मंदिर मेरे दिल का ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
हम लोग कितना बदल चुके हैं । कभी बैलगाड़ी और साईकिल होती थी आज मोटर कार बस और जहाज़ नहीं चांद और मंगल पर जाने की बात होती है । समय के साथ सब कुछ बदलते है और जो लगता है अब काम नहीं आता उसको छोड़ देते हैं । हम तर्क की कसौटी पर कसते हैं तब यकीन करते हैं । भला नये युग में पुराने ढंग से जीना संभव है , आज इंटनेट मोबाइल फ़ोन ईमेल के ज़माने में चिट्ठी लिखना कैसा लगता है । मैं अभी भी ईमेल से भी किसी को कोई बात लिखता हूं तो खुला खत शीर्षक देने की नासमझी करता हूं । सरकार अधिकारी अख़बार वाले सत्ताधारी नेता पहले रद्दी की टोकरी में डालते थे बिना कोई जवाब दिये या समस्या का निदान किये , अब ईमेल ही ब्लॉक कर देते हैं । उनकी पसंद की बात नहीं आईना दिखाओ तो बहुत आसान है ये करना । आप उनके महलों के सामने जाकर शोर मचाते रहो आपकी आवाज़ उनके शीशे की दीवारों के पार जाती ही नहीं है । साउंडप्रूफ हैं उनके घर दफ्तर और सरकारी शिकायत की ऐप्स भी । तरीके बदल गये हैं शासकों के तौर नहीं बदले हैं । हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद जो नहीं जानते वफ़ा क्या है ।
जब कोई नहीं सुनता तो लोग भगवान खुदा अल्लाह वाहेगुरु जीसस की चौखट पर इबादत करते रहे हैं , परस्तिश करते हैं आरती प्रार्थना करते रहे हैं अरदास करते रहे हैं । कभी इस कभी दर पर जाते रहे हैं । हर देवी देवता को मनाते रहे हैं , चढ़ावा चढ़ाते महिमा गाते रहे हैं । मिला कहां कुछ मन ही मन पछताते रहे हैं । दुनिया वाले अपने अपने खुदा भी बनाते रहे हैं । धर्म की किताबें पढ़ते पढ़ाते रहे हैं , झूठी आशा को जगाते रहे हैं । आवाज़ देकर बुलाते रहे हैं । दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्ला ।
मैं भी जाता रहा तमाम ज़िंदगी मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे । इक दिन बेहद निराश था और इबादतगाह मंदिर मस्जिद या गुरुद्वारा जो भी था , सहा नहीं गया और आंसू बहने लगे । कितने लोग थे आस पास कोई नहीं पास आया आंसू पौंछने तो क्या हाल पूछने को भी । जानते थे सभी मिलते रहते थे मगर सब अनदेखा कर चले गए तो समझा यहां आकर सबक किसी ने सीखा नहीं शायद । मगर दुनिया से नहीं गिला ऊपर वाले से भी किया नहीं मैंने और वापस आकर इक नज़्म लिखी थी ।
शोर ( कविता )
वो सुनता है ,
हमेशा सभी की फ़रियाद ,
नहीं लौटा कभी कोई ,
दर से उसके खाली हाथ ।
शोर बड़ा था ,
उसकी बंदगी करने वालों का ,
शायद तभी ,
नहीं सुन पाया ,
मेरी सिसकियों की ,
आवाज़ को आज खुदा ।
क्या ये हमारी गलती नहीं है , हम वहीं बार बार जाते हैं और हर बार खाली दामन लौट आते हैं । कभी गीता कभी बाइबल कभी और सब चौपाई चालीसा गाते हैं । ईश्वर को धरती पर आने को बुलाते हैं । भला स्वर्ग जन्नत छोड़ देवी देवता इधर आते हैं । हम मूर्खता करते हैं जो बंदों को भी खुदा बनाते हैं और वही जो मसीहा कहलाते हैं हम पर सितम ढाते हैं । चलो देख लिया ये सभी खुदा ऊपर नीचे वाले नहीं किसी काम आते हैं । कोई और नुस्खा आज़माते हैं । इंसानियत का कोई ऐसा मंदिर बनाते हैं और उसमें सबक नये युग का समझते हैं समझाते हैं । सब ताज उछाले जाएंगे सब तख़्त गिराये जाएंगे मिलकर गाते हैं अपने हौंसलों से अपनी दुनिया को बनाकर दिखाते हैं । कुछ समझते हैं समझाते हैं कर दिखाते हैं ।
ये ज़रूरी है आज पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरत है देश और आज़ादी से मुहब्बत की शिक्षा देने वाले इक मंदिर की । शायद पहले इसकी ज़रूरत ही नहीं थी , ये जज़्बा अपने आप दिल में पैदा हो जाता था । भगतसिंह राजगुरु गांधी सुभाष नाम लिखने लगे तो लाखों नहीं करोड़ों नाम भी और बेनाम भी शामिल करने होंगे । धर्म जाति दीन मज़हब जमात आदमी औरत कोई अंतर नहीं सब साथ एक दूजे से बढ़कर । मगर अब आजकल शोर ही शोर है , दावे सभी करते हैं मगर क्या इसे देशभक्ति मानना उचित होगा । सवालिया निशान है कि देशभक्त होने का दम भरते हैं मगर देश की खातिर न जीते हैं न मरते हैं । देखा है इक भारतमाता का मंदिर बना हुआ है हरिद्वार में , शायद और भी बने होंगे । मगर उन को देखकर इक भावना जगती है पल भर को जब तक उस जगह हैं , थोड़ा दूर जाते ही इधर उधर नज़ारे देखने लगते हैं और वो भावना स्थाई दिल में बसती हो लगता नहीं है । मेरी कल्पना का मंदिर कैसा होगा आज बताता हूं , पहले ये बता देना चाहता हूं कि मेरे दिल में ये ख्याल आया कैसे । मेरी पत्नी ने सवाल किया आप को शिवजी के मंत्र आता है आपको पढ़ना चाहिए । मैं उस वक़्त इक देश प्यार की नज़्म की बात सोच रहा था , मैंने कहा मुझे लगता है कि मुझे ऐसे गीत ऐसी नज़्में ग़ज़लें सुननी पढ़नी और दोहरानी चाहिएं । मेरे लिए यही सबसे बड़ी इबादत है ।
और इसी से इक कल्पना उभर रही है कि ऐसा मंदिर बनाया जाये , अब ये भी बताना है कि उस में कोई भगवान कोई देवी देवता कोई मूरत कोई तस्वीर नहीं लगी हो । भले कोई ऊंची इमारत भी नहीं हो बस इक बड़ा सा हॉल हो जिसमें किताबें ही किताबें हर तरफ हों । मगर उनको पढ़ना लाज़मी हो पढ़ाना भी सुकून देता हो , सर झुकाने की नहीं ज़रूरत माथा टेकने की नहीं माथे पर लगाने की आदत पहली की जैसी हो तो अच्छा है । किताबें हों मगर ऐसी नहीं जिन पर कोई राजनैतिक दल अपनी विचारधारा का लेबल लगा सके । केवल सच्ची देश समाज की भलाई की जनता की परेशानियों को समझाने वाली किताबें । मैंने बहुत थोड़ी पढ़ी हैं फिर भी जिनको उस मंदिर में रखना चाहिए ये कुछ नाम हैं शामिल किये जा सकते हैं ।
टैगोर , मुंशी प्रेमचंद , दुष्यंत कुमार , नीरज , शरद जोशी , श्रीलाल शुक्ल , हरिशंकर परसाई , इक़बाल , फैज़ , साहित्य की हर विधा में ऐसी रचनाएं हैं जो हमारी निराशा को दूर करती हैं और नई आशा का संचार करती हैं । वो सुबह कभी तो आएगी । नया ज़माना आएगा । जिन्हें नाज़ है हिन्द पर कहां हैं , प्यासा जैसी फिल्मों के नग्में । हक़ीक़त जैसी फ़िल्में । नया दौर । और भी साधना जैसी फिल्मों के गीत जो झकझोरते हैं । औरत ने जन्म दिया मर्दों को । शहीद जैसी फिल्मों की कहानियां और गीत । ऐसा बहुत बड़ा भंडार है हमारी विरासत का जिसे शायद हमने खो दिया है या बिसरा दिया है । कहीं ऐसा करना कोई अपराध तो नहीं है , मुझे लगता है । जाने क्या क्या पढ़ते हैं सीखते सिखाते हैं जिनको समझते हैं काम आएंगे किसी मकसद को ज़रूरी हैं । तो क्या देश और समाज की बात सोचना लाज़मी नहीं है । केवल खुद अपने आप तक सोच को सिमित रखना कितना उचित है । शायद हमारे समय की वो पढ़ाई जिस में देश प्यार और समाज से सरोकार की भावना शामिल रहती थी अनिवार्य रूप से आजकल नहीं होगी , ऐसा इसलिए लगता है कि आजकल के बच्चों और युवकों की बातों में इनका ज़िक्र दिखाई देता नहीं है । बच्चे देश का भविष्य होते हैं और बचपन में ही नीव रखी जाती है देश से मुहब्बत की भावना की । आधुनिकता की दौड़ में हमने शायद सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा के कार्य को भुला दिया है ।
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