खोखले लोगों का धर्म ( आलेख ) डा लोक सेतिया
कभी कभी हैरानी होती है कि क्या लोग सच में नहीं देख पाते कि जहां वो धर्म या समाजसेवा की बात समझ कर जाते हैं वहां न तो धर्म ही होता है न ही कोई सच्ची समाज सेवा ही। जो हो रहा होता है वो इक छल होता है , धोखा होता है , आडंबर होता है , दुनिया को दिखाने को इक तमाशा होता है। कोई संत बन स्वर्ग को बेच रहा है ,कोई आपको सारे पापों की सज़ा से बचाने का प्रलोभन देता है उसको गुरु बनाने पर , कोई अपने इस कारोबार में आपको भी शामिल कर लेता है। अधर्म को धर्म का नाम दिया जा रहा है , ऐसा धर्म किसी का कल्याण नहीं कर सकता। इस से बेहतर है आप किसी धर्म को न मानें , कोई गुरु न बनायें , किसी ईश्वर किसी देवी देवता की उपासना न करें। बल्कि इस से नास्तिक होना लाख दर्जा बेहतर होगा। ये बात कि कोई गुरु होना ही चाहिये या किसी न किसी धर्म का मानना ही चाहिये उन्हीं लोगों ने कही और सब जगह दोहराई जिनको ऐसा करने से कुछ हासिल करना था। कभी निष्पक्ष होकर पढ़ना सभी तथाकथित धर्म ग्रंथों को और समझना वो आपको ज्ञान देना चाहते हैं या ऐसा चाहते हैं कि आप कुछ भी न सोचें न ही समझने का ही प्रयास करें कि सही क्या गल्त क्या है। धर्म वो जो आपके विवेक को जागृत करे ताकि आप अच्छे बुरे , पाप पुण्य , सच झूठ को पहचान सकें। मुझे तलाश है ऐसे धर्म की ऐसे गुरु की , नहीं नज़र आता कोई , मगर मुझे ज़रूरत भी नहीं है। मेरी अंतरात्मा मेरा गुरु है जो बताती है सब से बड़ा धर्म मानवधर्म है। ईश्वर है या नहीं है मुझे इस से कोई फर्क नहीं पड़ता , न ही इस से कि कोई अगला या पिछला जन्म होता है या नहीं। हां जाता हूं मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे , देखता रहता क्या क्या होता धर्म के नाम पर वहां और सोचता जो सर्वशक्तिमान है क्या उसका बस नहीं चलता इन पर या वो भी अपने गुणगान से खुश होता है और अपने नाम पर ये सब होता देख कर भी अनदेखा करता है। नहीं ऐसा नहीं है भगवान को इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग उसको मानें या न मानें , उसकी अराधना अर्चना पूजा करें या न करें। उसको फर्क पड़ता होगा कि लोग उसके बनाये इंसानों से प्यार करते हैं या नहीं करते। जो जीवन में सभी से प्यार मुहब्बत से नहीं रहते , सद्कर्म नहीं करते , बिना स्वार्थ कुछ भी नहीं करते , अथवा अपने स्वार्थ के लिये सही गल्त सब कुछ करते हैं उनसे ईश्वर प्रसन्न नहीं हो सकता , ये सभी जानते हैं। फिर भी लोग जानकर अनजान क्यों बने हुए हैं , समझना होगा।ये जो लोगों की भीड़ दिखाई देती संतों , साधुओं , धर्मस्थलों पर उनका किसी धर्म से कोई सरोकार नहीं होता है। यहां लोग चाहते हैं किसी भी तरह कुछ पाना , कोई पहचान , कोई नाम , शोहरत , कोई रुतबा या समाज में वो कहलाना जो न तो हैं न ही बन सकते हैं। जब इनको अवसर मिलता है किसी भी तरह अपना नाम पहली कतार में लाने का तब ये उसको उपयोग करते हैं अपने मन की झूठी तसल्ली के लिये कि लोग मुझे ऐसा मानते हैं , वैसा होना कदापि नहीं चाहते। इक छल है खुद से , इसको धर्म नहीं कह सकते , धर्म क्या है ये जानना समझना कौन चाहता है। खुश हैं अमुक गुरु के अमुक कार्य में प्रचार में उनका भी नाम शामिल है , इक आयोजन है समाज सेवा के नाम पर अथवा धर्म प्रचार के नाम पर उसके निमंत्रण पत्र पर उनका भी नाम लिखा हुआ है सैंकड़ों और नामों में , कभी सोचा है क्या है ये। इक खोखलापन है , जो ये शोर हर तरफ होता दिखाई देता है उसका सच यही है। खाली ढोल बज रहा है , ढोल की पोल जब खुलती है तब पता चलता उसके भीतर तो कुछ भी नहीं था। क्या झूठ कहा मैंने , सोचना।
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