम है बीते हुए को कभी न दोहराना , नित नया निर्माण ही सृजन है। शायद हमें प्रकृति से ये सबक सीखना चाहिये , लाख बदलाव , अवरोध उसे रोक नहीं सकते आगे बढ़ने से। फ़िल्म वालों ने कितनी बार यही कहा है , गीतों में कहानियों में। गिरना नहीं है , गिर के संभलना है ज़िंदगी , रुकने का नाम मौत है चलना है ज़िंदगी। सफ़र फ़िल्म का गीत भी कहता है , ओ माझी चल ओ माझी चल , तूं चले तो छम छम बाजे मौजों की पायल। सफ़र सिनेमा का चलते रहना चाहिये , कभी रुकना नहीं चाहिये उसका सुहाना सफ़र। 
 

 

दिसंबर 03, 2013

दोस्त , दोस्ती और मेरे अनुभव - डॉ लोक सेतिया

    दोस्त , दोस्ती और मेरे अनुभव - डॉ लोक सेतिया 

     दोस्त बनाने कि चाहत मुझे बचपन से रही है। मुझे बहुत ही प्यारे लगते थे स्कूल के दो सहपाठी। अभी भी मित्र हैं हम , चाहे मिलते हों कितनी ही मुद्दत के बाद। मगर एक बात शायद वो दोनों आज तक नहीं जानते कि उनके बिना मेरा दिल नहीं लगता था। इत्तेफाक से वे दोनों एक साथ एक ही कॉलेज में पढ़ने को गये और मुझे अलग शहर में जाना पड़ा चिकित्स्या के क्षेत्र में आने के लिये। मगर उनसे संपर्क बना रहा पत्राचार के माध्यम से। कॉलेज में मुझे यूं तो तमाम लोग मिले सहपाठी भी , कुछ सीनियर भी , कुछ जुनियर भी। और बहुत ही मधुर यादें हैं मन में उन सब कि याद रखने के लिये। मगर सब से अधिक मेरे मन में बसी हुई है एक दोस्त की याद जो मुझे अपनी जान से प्रिय रहा है। जिसको मैं हर दिन हर पल याद करता हूं किसी न किसी बहाने से। ये गीत उसको पसंद था ये फ़िल्म ये कहानी ये बात जाने क्या क्या। सब कुछ जुड़ा हुआ है उसके साथ , जब भी बरसात आती है तो किसी को अपनी महबूबा याद आती होगी , मुझे याद आता है हम दोनों का इक पागलपन। शाम का वक़्त था हम मैटिनी शो में फ़िल्म देख निकले तो बादल गरज रहे थे। और भी छात्रावास के मित्र थे साथ , मगर जब बाक़ी लोग वापस जल्द जाना चाहते थे छात्रावास जब हम दोनों चल दिये थे और भी आगे बाज़ार की ओर। सच कहें तो कुछ खास ज़रूरी नहीं जाना , बस उसको अपनी घड़ी के लिये इक स्ट्रेप लेना था जो तब नया नया चलन में आया था चिपक जाने वाला जिसमें न कोई सुराख़ था न कोई पिन। आज बहुत मामूली सी चीज़ लगती है तब बहुत खास लगती थी। और उसको हर नई चीज़ सबसे पहले पाने की चाहत भी होती थी। शहर का बाज़ार घुटनों घुटनों तक बरसात के पानी से भरा हुआ था , थोड़ी थोड़ी सर्दी लग रही थी , पूरा बाज़ार खाली था और हम दोनों मज़े से बिना किसी बात कि परवाह किये पानी में चल रहे थे। दुकान दुकान एक स्ट्रेप की तलाश में। उस उम्र में ये पागलपन अजीब नहीं लगता , अंधेरा होने लगा था बहुत देर हो चुकी थी , छात्रावास के लिये रिक्शा तांगा मिलना भी मुश्किल होता था तब। लेकिन तब ये बातें कहां ध्यान में रखते थे हम। बीच में रेस्टोरेंट में कुछ लिया था और फिर चल दिये थे अपनी तलाश में जो अधूरी रही थी , मेरी अपने सपनों के इक मित्र कि तलाश की तरह। शायद उससे बेहतर कोई और दोस्त नहीं हो सकता था मेरे लिये मगर समस्या इतनी सी थी कि मेरे लिये वो बहुत अहम था मगर उसके लिए कोई दूसरा दोस्त ज़यादा अहम था। मुझे कभी किसी से कोई जलन नहीं हुई शायद , मगर अपने दोस्त के उस ज़यादा अज़ीज़ दोस्त से कहीं न कहीं ये भावना अवश्य रही थी मुझे ये स्वीकार करना ही होगा।

              स्कूल छूटा तो स्कूल के मित्रों से दूरी और कॉलेज छूटा तो बाकी मित्रों के साथ उससे भी दूरी , तब भी दिल से कभी दूर नहीं हुए हम सब। उसके बाद तो दोस्ती से जैसे कड़वे अनुभव ही होते रहे , बहुत चाहा कितनी बार प्रयास किया मगर वो दोस्ती जिसमें कोई अहम् न हो कोई स्वार्थ न हो नहीं मिल सकी। तब समझ आया कितनी बहुमूल्य होती है मित्रता। जीवन में बहुत लोगों से जानपहचान होती रही , बहुत अधिक बनी नहीं लोगों से मेरी , मेरे सवभाव के कारण जो भावुकता में भूल जाता कि लोग अब मतलब पड़ने पर दोस्त बनाते भी हैं और जब मतलब निकल जाता तो छोड़ भी देते हैं। मालूम नहीं किसलिये मुझे बड़े ओहदे वाले लोगों से दोस्ती करना कभी भी पसंद नहीं रहा। कितने लोग मिले , दोस्तों कि तरह रहे कुछ दिन , लेकिन जैसे कोई खास पद मिला उनमें अपने विशेष होने का एहसास हमारी दोस्ती पर भारी पड़ा।

             आज ये सब क्यों याद आया। फेसबुक पर बहुत मित्र मिले , बिछुड़े भी कई कारणों से। देखता हूं बहुत नाम जो मित्रों ने सजावट को लगा रखे हैं।  देखा इतने बड़े व्यक्ति से फेसबुक पर मित्रता है मेरी। देखा बनाकर मैंने भी कुछ लोगों को फेसबुक पर मित्र मगर जब देखा उनको सम्पर्क नहीं रखना किसी भी तरह का मात्र इक नाम चाहिये मेरा भी तमाम लोगों की तरह तो मुझे उनको अलविदा कहने में कभी संकोच नहीं हुआ। मगर अभी बहुत ही सुखद अनुभव हुआ दोस्ती का मुझे। नाम नहीं बताना चाहता अन्यथा वही बात होगी कि देखो कितना विशेष व्यक्ति मेरा मित्र है। मैंने जब उसके साथ मित्रता की तो नहीं जानता था कि उसका उस जानी मानी शख्सियत से कोई नाता भी है। बहुत कम लोग हैं जो वास्तव में साहित्य कला के प्रति इतना आदर इतना समर्पण रखते हैं जितना उस नये मित्र में देखा मैंने। सभी की रचनाओं को खुले दिल से स्वीकारना और उसकी सराहना करना और अपनी खुद कि रचनाओं को लेकर कोई बात ही नहीं करना , ऐसा उनसे पहले नहीं देखा किसी भी जाने माने लोगों में मैंने।  आज ये रचना उसी मित्र के नाम जिसको आज भी मित्रता का सही अर्थ पता है।  नहीं तो लगता था कि वो किसी और पुराने युग की बातें हैं और मैं किसी गुज़रे ज़माने का आदमी हूं। चलो कोई तो मिला वो पुराने लोगों के जैसा जो मित्र को सम्मान देना जनता हो। आपकी मित्रता का मन  से धन्यवाद , आप नहीं जानते शायद मेरे लिये ऐसी मित्रता का क्या महत्व है। एक शब्द है ईबादत जो मुझे मित्रता के लिये हमेशा उपयुक्त लगता है। चाहूं भी ये बात कभी समाप्त नहीं हो सकती , मगर आज यहीं विराम देना काफी होगा।