बात फूलों की ( दिल की बात ) डॉ लोक सेतिया
( ये रचना भीम सैन कुमार जी के नाम )
अभी अभी सुबह की सैर पर मंदिर के करीब इक दोस्त अपने घर के बाहर बगीचे में खड़े थे। दुआ सलाम हुई बहुत मधुर सवभाव है उनका और संगीत सुनने का शौक उनका मेरी तरह से ही है। आने लगा तो बगिया से ताज़ा ताज़ा खिला चमेली का फूल मुझे देकर कहा इसे ले जाओ खुशबू अच्छी है। बस तभी विचार उठा कि आज फूलों की ही बात करनी है। बहुत गीत याद आते हैं फूलों की बात को लेकर मगर इक शेर अपना भी है उसको सुनाता हूं शुरुआत करते हुए।
फूल जैसे लोग इस ज़माने में , सुन रखे होंगे किसी फ़साने में।
ये आज का सच है मगर हैं अभी भी फूल जैसे कोमल दिल और चमेली की खुशबू से लोग मिल ही जाते हैं कुमार साहब जी की तरह। लगता है हमने जैसे असली ताज़ा फूलों से रिश्ता तोड़ लिया है नकली कागज़ के या प्लास्टिक वाले या फिर किसी पैकिंग में बंद सजे गुलदस्ते के फूल किसी को पेश करने को बाज़ार से खरीद लाते हैं। विवाह समारोह हो या आये दिन आयोजित सभाएं ऐसे ही सजी होती हैं फोटो लेने को अच्छी मगर खुशबू उनकी नहीं होती कोई सेंट छिड़कने का भी असर नहीं रहता है। कीमत बहुत है उनकी सजावट की मगर फूलों का एहसास प्यार का मुहब्बत का आस पास भी नहीं दिखाई देता है। लोग ही पत्थर की तरह हो गये हैं कोई भावना कोई संवेदना कोई कोमल एहसास बचा ही नहीं है। रिश्तों में महक नहीं है इक चुभन सी रहती है जिस से भी मुलाकात हो जाये कभी पुरानी पहचान वाले से मिलकर भी दिल खिल उठता था। चलो कुछ गीत कुछ ग़ज़ल दोहराते हैं फूलों की बात जिनमें अपना अलग ही रंग भरा करती थी।
फूल तुम्हें भेजा है खत में फूल नहीं मेरा दिल है ,
प्रियतम मेरे मुझको बताना क्या ये तुम्हारे काबिल है।
अब के हम बिछुड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें ,
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें।
पांव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी ,
वरना हमको नहीं इनको भी शिकायत होगी।
हमको लगता है कि ये तौहीने मुहब्बत होगी।
ऐ फूलों की रानी बहारों की मलिका तेरा मुस्कुराना गज़ब ढा गया।
फूलों की तरह लब खोल कभी , खुशबू की ज़ुबां में बोल कभी।
सबसे अलग गीत आज भी हर विवाह के अवसर पर बजाया जाता है जब भी दुल्हन मंच की ओर हौले हौले चलती हुई आती है और हर नज़र उसी तरफ होती है। हर लड़की को तब किसी राजकुमारी सा एहसास होता होगा ऐसा महसूस होता है। बस वही पल मिलन का सबसे सुंदर और सुनहरा पल होता है।
बहारो फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है मेरा महबूब आया है।
इन दिनों पार्क में घर के सामने पीले पीले फूल खिले नज़र आते हैं पेड़ पर छत पर घर का आंगन है जहां से मन खिल उठता है देख कर ही। कुदरत की सुंदरता से बढ़कर कोई सजावट नहीं हो सकती है वास्तविकता है कोई बनावट नहीं बचपन के रिश्तों की तरह। सैर करते करते इक घर के बाहर से गुज़रते हुए इक बूढ़ी महिला अपने दरवाज़े के बाहर कुर्सी डालकर बैठी हुई थी कोई नाम नहीं जान पहचान नहीं फिर भी राम राम की मधुर आवाज़ सुनाई दी तो लगा जैसे गांव की पुरानी परंपरा बचाए है इक अपनापन हर कोई अपना लगता है। आज हर तरफ फूलों जैसी महक मिली तो अच्छा लगा और सोचा सबको इस भीनी भीनी खुशबू से मिलवाया जाये। शायद उसका थोड़ा एहसास आपको भी हुआ तो ज़रूर होगा। इक नज़्म फूलों पर आखिर में।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें