मई 12, 2017

सोशल मीडिया की दलदल में ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

      सोशल मीडिया की दलदल में ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

सोशल साइट्स की इधर धूम मची हुई है , हर कोई ट्विटर फेसबुक मेस्सेंजर व्हाट्सएप्प पर मग्न है। मुझे कभी कभी हैरानी होती है देख कर कि तमाम लोगों ने बिना सोचे समझे इनको अपनी ज़रूरत बना लिया है। इक अलग तरह का नशा छाया हुआ है , शायद अधिकतर लोग जानते तक नहीं इसकी उपयोगिकता कितनी है और क्या इनका इस्तेमाल कर कुछ सार्थक हासिल कर रहे हैं। मेरा विचार है अक्सर इन पर अपनी सब से कीमती चीज़ समय को हम बर्बाद करते हैं और बदले में मिलता है इक झूठा संतोष लोकप्रिय होने या जानकर होने का। शायद चार साल पहले अनजाने में ही मेरी पहली फेसबुक बन गई थी , बिना समझे जो सामने विकल्प आता रहा क्लिक करता गया और मुझे खबर भी नहीं हुई कि मैं फेसबुक पर शामिल किया जा चुका हूं। जब भी मेल खोलता सन्देश मिलता किसी ने मित्रता की रिक्वेस्ट भेजी है। ये क्या है नहीं मालूम था , फिर पता चला कि ये मित्रता की जगह है तो लगा ये तो बहुत अच्छी बात है। मित्रता मेरा दीन धर्म क्या जूनून है और मुझे उम्र भर किसी सच्चे दोस्त की तलाश रही है। इक आशा की किरण दिखाई दी कि शायद इस तरह ही सही कोई मुझे मिल जायेगा वास्तविक दोस्त। और मैं बहुत चुन चुन कर दोस्त बनाता गया , कुछ दोस्त बहुत अच्छे लगने लगे। विशेष कर जो साहित्य में लेखन में रूचि रखते थे वो लोग। मगर कुछ ही दिन में लगने लगा फेसबुक की मित्रता केवल इक संख्या मात्र है। वास्तविक जीवन में इसका कोई अर्थ ही नहीं है , कुछ निराश हुआ और बहुत बातें ऐसी भी नज़र आई जिन से इक डर सा लगने लगा। मित्रता की आड़ में अन्य मकसद पुरे करना चाहते थे अधिकतर लोग। बहुत समय लगता लिखने में फेसबुक पर मगर समझ आया किसी को पढ़ना नहीं न ही दोस्ती जैसी कोई बात ही करनी है। एक मिंट में जब लोग बीस पोस्ट्स पर लाइक्स करें तब समझने में कठिनाई नहीं हुई कि ये केवल दिखावे की झूठी दोस्ती है। और फिर मैंने इक दिन अपनी फेसबुक बंद ही कर दी। मगर कुछ दिन बाद इक दिन इक मित्र का फोन आया ये पूछने को कि मैं ठीक ठाक तो हूं। शायद पहली बार लगा कोई है जो मेरी तरह फेसबुक की मित्रता को भी मन से जुड़ कर समझता है निभाता है। उन महिला मित्र को मेरा मोबाइल नंबर अख़बार में छपी ग़ज़ल से मिला था , उनकी भावना और उनकी दोस्ती की सच्चाई ने मुझे दोबारा फेसबुक पर वापस आने को विवश किया।

            बहुत तरह के अनुभव होते रहे और मैं फेसबुक के मोहजाल में कभी फंसता रहा और कभी मोहभंग होता रहा। अतिभावुकता के कारण जल्द विचलित होता रहा और फेसबुक बदल कर दूसरी बनाता गया जाने क्या तलाश करना चाहता था। जिस वास्तविक दोस्त की चाहत है वो फेसबुक पर मिलना शायद सम्भव ही नहीं था। फिर बार बार मैंने कई प्रयोग किये कोई सार्थक कार्य करने को , कभी आयुर्वेदिक उपचार की निस्वार्थ सलाह तो कभी ग़ज़ल क्या है ये सबक सिखाने को पेज बनाना। धीरे धीरे समझ आया कि मैं जिस को सोशल साईट समझ कोई काम समाज और समाजिकता से सरोकार का करना चाहता हूं लोग वहां केवल अपना मन बहलाने अपने अकेलेपन को मिटाने का इक खोखला जतन करते हैं और अपने वक़्त को बेकार बर्बाद करते हैं। इक अंधेरा है जिसको लोग रौशनी का नाम देकर समझते हैं उजियारा कर रहे हैं। आज देखता हूं फोन पर मेस्सेंजर और व्हाट्सऐप पर महान विचार भेजे जा रहे दिन भर , जबकि उन्हीं लोगों के अपने वास्तविक जीवन में इन बातों को महत्व कुछ भी नहीं। ये कुछ अजीब लगता है , हम नासमझ नहीं हैं सब समझते हैं भलाई क्या है बुराई क्या है फिर भी भलाई को अपने जीवन में अपनाते नहीं हैं। बुराई की राह को छोड़ नहीं सकते बस इक दिखावा एक आडंबर करते हैं भलाई की बातें कर के। कितने नकली चेहरे हैं हम सभी के , भीतर का चेहरा और और बाहर दिखाने को इक मुखौटा और लगाया हुआ है।

              हम अपने आस पास वही सब देख खामोश रहते हैं और कभी अवसर मिले तो सोशल मीडिया पर उसी पर भाषण व्याख्यान देने लगते हैं। कैसी मानसिकता है हमारी जो हम किसी की समस्या परेशानी को देख उसकी सहायता करने की बात नहीं सोचते अपितु उसको अपने फोन में वीडियो बनाकर सोशल साइट्स या टीवी वालों को भेजने लगते हैं। और जब कोई बदहाल हालत में खबर बनता है तब तमाम लोग दिखावे की झूठी संवेदना लेकर अपने प्रचार को वहीं पहुंच जाते हैं। कितना आगे बढ़े हैं या कितना नीचे गिरते जा रहे हैं। सब से अधिक हैरानी की बात ये है कि देश की सरकारें केंद्रीय और राज्यों की इक अनोखी प्रतियोगिता में शामिल हो गई हैं सोशल साइट्स और मीडिया पर अपना प्रचार करने का। असली काम पीछे छूट गए हैं और हर दिन सोशल मीडिया का प्रबंधन इक बड़ा मकसद हो गया है। जनता का धन जनता की भलाई पर लगाने की जगह विज्ञापनों पर व्यर्थ बर्बाद किया जा रहा है। अख़बार टीवी वाले सरकारी विज्ञापनों की कीमत पर अपना असली मकसद भुला चुके हैं , लगता है जैसे सब के सब बिक चुके हैं या बिकने को बेताब हैं। शायद ही कोई इस से बच सका है , अब तो इनको लगता है जैसे बिना सरकारी विज्ञापनों की बैसाखियों के ये इक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकते। फिर भी सब दावा करते हैं तेज़ दौड़ने का। बात राजनीति की किसी चुनावी जीत या हार की हो अथवा कुछ और सब राजनेता टीवी पर बहस या सोशल मीडिया पर शोर में उलझे हुए दिखाई देते हैं , वास्तविक देश और जनता की समस्याओं से जैसे किसी को कोई सरोकार ही नहीं है।

                          ये सब देख लगता है देश में असली दुनिया के समानांतर कोई दूसरी सपनों की दुनिया है जिस में कुछ लोग खोये हुए हैं। उनको पता ही नहीं कि जिस काल्पनिक दुनिया के आकाश में वे रात दिन विचरण करते हैं उस का कोई अस्तित्व है ही नहीं। हम को जीना है और कुछ भी पाना या खोना है तो इसी धरती की असली दुनिया की हक़ीक़त को समझना होगा। जिस आकाश को हम अपना सर्वस्व समझने लगे हैं उसका अस्तित्व इक परछाई की तरह है। आकाश में आपका घर नहीं बन सकता है। विज्ञान की प्रगति पर सोचते थे कि इस से समय और साधन के सदुपयोग होगा और हम बेहतर जीवन जी सकेंगे मगर जो विकास सोशल नेटवर्किंग से हुआ उसके नतीजे कुछ और ही बताते हैं। अन्यथा नहीं लिया जाये तो कहना होगा कि फेसबुक ट्विटर और व्हाट्सऐप जैसे साधन इक ऐसा तालाब बन गए हैं जिस में जाकर लोग कीचड़ में धसते ही जा रहे हैं। इस दलदल से निकलना शायद असम्भव नहीं भी हो तो कठिन अवश्य है। 

 

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