अप्रैल 30, 2021

अब तो सारा जहां हमारा है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 अब तो सारा जहां हमारा है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

अब तो सारा जहां हमारा है  

ज़िंदगी शुक्रिया तुम्हारा है। 

हाथ पतवार और माझी हम 
हम जहां पर वहीं किनारा है। 
 
हम अकेले कभी नहीं होते 
रोज़ हर दोस्त ने पुकारा है। 
 
प्यार मिलता है प्यार करने से 
बह रही इक नदी की धारा है। 
 
वक़्त गुज़रा गुज़र गया "तनहा"
शान से वक़्त हर गुज़ारा है।

 

 

अप्रैल 29, 2021

ज़िंदा नहीं क्यों ख़ौफ़ मौत का है ( दरसल ) डॉ लोक सेतिया

    ज़िंदा नहीं क्यों ख़ौफ़ मौत का है ( दरसल ) डॉ लोक सेतिया 

   सोचते रहते हैं सांस की गिनती कितनी है कितनी बाक़ी है दिल की धड़कन बढ़ती घटती रहती है नींद रात रात भर नहीं आती क्या ये जीना है मौत का ख़ौफ़ ज़िंदगी पर भारी है। सच तो ये है हमने जीना कभी सीखा ही नहीं जितना जिये जैसे जिये उसको ज़िंदा रहना कहते ही नहीं बस समझते रहे कि हम ज़िंदा हैं जीना क्या होता है समझा नहीं सीखा नहीं। सच को सच झूठ को झूठ अच्छे को अच्छा बुरे को बुरा कहने का साहस नहीं किया जब जिसने मज़बूर किया हमने सर झुका कर उसको अपना मालिक और खुद को गुलाम बना लिया। बड़ी इज्ज़त से घर बुलाकर बेइज्ज़त किया हर किसी ने और हम डरे सहमे ख़ामोश रहे किसी की दिलफ़रेब बातों को सुनकर झूठी तसल्ली खुद को देते रहे कि ये सितमगर कभी हमारे दुःख दर्द को समझेगा और हमको जीने की आज़ादी देगा। वास्तव में हम बेहद कायर लोग हैं जो अपनी आज़ादी अपने अधिकार की लड़ाई खुद लड़ना नहीं चाहते बस ख़ैरात में हासिल करना चाहते हैं। धीरे धीरे हम पर ज़ुल्म और हम पर शासन करने वाले लोग हमें इतने भाने लगे कि उनसे नफरत करना उनसे जंग लड़ना छोड़ हम उन्हीं के कदमों पर चलने उन जैसा बनने लग गए। सभी अपने से नीचे और अपने से कमज़ोर पर ज़ोर आज़माने लगे और झूठ को सच बताकर सच से नज़रें चुराने लगे। ज़मीर को मारकर  बेजान किसी  लाश जैसे चलते फिरते लोग क्या क्या हैं इसका शोर मचाने लगे। मौत तो हर हाल सभी को इक दिन आनी ही है मगर अफ़सोस इसका है कि हम में से अधिकांश लोग कभी ज़िंदा रहने जीने का ढंग भी नहीं समझ पाये। सालों की गिनती को जीना नहीं कहते हैं जीना कहते हैं हौंसलों से ज़िंदगी की हर चुनौती से हराकर जीतना साहस से अपने दम पर। 
 
  जीना उसी का सार्थक होता है जो सिर्फ अपनी खातिर नहीं देश समाज की खातिर सही मार्ग पर चलकर सच्चाई ईमानदारी और निडरता पूर्वक रहता है हर हालात में कठिनाई से घबराकर गलत से समझौता नहीं करता कभी। धन दौलत से सामान मिलता है ईमान नहीं और पढ़ लिख कर उच्च शिक्षा अथवा पद पाकर भी नैतिकता और आदर्शों का पालन नहीं करना तो अज्ञानता से भी खराब है जैसे आंखें होते आंखों पर स्वार्थ की पट्टी बांध अंधा बनकर जीना। जो उजाला करने को जलने की जगह अंधेरों का कारोबार करते हैं बड़े बदनसीब लोग होते हैं। ऐसी शिक्षा जो आपको अच्छा इंसान नहीं बनाती उसको हासिल करना किस काम का है। हैरानी की बात है लोग शोहरत दौलत को पाकर अहंकार करते हैं ये समझते हैं कि उनके बाद उनका नाम रहेगा जबकि वास्तव में जीते जी ऐसा कुछ नहीं करते जो समाज देश और विश्व कल्याण के लिए उपयोगी साबित हो। हमने इंसान बनकर अपना कर्तव्य निभाना ज़रूरी नहीं समझा है हमने जो कहा आचरण में नहीं किया खुद को अच्छा सच्चा महान कहना वास्तव में छोटे होने का सबूत है। लोग आपको बड़ा समझें ये आपकी चाहत नहीं होनी चाहिए बल्कि सही मार्ग पर चलते इसकी चिंता ही नहीं करनी चाहिए। खुद को अपने सामने रखकर विवेक से सवाल करना चाहिए कि क्या सच में मुझे ऐसा होना चाहिए जैसा हूं। 
 
हम समझते हैं दुनिया को अपनी चतुराई से समझ से धोखा देकर खुद ऊपर बढ़ रहे हैं जबकि असल में हम अपने आप से नज़रें नहीं मिलाते खुद से सबसे अधिक छल कपट करते हैं। जो लोग बौने कद वाले होते हैं समझते हैं जिनका कद हैसियत उनसे बड़ी ऊंची है उनको छोटा साबित कर खुद उनसे महान और बड़े बन जाएंगे वास्तव में पहाड़ पर चढ़ कर और भी छोटे लगते हैं। ऊंचाई पर खड़े होने से कोई बड़ा नहीं होता है इसी तरह बड़े पद पर आसीन होने से कोई ऊंचाई को नहीं हासिल कर सकता है। ज़िंदगी जीने का अर्थ है देश समाज को सभी को कुछ देने का कार्य करना जो शायद ही हम करते हैं हम तो सिर्फ खुद अपने लिए अपने स्वार्थ सुख सुविधा अधिकार पाने को लालायित रहते हैं किसी पागलपन की तरह धन दौलत शोहरत की अंधी दौड़ में शामिल होकर ज़िंदगी को जीने का अर्थ ढंग सलीका सीखते नहीं कभी। बस जिये और मर गए इक नाम बनकर।
 

 
 
    

अप्रैल 24, 2021

अपना गुणगान खुद करने वाले ( सारे जहां से अलग हम ) डॉ लोक सेतिया

     अपना गुणगान खुद करने वाले ( सारे जहां से अलग हम ) 

                                       डॉ लोक सेतिया 

इसको पागलपन कहते हैं अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना। हमारा कौमी तराना यही है शान से गाते हैं सारे जहां से अच्छा। बड़े बढ़ाई ना करें बड़े ना बोलें बोल , रहिमन हीरा कब कहे लाख टका मेरो मोल। बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय , जो दिल खोजा आपना तो मुझ से बुरा न कोय। रहीम और कबीर कह गये हम समझे नहीं रटते रह गये। हम ऐसे लोग हैं जो अपनी सूरत को कभी दर्पण में सामने रख कर देख कर विचार नहीं करते कि हम कितने डरावने चेहरे वाले हैं अच्छाई और खूबसूरती का मेकअप या मुखौटा लगाकर भले बने रहते हैं मन में कालिख़ और स्वार्थ लोभ मोह अहंकार भरा है मगर हाथ में माला है मनके फेरते रहते हैं गिनती करते हैं लेकिन जपते जपते जो कहना करना भूल जो नहीं करना चाहिए वही करने को सोचते रहते है राम छोड़ मरा मरा बोलने लगते हैं। हर कोई खुद को महान समझता है अपने सिवा सभी को नासमझ नादान समझता है। इंसान से भयानक कोई जीव जंतु जानवर पशु पंछी धरती आकाश दुनिया भर में नहीं है जिस शाख पर बैठे हैं उसको काटने को विकास और जाने क्या क्या समझते हैं। राजनेता देश को बदलने की बात कहते हैं खुद को नहीं बदलते हैं ये परजीवी हैं जनता का लहू पीकर पलते हैं गिद्ध मुर्दा लाश खाते हैं ये शासक लोग सरकार बनते ज़िंदा इंसान के जिस्म को नोंचते हैं। चुनाव जीतने को इंसानियत धर्म क्या नियम कानून संविधान तक को क़त्ल करते हैं। 
 
अदालत में बैठ कर न्यायधीश बन सवाल करते हैं किस किस ने क्या अपराध किया पाप की पुण्य की परिभाषा गढ़ते हैं। न्यायव्यवस्था की बदहाली की चर्चा से डरते हैं ज़िंदगी की कालाबज़ारी है पुलिस पर अपराधी भारी है हर गुनाहगार से सत्ता की यारी है ये सबसे बड़ी महामारी है। इक दिन सबकी आनी बारी है आखिर ख़त्म हुआ दुनिया का हर ज़ालिम अत्याचारी है। सरकार जो लोग चलाते हैं आग से आग को बुझाते हैं लाशों के अंबार पर सत्ता की रोटियां पकाते हैं। सबको बातों से बहलाते हैं झूठ को सच बताकर उल्लू बनाते हैं जितना नीचे गिरते जाते हैं उतना गर्व से खुद को ऊंचा पहाड़ समझ इतराते हैं। देश का धन चोरी का माल समझ कर बांसों के गज से नापकर कारोबार चलाते हैं चोर जब साहूकार बन जाते हैं चोर औरों को कहते हैं चोर चौकीदार मिलकर मौज मनाते हैं। हमने यही अपराध किया है बिना परखे ऐतबार किया है बस यही हर बार किया है किसी बड़बोले को सरदार किया है। अपने कर्मों की सज़ा पाई है आगे कुंवां पीछे खाई है नौकर ने अपनी असलियत दिखाई है बन बैठा घरजंवाई है। 
 
चलो उनसे भी चल के मिलते हैं जो सच की कथा सुनाते हैं चौबीस घंटे हज़ार चैनल लाख अख़बार खुद को सबसे बड़ा बतलाते हैं। बेचते हैं ज़मीर पहले खुद अपना फिर सवालात पूछते जाते हैं जो बिक गये खरीदार वही हैं अपनी कीमत बढ़ाते जाते हैं। उनसे बढ़कर कोई और नहीं हराम की खाते हैं मगर हरामखोर नहीं उन पर चलता किसी का ज़ोर नहीं। शोर उनका है जिनको पसंद किसी और की आवाज़ नहीं ये बात कोई राज़ की बात नहीं। सोशल मीडिया के जितने बंदे हैं सभी आंखों वाले अंधे हैं सच खोजना नहीं आता है झूठ से उनका गहरा नाता है नैतिकता से उनको बैर है बचना उनसे मनानी खैर है। दाता बनकर जो भीख देते हैं ये उनकी हाज़िरी लगाते हैं बात जनता की करते हैं पर सत्ता के गुण गाते हैं कभी कभी सरकार को आंखें दिखाते हैं ये मज़बूरी है करना पड़ता है पल भर में बात को बदलते हैं सरकार ने सब ठीक किया इसको अपनी खबर का असर बताते हैं। सच्चाई शराफत ईमानदारी धर्म ईमान नैतिकता ये सभी चलते नहीं आजकल खोटे सिक्के हैं। आप खुद हैं तीन गुलाम बेगम बादशाह हाथ में लिए असली खिलाड़ी है जिसके पास तीन इक्के हैं। जिसको समझे थे बापू के बंदर वो लकंदर बन गये हैं सिकंदर। उनका इतिहास कौन लिखेगा ये सब झूठ है है कोरी बकवास कौन लिखेगा। 
 

 



अप्रैल 22, 2021

शिकायत है कोरोना को ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

      शिकायत है कोरोना को ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

अपनी तो ये आदत है कि हम कुछ नहीं करते , कोरोना को भी शिकायत है कि हम कुछ नहीं करते। कोरोना कौन है बिन बुलाया महमान है या मुफ्त में हुआ बदनाम है जाने क्या क्या उस पर इल्ज़ाम है। कोरोना से लड़ना मज़बूरी है जब कुछ नहीं समझ आये तो ये कहना ज़रूरी है। सरकार ने उसको अवसर बताया था शायद वोटर समझ प्यार से मनाया था। राजनेताओं ने राजनीति का हथियार तक बनाया मगर कोरोना नासमझ नहीं चालाक निकला किसी दल किसी नेता के हाथ नहीं आया। बात की तह तक जाना होगा सबको आईना दिखाना होगा। एक एक कर सबको मिलवाना है कोरोना का पता क्या है कहां ठिकाना है। हम सभी रोज़ खुद ही मरते हैं जीना नहीं सीख सके बेमौत मरते हैं ज़िंदगी से प्यार नहीं करते हैं मौत पर तोहमत धरते हैं। सोचते हैं क्या क्या किस किस ने करना था जो नहीं किया सभी ने यही किया कुछ भी नहीं किया। कब क्यों किसे क्या क्या करना था क्या नहीं किया कैसे बताएं किस किस को सामने लाएं किसको बचाएं छुपाएं। शामिल हैं इस तरफ से उस तरफ सभी जुर्म के मुजरिम सच सच बताएं।
 
  सरकारों ने अस्पताल कितने बनवाये मगर स्वास्थ्य सेवाओं को तंदरुस्त नहीं रख पाए। अस्पताल नर्सिंग होम डॉक्टर वैद हकीम सरकारी विभाग संस्थाएं नियम कानून सभी कहने को बहुत करते हैं मगर सच समझते नहीं बड़ी बड़ी बातों का दम भरते हैं। दुनिया चांद पर पहुंचने की बात करती है धरती पर इंसान को कैसे जीना है उसकी चिंता नहीं इंसानियत शासकों से डरती है। आपने महल अपने बनाये हैं दुनिया भर को नाप आये हैं देशवासी भूखे नंगे बदहाल हैं आपको नहीं लगते अपने लोग जो अपने हैं बने पराये हैं। कानून कितने बनाये हैं स्वास्थ्य सेवा की बात पर कोई नियम नहीं है धोखे देते हैं धोखे खाये हैं। जैसे अस्पताल नर्सिंग होम क्लिनिक डॉक्टर स्वस्थ्य सुविधाएं होनी चाहिएं सभी को हासिल उसकी वास्तविकता बड़ी निराशाजनक खराब है। लापरवाही बेहिसाब है कोई नहीं देता सवाल का जवाब है। मर्ज़ बढ़ते गए ईलाज करने से ये क्या आशिक़ी निभाई है। ये चिकिस्या है कि राम नाम की लूट है मनमर्ज़ी की छूट है।
 
 पुलिस वालों को समझ नहीं आया इतना बड़ा गुनहगार उनके हाथ नहीं क्यों आया है। जाल बिछाया नाका लगाया है हिरासत में नहीं आया है नहीं तो उनसे बच नहीं पाता ज़मानत मिलती खिलाने पिलाने से भागता किस तरह पुलिस थाने से मुठभेड़ में मारा जा सकता था। अपनी असलियत छुपा सकता था झूठ को सच साबित करने को झूठी हवाही सबूत दिखला सकता था। कोई वकील अदालत को यकीन दिला सकता था बेवजह फंसाया है जुर्म कर नहीं सकता है। मासूम है बेचारा है कोरोना हालात का मारा है रहम की भीख मांगता है सब उसको ख़त्म करना चाहते हैं पनाह मांगता है। पुलिस को मिलता कोई सुराग नहीं सीबीआई का भी जवाब नहीं। लिखने वालों ने किया क्या है कोरोना की कहानी नहीं लिखी ये बताते कि कथा क्या है। धर्म वाले भी नहीं पहचान पाये दैत्य है कि कोई अवतार है उसका सारा संसार है क्या कलयुग का भगवान है उसका मंदिर कोई बनाया है ये शाम का लंबा होता साया है। न्यायपालिका हैरान है अदालत में अनचाहा महमान है अदालत का रखता नहीं सम्मान है नासमझ नहीं नादान है खो चुका पहचान इंसान है।
 
   टीवी अख़बार वाले ढूंढते आतंकवादी गुनहगार से साक्षात्कार करते हैं कोरोना को स्टूडियो में बुलाया नहीं अपनी हैसियत को बढ़ाया नहीं। चर्चा बहस बेकार झूठी बेमतलब बिना मकसद करते रहे विज्ञापन से तिजोरी भरते रहे कोरोना से यारी की न दुश्मनी की है भूल की है बहुत बड़ी की है। दर्शकों को क्या समझाया है खुद उनको कुछ भी नहीं समझ आया है। कोरोना को भगाना है हराना है बस यही इक तराना है दिन रात फोन पर बजाना है आपको सुनाना है समझाना नहीं डराना है। डर के आगे जीत नहीं होती है जग की ऐसी रीत नहीं होती है बॉलीवुड महात्मा गब्बर सिंह जी  समझाते थे जो डर गया समझो मर गया। अपनी हालत यही हो गई है तेरा क्या होगा कालिया सरकार मैंने आपका नमक खाया है अब गोली खा। कितने आदमी थे सांभा खामोश है बसंती नाचेगी जब तक सांस चलती है कोरोना की बड़ी गलती है खुद सामने नहीं आता है जबकि उसके पास जाने किस किस का बही खाता है। जिनको जीना नहीं आया न मरना ही आया हम ऐसे लोग हैं जिनको कुछ करना नहीं आया। सोशल मीडिया पर बकवास लिखते हैं सच पढ़ना नहीं आया समझाते सभी को हर विषय खुद समझना नहीं आया। कोरोना को शिकायत है कि हम कुछ नहीं करते , अपनी तो ये आदत है कि हम कुछ नहीं करते।

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अप्रैल 20, 2021

ज़िंदगी तू बेवफ़ा क्यों है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

    ज़िंदगी तू बेवफ़ा क्यों है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

ज़िंदगी तू बेवफ़ा क्यों है 
मौत भी रहती खफ़ा क्यों है । 
 
बेगुनाहों को सज़ा देना 
इस जहां का फ़लसफ़ा क्यों है । 
 
क्यों इनायत है रकीबों पर 
और हम से ही जफ़ा क्यों है । 
 
तू ही क़ातिल भी मसीहा भी 
बेवफ़ा तुझसे वफ़ा क्यों है ।  
 
ऐतबार सबके मिटा देना 
ये ही "तनहा" हर दफ़ा क्यों है ।  
 

 

हम जिएं कैसे हम मरें कैसे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

   हम जिएं कैसे हम मरें कैसे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हम जिएं कैसे हम मरें कैसे 
क्या करें और क्या करें कैसे । 
 
जिस्म घायल है रूह भी घायल 
ज़ख़्म ही ज़ख़्म हैं भरें कैसे । 
 
उनके झांसों में लोग आ जाते 
चाल समझे नहीं डरें कैसे । 
 
दुश्मनी उनको है ज़माने से 
लोग उल्फ़त भला करें कैसे । 
 
लोग खुद जाल में फंसे "तनहा"
दोष तकदीर पर धरें कैसे । 
 

 

 

अप्रैल 18, 2021

मुसीबत से डरने वाले ( जंग नहीं लड़ना ) डॉ लोक सेतिया

    मुसीबत से डरने वाले  ( जंग नहीं लड़ना  ) डॉ लोक सेतिया

    ये ऐसे कैसे पेड़ लगाए हैं हमने जो छाया नहीं देते कोरोना की धूप में। कोरोना इक दुश्मन है जिसने हमला किया तब सीमा पर तैनात सैनिक सोये हुए थे अर्थात सरकार स्वास्थ्य विभाग और विश्व स्वास्थ्य संघठन निक्क्मे नाकाबिल साबित होने के बाद नसीहत देकर अपनी गलती को स्वीकार ही नहीं करते हैं। सोचो अगर सीमा पर तैनात फौजी दुश्मन के हमले पर सामने डटकर लड़ने की बजाय लोगों को भागो अपनी जान बचाओ घर में बंद हो जाओ अपने आप को छुपाओ किसी को नज़र नहीं आओ सबको दुश्मन समझो हाथ से हाथ नहीं मिलाओ दूर होकर उसको दूर भगाओ। ये कोई नहीं बता सकता है सरकारी रोज़ बदलते आदेश किस काम आये मुमकिन है जिनको कोरोना से बचाया जा सकता था नहीं बचे क्योंकि बचाने वाले सैनिक अपनी जान को खतरे में नहीं डालना चाहते थे उनको छूना तक नहीं जांच और उपचार कैसे संभव है आडंबर किया जाता है। जिनको पैसा और शोहरत अधिक महत्वपूर्ण लगते हैं उनको फ़र्ज़ की खातिर जान जोखिम में डालना कैसे मंज़ूर होगा। भगवान जानता होगा अगर कोई भगवान वास्तव में कहीं है कि कितने रोगी किसी और रोग से पीड़ित थे मगर कोरोना के नाम पर बलि चढ़ा दी गई। जब दवा ईलाज वैक्सीन तक सब जगह वास्तविक उपयोग से अधिक महत्व अन्य बातों पर विचार किया जाए और सरकार कंपनी तक इसको खेल समझने का अपराध करते हैं तब नतीजा क्या होगा। 
 
  जो लोग किसी राजनेता को कोई लड़ाई हारने का दोषी बताते रहे खुद उसी दुश्मन की चाल में फंसकर अपनी साख को दांव पर लगाते रहे। जिस समय दुश्मन दोस्ती की आड़ में पीठ में छुरा घोंपता है तब लापरवाही कह सकते हैं मगर जब वही दुश्मन फिर से आपके साथ उसी बात को दोहराता है तब हम मूर्ख साबित होते हैं। सरकार टीवी सोशल मीडिया स्वास्थ्य विभाग ने साल में कोरोना से जंग लड़ने का शोर किया है लड़ने की तैयारी नहीं की बस टोटके आज़माते रहे और केवल अपने बचने के रस्ते ढूंढते रहे। 130 करोड़ जनता की जान से अधिक उनको सत्ता चुनाव और धर्म के नाम पर भीड़ जमा कर अपनी नासमझी से हालत बिगाड़ने का काम किया है। असली जंग का मैदान छोड़कर ये सभी खुद को जो बन नहीं सकते होने कहलाने की कोशिश करते रहे। क्या ऐसे नेताओं और सरकारों के आपराधिक आचरण की अनदेखी की जा सकती है। अस्पताल श्मशानघाट सभी शहर गांव उनकी नाकामी और विवेकहीनता विचारहीनता की मिसालें सामने देख रहे हैं। अंधी पीसे कुत्ता खाये यही हो रहा है क्या अपने इस से बदतर हालात पहले कभी देखे हैं। 

 

अप्रैल 15, 2021

अथ: कोरोना कथा - सुनसान हैं सारे तीरथ नदियां सारी ( दिलकश नज़ारा ) डॉ लोक सेतिया

सुनसान हैं सारे तीरथ नदियां सारी ( दिलकश नज़ारा ) डॉ लोक सेतिया 

दुनिया भरके तमाम लोग जीवन भर घूमते रहे जिसकी मिलन की दर्शन की आस लिए नदियां पर्वत तीरथ कभी उसको कभी इसको विधाता समझ कर उसको छोड़ और जाने क्या क्या देखा। प्यास बढ़ती गई इक बूंद पीने को नहीं मिली उस प्यार के अथाह सागर से। ज़िंदगी कब गुज़री मौत सामने खड़ी दिखाई दी तब समझे व्यर्थ भटकते रहे हासिल क्या हुआ। पाप धुले नहीं दर्द मिटे नहीं राहत का कोई एहसास हुआ नहीं। जो खुद हमारे भीतर रहता है कस्तूरी मृग की तरह हम भागते रहे दुनिया भर में उसके पीछे और पाया नहीं अंदर झांका नहीं कभी। आसान था मुश्किल बना दिया मन आत्मा परमात्मा का संबंध बनाना। अंतिम घड़ी तक बाहरी शोर तमाशे को समझते रहे सच है और सच अपने अंदर मरता रहा कभी पहचाना नहीं सत्य ईश्वर को। बोध किया नहीं बुद्ध को पढ़ते रहे दुनिया को जाना खुद को जानना भूल गए।  
 
पावन नदी तालाब और बड़े बड़े आलीशान भवन जिन में तमाम धर्म के ईश्वर देवी देवता खुदा अल्लाह वाहेगुरु जीसस का नाम लिखा है सुनसान नज़र आते हैं। ऊपर किसी आसमान पर बैठा भगवान सोच रहा है कैसे ये करिश्मा हो गया है। शायद लोगों ने पाप करना छोड़ दिया है तभी पाप धोने को पावन नदी में नहाने की ज़रूरत नहीं रही और खुदा से ईश्वर से जीसस वाहेगुरु से हाथ जोड़ मांगने की आदत छोड़ दी खुद कोशिश महनत से काबलियत से जितना हासिल कर सकते हैं उसको पाकर संतुष्ट रहने लगे हैं। इंसान को अपनी ताकत और समझ पर यकीन हो गया है किसी भी भगवान की कोई ज़रूरत ही नहीं रही है। सभी ईश्वर खुदा भगवान अल्लाह यीशु एक ही हैं और अपने बनाये इंसान को अपने खुद बनाये धर्म के जाल से मुक्त हुआ देख कर सभी चिंताओं से मुक्त होकर चैन महसूस करते हैं। 
 
दुनिया बनाने वाले ने इंसान बनाया था और सब कुछ दिया था जीवन बिताने रहने को। बस यही एक दुनिया बनाई थी मगर आदमी को जाने किसलिए क्या क्या हासिल करने की तलाश करने की चाह ने भटकाया इधर उधर और सपनों को सच करने को जो मिला था उसकी कीमत नहीं समझ कर उसको दांव पर लगा दिया। विकास और आधुनिकता के जुआघर में जीतने की धुन में हार का जश्न मनाते सदियां बिता दी इंसान इंसानियत को गंवाकर शराफ़त ईमानदारी छोड़कर ज़मीन पर रहना त्याग ऊपर चांद सूरज आकाश को पाने का लोभ लालच करते करते विनाश की तरफ बढ़ता गया। बेबस होकर झूठे सहारे ढूंढने लगा और नदी तालाब धर्म स्थल जा जाकर वास्तविक उजाले की जगह घने अंधकार और काल्पनिक स्वर्ग-नर्क अंधविश्वास में फंसकर खुद अपने साये से ख़ौफ़ खाने लगा। 

शिक्षा विज्ञान और तर्क शक्ति पर कायरता आडंबर अंधविश्वास अधिक भारी पड़े और समझदारी छोड़ मूर्खताओं की तरफ बढ़ता गया। आखिर इक ऐसा रोग फैला जिस ने दुनिया को विवश कर दिया ये समझने को कि कुदरत से खिलवाड़ कर विकास का आधुनिक ढंग कितना खतरनाक है। और जब सामने इक छोटा सा कीटाणु दैत्याकार खड़ा अट्हास करने लगा और कोई धर्म कोई ईश्वर कोई स्नान कोई दर्शन कोई धार्मिक आडंबर किसी काम नहीं आया करोड़ों लोग उपसना आरती ईबादत करते करते थक गए मगर समस्या मिटाने ये तथाकथित शक्तिमान उपयोगी साबित नहीं हुए तब जाकर इंसान की अक़्ल ठिकाने आई और उसको खुद अपने भरोसे जीने और अपनी दुनिया को वास्तव में अच्छी और रहने के काबिल बनाने को निर्णय करना पड़ा कि जो भगवान जो ख़ुदा अल्लाह जीसस देवी देवता इंसान की रक्षा करने उसको बचाने नहीं आया उसको कब तक मनाते रहें। जो सामने खड़ा है उसी दैत्य को मनाना उसकी मिन्नत करना शायद कारगर हो इस लिए सभी दिन रात उसी के नाम उसके गुणगान करने में लगे हैं। भगवान का बुलावा कभी भी आ सकता है ये बात झूठी साबित हुई है बस इक वायरस का साया हर जगह दिखाई देता है उसी से उस से बचाव की तरकीब पूछते हैं। 
 

                          अथ: कोरोना कथा

 


अप्रैल 13, 2021

( इस पोस्ट को अवश्य पढ़ना ) उलझन सुलझती नहीं उलझाने से ( भगवान से इंसान तक ) डॉ लोक सेतिया

     उलझन सुलझती नहीं उलझाने से ( भगवान से इंसान तक ) 

                                    डॉ लोक सेतिया 

        कौन बड़ा है भगवान या मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे।  हमने ईश्वर को सत्य में नहीं आडंबर में खोजा और बिना समझे बिना पाये ही पत्थर को किताब को इमारत को भगवान कहने लगे। किसी ने कहा तुमको ईश्वर से मिलवा सकता हूं और आप उसको ईश्वर से बड़ा समझने लगे और लोग भगवान को सामान बनाकर बेचने लगे। भगवान को इंसान क्या दे सकता है और भगवान को पैसा या कोई उपहार कुछ खाने को कपड़े गहने आरती पूजा ईबादत की अपने गुणगान की क्या ज़रूरत है क्या मिलता है ईश्वर को अपनी आराधना से ख़ुशी महसूस होती है नहीं उपासना करने से बुरा लगता है फिर वो भगवान कदापि नहीं हो सकता है। भगवान के इंसान के बनाये घरों में जाकर माथा टेकने उपसना आरती इबादत करने के बाद इंसान से झूठ छल कपट धोखा और स्वार्थ की खातिर तमाम अनुचित कार्य करते हैं और मानते हैं भगवान के भक्त उपासक हैं। इतना ही नहीं हम ईश्वर से हिसाब किताब रखते हैं लिया दिया बदले में क्या क्या। भगवान को बाज़ार समझ बैठे हैं। 
 
   संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहते हैं जिस में वो लोग बैठे हैं जिनको सत्ता के अधिकार और खुद अपने लिए तमाम साधन सुविधा चाहिएं जनसेवा के नाम पर चोरी ठगी लूट की जगह बना दिया। न्याय करने वाले न्याय का आदर नहीं अपने अनादर की चिंता करते हैं। न्यायालय में न्याय की हालत बदहाल है। कुछ नेताओं अधिकारी बने लोग कर्मचारी पुलिस सुरक्षा के लोग दफ़्तर में बैठ जनता को हड़काने वाले अपनी जेबें भरते लोग , कुछ धनवान बने लोगों और बाबा गुरु बनकर पैसा कमाने वाले लोगों ने इंसानियत को ताक पर रखकर कर्तव्य निभाने की जगह अनैतिक आमनवीय आचरण किया है। खुद नहीं जानते मगर आपको समझाते हैं ठग हैं साधु संत महात्मा बने हुए हैं।
 
स्कूल कॉलेज शिक्षक राह भटक कर शिक्षा का कारोबार कर अज्ञानता को बढ़ा रहे हैं। समाजसेवा कह कर अपने स्वार्थ सिद्ध करते हैं चालाक और मक्कार लोग और हम पापी अधर्मी अनुचित कार्य करने वालों को सर झुकाकर सलाम करते हैं और सच बोलने वालों को अपमानित करते हैं। कोरोना क्या है हम नहीं जानते उसका उपाय और रोकथाम को टीका बन गया फिर भी रोग नहीं होगा कोई  नहीं बताता बस यही भगवान सरकार धर्म उपदेशक सभी हैं कहने को भरोसा किसी का नहीं ज़रूरत और वक़्त पर सब बेकार साबित हुए हैं। हमारी नासमझी और मूर्खता कि हमने ऐसे पण्डित पादरी उपदेशक कथावाचक लोगों को ईश्वर से अधिक महत्व देना शुरू कर दिया और उनको धर्म भगवान के नाम पर उचित अनुचित जो मर्ज़ी करते रत्ती भर संकोच नहीं होता है। भगवान ये समझते हैं उनका बंधक बन गया है जिसको ये जैसे मर्ज़ी उपयोग कर सकते हैं। भगवान ने सबको बनाया है बताते हैं लेकिन समझते हैं ईश्वर को उन्होंने बनाया है उसको इनका आभारी होना चाहिए। 
 

 

अप्रैल 04, 2021

लिख कर ख़त ये तमाम रखे हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

  लिख कर ख़त ये तमाम रखे हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"   

लिख कर ख़त ये तमाम रखे हैं 
पढ़ ले जो उसके नाम रखे हैं । 
 
आंचल में इनको भर लेना 
जो अनमोल इनाम रखे हैं ।
 
हम अब पीना छोड़ चुके हैं
उनकी खातिर जाम रखे हैं । 

जिनको खरीद सका न ज़माना
अब खुद ही बेदाम रखे हैं ।

पत्थर चलने की खातिर भी
शीशे वाले मुकाम रखे हैं ।

खुद ही अपनी रुसवाई के
हमने चरचे आम रखे हैं ।

जिन पर बातें दिल की लिखीं हैं
ख़त वो सभी बेनाम रखे हैं ।
 
जुर्म नहीं बस की जो मुहब्बत
सर पे कई  इल्ज़ाम रखे हैं ।
 
उनपे नहीं अब "तनहा" परदा 
राज़ वो सब खुले-आम रखे हैं ।
 

 

अप्रैल 03, 2021

दिखाने को पर्दा करते हैं ( कव्वाली ) डॉ लोक सेतिया

      दिखाने को पर्दा करते हैं ( कव्वाली ) डॉ लोक सेतिया 

हुस्न वाले जलवा अपना , 
दिखाने को पर्दा करते हैं 
 
समझना मत वो चेहरा 
छुपाने को पर्दा करते हैं । 
 
बस देख इक झलक कोई 
हो जाये आशिक़ दीवाना 
 
नज़रों से नज़र चुपके से 
मिलाने को पर्दा करते हैं । 
 
बनते हैं बेखबर तोड़कर 
दिल आशिकों का कितने 
 
बेवफ़ा अपनी बेवफ़ाई 
छिपाने को पर्दा करते हैं । 
 
दिल ही दिल खुश होते 
हुस्न की तारीफ सुनकर 
 
बुरा मानते शर्म हया को 
दिखाने को पर्दा करते है । 
 
जब बेपर्दा बाहर आये तो 
देखा न किसी ने उस दिन  
 
पर्दानशीं क्या बात उनकी 
समझाने को पर्दा करते हैं ।  
 
शोलों को और भड़काने 
आता है मज़ा सताने में  
 
दिलजलों की दिल्लगी 
बढ़ाने को पर्दा करते हैं । 
 
कौन कहता है हुस्न को 
छुपाने को पर्दा करते हैं 
 
चिलमन खुद उठाकर के 
गिराने को पर्दा करते हैं । 



 

हम जो चाहत में आह भरते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हम जो चाहत में आह भरते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

हम जो चाहत में आह भरते हैं 
जैसे कोई गुनाह करते हैं । 
 
मार कर पत्थरों से अहले-जहां 
पेड़ से फल की चाह करते हैं । 
 
याद करके अतीत हम अपना 
अपनी रातें सियाह करते हैं । 
 
हमको उनसे नहीं गिला कोई 
दिल को हम खुद तबाह करते हैं । 
 
एक सहरा में हम- से दीवाने 
ख़्वाब में सैरगाह करते हैं ।  
 
सब मुसाफिर नये नई मंज़िल 
इक नई रोज़ राह करते हैं । 
 
कौन सुनता तुम्हें यहां "तनहा"
बस वो सुनकर के वाह करते हैं ।
 
 


अप्रैल 02, 2021

सच की तिजारत करने वाले झूठ के पैरोकार लोग ( सोशल मीडिया ) डॉ लोक सेतिया

   छिपा है गंदगी का ढेर चमक- दमक के पीछे ( डरावना सच ) 

      सच की तिजारत करने वाले झूठ के पैरोकार लोग (  सोशल मीडिया ) डॉ लोक सेतिया

             पहले अपनी इक ग़ज़ल उसके बाद बात सच बेचने वालों की :-     
             
                     ग़ज़ल-   डॉ लोक सेतिया "तनहा"

वो जो कहते थे हमको कि सच बोलिये 
झूठ के साथ वो लोग खुद हो लिये। 
 
देखा कुछ ऐसा आगाज़ जो इश्क़ का 
सोच कर उसका अंजाम हम रो लिये। 
 
हम तो डर ही गये , मर गये सब के सब 
आप ज़िंदा तो हैं , अपने लब खोलिये। 
 
घर से बेघर हुए आप क्यों इस तरह 
राज़ आखिर है क्या ? क्या हुआ बोलिये। 
 
जुर्म उनके कभी भी न साबित हुए 
दाग़ जितने लगे इस तरह धो लिये। 
 
धर्म का नाम बदनाम होने लगा
हर जगह इस कदर ज़हर मत घोलिये।
 
महफ़िलें आप की , और "तनहा" हैं हम 
यूं न पलड़े में हल्का हमें तोलिये।
 
 बताने की ज़रूरत नहीं कि सबसे अधिक गंदगी उन्हीं के घरों में छिपी हुई है जो शानदार लिबास पहने चमकती रौशनी वाले महलों में बैठे मख़मली कालीन पर पांव रख कर चलते हैं। बड़ी बेशर्मी से ऊंची आवाज़ में सवाल करते हैं खुद जवाब नहीं देते कि उनका ज़मीर कितने में किस किस को कितनी बार बेचा है। ज़िंदा मुर्दा की ये मिसाल अलग है वो नहीं जिसको अस्पताल में डॉक्टर ने मरा घोषित किया था और वो बोल रहा था मुझ में जान बाकी है। ये वो नहीं हैं जिनमें थोड़ा ईमान बाकी है। ऊपर जाने की हसरत में कितना नीचे गिर गये ये टीवी चैनल अख़बार मीडिया वाले फिर भी इनका और भी उंचाई का अरमान बाकी है उन्होंने ज़मीन से नाता तोड़ लिया है और झूठ वाला आसमान बाकी है। कुछ लोग औरों की तकलीफ़ देखते हैं और रोमांच का आनंद का अनुभव करते हैं। जिस की हालत खराब हो उसकी तकलीफ़ नहीं समझते बल्कि सवालात करते हैं आपको कैसा महसूस हो रहा है। खबरची बनते मानवीय संवेदना छूट जाती है और इंसान मशीन बनकर बोलता चलता है टीवी वालों को आपराधिक कहानियां मनोरंजन के नाम पर परोसना अच्छा लगता है जानकारी देने को नहीं गुमराह करने के लिए। सवाल समाज का नहीं पैसे टीआरपी का है।
 
चलिये समझते हैं इनकी असलियत कोई पहेली नहीं है। बेईमानी झूठ लूट घोटाला अपराध से लेकर समाज में नग्नता और अश्लीलता के साथ नैतिकता के पतन को बढ़ावा देने के बाद खुद को सबसे महान आदर्शवादी घोषित करने का काम करते हैं। सरकारी विज्ञापन की लूट देश का ऐसा सबसे बड़ा घोटाला है जिस में देश का खज़ाना जनता की कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च होने की जगह इन मुट्ठी भर लोगों की तिजोरियां भरने में बर्बाद होता है और ऐसा 73 साल से नियमित होता रहा है जिसकी धनराशि बढ़ती बढ़ती दैत्याकार रूप ले चुकी है। ये लुटेरे मसीहाई की बात करते हैं चोर अधिकारी नेताओं से मिलकर डाका डालते सबसे बड़ा हिस्सा पाते हैं। 

इनके सीरियल से रियलटी शो और चर्चा तक नैतिकता की धज्जियां उड़ाते हैं हिंसा और अराजकता से लेकर जुआ अंधविश्वास और धार्मिक बैरभाव फैलाने का काम करते हैं। सच को छिपाते नहीं दफ्नाते हैं और झूठ को सच साबित करने को मनघडंत किस्से कहानी बनाकर दर्शक को उलझाते हैं। सच  का लेबल लगाकर झूठ को मनचाहे दाम बेचते हैं फिर भी सच के रखवाले कहलाते हैं। हर घटिया चीज़ को असली खरी और बढ़िया बताकर बिकवाते हैं ठगों चोरों से भाईचारा निभाते हैं। ये कमाल करते हैं उल्टी गंगा बहाते हैं और सत्ता की गंदगी के गंदे नाले को पाक साफ़ समझ उसमें डुबकी लगाते हैं। पाप और अधर्म की कमाई से गुलछर्रे उड़ाते हैं अपनी करनी पर कभी नहीं लजाते हैं हराम की खाकर शान से इतराते हैं। सदी के महानायक जिनको बनाते हैं वो पैसे को अपना भगवान समझते हैं मोह माया में फंसकर ज़हर को दवा कहकर धन दौलत बनाते हैं झूठ का इश्तिहार बन जाते हैं। खिलाड़ी नाम खेल से पाकर जुआ खेलने का रास्ता समझाते हैं। कलाकार खिलाड़ी बाबा बनकर लोग टीवी अखबार में धंधा बढ़ाते मालामाल हो जाते हैं। छोटे काम करते बड़े समझे जाते हैं। खबर ख़ास लोगों की सौ बार दोहराई जाती है उनकी सच्चाई नहीं सामने लाई जाती है। आवारगी उन लोगों की सच्ची मुहब्बत बताई जाती है। कितने कितने आशिक़ों से प्यार की पींगें झूलने वाली नायिका मल्लिका ए इश्क़ कहलाती है। शराफत खुद को गुनहगार समझती मगर गुनाह देख इनके ताली बजाती है।

हर गुनहगार से इनका मधुर नाता है आतंकवादी अपराधी क़ातिल हर कोई इनसे रिश्ता निभाता है। पास इनके सभी का बही खाता है बस इनका दाग़दार चेहरा कभी नहीं सामने नज़र आता है। मेकअप उनको सबसे खूबसूरत दिखलाता है। जो भी  टीवी चैनल अख़बार सोशल मीडिया का कारोबार चलाता है हर किसी को खराब बताकर खुद को सच्चा बतलाता है पर्दे पर नायक बनकर किरदार निभाता है। पीछे से सभी को अपनी उंगलियों पर नचाता  है। ये बंदर की तरह जनता का रक्षक बनकर उस्तरा उसी की गर्दन पर चलाता है। जनता की रोटी बिल्लियों में बांटने को ये सोशल मीडिया वाला बंदर तराज़ू बनकर खुद खाता जाता है। चौकीदार हुआ करता था पहले आजकल यारी चोरों से खूब निभाता है। सबसे बड़ा चोर यही है चोर - चोर का शोर भी मचाता है।

 

वो जो कहते थे हमको कि सच बोलिये ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

         वो जो कहते थे हमको कि सच बोलिये ( ग़ज़ल ) 

                           डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

वो जो कहते थे हमको कि सच बोलिये 
झूठ के साथ वो लोग खुद हो लिये । 
 
देखा कुछ ऐसा आगाज़ जो इश्क़ का 
सोच कर उसका अंजाम हम रो लिये । 
 
हम तो डर ही गये , मर गये सब के सब 
आप ज़िंदा तो हैं , अपने लब खोलिये । 
 
घर से बेघर हुए आप क्यों इस तरह 
राज़ आखिर है क्या ? क्या हुआ बोलिये । 
 
जुर्म उनके कभी भी न साबित हुए 
दाग़ जितने लगे इस तरह धो लिये । 
 
धर्म का नाम बदनाम होने लगा 
हर जगह इस कदर ज़हर मत घोलिये ।
 
महफ़िलें आप की , और "तनहा" हैं हम 
यूं न पलड़े में हल्का हमें तोलिये । 
 

 

अप्रैल 01, 2021

ये कैसे समझदार होने लगे सब ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ये कैसे समझदार होने लगे सब ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ये कैसे समझदार  होने लगे सब
दिया छोड़ हंसना  हैं  रोने लगे सब ।

तिजारत समझ कर मुहब्बत हैं करते 
जो था पास उसको भी खोने लगे सब ।

किसी को किसी का भरोसा कहां है
यहां नाख़ुदा बन डुबोने लगे सब ।

सुनानी थी जिनको भी हमने कहानी 
शुरुआत होते ही सोने लगे सब ।

खुले आस्मां के चमकते सितारे 
नई दुल्हनों के बिछौने लगे सब ।

जिन्होंने हमेशा किए ज़ुल्म सब पर
मिला दर्द पलकें भिगोने लगे सब ।

ज़माने से "तनहा" शिकायत नहीं है
थे अपने मगर गैर होने लगे सब ।