दलित कहना मना है , पामाल लोग ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
बोलने जब लगे पामाल लोग - लोक सेतिया "तनहा"
बोलने जब लगे पामाल लोग ,कुछ नहीं कह सके वाचाल लोग।
हम भला किस तरह करते यकीन ,
खा रहे मुफ़्त रोटी दाल लोग।
खा रहे ठोकरें हम बार बार ,
खेलते आप सब फुटबाल लोग।
देख नेता हुए हैरान आज ,
क्यों समझने लगे हर चाल लोग।
ज़ुल्म सह भर रहे चुप चाप आह ,
और करते भी क्या बदहाल लोग।
मछलियों को लुभाने लग गया है ,
बुन रहे इस तरह कुछ जाल लोग।
कुछ हैं बाहर मगर भीतर हैं और ,
रूह "तनहा" नहीं बस खाल लोग।
अदालत ने सरकार को फरमान जारी करने को कहा। सोशल मीडिया वालों को निर्देश जारी करो दलित शब्द नहीं उपयोग करें बोलते हुए , उसकी जगह एस सी , बी सी कह सकते हैं। भाषा विशेषज्ञ हैं क्या दलित उसे कहते हैं जिसका उत्पीड़न होता है और एस सी , बी सी जन्म से होते हैं। आपका मतलब क्या है या तो आप समझते हैं जिनका जन्म जैसे हुआ उनका नसीब वही है उनको दलित ही रहना है भले कभी सत्ता पर आसीन होकर वो स्वर्णों पर भी ज़ुल्म करते हों। या फिर बाकी लोगों पर किया दमन आपको अत्याचार ही नहीं लगता। अदालतों की व्याख्या भी कमाल की बात है। मगर असली विषय यहां कोई और है चलो उसकी चर्चा करते हैं।
दलित सम्मेलन , दलित लेखक , दलित साहित्य ?
मैं कब से समझना चाहता था ये सब क्या है। साहित्य में भी बटवारा मुमकिन है। दमन शोषण गरीब मज़दूर महिला बच्चे बूढ़े सभी का होता है। यहां तक कि बड़ी बड़ी कंपनियां अपने कर्मचारियों का शोषण खुलकर करते हैं। वेतन सुविधाएं कम देना ही ज़रूरी नहीं है , गधों की तरह जितना चाहे बोझ लादना भी अनुचित है , मगर शायद आप नहीं जानते देश में गधों की भी अहमियत है और उनके लिए कानून बना हुआ है। नियम जानना चाहोगे , काम के घंटे , तीन बार भोजन अवकाश , पानी पीने को भी अवकाश तो है ही शाम ढलने के बाद काम नहीं लिया जा सकता है , इतना ही नहीं उनको बांधने से पहले रस्सी के नीचे मुलायम रेशमी कपड़ा भी होना चाहिए। बारिश में और उमस में काम से छुट्टी भी लाज़मी है। गधों को बता देना आप।
पामाल शब्द का अर्थ है पांव के तले कुचला हुआ , दलित से भी बढ़कर कह सकते हैं। ऐसे में दलितों का साहित्य उसके लेखक ही नहीं ईनाम और सम्मेलन भी होना कुछ लोगों की अपनी दुकानदारी है। कोई लिखने वाला कविता कहानी ग़ज़ल व्यंग्य आलेख कोई भी विधा अपना कर लिख सकता है मगर ऐसा सोचना ही अपराध जैसा है कि कोई केवल कुछ लोगों की ही बात लिखेगा। साहित्य इक समंदर की तरह है और अपना अलग तालाब बना कर उसी की मछलियों की बात करना चाहते हैं , मगर मगर की बात नहीं क्योंकि मगरमच्छ तालाब में कहां मिलते हैं। मगरमच्छ से बचना चाहते हैं। मुझे लगा आज टीवी वालों को सरकार सलाह देती है कल लिखने वालों को भी दे सकती है ऐसे में बेचारे दलित लेखकों को बड़ी कठिनाई होगी। सरकारी फरमान का क्या भरोसा आपको अपनी किताबों में से दलित शब्द मिटाने को कहें अगर या कोई और आकर उन किताबों पर रोक ही लगवा दे जिन में दलित शब्द उपयोग किया गया हो। अभी इसिहास को दोबारा लिखना बाकी है और सारा साहित्य फिर से लिखवाना पड़ा इक शब्द को बाहर करने को तो क्या होगा।
जावेद अख्तर जी को अपनी ग़ज़ल दोबारा लिखनी होगी जो कुछ इस तरह है।
सभी जाते जिधर जाना उधर अच्छा नहीं लगता , मुझे पामाल रस्तों का सफर अच्छा नहीं लगता।
मुझे दुश्मन से भी खुद्दारी की उम्मीद रहती है , किसी का भी हो , कदमों में सर अच्छा नहीं लगता।
दलित राजनीति करने वालों से लिखने वालों और सामाजिक संस्थाओं के लिए बड़े काम की चीज़ है। ये कागज़ की ऐसी तलवार है जो घायल करती है निशान नहीं छोड़ती। अब कोई इसी को लेकर सर्वोच्च न्यायालय चला जाएगा दलित का पैरोकार बनकर। दलित शोर भी करते हैं हमारा दमन किया जा रहा है , जो बोल सकता है आवाज़ उठाता है वो अन्याय से लड़ता क्यों नहीं अत्याचार सहन किसलिए करता है। ये मामला टेड़ा लगता है। वास्तविक दलित चुप चाप सहते हैं कुछ भी नहीं कहते हैं। आपको कुछ ऐसे लोगों से मिलवाते हैं जो शोषित हैं जिनके अधिकारों का दमन किया जाता है। शुरुआत घर से करना भी बुरा तो नहीं। लिखने वालो आप लिख लिख भेजते हो और अख़बार पत्रिका वाले छापते हैं पब्लिशर्स किताब छापते हैं और ये लोग खूब मालामाल हैं लेकिन कितने लिखने वाले हैं जो लेखन से पेट भर सके इतना भी मिलता है जिनको। वास्तविक शोषण करने वालों पर खामोश हैं क्योंकि बोले तो छपास की बीमारी बढ़ जाएगी। ये आधा सच आधा झूठ वाला लिखना किस काम का है। महिलाओं के शोषण की बात करने वाले खुद घर में अपनी पत्नी से उत्पीड़न का शिकार हैं , किसी लेखक की पत्नी है जो लिखने वाले पति को निकम्मा नहीं समझती है। बस यही समस्या है खुद सितम सहते हैं और बाकी दुनिया को अत्याचार और शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने को कहते हैं। पुरुष के अन्याय की कहानी कविता दर्द भरी ग़ज़ल और औरत के अत्याचार के केवल चुटकुले , ये कैसा न्याय है। होता होगा किसी युग में अत्याचार नारी पर आजकल की नारी पुरुष पर पड़ती है भारी। आज उसकी है तो कल आपकी भी आएगी बारी। कोई नहीं समझता व्यथा कथा हमारी।
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