क्या लिखना क्यों लिखना किसलिए लिखना ( आलेख )
डॉ लोक सेतिया
सब लिखने वाले लिख रहे हैं सब को पता है क्यों लिखते हैं। मुझे कभी कभी समझ नहीं आता मैं क्यों लिखता हूं। कोई मकसद हासिल नहीं करना , कोई खुशफहमी नहीं है साहित्यकार होने की तो क्या अच्छा लेखक होने की भी। कम ही पढ़ा है मगर जिनको भी पढ़ा है , दुष्यंत कुमार परसाई श्रीलाल शुक्ल प्रेम चंद नीरज जाँनिसार अख्तर थोड़ा थोड़ा शरद जोशी बशीर बद्र ग़ालिब दाग़ ज़फ़र जैसे उच्च कोटि के लिखने वालों को। साहिर लुधियानवी और पिछले पचास सालों के फ़िल्मी गीतकारों के गीत ग़ज़ल सुनता रहा हूं। इन सभी से सीखने की कोशिश की है मगर मेरे पास उन जैसे लोगों की समझ और शब्दावली तो नहीं है उनकी कल्पनाशीलता भी नहीं संभव मुझमें। मुझे अच्छी तरह मालूम है मेरा लेखन कोई उच्च कोटि का नहीं हो सकता है। किताब छपवाना नाम शोहरत या इनाम आदि भी मेरा मकसद नहीं है। हां अभी तक कुछ साल पहले तक ये चाहत अवश्य रहती थी कि ज़्यादा लोग मुझे पढ़ें और समझें भी। इसलिए अपने लेखन को कई तरह से पाठकों तक पहुंचाने का काम करता आया हूं। मगर मेरा लिखना इस के लिए नहीं रहा है। वास्तव में मुझे लिखना उसी तरह ज़रूरी लगता है जैसे सांस लेना जीने के लिए। मैं भी अगर लिखता नहीं तो ज़िंदा नहीं रहता या फिर यूं कह सकता हूं कि लिखना बंद करना मेरी मौत होगा। और कुछ भी नहीं मेरे पास करने को लिखने को छोड़कर।
बहुत लोग लिखते हैं किसी एक विधा में अधिकार पूर्वक। मैंने ग़ज़ल नज़्म कविता व्यंग्य कहानी लघुकथा और सामाजिक समस्याओं पर आलेख लिखना और भी कई ढंग अपनाये हैं अपनी मन की बात को उजागर करने को। लिखना खुद अपने साथ संवाद करना है , मेरे पास संवाद करने को कोई रहा नहीं है क्योंकि मैं जहां जहां रहा विचारों के लिए दूर दूर तक इक रेगिस्तान फैला हुआ मिला। बस चमकती हुई रेत जो पानी जैसी दिखाई देती तो है मगर प्यास नहीं बुझा सकती। तभी कई बार लिखना पड़ा है कि जब भी कोई मुझे पढ़ना तो मेरी तुलना किसी बड़े ऊंचे पेड़ से नहीं करना जो फलदार है और छायादार भी। मैं तो पौधा हूं जो किसी रेगिस्तान में अनचाहे उग आया और जिसे आंधियों तूफानों ने उजाड़ा हर आने जाने वाले के पैरों ने कुचला रौंदा , मगर फिर भी जाने कैसे बार बार उगता रहा। जिनको माली ने सींचा रखवाली की खाद पानी दिया और हर तरह से सुरक्षित रखने का जतन किया उनकी ऊंचाई और मेरा बौनापन हालात के अंतर से हैं।
जब भी कुछ भी मन को विचलित करता है तब लिखना मेरी मज़बूरी बन जाती है। अब कोई फर्क नहीं पड़ता लोग पढ़ते हैं या नहीं , कभी पढ़ा करते थे लोग सभी को। आजकल हर कोई सोशल मीडिया पर व्यस्त है इक पागलपन में उलझा हुआ मनोरंजन के नाम पर इक ऐसी राह पर जाता हुआ जो राह किसी मंज़िल को नहीं जाती है। ये बाहर निकलना नहीं है खुद को अपने भीतर बंद करना है। खुद को भी जैसा है वैसा नहीं देखना बल्कि जो नहीं है वो समझना चाहते हैं। शिक्षा ज्ञान की नहीं अज्ञानता को बढ़ावा देने का काम करने लगे हैं। सार्थक लेखन सिमट कर रह गया है केवल इक दायरे में पठन पाठन होता है। मैं हर दिन लिखता हूं ताकि अपने ज़िंदा होने का पता खुद को चलता रहे। जिस दिन गहरी नींद आएगी सोते सोते ही दुनिया से विदा हो जाऊंगा। अभी जाग रहा हूं और जागते रहो की आवाज़ लगा रहा हूं , ये भी जनता हूं कि जागते रहो की आवाज़ किसी पुराने ज़माने में लगाई जाती थी और कोई भी जागते रहो की आवाज़ सुनकर जगता नहीं था।
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