पशेमां हो के रोये , हंसी को तरसे ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया
भूख से मर गई जनताबाई अपनी जान बेकार गंवाई। राजनीति किसको समझ है आई सब करते हैं चतुराई। छाछ भी हिस्से में नहीं आई नेता खाते दूध मलाई। कैसी पढ़ ली सबने पढ़ाई सत्ता बचा ली खैर मनाई। तुमने थी सरकार बनाई खुद फिर तुम हर बार पछताई। रोटी पानी की बात भुलाई करनी किसको किसकी भलाई। आई नई मुसीबत आई हमने अपनी जान बचाई , उधर कुंआं है और इधर खाई किस ओर जाओ समझ न आई। बारिश महलों को है भाई बाढ़ बनी बस्ती डुबाई किस को कोई दे दुहाई।
हमने भी इक घर बनाया हर कोई है अपना पराया। समझा न कोई सबने समझाया जाने कैसी है ये माया। घर से निकला घर नहीं आया बाहर जाकर फिर पछताया। घर की दाल रोटी भी अच्छी थी मुर्गी खाई मज़ा नहीं आया। ये बाजार किसने सजाया खाना था अमृत ज़हर खिलाया। घर है दरवाज़ा है खिड़की है घर का कोई वजूद नहीं है साथ होकर बहुत फासले हैं गले लगने का दस्तूर नहीं है। आंगन कोई नहीं बचा है सबका अपना अपना रस्ता है कोई आता है जाता है शोर सुनते हैं दिल घबराता है। ख़ामोशी छाई है घर में आहट सुन घबराहट है मन में।
सब मिलते हैं पर अजनबी हैं सारे दिन को नज़र आते हैं सितारे। नींद आती नहीं डर के मारे कोई किसको कैसे पुकारे। झूठी कसमें झूठी रस्में झूठे रिश्ते झूठे नाते सच देख कर सब डर जाते। गांव शहर महानगर बनाये पर इंसानियत को छोड़ आये। जीते चाहे कोई हारे नारे हैं रहेंगे बस नारे उनको वारे न्यारे होंगे जो हर रात कुंवारे होंगे। उनकी सेज सजेगी फूलों से जनता सोएगी शूलों पे। दलदल है सत्ता की ऐसी भैंसा बन जाता है भैंसी। कभी नहीं इस तालाब में जाना अच्छा नहीं कीचड़ में नहाना साफ नहीं होना गंदा हो जाना कोई ऐसी राह मत दिखाना।
जाने किसने रीत चलाई , भगवान की देते हैं दुहाई। जिसको मिलती दूध मलाई भोग लगाते सुबह शाम पूजा करते आरती गाई। सुंदर महल में रहता है सजधज कर मंच पर रहता है उसको कौन बताये भाई भूखी जनता की जो दशा बनाई। सत्ता को सब हरियाली दिखती है सारी दुनिया सुंदर दिखती है , उनकी अपनी राजधानी की नगरी है किसको तेरी बस्ती दिखती है। बच्चो को मां है बहलाती चूल्हे पर पानी है पकाती। किसान खड़ा राशन की कतारों में उसकी शान बढ़ी नारों में। धुआं बनके फ़िज़ा में उड़ा दिया मुझको , मैं जल रहा था किसी ने बुझा दिया मुझको। खड़ा हूं आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए , सवाल ये है किताबों ने क्या दिया मुझको। सफ़ेद संग की चादर लपेट कर मुझ पर , फ़सीले शहर में किसने सजा दिया मुझको। मैं एक ज़र्रा बुलंदी को छूने निकला था , हवा ने थम के ज़मीं पर गिरा दिया मुझको। ये लता जी की और जगजीत सिंह की गई ग़ज़ल है जो अपनी कहानी है। हवा थम गई है घुटन है दम घुटने लगा है जो उम्मीद थी बुझ गई है। ज़रूर सुनना।
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