दीवाली तक ही मौका है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
जनाब के तेवर देख कर साफ़ लग रहा था अब भ्र्ष्टाचार की खैर नहीं , अपन को किसी से दोस्ती नहीं भाई अपन को किसी से बैर नहीं । भ्र्ष्टाचार भी अपना ही है , कोई भी तो गैर नहीं , ये इक कांटों भरा जंगल है कोई गुलशन की सैर नहीं । चलो आपको पहले इसकी पुरातन महिमा सुनाते हैं , लेन देन को लोग असली प्यार बताते हैं । सदियों पहले जब अंग्रेजी हुक़ूमत थी सरकार जनाब से मिलने को चपरासी को इक बीड़ी पिलाई थी चिंगारी सुलगाई कभी नहीं बुझ पाई थी , अगली बार देश आज़ाद हुआ बड़े बाबू की बारी आई थी उनको इक चाय पिलवाई थी दूर हुई कठिनाई थी । भगवान भ्र्ष्टाचार भाईचारा तीनों की कुंडली एक है बात की गहराई जिस को समझ आई थी उसने अपनी डूबती नैया पार लगाई थी । नये नये मंत्री बने नेता ने दीवाली तक की अवधि बताई थी समझने वालों को स्कीम नव वर्ष तक बढ़ेगी आगे भी बढ़ती रहेगी भविष्वाणी नज़र आई थी । आखिर इक ख़ास अधिकारी ने उनसे मतलब पूछा था कल तक आपके दल ने घोषणापत्र में ईमानदारी की मिसाल कायम की है ये प्रचार चलाया था आपने अपनी ही पिछली सरकार में पैसे का खेल चलता रहा कह कर इक तमाचा लगाया है , कुछ भी समझ नहीं आया है । पैसे नहीं मांगने की बात सही है , मगर मांगना क्या है विकल्प नहीं बतलाया है । बिन मांगे आजकल मोती नहीं मिलते सच है बच्चा रोता है तभी मां दूध पिलाती है सरकार भी जो जितनी झोली फैलाये उसको उतनी खैरात बंटवाती है ।
आपका आभार इक अगला सबक पढ़ाया है लेकिन आधा अधूरा है पाठ क्यों दुनिया को भरमाया है , झूठी मोह माया है सब फिर कैसा जाल गया बिछाया है । कभी राजनेताओं का सरकारों का ख़ाली पेट नहीं भरता है जिसने भी बजट बनाया है जनता को बहलाया है खाया भी खिलाया भी और हर दिन उड़ाया है हर दिन सभाओं में पैसा पानी की तरह गया बहाया है । अधिकारी कर्मचारी और शासक मिलकर गंगा में डुबकी लगाते हैं कुछ को मिलती सीपियां हैं कुछ मोती पाकर इतराते हैं । घोटालों की क्या बात है हर किसी का इक प्याला है इस देश में जनता का बस इक वही ऊपरवाला है । सत्ता का दस्तूर निराला है जो गोरा है वही काला है खेल यही मतवाला है किस किस ने किसको पाला है हर मुंह में कोई निवाला है भिखारी सारी दुनिया है दाता इक राम है ये बात बड़ी आसान है काम का होता दाम है । बिना दाम कोई नहीं करता काम है सबको भाता विश्राम है । रिश्वत का नाम बड़ा बदनाम है ये तो इक महादान है करता सबका कल्याण है । आपने गज़ब फ़रमाया है त्यौहार का उपहार बंटवाया है इस तरह से नित नई योजनाओं ने जनता को ठगा उल्लू बनाया है ।
कुछ लोग हर रोज़ शहर में अपनी सत्ता की लाठी चलाते हैं , पुलिस वाले नगरपरिषद वाले से बड़े अधिकारी तक सब्ज़ी फल से ज़रूरत का सामान तक चपरासी भेज मंगवाते हैं । पैसे नहीं मांगते बस मुफ़्त का माल खाकर गुज़ारा चलाते हैं इसको घूस नहीं मानते रिश्ते निभाते हैं जब कोई कानून अड़चन हो काम आते हैं पकड़े जाने पर बचाते है । ये परंपरा है भूखों को जो खिलाते हैं पुण्य कमाते हैं आपको इक सच्ची घटना बताते हैं । इक व्यौपारी पर हिसाब किताब में हेराफेरी ढूंढने को छापा पड़ा कोई गलती हिसाब किताब में नहीं पकड़ी गई तो अधिकारी ने कहा सेठ जी आपका बही खाता सही है पर सुबह से कुछ नहीं खाया जाने से पहले कुछ खाना मंगवा दो । मुनीम जी होटल से खाना खरीद कर लाये सभी खा कर खुश हुए तब मुनीम जी ने पूछा सेठ जी ये खर्च किस पर हुआ बही में लिखना है , सेठ जी ने कहा लिख देना इतने पैसे की रोटी भूखे कुत्तों को खिलाई है सुन कर असलियत समझ आई यही होती है चतुराई । भैंस अपनी हुई पराई सरकारी लोग खुद को समझते हैं घर जंवाई उनको चाहिए दूध मलाई छाछ जनता की ख़ातिर है बचाई । आपको किसने रोका है ईमानदारी की बात सबसे बड़ा धोखा है दीवाली तक का अभी मौका है उस के बाद चौका है कैच नहीं होगा दावा है नो बॉल है भ्र्ष्टाचार ख़त्म कभी नहीं होगा बस बाल की खाल की मिसाल है । ये चलन बख़्शीश देने से शुरू हुआ था अब छीनने तक पहुंचा है भ्र्ष्टाचार विकास कहलाता है जो देता है वही पाता है आधुनिक भाग्य विधाता है कौन ऐसा करते शर्माता है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें