मार्च 08, 2017

टुकड़ों में बंटी औरत की कहानी के टुकड़े ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

  टुकड़ों में बंटी औरत की कहानी के टुकड़े ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

महिला की भावना को लेकर और भी बहुत कुछ कविता कहानी ग़ज़ल या बाक़ी सभी विधाओं में लिखा है मैंने अभी तलक। लेकिन आज जब चाहा लिखना कुछ महिला दिवस पर तब समझ नहीं पा रहा किस पर लिखूं मैं , हज़ारों साल से दुनिया की महिलाओं की कहानी एक ही थी जो आज जाने कितने टुकड़ों में बंट चुकी है। मालूम नहीं किस ने किया ऐसा , मगर ऐसा हो चुका है। टीवी पर कुछ महिलाओं की चर्चा हुई जिन्होंने खुद अपने दम पर कई बड़े और हैरान करने वाले काम किये हैं। फिर उनसे उस महिला से मिलवाने की बात हुई जो विश्व सुंदरी है या सिनेतारिका है या उस से जो किसी धनवान की पत्नी है और पैसे से कोई एन जी ओ चला शोहरत हासिल करती है। एक तरफ आम गांव की महिला है जो सरपंच चुनी जाती है और बाक़ी समाज को अपने बूते कुछ विशेष कर दिखाती है , तो दूसरी तरफ वो है जो आज भी बिना पति की दौलत कुछ भी नहीं है। फिर भी उसी को बड़े बड़े इनाम पुरुस्कार और पहचान मिलती है। ऐसी ही महिलाओं में कुछ और नाम भी शामिल हैं , जो खुद अपनी प्रसव पीड़ा किसी और महिला को सहने को मनाती हैं बहुत सारा धन देकर। औरत जब धनवान बन जाती है तब वो भी दूसरी औरत की मज़बूरी या ज़रूरत को खरीदती है। वो भी महिलाएं हैं जो खुद पढ़ लिख कर नौकरी करती हैं और साथ में घर और बच्चे भी संभालती हैं , वो मात्र इक संख्या हैं अपने पैरों पर खड़ी महिलाओं की गिनती में। समाज में उनका योगदान कभी चर्चा में नहीं रहता भले चर्चा आयोजित भी कोई टीवी की चर्चित महिला ही करती हो। मॉडल और फ़िल्मी नायिका सौन्दर्य प्रसाधनों का प्रचार करते हैं करोड़ों लेकर , और इक झूठा सपना आम औरत को दिखलाते हैं सुंदर बनने का। अपने बदन अपनी नग्नता को बेचती हैं कुछ महिलाएं विज्ञापन के लिए बिना समझे कि उनका ऐसा करना केवल उनका अधिकार नहीं है , ऐसा करके वो महिला को इक वस्तु बना रही ही नहीं समाज की मानसिकता को औरत के प्रति विकृत भी करती हैं। आज आठ मार्च को ये सभी महिलाएं जश्न मनाएंगी नाचेंगी झूमेंगी और सज धज कर किसी आयोजन में शामिल होंगी। मगर देश की महिलाओं जिनको आधी दुनिया कहते हैं का आधा भाग वो महिलाएं जो किसी के घर खाना बनाती हैं , किसी के घर या दफ्तर में सफाई या और छोटे मोटे काम करती हैं , जो मज़दूरी कर पेट पालती हैं , या जो किसी बस्ती में रहती हैं गंदगी भरे माहौल में , उन्हें पता ही नहीं होगा आज कोई ख़ास दिन है।
 
          पर हर चीज़ की कहानी जब लिखी जाती है तब बताया जाता है सालों पहले क्या था और कैसे कैसे बदलाव होते आज क्या है। कहां से कहां पहुंची किसी की कहानी , जिस तरह इंसान बंदर से बदलते बदलते आदमी बन गया। इस तरह जब सोचा तो समझ आया युग के साथ क्या बदलाव हुआ नारी जगत में। नानी से शुरू करते हैं अधिक पुरानी बात नहीं है। नानी या दादी माना घर में रहती थी मगर उनको पराधीनता का आभास शायद ही होता था , अधिकार से बात करती थी और परिवार के पुरुष भले खुद को मर्द होने से धन दौलत और कारोबार का मालिक समझते हों , मां बहन भाभी चाची मौसी से आदरपूर्वक ही पेश आते थे। उनकी हालत इतनी भी खराब नहीं थी जितनी बाद में होती गई। मां का समय बदल गया था और समाज में औरत आगे बढ़ना चाहती थी कुछ करना चाहती थी। बहुत मुश्किल से कुछ काम उसके हिस्से आते थे जो उसको किसी न किसी पुरुष की अनुमति से किसी पुरुष के अधीन रहकर ही करने होते थे। मगर इन महिलाओं ने ही संघर्ष किया और अपनी बेटियों को और संघर्षशील बनाया भी। लेकिन जब महिलाओं की प्रगति की चर्चा की जाती है तब इनकी बात हाशिये पर होती है। अध्यापिका क्लर्क या नर्स अथवा थोड़ी सी जो डॉक्टर भी बन सकीं अपनी मेहनत और काबलियत से। इस से अधिक विडंबना की बात उनकी है जो महिला जगत का आधे से अधिक भाग होकर भी उपेक्षित हैं। उनको जाकर कोई बताता तक नहीं कि तुम भी हम जैसी औरत ही हो।

        शायद देखने को दस बीस प्रतिशत महिलाओं को बहुत कुछ समानता का अधिकार मिला है , मगर अधिकतर या बड़ी संख्या उनकी है जिन को समानता का हक तो क्या जीने का अधिकार भी नहीं हासिल है। बेशक कितनी प्रगति की महिलाओं ने तब भी आप हर महिला अकेली है डरी सहमी और असुरक्षित है , पर महिला दिवस पर इसकी बात नहीं होती। इक गीत लता जी का गया रुलाता है , औरत ने जन्म दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया। आज खुद औरत जब औरत को बाज़ार में लेकर आई है तब कौन क्या कहे और किस से जाकर कहे।  बात महिला की समझनी भी महिला को , मैं पुरुष बीच में क्या कर रहा हूं।  

 

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