सितंबर 02, 2018

मौत महबूबा है मेरी ( व्यंग्य कथा ) डॉ लोक सेतिया

     मौत महबूबा है मेरी ( व्यंग्य कथा ) डॉ लोक सेतिया 

         दिल कह रहा है यहीं कहीं आस पास ही हो , जानती हो कब से राह तक रहा हूं । फिर भी तड़पा रही हो इस कदर बेचैन हूं मैं तुम्हारे लिये कि इक इक लम्हा मुश्किल से गुज़रता है । आज फिर चाहता है दिल चुपके से आओ और मेरी आज की रात की सुबह को रोक लो । हर सुबह जागता हूं तो उदास हो जाता है दिल मेरा कि रात भर इंतज़ार किया सपने देखे अपनी खूबसूरत महबूबा से मिलन की घड़ी के और टूट गए रोज़ । बस दबे पांव आना किसी को ज़रा भी आहत नहीं होने देना , कहीं कोई रोकने की नाकाम कोशिश नहीं करे । तुम जानती हो मैं कितनी बार खुद चलकर आना चाहता था तुमसे मिलने मगर बिना किसी के रोके भी रुक गया यही समझ कर कि मुझे नहीं जाने देगा कोई । ये ज़िंदगी कितनी ज़ालिम है जीने नहीं देती और साथ भी नहीं छोड़ती । ज़िंदगी नहीं चाहती कोई उस पर इल्ज़ाम लगाए मुझसे बेवफ़ाई का और मैं अपने पर तोहमत नहीं लगने देना चाहता कि उसे बीच राह छोड़ दिया । मगर इतना मुझे पता है ज़िंदगी को नहीं है मुझसे मुहब्बत तो क्या तुम तो मुझे चाहती हो और बहुत प्यार से साथ अपने ले जाओगी । लोग कविता ग़ज़ल कहानी लिखते हैं अपनी माशूका के नाम , मैंने तो सब तुम्हारे नाम किया है जो भी लिखा अभी तलक । इतनी शिद्दत से किसी ने किसी को नहीं चाहा दुनिया में । मांगने से ज़िंदगी नहीं मिलती न ही मौत ही आती है । मैंने दोनों की भीख नहीं मांगी है , ज़िंदगी ने कभी नहीं चाहा और कदम कदम ठोकर लगाई है फिर भी कोई गिला शिकवा शिकायत लब पर नहीं लाया मैं । तुम तो सबको अपनाती हो मुझे भी बना लो अपना अब तो । और नहीं होता इंतज़ार मुझसे । 
 
                  मैंने हमेशा तुम्हारी बड़ी सुंदर सी छवि मन में बनाई हुई है । अपने कोमल हाथों से बड़े आराम से छू कर मुझे प्यार से बुलाओगी कहकर कि आ गई मैं तुम बुला रहे थे कितने सालों से । माना आने में देरी हुई है मगर जब आई हूं तो तुम्हारे दिल की चाहत तुम्हारे अरमानों को सुकून तो मिला है अब । बस जितने दर्द थे जितनी परेशानियां थीं जो जो कठिनाइयां थी सब मुझे दे दो और तुम मेरी आगोश में आकर चैन की नींद सो जाओ । मौत तुम दुनिया की सबसे खूबसूरत रचना हो , कितनी दयालु हो कितनी नर्मदिल हो । ज़िंदगी तो केवल इक रास्ता है तुम तक जाने का तुम से मिलकर एकाकार हो जाने का , ज़िंदगी का हासिल और कुछ भी तो नहीं । ज़िंदगी होती ही है तुम से मिलने की खातिर । कोई भी नहीं है जो जीने से तंग आकर कभी न कभी तुम्हीं को नहीं पुकारता हो । जाने क्यों कुछ लोग जीना चाहते हैं और तुमसे बचना चाहते हैं , दूर भागते हैं मगर कितनी दूर तक भाग सकते हैं । नहीं जब भी तुम आओगी मुझे अपनी तरफ बाहें फैलाए पाओगी । शायद वही इक पल मेरी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत पल होगा । जन्म जन्म का मिलन झूठ है वास्तविक मिलना तो वही होगा तुम्हारा और मेरा अटूट मिलन । 
 
            मुझे लग रहा है जैसे मेरे बदन को जितने कांटे चुभ रहे हैं छलनी छलनी हुआ है मेरा बदन दुनिया के ज़हर भरे नफरत के तीरों से , ज़ख्म बेहिसाब जो नासूर बन चुके हैं इक तुम्हारे स्पर्श से सब गायब हो जाएंगे और मेरा बदन नाज़ुक फूलों की सेज पर रेशमी एहसास लिए आराम से सो रहा होगा । मेरा इक ख्वाब है जो मुमकिन नहीं पूरा हो मगर अगर ऐसा हो तो शायद मेरी हर आरज़ू दिल की हर तमन्ना पूरी हो जाएगी और मुझे फिर ज़िंदगी से दुनिया वालों से कोई गिला नहीं रहेगा । मेरे जीने का कोई हासिल मुझे नहीं हुआ शायद मारकर ही कुछ हासिल कर सकूंगा । तुम मुझे अपने सीने से लगा लेना उसी तरह जैसे कोई मां अपने बच्चे को लगाती है । जिनको ज़िंदगी से मुहब्बत है उन्हें ज़िंदगी मुबारक हो , हम तो आशिक़ हैं मौत तुम्हारे । मौत का दिन कितनी इंतज़ार के बाद आता है तभी तो और हसीं लगती है कयामत । 
 
 
 Deepak Chauhan

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

लेख पढ़कर शेर याद आ गया अहमद फ़राज़ साहब का

कितना आसां था तेरे हिज़्र में मरना जाना, फिर भी एक उम्र लगी जान से जाते-जाते