मुहब्बत भी इबादत भी सियासत भी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
या इलाही ये माजरा क्या है आखिर इस दर्द की दवा क्या है। हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद जो नहीं जानते वफ़ा क्या है। समझ कोई नहीं पाया इश्क़ की खुदा की खुदाई की और राजनेताओं की सियासत गहरी बातों को। जो नहीं है उसी के होने का यकीन करते हैं जो सताने में मज़ा लेते हैं दिलरुबा अल्लाह रहनुमा नाम है उनका उनकी मर्ज़ी नहीं जीने भी देते उन्हीं पर फ़िदा हैं सारे मरते हैं। कौन जाकर सवाल उनसे करे किसकी शामत आई है लोग डरते हैं। ये अजब ग़ज़ब है जिनकी बात समझ नहीं आती किसी को कोई मतलब नहीं निकलता है उनको दार्शनिक ज्ञानवान करार कर देते हैं। चलो जो होगा देखा जाएगा इक बार हौसला तो करते हैं ये जो भी हैं मुहब्बत इबादत सियासत वाले इनको सोच के तराज़ू पर तोलने को धरते हैं।
वही होता है जो ऊपर वाला चाहता है अगर ये सच है तो उसको जाकर पकड़ना होगा। कुछ ही अमीरों पर करम उसका ये तो बड़ी नाइंसाफी है उसकी बरकत उसकी रहमत सभी पर बराबर क्यों नहीं होती है। और ये कैसा दस्तूर बना दिया है जो दुःख दर्द देता है उसी की आरती इबादत करते हैं उसको खुश करते हैं दुःख दर्द मिटाने की झूठी उम्मीद रखते हैं। कोई उसके घर से खली हाथ नहीं आता ये सच है मगर इक ज़ख्म का ईलाज मांगते हैं और गहरे घाव कौन देता है। इस ग़म से तो पिछले ग़म कम था मांगी ख़ुशी थी मिलते ग़म ही ग़म हैं। ये अजब राजनीति की पहेली है समस्या हैं समाधान कहलाते हैं करते क्या हैं बस बातें बनाते हैं।
जिनके पास दिल नहीं उन्हीं से मुहब्बत की हमने। अपने खुद से अदावत की हमने। ये ग़ज़ल आखिर में सुनाऊंगा अभी छपी है पुष्पगंधा में , मुझी को नहीं मिली अभी सब पढ़ कर कहते हैं खूब कही है। ऊपर वाला कभी नहीं आया नीचे वालों की खबर लेने क्या हाल है उसकी बनाई दुनिया का। हम को ऊपर जाने की मोहलत नहीं इजाज़त मिलती है मरने के बाद तो ज़िंदगी गुज़ार ली अब जाकर शिकवा गिला करना फज़ूल है यही मान लेते हैं भरोसा रखते थे हुई भूल है। जाकर मिलने का हौसला नहीं होता सरकार के दरबार या ऊपर वाले के रचे शानदार सचखंड जैसे रौशन जगमगाते आलीशान घर के बाहर से ही घबराहट होने लगती है। दरबान खड़े समझाते हैं अदब से बात करना कुछ भी नहीं मिला तो शिकायत नहीं करना हाथ जोड़ मांगना दया करो मुझ पर रहम करो विनती आरती अरदास कोई और उपाय नहीं है। उसका धन्यवाद करते हैं उसकी रज़ा है जो दुःख दर्द बेबसी तकलीफ़ दी उसमें भी भलाई थी और भी दे सकता था नहीं दिए दर्द जो सहन नहीं होते।
सबको देने वाला है फिर सबको जाकर उसी की मूरत को धन दौलत सोना चांदी आभूषण सुंदर परिधान पहनाने पड़ते हैं। बच्चा बोला देखकर मंदिर आलीशान एक तुम्हारे रहने को इतना बड़ा मकान। बच्चा है अभी नहीं समझता खुदाई की शान सियासत की आन बान शान कितनी ज़रूरी है। जनता भूखी जी सकती है सत्ता को छप्पन भोग की आदत है। इस दुनिया का चलन देखा कोई ताकवर है खुद को शाही ढंग से रहने की आदत है तो हर कोई मानता है शेर भूखा भी होता है तो घास नहीं खाता उसको चाहिए और जीभर मनपसंद का खाना है। किस से कैसे लिया उसकी मज़बूरी है कोई कहना नहीं ये बहाना है। फिर फ़कीर बनकर कोई आया है जिसके पास हर खज़ाना है। अपनी किस्मत खोटी है हवा खाकर जी लेते हैं पानी पीने को बचा नहीं और खाने को भी न इक दाना है। मुहब्बत की बात कैसे भूल गई उस खुदा को भी तो मनाना है। रूठे रब को मनाना आसान है रूठे यार को मनाना मुश्किल है। जग के बदले यार मिले तो यार का मोल दूं दूना किसी ने यार को अपना कपड़ा लत्ता यार को अपना गहना की बात कही थी। किसी और दुनिया की बात रही होगी अब रूठने वाले को मनाने पर गुरु जी जनाब आर पी महरिष जी त्ज़मीनें लिखते हुए कहते हैं।
" दुश्मनी जम कर करो , लेकिन ये गुंजाइश रहे
बशीर बद्र के शेरों पर तज़मीनें
( ताज़मीनें किसी बड़े शायर की ज़मीन लेकर अपनी बात कही जाती है )
रूठने वालों से मन जाने की फरमाइश रहे
फिर मिलें पहली तरह ,
दिल में न आलाइश रहे
याद ऐ अहले-जहां ,
इतनी सी फहमाईश रहे
" दुश्मनी जम कर करो , लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों।
बस राजनीति करने वालों से हम दुनिया के सभी लोगों को इक यही सबक समझ नहीं आया। पढ़ा ज़रूर भुला दिया भूला नहीं है। ढाई आखर पढ़ने नहीं सीखे आज तलक हम। जानता हूं आपको लगने लगा कि बात कुछ समझ नहीं आई किस की बात थी किसकी बनती किसी और की हो गई है। आपका कोई कसूर नहीं भाई दुनिया में जाने किस किस की पढ़ाई है स्कूल कॉलेज कोचिंग क्लासेज हैं। मुहब्बत का आशिक़ी का कोई स्कूल खुला नहीं सियासत की पढ़ाई कहीं पढ़ाई जाती ही नहीं है और इबादत की बात उस जगह करते हैं जिस जगह खुदा अल्लाह भगवान होता ही नहीं। ऊपर वाला दुखियों की नहीं सुनता रे कौन है जो उसको गगन से उतारे। बस हर कोई अपने लिए मांगता है जेब कतरों को छोड़कर जो दुआ मांगते हैं। ऊपर वाले तेरी दुनिया में कभी जेब किसी की न खली रहे। कोई भी गरीब न हो जग में हर पॉकेट में हरियाली रहे।
आपसे अपनी ग़ज़ल सुनाने का वादा किया था निभाना पड़ेगा। हाज़िर है मेरी ग़ज़ल।
ग़म से इतनी मुहब्बत नहीं करते - लोक सेतिया "तनहा"
ग़म से इतनी मुहब्बत नहीं करते ,खुद से ऐसे अदावत नहीं करते।
ज़ुल्म की इन्तिहा हो गई लेकिन ,
लोग फिर भी बगावत नहीं करते।
इस कदर भा गया है कफस हमको ,
अब रिहाई की हसरत नहीं करते।
हम भरोसा करें किस तरह उन पर ,
जो किसी से भी उल्फत नहीं करते।
आप हंस हंस के गैरों से मिलते हैं ,
हम कभी ये शिकायत नहीं करते।
पांव जिनके ज़मीं पर हैं मत समझो ,
चाँद छूने की चाहत नहीं करते।
तुम खुदा हो तुम्हारी खुदाई है ,
हम तुम्हारी इबादत नहीं करते।
पास कुछ भी नहीं अब बचा "तनहा" ,
लोग ऐसी वसीयत नहीं करते।
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