जुलाई 25, 2015

है तो बहुत कुछ और भी बताने को , हो अगर फुर्सत कभी ज़माने को ( आलेख ) - डॉ लोक सेतिया

 है तो बहुत कुछ और भी बताने को  हो अगर फुर्सत ज़माने  को 

                             ( आलेख )   डॉ लोक सेतिया                    

     कभी कभी सोचता हूं क्या अच्छा होता है , खुश रहना , मौज मस्ती करना , मुझे क्या हर बुराई को देख यही सोचना या फिर उदास होना देख कर कि देश समाज कितना झूठा कितना दोगला और कितना संवेदनाहीन हो चुका है। कोई सत्येंदर दुबे मार दिया जाता है भ्र्ष्टाचार के बारे पत्र लिखने के बाद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी को , क्योंकि वो पत्र लीक हो जाता है देश के प्रधानमंत्री कार्यालय से। नहीं ये अकेली घटना नहीं है , ये हर दिन होता है। हज़ारों पत्र लिखे जाते हैं मुख्यमंत्रियों को अधिकारियों को जो रद्दी की टोकरी में फैंक दिये जाते हैं। हमारा समाज देखता तक नहीं उनको जो चाहते हैं बंद हो ये सब , कोई दुष्यंत कुमार अपनी बात ग़ज़ल में बयां करता है तो कोई दूसरा लिखने वाला व्यंग्य या कहानी में। सोचता है कोई , समझता है कोई। हां जब कोई शोर मचाता है लोकपाल के लिये आंदोलन का या कुछ भी बताकर और खबरों में छा जाता है हम उसको मसीहा मान लेते हैं। हम क्यों देखें कि इनमें कौन क्या है , इक वो है जो आयकर विभाग से वेतन लेकर विदेश पढ़ने को जाता है मगर वापस आकर नियमों का पालन नहीं करता कि अब उसको दो साल विभाग को अपनी सेवायें अनिवार्य रूप से देनी हैं। इतना ही नहीं वो विभाग से लिया क़र्ज़ भी तब तक लौटने को तैयार नहीं होता जब तक चुनाव लड़ने को ऐसा करने को मज़बूर नहीं होता। क्या यही ईमानदार है , या फिर इनका दूसरा साथी जो कहने को शिक्षक है , वेतन पढ़ाने का पाता रहता है मगर काम कोई और ही करता है मीडिया में जुड़कर। ये सब अवसरवादी लोग सत्ता हासिल करते ही उन्हीं के जैसे हो जाते जिनको कोसते थे पानी पी पी कर। अब उनको एक ही काम ज़रूरी लगता है विज्ञापनों द्वारा खुद को महिमामंडित करना।

             चलो उनको छोड़ औरों की बात करते हैं , पिछली सरकार ने हर विधायक को मंत्री-मुख्य संसदीय सचिव बना रखा था , उसका विरोध करने वाले अब खुद वही कर रहे हैं। हरियाणा में जो पहली बार विधायक बने उनको भी कुर्सी मिल गई , किसलिये ? क्या प्रशसनिक ज़रूरत को , कदापि नहीं , ताकि वो भी अपना घर भर सकें। और मोदी जी क्या करना चाहते हैं , किन लोगों की चिंता है ? देश की इक तिहाई जनता जो भूखी रहती है आपको उसकी ज़रा भी चिंता है , लगता तो नहीं।  किसानों की बात भी ज़रूरी है , मगर मोदी जी मिलते हैं अमिताभ बच्चन जी जैसे किसानों से , कोई गांव का किसान भला मिल सकता किसी ज़िले के अफ्सर से भी , मंत्री की बात तो छोड़ो।  मिल कर भी क्या होगा , ये सत्ता पर काबिज़ होते ही भीख देना चाहते हैं उनको जो वास्तव में देश की मालिक है जनता। मोदी जी तो इक कदम आगे बढ़कर अब सब्सिडी को छोड़ने को कहते हैं ये वादा कर कि किसी और को देंगे। ये नेता और इनके वादे , प्रचार पर पैसा बर्बाद करने वाले क्या जानता ये पैसा जिनका है वो भूख से मर रहे हैं , ख़ुदकुशी करने वाले किसानों को मोदी जी के मंत्री नपुंसक और असफल प्रेमी बताते हैं निर्लज्जता पूर्वक।  शर्म करो। बात आम आदमी पार्टी की हो या भाजपा की , जो कांग्रेस किया करती थी अपनों के अपकर्मों पर खामोश रहना वही ये भी करते हैं। किसी शायर का इक शेर याद आया है :-
                 " तो इस तलाश का अंजाम भी वही निकला ,
                   मैं देवता जिसे समझा था आदमी निकला। "

                  चलो इक और बात की जाये , बेटी बचाओ की बात , बेटी के साथ सेल्फ़ी की बात , अखबार भरे पड़े हैं तस्वीरों से , मुस्कुराती हुई।  वो जो कचरा बीनती फिरती हैं , कौन हैं ? वो जो घर घर सफाई बर्तन साफ करने का काम करती वो कौन हैं , इक सेल्फ़ी भी उनकी नहीं जिनके हिस्से कुछ भी नहीं है।  चलो छोड़ो उनका भाग्य ऐसा मानकर , मगर जिनकी सेल्फ़ी देख रहे हैं उनको क्या सब अधिकार मिलेंगे।  ये पूछना उस पिता से क्या उसको बेटे के बराबर सम्पति में हिस्सा दोगे ?

                सरकार बदलती है , तरीका नहीं बदलता , दिखाने को खिलाड़ियों को करोड़ों के ईनाम , असल में बच्चों को खेलने देने को समय नहीं न ही सुविधा। हरियाणा में किसी खिलाड़ी को स्कूल बनाने को ज़मीन , किसी को नौकरी भी पुरूस्कार भी। जब वक़्त आता देश के लिये पदक लाने का तब बिक जाते हैं खिलाड़ी बाज़ार में महंगे दाम पर। अब अदालत ने पूछा है हरियाणा सरकार से वो क्या कर रही थी जब सरकारी नौकरी पर नियुक्त खिलाड़ी विज्ञापन कर रहा था बिना अनुमति प्राप्त किये। लो इक नई खबर , वही पुराना तरीका , हरियाणा में अपने ही वरिष्ठ मंत्री , नेता को उन्हीं के विभाग के कर्यक्रम में नहीं बुलाना या समझ लो ऐसे बुलाना जैसे न आने को , फिर उसकी जासूसी करते सी आई डी वाले।  क्या डर है इनको , अगर सच ईमानदारी से देश सेवा करनी तो कोई आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। पर्दादारी की ज़रूरत तभी होती है जब राज़ होते हैं छुपाने को। 

 

जुलाई 12, 2015

आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली की दशा कैसी ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

      आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली की दशा कैसी ( आलेख ) 

                             डॉ लोक सेतिया

    कभी लगता है की जैसे सच में हमारी आयुर्वेदिक पद्धति फिर इक बार लोकप्रिय हो रही है , जबकि ये सही नहीं है। आयुर्वेद के नाम पर कुछ लोग दवाओं का कारोबार ज़रूर कर रहे हैं और खूब मुनाफा कमा रहे हैं , लेकिन वास्तव में वो आयुर्वेद का कोई भला नहीं कर रहे , उसका दुरूपयोग ही कर रहे हैं ! वे लोगों को रोगमुक्त करने को कोई दवा नहीं बना रहे , बनाते हैं कुछ दवायें जिनसे उनको मनचाहा मुनाफा मिल सके ! जैसे सुंदरता बढ़ाने का दावा करने वाली क्रीम या मोटापा दूर करने वाली दवायें ! यौवनशक्ति वर्धक दवायें या कोई लंबे बाल करने और गंजापन दूर करने की दवा ! यहां मुझे ये सवाल नहीं पूछना की वो कितनी कारगर हैं या मात्र धोखा हैं ! जो सवाल करना है वो उनसे भी और खुद अपने आप से भी करना है , वो ये कि क्या हम जानते हैं आयुर्वेदिक पद्धति का अभिप्राय क्या है ! ये पैसा बनाने का कोई कारोबार नहीं है , ये वो मानव कल्याण का मार्ग है जिसमें विश्व में सभी के स्वास्थ्य की कामना की गई है !आप आयुर्वेदिक दवाओं को मात्र कोई उत्पाद समझ नहीं बना और बेच सकते अपने लाभ के लिये ! आजकल जैसे आयुर्वेदिक दवाओं को विज्ञापन द्वारा प्रचार से या कुछ लोग अपनी शोहरत का उपयोग कर शहर-शहर फ्रैंचाइज़ी बेच कर रहे वो तो इक छल है आयुर्वेद के साथ। वास्तव में किसी भी पद्धति में ऐसे उपचार नहीं किया जा सकता न ही किया जाने दिया जा सकता है। ये तो लोगों के जीवन से खिलवाड़ करना है जिसको प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता , लेकिन खेद की बात है स्वास्थ्य विभाग ऐसा होते देख कोई कदम नहीं उठा रहा , खामोश रह सब होने दे रहा है।
 ये धारणा गल्त है कि हर दूसरा आदमी आयुर्वेदिक जानकार हो सकता है , अख़बार में विज्ञापन देकर या टीवी चैनेल पर रोगों का निदान और उपचार बताना अनुचित ही नहीं कानून के अनुसार भी अपराध है , और चिकत्सा क्षेत्र से तो धोखा करना है ही। पद्धति जो भी हो सब से महत्वपूर्ण होता है इक योग्य चिकित्स्क का होना जिसने ज्ञान , शिक्षा और प्रशिक्षण प्राप्त किया हो अर्थात क्वालिफाइड हो। सही निदान वही कर सकता है और निर्धारित करता है किसको क्या दवा दी जानी चाहिए।

                आपको आयुर्वेदिक ईलाज उसी चिकित्स्क से ही करवाना चाहिये , एलोपैथी हो , होमियोपैथी चाहे आयुर्वेदिक प्रणाली सभी में स्नातक कोर्स होते हैं , जिसमेंचिकित्सा के बहुत सारे विषय पढ़ाये जाते हैं , आयुर्वेद हज़ारों साल पुरानी प्रणाली है मगर यहां भी , द्रव्य-गुण , रोग-निदान , काया-चिकित्सा , शल्य-चिकित्सा , बाल-रोग , इस्त्री रोग जैसे तमाम विषय हैं पढ़ने को ! मगर आज भी लोग एक चिकित्स्क में और नीम हकीम में भेद करना नहीं जानते , तभी किसी से भी अपने स्वास्थ्य के बारे राय ले लिया करते हैं। अस्पताल में काम करने वाला हर कर्मचारी चिकित्सक नहीं हो सकता , बेशक वो इक अंग है जो सहायक है चिकित्स्या करने में। दवा बेचने वाला केमिस्ट जब आपको अधकचरी जानकारी से किसी रोग पर सुझाव देता है तो उसको भले थोड़े धन का लोभ हो वो आपके स्वास्थ्य से खिलवाड़ ही करता है। मगर आप हैं कि कम्पाउंडर या नर्स तो क्या वार्ड में रख-रखाव को नियुक्त व्यक्ति को भी अपना सलाहकार बना लेते हैं। कभी सोचा है खुद अपनी जान को कितना सस्ता समझ लिया है हमने। कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि देसी दवा कोई भी बता सकता है , जो सही नहीं है। आपको नहीं मालूम आयुर्वेदिक प्रणाली को विकसित होने में हज़ारों वर्ष लगे हैं , आधुनिक प्रणाली में लैब में कुछ ही दिन में परीक्षण किया जाता है जबकि आयुर्वेद की दवायें अपने समय में चिकिस्क बहुत जोखिम उठा कर खुद पर परीक्षण करते रहे हैं। आपको हैरानी होगी कि वो जांच वो परीक्षण इतने सत्य थे कि हज़ारों साल पहले जो लिखा हुआ चरक-सुश्रुत में वो आज भी सही साबित होती हैं , जबकि आज जो बात आधुनिक लैब जांच के बाद डॉक्टर्स बताते हैं कुछ वर्ष बाद गल्त साबित होती रही हैं। कितनी दवायें सालों देते रहने के बाद प्रतबंधित की जाती रही हैं।

           आयुर्वेद कोई अवैज्ञानिक प्रणाली नहीं है , आपको मालूम है मोतिया बिंद ( कैटरेक्ट ) का जो ऑपरेशन किया जाता है वो कैसे संभव हुआ होगा , ये जानकारी भी आयुर्वेद के ग्रंथों की देन है। आज आयुर्वेद की दशा भी ईश्वर जैसी है , सब जगह लोगों ने आस्था को अपना कारोबार बना लिया है। आयुर्वेदिक दवायें बनाने वाली कम्पनियों ने भी , पंडित-मौलवी , धर्म-गुरु की तरह इसको मुनाफा कमाने को इस्तेमाल किया है फ़र्ज़ को दरकिनार कर के। उनका उदेश्य रोगों की दवायें बनाना नहीं है , उनको ऐसी दवायें बनानी हैं जो प्रचार से बेच कर तगड़ा मुनाफा कमाया जा सके। ये आयुर्वेद के साथ धोखा है , विश्वासघात है , छल है। वो ऐसी दवायें बेच करोड़पति बन गये मगर आयुर्वेद की प्रतिष्ठा को दांव पर लगाकर। मीडिया का दखल हर जगह बढ़ गया है , सही गल्त की पहचान करना और सभी को जानकारी देना उचित है , मगर बिना विषय की जानकारी भी खुद को निर्णायक समझने की मानसिकता ने उसको मार्ग से भटका दिया है। जब अख़बार टीवी पत्रिका वाले बताने लगें कि इस रोग की ये दवा है तब वो चिकित्सा नहीं आपके जीवन से खिलवाड़ है। मगर ऐसा काम खुले आम हो रहा है जो आयुर्वेद और जनता दोनों के लिये हानिकारक है। सरकार केंद्र की हो चाहे राज्यों की सभी ने जनता के स्वास्थ्य से किया जाने वाला ये अपराध होने दिया है। आयुर्वेद के साथ तो सौतेला व्यवहार किया जाता रहा है , सरकार के बजट का मात्र तीन प्रतिशत बाकी सब चिकिस्या पद्धति को और सत्तानवे प्रतिशत एलोपैथी को आबंटित किया जाता है। ऐसे में आयुर्वेद को बढ़ावा देने की बातें और आश्वासन कोरे झूठ हैं। मुझे इक पत्रिका ने कुछ साल पहले इक पत्र लिखा था जिसमें लिखा हुआ था कि आजकल लोग आयुर्वेद की ओर आकर्षित हैं और चाहते हैं आयुर्वेदिक ईलाज कराना , संपादक जी चाहते थे कि मैं आयुर्वेद का स्नातक होने के कारण उनकी पत्रिका के लिये इक कॉलम लिखूं लोगों को रोगों की दवायें बताऊं। वो गल्त नहीं कह रहे थे कि ऐसा करने से मुझे भी नाम मिलेगा और दूर-दूर तक पहचान भी। मगर मुझे आयुर्वेदिक चिकिस्या प्रणाली का दुरूपयोग अपने लाभ के लिये करना अनुचित लगा था और मैंने इनकार कर दिया था।मैंने उनको जवाब भेजा था कि मेरे विचार से ऐसे रोगों का सही उपचार नहीं किया जा सकता , हां अगर आप चाहें तो मैं पाठकों को कुछ लेख द्वारा जागरुक कर सकता हूं ताकि उनको जानकारी हो कि ज़रूरत पड़ने पर कैसे अपना चिकित्स्क और प्रणाली का चयन करना चाहिये। खान-पान , रहन-सहन , आचार-व्यवहार में क्या बदलाव कर स्वस्थ जीवन बिता सकते हैं। ये भी कि जानकारी दी जा सकती है कि कब किस डॉक्टर के पास जाना चाहिये , लोगों को समझाया जाना चाहिये कि छोटा-बड़ा अस्पताल या डॉक्टर नहीं होता है , देखना ये है कि कब आपको किसकी आवश्यकता है। हर वह डॉक्टर अच्छा नहीं हो सकता जिसके पास भीड़ लगी हो या जिसका नाम प्रचार बहुत सुना हो , सही ईलाज के लिये ऐसा डॉक्टर होना चाहिये जो आपकी सही जांच , और आपकी समस्या को ध्यान पूर्वक सुनने को समय दे सकता हो। इक सच आपको नहीं मालूम होगा कि जिनके पास बहुत अधिक भीड़ होती है उनको अपने डायग्नोसिस पर नहीं दवाओं पर ऐतबार होता है और वे आपको कितनी ही ऐसी दवायें लिख देते हैं जिनकी ज़रूरत नहीं होती अगर उनके पास रोग को समझने और निदान करने को समय या फुर्सत होती। सही इलाज के लिये सब से ज़रूरी है चिकत्स्क की योग्यता , अनुभव और अपने काम के प्रति उचित दृष्टिकोण। मगर उन संपादक जी को मेरा सुझाव नहीं पसंद आया था , क्योंकि उनको अपने पाठकों को प्रसन्न करना था जागरूक नहीं।

               मुझे ये स्वीकार करने में बिल्कुल संकोच नहीं है कि आयुर्वेद को खुद आयुर्वेदिक प्रणाली के शिक्षित लोगों ने भी दगा दी है। कई आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज में जहां मिश्रित प्रणाली की शिक्षा दी जाती है , छात्रों को एलोपैथी और आयुर्वेदिक दोनों का ज्ञान वा जानकारी दी जाती है , वहां भी अधिक ज़ोर आधुनिक प्रणाली पर दिया जाता है। हम अपने मरीज़ों को ये नहीं समझाना चाहते कि आयुर्वेदिक दवायें अधिक सुरक्षित हैं जबकि अंग्रेजी दवाओं के दुष्प्रभाव बहुत अधिक होते हैं। कितनी बार ऐसी दवायें रोग को खत्म नहीं करती , केवल लक्षणों को मिटाती हैं। यहां किसी प्रणाली को कमतर नहीं बताया जा रहा , बेशक एलोपैथी में नये अविष्कार और अनुसंधान से कितनी जटिल समस्याओं का हल मिला है शल्य-चिकिस्या द्वारा या बहुत सारी नई दवाओं से। ज़रूरत है सभी तरह की चिकित्सा को मिल कर अपना दायित्व निभाने की , सभी को स्वास्थ्य रहने में सहयोगी होने की। इक बात समझनी होगी कि सवासौ करोड़ की आबादी वाला देश बिना अपनी देसी चिकित्सा प्रणाली को महत्व दिये सभी को स्वस्थ रखने का मकसद हासिल नहीं कर सकता।

            शायद आपको मालूम होगा कि आज भी कितने ही रोगों की आधुनिक प्रणाली में कोई दवा नहीं है। एलोपैथिक डॉक्टर भी उनके लिये आयुर्वेदिक दवायें ही लिखते हैं , पीलिया , बवासीर , पत्थरी होना , पौरुष ग्रंथि का रोग , शुक्राणुओं की कमी , महिलाओं की समस्याओं का ईलाज आयुर्वेदिक दवाओं से ही किया जाता है। इक अपराध आयुर्वेद और अन्य सभी देसी प्रणाली के चिकित्स्क करते रहे हैं , अपनी जानकारी को गोपनीय बना पीड़ी दर पीड़ी अपने पास रखना , मानव कल्याण को भुला कर। हां इक अहम बात , ये मान लेना कि केवल नाड़ी देख कर सभी रोगों का पता चल सकता है , कदापि सही नहीं है , पल्स देखना एक हिस्सा मात्र है रोगी की जांच का। अब इक चौंकाने वाली डब्लू एच ओ की रिपोर्ट , कई साल पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी थी कि भारत में ज़रूरत से पांच गुणा अधिक दवायें इस्तेमाल की जा रही हैं और वो भी अधिकतर शहरी इलाके में , गांवों तक नहीं पहुंचती वो दवायें। इक कटु सत्य ये भी कि अस्पतालों-नर्सिंगहोम्स की बढ़ती संख्या के साथ रोग और रोगी कम नहीं हो रहे अपितु अधिक बढ़ रहे हैं , ये गंभीर चिंता की बात है। हमारे यहां भेड़ चाल की बुरी आदत है , हर चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती , ये जानते हुए भी चमक-दमक और प्रचार से प्रभावित हो कुछ भी अपना लेते हैं।

      मुझे लगा फेसबुक पर केवल खुद की अपने मतलब की बात को छोड़ , इक सार्थक काम किया जाये , सोशल मीडिया पर सभी को आयुर्वेद और स्वास्थ्य संबंधी जानकारी और जहां संभव हो राय भी दी जाये।
मगर यहां भी लोग सोचते अपनी गंभीर समस्या को घर बैठे हल कर लें , जो हो नहीं सकता। ज़रा इक बात सोचना , जब आप जाते किसी डॉक्टर के पास तब क्या वो कोई एक दवा ही लिखता है ? नहीं , उसको पूरा इक नुस्खा लिखना पड़ता है आपकी समस्या को समझ कर। तब कोई एक दवा किसी भी इक रोग का पूरा उपचार कैसे हो सकती है। बेशक कुछ समस्याओं का समाधान हो सकता है उन पुराने तजुर्बों से , मगर हर बिमारी का ईलाज बिना चिकित्स्क को मिले नहीं हो सकता। आसानी कभी कठिनाई बन सकती है , याद रखना।

( आपने ये लेख पढ़ा , अपनी राय देना , और अच्छा लगा हो तो औरों को भी बताना।  नेक काम होगा )