सितंबर 21, 2014

रसीली ( कहानी इक वेश्या की ) डा लोक सेतिया ( भाग एक )

   रसीली ( कहानी इक वेश्या की ) डा लोक सेतिया ( भाग एक )

           रसीली मर गई भूख से , जाने कितने दिन से भूखी थी रसीली। कोई नहीं जान सका कि वो किस तरह तड़प तड़प कर अपने छोटे से घर में मरी होगी अकेली। उसके मरने के बाद बस्ती के लोगों , कॉलोनी के धनवान लोगों , जो खुद को बड़ा दयालू समझते हैं , और पुलिस वालों ने देखा कि रसीली के घर अनाज का एक दाना तक नहीं था। उसके पर्स में इक पैसा तक नहीं मिला , खाली था। बस्ती वालों ने बताया कई दिन से उसके घर का चूल्हा जलता बहुत कम ही दिखाई दिया था। जब से उसके साथी कमाल , जो हमेशा उसके साथ रहा , का निधन हुआ , तब से रसीली के पास  उसके खरीदार कम ही नज़र आने लगे थे। रसीली की वो खनकती आवाज़ और कहकहों वाली हंसी सुनाई दी ही नहीं कमाल की मौत के बाद।  जाने ये कैसा रिश्ता था उनके बीच , कोई नाम नहीं था उनके नाते का। सारी रौनकें खत्म हो गई थी कमाल के जाने से और एक ख़ामोशी सी छा गई थी रसीली के घर में। रसीली हरदम गुमसुम सी रहने लगी थी , कहीं भी आती जाती नहीं थी , गली से गुज़रती तो लगता कोई लाश चली जा रही है। जाने कैसे अपने ही ख्यालों में खोई रहती थी , मगर तब भी उसकी आंखों में वही चमक थी , कुछ कहना चाहती थी दुनिया से रसीली की नज़रें। अब समझ सकता हूं  उन आँखों में कैसा दर्द था क्या संदेश था , वो बताना ज़रूरी हो गया है मेरे लिये। रसीली भले जिस्म फरोश थी , मगर उसके जीवन में कमाल को छोड़ कोई दूसरा कभी नहीं आ सका था। किसी को साथी बनाना तो क्या अपने पास तक नहीं आने दिया उनको जो चाहते थे उसके प्यार बेचने के कारोबार में सहयोगी बनना। रसीली की ज़िंदगी में कमाल की जगह दूसरा कोई ले भी नहीं सकता था , कोई नहीं समझ सकता था कि रसीली वैश्या का कारोबार करने वाली बाकी औरतों जैसी नहीं थी। वो तो सब को हमेशा खुशियां बांटती रहती थी , प्यार  देती थी बेशुमार जो किसी की प्यास बुझा देता था। कमाल के बाद खरीदार  आते भी कैसे , बिना दलाल के  मिलते कहां हैं , जो भी बस्ती में आता जिस्म बेचने वाली बाकी औरतों के दलाल खड़े रहते थे पटाने को।

                            शहर की सब से पॉश कॉलोनी के ठीक सामने ये बदनाम बस्ती कॉलोनी के आबाद होने से भी पहले की बसी हुई है। खाली सरकारी भूमि पर अपना सर छुपाने को अपने हाथों से बनाये थे अपने अपने घर रसीली जैसी औरतों ने। कब्ज़ा कर बनाई ये बस्ती बदनाम है अवैध कामों के लिये , कॉलोनी वालों ने कितनी बार जतन  किया बस्ती को हटवाने का मगर सफल नहीं हो सके। ये माना जाता है कि जब भी बस्ती को हटाने की कोशिश होती , वैश्यावृति करने वाली औरतें इसको बचा लेती , नेता , अफ्सर , पुलिस वालों का बिस्तर गर्म करके। हर दिन इक दूजे से लड़ने झगड़ने वाली सब इक साथ खड़ी हो जाती ऐसे में। पापी पेट का सवाल जो आ जाता था , मगर तब भी रसीली अपनी ज़िद पर कायम रहती थी , किसी की रातें रंगीन करने कभी किसी के घर , होटल या फार्म हॉउस नहीं जाती थी। उसका कहना था जिसको उसकी ज़रूरत है वो बेझिझक चला आये उसके घर का दरवाज़ा खुला रहता है सब के लिये। जिसको डर लगता हो , शर्म आती हो , या जिसको ये बुरा काम लगता हो वो रहे अपने घर में। रसीली जो भी करती थी उसको उसमें कोई झिझक नहीं थी , कोई ग्लानि या अपराधबोध नहीं था। अपना बदन है जो चाहे करे किसी को कोई ज़बरदस्ती थोड़ा बुलाती है। वो ये गीत हमेशा गुनगुनाया करती थी "प्यार बांटते चलो -प्यार बांटते चलो।

                                      रसीली और कमाल ने ज़िंदगी में इतनी ठोकरें खाई थी कि अब उनको किसी भी मुसीबत से कोई डर नहीं लगता था , उन्होंने कभी भी ये चिंता नहीं की कि अगर बस्ती उजड़ गई तो क्या होगा उनका। जब दूसरे बस्ती वाले घबरा रहे होते थे तब भी रसीली सब को हौसला देती , खिलखिला कर मस्ती भरी बातें किया करती। जिंदादिल थी रसीली। सब से प्यार और अपनेपन से बात करती थी वो। कुछ सालों से वो बिमार सी , मुरझाई सी लगती थी , तब भी उसके घर रौनकें लगी रहती , ठहाकों की आवाज़ गूंजती रहती। कमाल दिन भर उसके लिये खरीदार  ढूंढ कर लाता रहता , वो बहुत आसानी से पहचान लेता था कि कौन अपनी हवस मिटाना चाहता है और उससे बात कर ले आता था रसीली के घर। जो एक बार रसीली के घर आता वो बार बार आता ही रहता ,रसीली की बातों उसके अपनेपन में कोई बाज़ारूपन नहीं होता था। बस्ती की बाकी औरतें अपने पास आने वालों से अखड़पन से बात किया करती थी और जैसे भी हो अधिक पैसा छीन लेना चाहती थी , मगर रसीली को ये पसंद नहीं था। उसने जिस्म भी बेचा मगर पूरी ईमानदारी से। उसका व्यवहार अपने खरीदार  से ऐसा रहता जैसा कोई महमान आया हो उसके घर। ये रसीली के घर ही हो सकता था कि जो भी आया हो उसको कमाल साथ शराब का जाम पेश करता अगर पीता हो और जब खुद खाना खाती तब रसीली महमान  को भी अपने हाथ से बना कर रोटी खिलाती। वहां वैश्या के घर जैसा माहौल नहीं था , ये हिसाब नहीं लगाती थी रसीली कि किसने क्या दिया क्या नहीं। धंधा अपनी जगह और घर आये लोगों से व्यवहार अपनी जगह। आने वालों को वो वैश्या का कोठा नहीं कोई घर लगता था जिसमें उन दो को छोड़ रोज़ नये सदस्य होते थे।  बस्ती वाली कई औरतों ने कमाल पर डोरे डालने का जतन  भी किया कई बार उसको अपना दलाल बनाने को मगर उसकी ज़िंदगी में रसीली के सिवा किसी के लिये भी कोई जगह नहीं थी। बस्ती की बाकी औरतों का साथ देना तो दूर की बात , उनसे बात तक करना जुर्म था कमाल के लिये। रसीली को जब पता चलता किसी ने उसके कमाल पर डोरे डालने का जतन  किया तो वो अपना सवभाव बदल कर चंडी का रूप बन जाती थी। सालों आमने सामने रहते बस्ती वाले और कॉलोनी वाले इक दूजे को अच्छी तरह पहचानते थे। बस्ती वाले कॉलोनी वालों को आते जाते सलाम साहब सलाम मेम साहिब कहते रहते मगर उनके कार्यों को जान कॉलोनी वाले उनसे नफरत करते थे। फिर भी जब कोई मेहनत मज़दूरी का काम होता तब बस्ती वाले कभी इनकार नहीं करते थे , मांगते तक नहीं थे अपनी मज़दूरी , जो कोई दे देता चुपचाप रख लेते। आज सोचता हूँ जिन बस्ती वालों का नाम तक नहीं जानते थे उनसे कॉलोनी वाले किसलिये नफरत करते थे।  कुछ भी बुरा उनके साथ नहीं किया था कभी बस्ती वालों ने। कितनी अजीब बात है कि कॉलोनी में बहुत लोग ऐसे रहते थे जो किसी को धोखा देने , अन्याय करने , अपने से कमज़ोर का अधिकार छीनने जैसे अनैतिक काम करते थे तब भी उनसे कोई नफरत का व्यवहार नहीं करता था। वैश्या तो जिस्म बेचती है ये लोग तो दीन ईमान तक बेचते हैं , क्या ये कम बुरे हैं। जैसे अपराधों का कॉलोनी वालों को भय था वो बस्ती वालों ने कभी किया ही नहीं था। खुद को सभ्य और उनको असभ्य मान कुछ लोगों ने बस्ती वालों को उन अपराधों की भी सज़ा दी जो किया ही नहीं था बस्ती में रहने वालों ने। आज अगर पुलिस का अधिकारी आकर कॉलोनी वालों से इस बारे बात न करता और रसीली के परिवार का सदस्य रसीली की ज़िंदगी की उसकी खुद की प्रेम कहानी सब को नहीं बताता तो किसी को पता ही नहीं चलता रसीली के जीवन की सच्चाई। रसीली ने जब कमाल की मौत की खबर उसके घर वालों को भेजी थी तब उसको नहीं पता था वो रसीली के साथ ऐसा भी करेंगे। कमाल के परिवार वाले आये थे , उसकी लाश को कैंटर में डाल कर ले गये थे। रसीली रोई थी गिड़गिड़ाई थी मगर उसको साथ नहीं जाने दिया था। तुम उसकी विवाहिता पत्नी नहीं हो , तुम्हारा न उसके साथ कोई रिश्ता है न ही हमारे साथ। दुनिया वाले कभी नहीं समझ सकते उनके बीच क्या रिश्ता था और कितना गहरा था। कमाल की मौत के बाद रसीली वो रसीली नहीं रह गई थी , पूरी तरह टूट गई थी बिखर गई थी। अकेली पड़ गई थी ,  और ऐसे बहुत समय जी नहीं सकती थी। अब सोचता हूँ जब भी वो सामने से गुज़रती थी उसकी आंखे क्या कहना चाहती थी सब लोगों से। हमने ये महसूस किया था कि कुछ बोलना चाहती हैं दो आंखें , मगर हमें वो भाषा समझना नहीं आता था और रसीली को वही भाषा ही आती थी। हम यूं कहने को इंसानियत के धर्म की बातें करते हैं मगर क्या कभी जाकर जाना है किसी का दुःख दर्द , पूछा किसी से कभी हाल उसका। बस्ती में जो रहते वो भी हैं तो इंसान ही ,  उनका उनकी मज़बूरी उनकी परेशानी किसी कॉलोनी वाले ने जानी , समझी। इसी कॉलोनी में रहते हैं वो भी जो समाज सेवक होने का दम  भरते हैं ,  कई महिलायें हैं जो महिला शक्ति और महिला उद्धार की बात किया करती हैं। उनको सब मालूम था उनके सामने की इस दलदल के बारे में , नहीं किया किसी ने जतन  उनको इस दलदल से बाहर निकालने का। कॉलोनी वाले बचा हुआ खाना जानवरों को खिलाते हैं पुण्य समझ , कूड़ेदान में भी फैक देते हैं पर इन बस्ती वालों का पेट भरने को नहीं देते। कहते हैं ये गंदे हैं इनको पास नहीं रहने देना , एक बार दिया तो बार बार चले आयेंगे। ऐसे लोग क्या कभी समझ सकते हैं कि  कैसे अपना और अपने अपाहिज साथी कमाल का पेट भरने को रसीली ने अपना बदन वासना के भूखे भेड़ियों के सामने परोसा होगा। कितना दर्द  कितनी पीड़ा झेल विवश होकर।

           पुलिस वालों ने हम सबको ये बताया कि आपके सामने बस्ती में रहने वाली रसीली नाम की औरत की मौत दो दिन पहले ही हो चुकी है और कोई नहीं है जो उसकी लाश को ले कर अंतिम संस्कार कर सकता हो। दो दिन पहले बस्ती में रहने वालों ने रसीली के परिवार को और कमाल के घर वालों को फोन पर बताया तो जवाब मिला था उनका रसीली से कोई नाता नहीं रहा है , वो कब की मर चुकी है उनके लिये। आज जब बदबू होने लगी तब बस्ती वालों ने पुलिस थाने रपट दर्ज करवाई है कि कोई शव सड़ रहा दो दिन से बिना किसी देखभाल के। अब पुलिस को ही उसको लावारिस घोषित कर सब करना होगा , मगर उसके लिये आपको रसीली की पहचान कर कुछ कागज़ी करवाई में सहयोग देना होगा। पुलिस वाले सुन कर हैरान रह गये थे कि जो कब से उनके घरों के सामने रहती थी किसी कॉलोनी वाले को उसका नाम भी मालूम नहीं था। जानते भी कैसे जब वो उनसे बात करना तक पसंद नहीं करते थे। बस्ती वालों ने बताया था एक रिश्तेदार रहता है जो मिलने आता है कभी कभी रसीली से जब कोई मतलब होता है। पुलिस वाले खोज लाये थे उसको मगर उसने भी इनकार कर दिया रिश्ता निभाने से। हमने उसको कहा था कि जो भी बात रही हो वो तुम्हारी अपनी थी , मरने के बाद तो सब भूल कर उसका अंतिम संस्कार कर दो , हम तुम्हें आर्थिक मदद देने को तैयार हैं। हमारी बातों ने उसको विवश कर दिया था रसीली की ज़िंदगी की पूरी दास्तां सुनाने के लिये। बात कई साल पुरानी है।

                           ( जारी है कहानी  बाकी आगे की पोस्ट पर )

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