सितंबर 14, 2018

मैं हिंदी आपकी हिंदी , मेरा कोई नहीं ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

 मैं हिंदी आपकी हिंदी , मेरा कोई नहीं ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया 

       आज मेरा दिन है , मगर ये दिन कैसा है , मेरी सुबह लगती है जैसे रात है अंधेरी रात। सूरज की बात ही क्या चांद की हसरत भी क्यों , कोई सितारा तक नहीं चमकता। कितनी बेबस हूं खुद अपना तमाशा देखती हूं हर साल , वो जो कहते हैं हम हिंदी वाले हैं , उनको हिंदी भाषा की नहीं अपनी चिंता होती है। आज फुर्सत नहीं तो दो दिन बाद मना लेंगे या दो दिन पहले मना भी चुके हैं। 14 सितंबर को इक दिन भी मुझे नहीं देते और दावा करते हैं जीवन हिंदी के नाम किया है। सब कुछ विदेशी है आपका कम से कम हिंदी का दिवस तो हिंदी जैसा होता , अपने तो उसे भी उपहास या औपचारिकता बना दिया है। अपनों का दिया दर्द अधिक तड़पाता है गैरों का सहना कठिन नहीं है। एक दिन महिला दिवस की बात करने से महिलाओं की कोई भलाई नहीं हुई ठीक उसी तरह से इक दिन हिंदी हिंदी का आलाप करने से होगा क्या बताओ। हिंदी को ऐसे मत सताओ , हिंदी है माथे की बिंदी गाकर हिंदी का दिल नहीं दुखाओ। हिंदी की हालत समाज की गरीब औरत की जैसी है जो हाथ जोड़ती है विनती करती है रो रो कहती है मुझे बचाओ , मुझे बचाओ। हिंदी दिवस मनाने से बेहतर है हिंदी को वास्तव में अपनाओ , हिंदी को अधिक की चाहत नहीं है समानता का अधिकार दिलवाओ। हिंदी को लूट का साधन मत समझो , इनाम सम्मान , तमगे इन सब में मुझे नहीं उलझाओ। आज इक सवाल का जवाब सच सच बताओ। हिंदी से पाया है मिला है कितना हिंदी को अर्पित किया है क्या सोचो और समझाओ। किसी और भाषा से मुझे खतरा नहीं है खुद हिंदी वालों से डरती है हिंदी अपनों से बचाओ। हिंदी खूबसूरत है कभी प्यार की नज़र से देखो दिल लगाओ , झूठी चमक दमक के झांसे में नहीं आओ। मैं सभी की हूं सभी को समझती समझाती हूं , सबको कहो अब तो मेरे हो जाओ। मेरा हाथ थामो मेरे साथ नाचो मेरे संग झूमो गाओ। हिंदी दिवस पर मुझे और मत रुलाओ। हिंदी हिंदी बोलने से हिंदी को मिलता नहीं चैन , चलो आज कोई और तरीका सोचो हिंदी को मंच पर नहीं घर गली विद्यालय , सरकार , बोलचाल और व्यवहार में जगह दिलवाओ। हिंदी की शान निराली है लोग नहीं जानते अगर तो दिखला कर मनवाओ। हिंदी को कोई सहारा नहीं चाहिए , हिंदी सक्षम है मगर जकड़ी हुई है बेड़ियों में , आज मेरे हाथ की हथकड़ियां खुलवाओ मेरे पैरों की बेड़ियां कटवा कर कोई पायल पहनाओ। हिंदी को हिंदी लिखने वालों को उनकी महनत की उचित कीमत मिले कुछ ऐसा कर दिखाओ। भूखे पेट भजन नहीं होता , हिंदी वालों की नहीं हिंदी की जीवन भर सेवा करने वालों की भूख का अंत कैसे हो उपाय बताओ। 
 
                            टेलीविज़न अखबार फ़िल्में कारोबार , हिंदी बिना किसी का नहीं उद्धार , सब को हिंदी केवल अपने कारोबार की खातिर ज़रूरी लगती है। पत्रिका छापने वाले भी किताबों को छापने वाले भी खूब कमाई करते हैं मगर कोई भी हिंदी लिखने वाले साहित्य की साधना करने वाले को इतना भी नहीं देता है कि दो वक़्त निवाला भी उसे मिल सके। ये हिंदी दिवस की शुभकामनाएं देते हैं , कोई विशेषांक निकालते हैं , कोई अख़बार कविता पाठ करवाता है कोई साहित्य अकादमी के नाम पर मौज मनाता है। अपनों को रेवड़ियां बांटकर इतराता है। हिंदी को स्वालंबी नहीं विवश बनाता है , सब कहने को बही खाता है , किधर से आता किधर जाता है , आडंबर कितने रचाता है। हर सरकार चाटुकारों को अकादमी के पद पर बिठाती है , लिखने की आज़ादी उसी जगह खत्म हो जाती है। छापते हैं जो ठाकुर सुहाती है। असली नकली दांत वाला हाथी है , खाने को अलग दिखाने को अलग , और मद में है उत्पाती है। दूल्हा नहीं है दुल्हन नहीं है , हर कोई बाराती है। हिंदी भाषा बिनब्याही बिटिया रह जाती है और हिंदी लिखने वाला न किसी का बेटा है न किसी का दामाद है न ही किसी का नाती है।  लोग भूख से मर जाते हैं , कई कर्ज़दार ख़ुदकुशी कर जाते हैं , मगर ये हिंदी के लेखक जाने किस मिट्टी के बने हैं जो जीते नहीं रोज़ ज़िंदा रहकर भी मर जाते हैं। अधिकार मिलता नहीं बिना मांगे यहां और ये नहीं मांगते बिखर जाते हैं। ज़ुल्म सहने की हर इक हद से गुज़र जाते हैं। खाली हाथ जाते हैं दुनिया के बाज़ार में कुछ नहीं खरीदते वापस घर जाते हैं।  

 

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