पानी का सफ़र ज़िंदगी भर ( चलते-चलते ) डॉ लोक सेतिया
न जाने किसकी कही बात पढ़कर अपनी ज़िंदगी के सफर को बयां करने को शब्द मिले शीर्षक की तलाश थी पूरी हुई । अब क्या लिखना सोचने की ज़रूरत नहीं है लेकिन आसान भी नहीं जीवन की कड़ियों-लड़ियों को तरीके से जोड़ना सिलसिलेवार शुरआत से अभी तलक जारी सफर तक । इक बहता हुआ पानी जिसे खुद अपने उद्गमस्थल का पता नहीं किधर जाना कब तक कहां तक चलते रहना कोई खबर नहीं । कहीं किसी ने शब्द लिखे हुए थे , पत्थरों पर पानी के निशां रहते हैं मगर पानी पर कोई निशां पत्थरों का नहीं रहता है । पत्थर ही पत्थर मिलते रहे नसीब से कोई रास्ते में रुकावट बनकर कभी कोई किसी ने हाथ से उछाल कर फैंका मुझे आहत करने को । राह के रोड़े पत्थर से टकराता बचता राह बनाता बढ़ता गया और जितने भी जिस जिस ने मेरे भीतर हलचल पैदा करने को फैंके पत्थरों को अपने भीतर संजोता गया उछालने वालों पर कुछ फुहार की तरह छींटे देकर भिगोता हुआ । कोई किनारा किसी नदी की तरह मुझे नहीं मिला बांध कर रखने को मेरी फितरत आज़ाद सफर जिधर मर्ज़ी चलते रहने की बनी रही । अभिलाषा है किसी रेगिस्तान में मरु उद्यान बनकर कुछ फूल कुछ पेड़ पौधे कुछ पंछियों पशुओं राह चलते गुज़रते आते जाते मुसाफिरों की प्यास बुझाने को उपयोगी बन कर रहने की ।
मैंने पहले बताया था मैं इक पौधा हूं जो उग आया किसी तपते रेगिस्तान में जैसा लगता है जिस को कितनी बार कुचला गया पैरों तले कभी आंधियों तूफानों ने बर्बाद किया कभी जानवर खाते उजाड़ते रहे । मैं जाने क्यों और कैसे दोबारा उग जाता रहा भले बौना रहा कद मेरा और फ़लदार नहीं बन पाया हालात की सौग़ात के कारण । मैं प्यासा हूं खुद पानी होकर भी अपनी नियति पर हैरान भी हूं , मेरा कोई ठिकाना नहीं मेरा घर है जिस में दुनिया बसती है कितने अपने पराये रहते हैं बस अनचाहा महमान भी मैं ही हूं । बहता पानी बनकर अपने निशां सभी पर छोड़े हैं ऊबड़ खाबड़ पत्थरों को सलीके से तराशा है उनकी शक़्ल को कितना नर्म मुलायम बना दिया है । कभी कभी तो कोई पत्थर कीमती बन कर ऊंचे आलीशान भवनों की शान बन गया या किसी महल की गुंबद होकर खुद पर इतराने लगा है । पत्थर को देवता भगवान बनाया मैंने अपने हाथ से तराशकर और वही मुझ से मेरी निशानी मांगते हैं जब मैं उनको नहलाने को लाया जाता हूं पावनता की कसौटी पर जांचा परखा जाता हूं । कितने नामों से जाना जाता हूं लेकिन इन्हीं सब बातों में वास्तविक अस्तित्व को खो जाता हूं ।
इक हरियाणवी लोक कथा की बात याद आई पानी और प्यास को लेकर । अपने खेत पर कुंवे पर पानी की गागर भरती पणिहारिन से राह चलते चार राही पानी पिलाने की बात कहते हैं तो पणिहारिन पहले अपना परिचय बताओ तभी पिला सकती हूं अजनबी अनजान लोगों बात नहीं करती । पहला व्यक्ति जवाब देता है कि हम मुसाफ़िर हैं , पणिहारिन बोलती है कि मुसाफिर तो दो ही हैं सूरज और चांद तुम कैसे मुसाफिर कहला सकते हो । तब दूसरा व्यक्ति जवाब देता है कि हम प्यासे हैं , पणिहारिन बोलती है कि दुनिया में प्यासे तो दो ही हैं एक चातक पंछी और दूसरी धरती माता तुम प्यासे कैसे कहला सकते हो । तब तीसरा व्यक्ति जवाब देता है कि हम तो बेबस हैं , पणिहारिन बोलती है कि तुम बेबस कैसे कहला सकते हो बेबस तो दो हैं दुनिया में इक गाय और दूसरी कन्या । ऐसे में चौथा व्यक्ति कहता है कि हम तो मूर्ख हैं , तब पणिहारिन बोलती है कि मूर्ख तो दो होते हैं जगत में इस का जवाब कहानी के आखिर में देती है पणिहारिन न्यायधीश को । पानी को लेकर बहुत कुछ समझाया गया है फिर भी समझना बहुत बाक़ी है । तू पी - तू पी राजस्थानी लोक कथा है तो इक नीति कथा धरती का रस भी है मगर हम पानी पानी रटते हैं प्यास कैसे बुझेगी बिना पिये पानी । धरती समंदर पर पानी ही पानी है फिर भी पीने को पानी काफ़ी नहीं खारा और खराब प्रदूषित पानी बेकार है । कभी आंख का शर्म का पानी हुआ करता था इंसानों में सबसे मूलयवान आजकल ढूंढने से दिखाई नहीं देता । ज़िंदगी भर जारी रहता है जो सफर उस में पानी की अहमियत बहुत है । पानी और प्यास का रिश्ता क्या है कोई समझ नहीं सका अभी भी , ये किस की बात है कौन जाने ।
1 टिप्पणी:
Nice sir 👌👍
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