सवाल हैं जवाब कहां हैं ( खरी बात ) डॉ लोक सेतिया
जीत जाने से सवाल खत्म नहीं होते हैं। और कोई कहता है जनादेश साबित करता है मेरी कोई गलती नहीं है तो आपसे पहले जिनको देश की जनता ने फिर से जितवाया क्या अपने उन पर लगाए आरोप छोड़ दिए थे। आपात्काल हटाने के बाद जिस इंदिरा गांधी की ज़मानत ज़ब्त हुई 1977 के चुनाव में 1980 में फिर उन्हीं को जितवा दिया उसी जनता ने मगर क्या कुर्सी बचाने को इमरजेंसी लगाना भूले लोग। उसी इंदिरा गांधी के कत्ल के बाद हुई हिंसा का कलंक क्या उसके बाद उनके बेटे राजीव गांधी को मिली जीत से मिट सका है। लोग पुरानी बातों को छोड़ देते हैं बुरा सपना या खराब हालात मानकर मगर भुलाते नहीं हैं। उसी तरह से किसी को जीत मिलना उसके अच्छे बुरे सभी कार्यों को वैध नहीं बनाता है। राजनीति करने वालों को ये पसंद है कि घोटालों दंगों या भ्र्ष्टाचार के आरोपों से अदालत बरी कर से सबूत नहीं मिलने के कारण या फिर जनता दोबारा वोट देकर चुन दे तो उसे अपनी बेगुनाही का तमगा बना पेश करते रहें।
खेल खेलते हैं तो खेलने के नियम भी पालन करने पड़ते हैं। गली के बच्चे नहीं हैं जो आउट होने पर आउट होने को राज़ी नहीं होते और निर्णय नहीं मानते हैं। अपने मैच फिक्सिंग की भी बात सुनी होगी जब कोई खिलाड़ी बिक जाता है खराब खेलता है हारता है पैसे की खातिर। सवाल किसी भी दल का नहीं है किसी भी एक उम्मीदवार का नहीं है सब के सब जीते या हारे मगर चुनाव आयोग के नियम को ताक पर रखकर करोड़ों रूपये खर्च करने के बाद। ये जीतना नैतिकता की देश के कानून की हार है। जिस देश को चलाने को निर्वाचित सांसद खुद नियम तोड़कर सीमा का उलंघन कर चुनाव लड़ते हैं उनसे भला कोई कैसे ईमानदारी की आशा कर सकता है। देशसेवा और देशभक्ति कोई तमगा नहीं है जिसको सीने पर लगाए आडंबर किया जाये खुद अपने आप से सवाल करिये अपने देश को दिया क्या और कितनी महंगी कीमत वसूल की है अपना उचित कर्तव्य भी पूरी तरह से नहीं निभाने की।
कहने को सोचने समझने को कितनी बातें हैं मगर इक आखिरी लाख टके का सवाल करना हर सरकार हर नेता हर जीतने वाले से ज़रूरी है। सवाल ये है कि देश का संविधान देश की जनता को अधिकार देता है खुद अपनी सरकार चुनने बनाने का मगर बनते ही हर सरकार किसी दल किसी परिवार किसी व्यक्ति की बनकर रह जाती है। हम सरकार बदलते हैं नाम बदल जाते हैं लेकिन व्यवस्था पुरानी ही जारी रहती है। सत्ता किसी एक के हाथ से किसी दूसरे के हाथ चली जाती है। जनता संसद बनाती है बदलाव लाने को मगर जनता के लिए बदलता कभी कुछ भी नहीं है। किसी शायर के दो शेर हैं याद आते हैं।
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