शानदार आवरण में खोखलापन ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया
जो नज़र आता है वास्तविकता नहीं होता है , ठीक जैसे सुंदर लिबास और चेहरे के भीतर आदमी नहीं कोई शैतान रहता है । बगुला जैसे हैं हम लगते हैं बड़े साफ़ मन वाले मगर बस मौका मिलते ही अपनी असलियत पता चलती है झपटने को तैयार रहते हैं । धार्मिक बनकर कितना कुछ करते हैं पूजा अर्चना इबादत भजन कीर्तन धार्मिक स्थल पर जाना सर झुकाना ग्रंथों को पढ़ना सुनना हाथ में माला जपना भक्ति श्रद्धा करना दीपक जलाना फूल चढ़ाना नाचना झूमना आंसू बहाना । मगर हमेशा रहता है कहीं पर निगाहें कहीं पे निशाना । कौन कितना भला कितना बुरा नहीं कोई भी पहचाना , छोड़ा नहीं झूठ बोलना दुनिया को जैसा नहीं होकर दिखलाना । लोभ छोड़ा न नफरत छोड़ी अहंकार कितना कितनी दौलत कैसे जोड़ी चलन है निराला भीतर अंधेरा है बाहर उजाला । देशभक्त कहलाते हैं मगर हैं छलिया जिस शाख पर बैठते हैं उसे ही काटते रहते हैं चोर डाकू कुछ भी उनके सामने नहीं है ये समाज को बर्बाद करते हैं भटकाते हैं कुर्सियों पर बैठ दरबारी राग गाकर क़ातिल होकर मसीहा कहलाते हैं । पढ़ लिखकर बड़े सभ्य लगते हैं लेकिन वास्तव में मतलबी और कपटी हैं जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते जाते हैं । प्यार मुहब्बत की ख़त्म हुई कहानी है बच्चे नहीं भोले आजकल न कोई बुढ़िया रानी है बचपन सीख रहा है जंग और लड़ाई वाले खेल कितने अब नहीं हैं परियां नहीं हैं खूबसूरत से सपने ।
समझदार बनकर क्या हमने है पाया नींद खोई है अमन चैन गंवाया भाई नहीं लगता कोई हमसाया सबको दुश्मन अपना बनाया । सोशल मीडिया ने जाल इक ऐसा बिछाया जिस ने सभी को सही रास्ते से भटका कोई खतरनाक रास्ता दिखला पागल है बनाया । टीवी सीरियल चाहे फ़िल्मी कहानी सभी को है बस दौलत बहुत कमानी करते हैं कितनी नादानी इस युग में काल्पनिक भूतों की डरावनी कहानी लगती है सबको कितनी सुहानी जो है मृगतृष्णा रेगिस्तानी लगता है प्यासे को पानी । भूलभुलैया में डूबी है नैया कहीं भी नहीं कोई ऐसा खिवैया जो बचाये भईया , समझ लेते हैं जिसको सैंयां उसी ने करानी है ता ता थैया । दुनिया में मिलता नहीं इंसान ढूंढने से शैतान लगता है भगवान देखने से आज किसी की कल किसी की है बारी हैवानियत हुई इंसानियत पर भारी । राजा थे हम बन गए हैं भिखारी विनाश की करते रहते हैं तैयारी दिल करता है कहीं किसी दिन चुपचाप भाग जाएं कोई अपनी खुद की दुनियां बनाएं जिस में कोई छल कपट झूठ नहीं हो जैसा हो किरदार नज़र वही आएं । लेकिन मुश्किल है इस शानदार आवरण को उतरना भीतर का खोखलापन बाहर निकालना , सब सुनाते हैं अपनी आधी कहानी सच्चाई नहीं लिखता कोई सुनाता कोई अपनी ज़ुबानी । जिस दिन मनाते हैं हम दीवाली होती है अमावस की रात कितनी काली , खड़ा है उस दर पर कौन बनकर इक सवाली भरी झोली किसकी रही सबकी खाली । ज़माने को क्या दिखला रहे हैं हम जो नहीं हैं बनने की कोशिश में अपनी असलियत को झुठला रहे हैं । जाने किस बात का जश्न मना रहे हैं हर दिन और भी नीचे धसते धरातल की तरफ जा रहे हैं ।
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