अगस्त 04, 2019

दोस्ती से दुश्मनी प्यार से नफरत तक ( फेसबुक से व्हाट्सएप्प तक ) डॉ लोक सेतिया

दोस्ती से दुश्मनी प्यार से नफरत तक ( फेसबुक से व्हाट्सएप्प तक ) 

                               डॉ लोक सेतिया 

 करीब सात साल का अनुभव है सोशल मीडिया पर इत्तेफ़ाक़ से नहीं अनजाने से शामिल हो गया था। कंप्यूटर पर लिखने की आदत शुरू की थी पता नहीं कब कैसे सामने ऑप्शन आया फेसबुक का और नासमझी में क्लिक करते करते फेसबुक में शामिल हो गया। समझ नहीं था क्या बला है कुछ भी नहीं जानता था बस नोटिफ़िकेशन मिलते रिक्वेस्ट भेजी किसी ने। याद नहीं था पासवर्ड भी और कैसे उपयोग करते हैं ये भी। मुझे कोई बात नहीं मालूम हो तो समझने या पूछने में संकोच नहीं किया करता और किसी ने बताया दोस्त बनाते हैं दोस्ती की बात है अपने विचार सांझा करते हैं। बचपन से दोस्ती की या यूं कहना उचित है किसी एक सच्चे दोस्त की तलाश थी , पागलपन या ख्वाब रहा है कहीं कोई है कभी न कभी मिलेगा। उसी चाहत से मुझे फेसबुक अकाउंट बनाने का विचार आया और फिर नई फेसबुक बनाई। अच्छी खराब कई बातें हुईं और कभी मोहभंग होने पर छोड़ दिया कभी दोबारा फिर वापस चला आया , नशा नहीं है मगर इक ज़रूरत बन गई। ब्लॉग से रचनाएं शेयर करने की आदत बनती चली गई। दोस्त बनाता रहा हटाता भी बहुत जल्दी था जब कुछ बातें जो मंज़ूर नहीं थी कोई आपत्तिजनक आचरण करता तब नहीं सहन होता था। खैर हर जगह कुछ पसंद कुछ नापसंद की बात होती रहती हैं धीरे धीरे अपना लिया था मगर आज सोच रहा हूं जब इस तथाकथित सामाजिकता की बस्ती में आया था तब से अभी तक कितना बदलाव हुआ है इस में। 

      आज साफ कहूं तो घबराहट होती है बेचैनी होती है डर सा लगता है ये देख कर कि फेसबुक व्हाट्सएप्प पर दोस्ती की नहीं दुश्मनी की मुहब्बत की नहीं नफरत की बात दिखाई देती है। जाने कैसी उल्टी पढ़ाई पढ़ रहे हैं कि लोग या तो किसी की चाटुकारिता करते हैं या फिर नफरत फैलाने का काम करते हैं। मुझे बड़ी हैरानी होती है अच्छी पढ़ाई लिखाई अच्छे व्यवसाय में शामिल देखने में बेहद शालीन लगने वाले सभ्य कहलाने वाले लोग अपने भीतर दिमाग़ में कितना ज़हर पाले हुए हैं। मज़हब के नाम पर धर्म को समझे जाने बिना धर्म के ठेकेदार बनकर देश को समाज को विभाजित करने की बातें करते हैं मगर समझते हैं देश समाज से प्यार करते हैं। खुद गुमराह हैं औरों को भी गुमराह करने का काम करते हैं। भटके हुए लोग दावा करते हैं मार्गदर्शन करते हैं। 

               सोशल मीडिया का वास्तविक मकसद था सामाजिकता की बात करना आपसी मेल मिलाप बढ़ाना विचारों का आदान प्रदान करना जानकारी हासिल करना। मगर तमाम लोगों ने इसका उपयोग ठीक बंदर के हाथ उस्तरा होने की तरह किया है। कोई सोचता समझता नहीं इस से किसी पर कैसा असर पड़ेगा , अफवाह और अधकचरी गलत जानकारी को सच समझना और झूठ सच को परखे बिना यकीन ही नहीं करना बल्कि औरों को भी अपनी मर्ज़ी की व्याख्या समझने को विवश करना जैसे बातें होने लगी हैं। हैरानी की बात है टीवी चैनल वालों को ये भी चर्चा का बढ़ावा देने का सनसनी पैदा करने टीआरपी बढ़ाने का माध्यम लगा जो हर कोई विशेष नाम से किसी सोशल मीडिया के वीडियो की वास्तविकता असली नकली साबित करने को जासूसी उपन्यास की तरह कौतूहल पैदा करने की बात करता है और हम उसे मनोरंजन समझते हैं जो वास्तव में हमारी सोच को कुंद करने का काम करता है। राजनीतिक दलों ने चुनावी गणित साधने को जितना गलत इस्तेमाल सोशल मीडिया का किया है उसे निजता का हनन और अभिव्यक्ति के अधिकार का दुरुपयोग अपने स्वार्थ की खातिर किया है। अख़बार में या किसी किताब में लिखी बात की सत्यता को परखा जा सकता है मगर सोशल मीडिया पर कौन क्या झूठ गलत जानकारी देकर आपसी भाईचारा खराब कर तनाव पैदा करने का अनैतिक आचरण करता है कोई परखता नहीं और विश्वास करते हैं इस तरह से पेश किया जाता है। 

देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए अनुचित है कि राजनैतिक दल जनता से संवाद करने को आमने सामने मिलने की जगह एकतरफा अपना पक्ष थोपने का काम करने लगे हैं। असंवैधानिक है ये बहस सोशल मीडिया पर करवाना किसको जीत हार वोट देने का विषय पोस्ट पर करना किसी का समर्थन या विरोध करने को। क्यों अनावश्यक आपत्तिजनक ढंग से जनमत को अपनी साहूलियत से बदलने की कोशिश करनी चाहिए। हद है अब राजनैतिक दल सोशल मीडिया का माहौल अपने पक्ष में बनाने को झूठी लाखों फेसबुक या कुछ लोगों को फोन और पैसे देकर व्हाट्सएप्प  पर उनकी महिमा के संदेश भेजने का फरेब करते हैं और उनको भरोसा है चुनाव इस तरह से लड़ा और जीता जा सकता है।


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