सितंबर 08, 2019

क्या से क्या हो गया ( समाज सरकार भटक गये ) डॉ लोक सेतिया

 क्या से क्या हो गया ( समाज सरकार भटक गये ) डॉ लोक सेतिया 

  पढ़ाई लिखाई शिक्षा इंसान को सभ्य बनाने को थी हम जितना अधिक शिक्षित हुए उतने ही असभ्य होते गए तो बेहतर था अनपढ़ रहते। जो संस्थाएं संसाधन ज्ञान देने को थे अज्ञानता का पाठ वही पढ़ाने लगे। टीवी अख़बार रेडियो जैसे सिनेमा थिएटर जागरूकता लाने को थे भटकाने को नहीं बने थे। मनोरंजन ही इनका मकसद नहीं होना चाहिए और वो भी घटिया अनैतिकता को नग्नता को बेशर्मी को बढ़ावा देने लगा तो वही हुआ आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास। चलो देश समाज की वास्तविक तस्वीर को देख कर समझते हैं कि क्या से क्या हो गया है। 

  हम तथाकथित सभ्य कहलाने वाले लोग जिस किसी संस्था संगठन पर काबिज़ हैं उनको चलाने बढ़ाने को नियम संविधान को दरकिनार कर सब करने को उचित ठहराते हैं। धर्मशाला संस्थाओं के स्कूल अस्पताल समाज की भलाई छोड़ व्यौपार करने लगे हैं कहने को समाजिक कार्य मगर वास्तव में लूट ही है। यही करना था तो इनकी ज़रूरत ही क्या थी बनाने की। शिक्षा स्वास्थ्य सेवा भी धर्म का चोला पहन कर कारोबारी ढंग से करते हैं तो उसको समाज सेवा का नाम मत दो। 

 सरकार कितना कुछ सामान बना कर रखती है जनता की सुविधा देने के नाम पर मगर वास्तव में तमाम ऐसी चीज़ें उन्हीं के उपयोग की खातिर रखी रहती हैं। जब भी शासक अथवा अधिकारी लोग आएं तब सब ठीक भी और मुहैया भी करवाते हैं मगर उनका आयोजन खत्म होते ही सब फिर किसी गोदाम में जमा हो जाता है या कई बार ख़ास लोगों के काम आने को उनके हवाले करते हैं। नेता जो भी सत्ता मिलते ही सरकारी अधिकारियों संसाधनों और भवन से लेकर जनसुविधाओं का सामान तक निजि उपयोग को इस्तेमाल करने में लज्जा अनुभव नहीं करते हैं। 

   पर उपदेश कुशल बहुतेरे की बात है। सबको कायदे कानून बताने वाले खुद किसी नियम कानून की रत्ती भर भी परवाह नहीं करते हैं। सत्ता है तो उनको अधिकार है जो उनको पसंद हासिल करें नागरिक की परेशानी की चिंता छोड़कर। खुद जनता का धन अपनी सुविधाओं पर बर्बाद करना उनको अधिकार लगता है। धर्म का पाठ पढ़ाने वाले शिक्षा लोभ मोह लालच को छोड़ने और सादगी से जीने की देकर खुद ये सब करते हैं। इक बात घर परिवार समाज सरकार सभी जगह नज़र आती है कि सब औरों से अपने निर्देश का पालन करने की अपेक्षा रखते हैं जैसे हम चाहें सबको करना होगा जब भी अधिकार है औरों की आज़ादी का हनन करते सोचते नहीं हैं। सब को अपनी आज़ादी पसंद है बाकी लोग भी आज़ाद हैं ये कोई समझता नहीं है। आप अपने बड़े अधिकारी की अनुचित बात से असहमत नहीं हो सकते विरोध की बात ही क्या। यही हर राजनीतिक दल का अलिखित संविधान है कि आपको दल की दल के नेता की अनुचित देश हित विरुद्ध बात को भी अच्छा बताना होगा। अन्यथा किसी भी दल में आपकी जगह नहीं है। साफ समझा जाये तो हम गुलामी पसंद हैं गुलामी करते हुए शर्मिंदा नहीं होते और किसी को गुलाम बनाते कोई अपराधबोध नहीं महसूस करते हैं। 

 देखा जाये तो हम दिखाई अच्छे देते हैं अच्छाई की बात को छोड़कर आचरण खराब करते हैं। हमने अपने चेहरे किसी नकाब से छुपा रखे हैं असली शक्ल सूरत बड़ी बदसूरत है बस मेकअप से सजते संवरते हैं। 
 

 

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