जुलाई 07, 2024

पत्थर के इंसान सोने-चांदी के परिधान ( मेरा देश महान ) डॉ लोक सेतिया

पत्थर के इंसान सोने-चांदी के परिधान ( मेरा देश महान ) डॉ लोक सेतिया 

ऊपरवाला भी अजीब खिलाड़ी है किसी को नज़र ही नहीं देता दुनिया का नज़ारा देखने की , उनको कुछ भी दिखाई नहीं देता , धन दौलत सोना चांदी के अंबार की ऊंची दीवारें उनको कैदी बनाए रखती हैं । मिलता है इतना कि कोई हिसाब नहीं मगर सब का सही इस्तेमाल कैसे करना है उनको सूझता ही नहीं । मिट्टी से खेलते तो मिट्टी की खुशबू का पता होता बेजान धातुओं का रंग होता है चमक होती है कोई खुशबू नहीं होती है । जब संवेदनाएं ही नहीं होती तब बदन आदमी औरत का होने पर भी आत्मा रूह उस में बचती रहती नहीं बस चाहतें ख़त्म नहीं होती ज़िंदगी का ख़ालीपन मौत तक भरता नहीं है । बादशाह शासक अमीर पैसे और ताकत वाले लोग दुःख दर्द को जानते ही नहीं इंसानियत उनको छोड़ चली जाती है जो सिर्फ और सिर्फ खुद की खातिर अधिक से अधिक जमा करते रहते हैं । कोई शाहजहां की तरह अपनी महबूबा को ताजमहल से कीमती उपहार जीवन में दे कर समझता है उस से महंगा इश्क़ कोई इस दुनिया में शायद ही करेगा । अब प्यार मुहब्बत इसी तरह दौलत के तराज़ू में तोलते हैं अन्यथा दिल विल प्यार व्यार अमीर लोगों को कभी किसी काम की चीज़ नहीं लगती है । आधुनिक अर्थव्यस्था में पुराने ज़माने की चाहत को नासमझी नादानी मानते हैं इतनी फुर्सत किसे है कौन किसी का इंतिज़ार करे दिल को बेकरार करे , व्यौपार करे कारोबार करे एक को दो को चार सौ को हज़ार करे । 
 
ईश्वर ने सभी कुछ बनाया है सब की आवश्यकताओं की पूर्ति को बहुत है लेकिन किसी की अथवा कुछ लोगों की हवस को पूर्ण करने को धरती आकाश क्या पाताल तक कम पड़ते हैं । इंसान बस माटी का खिलौना है माटी से बनना माटी में मिलना है लेकिन बदनसीब होते हैं जिनको माटी क्या क़फ़न तक नसीब नहीं होता आखिर में चाहे इस जिस्म को कितने सुंदर शानदार महंगे लिबास पहनाओ जितना चाहे भरपेट खाओ । हर चीज़ की सीमा होती है उपयोग की उस से अधिक का इस्तेमाल बर्बादी कहलाता है , बड़ी शान वाले बर्बादी को भी समझते हैं उनकी बड़ी औकात है । ये कुछ ऐसे बेदर्द लोगों की सच्ची बात है लोग प्यासे हैं उनके घर पैसों की बरसात है । अपनी नेक कमाई से नहीं तमाम अन्य की हिस्से की सभी चीज़ों की लूट और छीन कर हासिल की धन दौलत से झूठी शान ओ शौकत की ज़िंदगी जीना किसी धर्म में उचित नहीं बतलाया गया है । ईश्वर जिनको अधिक देता है उनको बांटना होता है उनको जिनके पास कुछ भी नहीं है । 
 

रहीम और गंगभाट का संवाद  :-

 इक दोहा इक कवि का सवाल करता है और इक दूसरा दोहा उस सवाल का जवाब देता है । पहला दोहा गंगभाट नाम के कवि का जो रहीम जी जो इक नवाब थे और हर आने वाले ज़रूरतमंद की मदद किया करते थे से उन्होंने पूछा था :-
 
' सीखियो कहां नवाब जू ऐसी देनी दैन
  ज्यों ज्यों कर ऊंचों करें त्यों त्यों नीचो नैन '।
 
अर्थात नवाब जी ऐसा क्यों है आपने ये तरीका कहां से सीखा है कि जब जब आप किसी को कुछ सहायता देने को हाथ ऊपर करते हैं आपकी आंखें झुकी हुई रहती हैं । 
 
रहीम जी ने जवाब दिया था अपने दोहे में :-
 
 ' देनहार कोउ और है देत रहत दिन रैन
  लोग भरम मो पे करें या ते नीचे नैन ' ।
 
अर्थात देने वाला तो कोई और है ईश्वर है जिसने मुझे समर्थ बनाया इक माध्यम की तरह , दाता तो वही है पर लोग समझते कि मैं दे रहा तभी मेरे नयन झुके रहते हैं । आज तक किसी नेता ने देश या जनता को दिया कुछ भी नहीं सत्ता मिलते ही शाही अंदाज़ से रहते हैं और गरीबी का उपहास करते हैं । कुछ लोग जो किसी तरह से धनवान रईस साहूकार बन गए उनको देखते हैं तो आडंबर पर पैसा बर्बाद कर गर्व का अनुभव करते हैं जो वास्तव में देश धर्म को समझते तो शर्म की बात लगती । उस पर कुछ धन दान देकर ढिंढोरा पीटते हैं बिना ये सोचे समझे की वो सब हासिल कैसे किया गया है ।

 ये नहीं आदमी न हैं ये कोई भगवान , इनकी कुछ और ही है पहचान इनसे डरते हैं इंसान इनसे घबराते हैं दुनिया भर के सभी शैतान । दुनिया होती है हैरान देख देख इनके परिधान लगते हैं चमकता सोना सजे हैं हीरे जवाहरात मोती लेकिन हैं कोयले की खान बस ये हैं चलती फिरती बाज़ार की इक दुकान । बिका हुआ है जिनका सब का सब भीतर का सामान , कोई दिल नहीं कोई धड़कन नहीं कुछ भी नहीं इनको होता कभी एहसास बस कोई मशीन हैं जैसे रहना बचकर ख़तरा बड़ा है इनके पास । पागलपन की बात मत पूछो दिन लगते हैं इनको रात , चैन की नींद ज़िंदगी का सुकून लगते हैं इनको कोई बकवास इनको नदियां और समंदर लगते हैं ख़ुद से छोटे बुझती नहीं कभी इनकी गहरी प्यास । ज़िंदा नहीं रूह नहीं है इन में मरना फिर भी लाज़िम होगा चाहतें हैं शाहंशाह जैसा आख़िरी अपना अंदाज़ , क़फ़न सिला हो सोने का जिस्म भी उनका बेशकीमती बन जाए भले ही राख । प्यार मोहब्बत ये नहीं समझते लेकिन अजब है इनकी कहानी खुद ही ताजमहल बनवाना है कहलाना है इक महादानी इनकी सोच पर होगी हैरानी , इनको अभी धन दौलत जमा करनी है अज्ञानता की सीमा तक दौड़ना है मृगतृष्णा में नज़र आता है रेत भी चमकती जैसे पानी । पढ़ी थी बचपन में इक कहानी इक था राजा ,  थी और इक रानी कठपुतली का खेल था शतरंजी चाल थी सोलह बरस की उम्र भी अभिलाषा सौ साल की तकदीर का था भरोसा आखिर ज़िंदगी दे गई धोखा बीच सफ़र में नैया डूबी , सब कुछ था नज़र के सामने सभी लोग खड़े थे दूर किनारे , हाथ भी छूटे आस भी टूटी किसको कौन क्या पुकारे सभी सहारे इस जीवन की बाज़ी को जीता कोई नहीं सभी हारे । 
 
आज़ादी मिली संविधान सबको बराबरी का हक़ देने की बात करता है , अजब लोकतंत्र है कोई महलों में कोई झौंपड़ी भी नहीं फुटपाथ पर रहता है । गरीब आदमी इस ज़ुल्म को ख़ामोशी से सहता है , सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान कहां है इक शायर कहता है । ये कैसा विधान है कुछ घरों के पास आधा जहान है जिसको आप नाम देते हैं शानदार गर्व करते हैं आधी आबादी को मिलता आखिर दो ग़ज़ ज़मीन जहां क़ब्रिस्तान है ।    आपको महल किसी की निशानी लगते हैं जो वास्तव में ज़ुल्मों की कोई एक नहीं कितनी दास्तानें होते हैं खंडहर होना ही है इक दिन । इतिहास झूठा भी होता है हक़ीक़त सामने नहीं दिखाई देती तब भी कोई शायर साहिर लुधियानवी कोई नज़्म ताजमहल लिख कर वास्तविकता उजागर कर देता है । हुए मर के हम जो रुसवा , हुए क्यों न गर्क़ ए दरिया । न कभी जनाज़ा उठता , न कहीं मज़ार होता । ग़ालिब कहते हैं कि रुसवाई होती है मरने बाद लगता है कैसे शख़्स थे क्या करना था क्या करते रहे ज़िंदगी भर रोज़ जो लोग मरते रहे । धनवान लोगों ने शासक वर्ग राजनेताओं प्रशासन सभी ने देश को बर्बाद किया है इल्ज़ाम दिया है कि जनसंख्या अधिक है सदियां लगेंगी सब बनाने में , ये झूठ है कभी कोशिश ही नहीं की जाती जो लोग नीचे हैं पीछे हैं उनको ऊपर लाने आगे बढ़ाने की क्योंकि उनकी शान शौकत गरीब को और गरीब बनाने से ही बनी रह सकती है ।

मिर्ज़ा ग़ालिब पुण्‍यतिथि विशेष : "मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो  गईं" – News18 हिंदी
 

 
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों न गर्क़ ए दरिया। न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता।। ग़ालिब
 

जुलाई 05, 2024

समझा नहीं जाना नहीं ईश्वर धर्म ( अज्ञानता ) डॉ लोक सेतिया

   समझा नहीं जाना नहीं ईश्वर धर्म ( अज्ञानता ) डॉ लोक सेतिया

ऐसा करने से पुण्य मिलेगा मनोकामनाएं पूर्ण होंगी समस्याएं दूर होंगी आदि आदि , ये तो लाभ हानि की बात हुई ईश्वर भगवान से इस का कोई मतलब ही नहीं है । कहीं जाकर कुछ करने से सभी पाप माफ़ हो जाते हैं क्या ये अच्छे कर्म करने की बात है कि बुरे कर्म पाप करते रहो जब मन में ग्लानि की भावना जागृत हो तो दिल को बहलाने को समझ लो ऐसा किया सब अपराध सारे गुनाह की सज़ा से बच गए । नहीं ऐसा किसी धर्म में नहीं समझाया गया है । ये सब जिन्होंने भी करने को कहा वास्तव में उनको धर्म ईश्वर से कोई मतलब नहीं था उनको किसी तरह से इस को इक कारोबार बनाकर अपना व्यवसाय चलाना था । जब शुरुआत हुई तब ये उनके पेट भरने का ढंग था लेकिन जैसे जैसे लोग स्वार्थी और खुदगर्ज़ बनते गए ये इक बड़ा कारोबार बन गया है । शायद ही संभव हो इसका पूरा गणित समझना लेकिन कोई भी अर्थशास्त्री आपको इतना बता सकता है कि देश में जितना धन धार्मिक आयोजनों पर समागम सत्संग धर्म उपदेश से सभी धर्मों के क्रियाकलाप पर खर्च किया जाता है अगर उतना धन गरीबी भूख और बेबस लोगों की सहायता पर खर्च किया जाता तो देश में कहीं भी कोई बदहाल नहीं दिखाई देता । दीन दुःखियों की सहायता करना वास्तविक धर्म होता है लेकिन हम उनको बड़ी ही हिक़ारत की नज़र से देखते हैं जाने क्या क्या कहते हैं ये लोग कुछ करते नहीं भीख मांगते हैं ।लेकिन हम खुद क्या करते हैं भीख़ भी देते हैं तो बदले में उस से कई गुणा अधिक पाने की कामना रखते हैं । दान धर्म पुण्य कुछ भी हम लोग निस्वार्थ भावना से नहीं करते हैं , शायद कई बार ऐसा भी मन में छुपी किसी आशा से करते हैं कि कोई आशिर्वाद दे कर हमको और धनवान या लोकप्रिय बना दे । 
 
धार्मिक ग्रंथों को पढ़ते ही नहीं समझ कैसे सकते हैं और उन से कोई सबक सीख कर समाज की कोई भलाई करने का कोई प्रयास कैसे किया जा सकता है । हमको खुद अपने आप से फुर्सत ही नहीं जो आस पास समाज को देखें हम आत्मकेंद्रित बनते गए हैं । इतना तो सामने नज़र आता है कि हर तरफ भगवान और धर्म का शोर है तब भी वास्तव में अधर्म और पाप बढ़ते ही जा रहे हैं ख़त्म ही नहीं होते कभी । किसी एक की बात नहीं जितने भी लोग धर्म और ईश्वर के नाम पर धन दौलत हासिल कर खुद को महान कहलवाते हैं लगता नहीं उनको वास्तविक धर्म की स्थापना से कोई सरोकार भी है । तथकथित अनुयाई भी उन लोगों की असलियत को देखना समझना नहीं चाहते क्योंकि इस से उनकी खुद की मूर्खता और अज्ञानता सामने ही नहीं आती बल्कि उन्होंने जितना कुछ किया सब व्यर्थ था इस का भी पर्दाफ़ाश होता है । अज्ञानता मूर्खता पर इक आवरण है ये सब धार्मिक होने का दिखावा जो आपको सोशल मीडिया पर खूब दिखाई देता है हर कोई शायद बिना समझे पढ़े औरों को समझाता है आचरण करना कोई नहीं चाहता । लगता है जैसे इक घना कोहरा छाया हुआ है जिस ने ज्ञान और रौशनी के सूरज को छिपा दिया है और हम आंखों वाले अंधे बनकर उनकी बताई राह पर चलते जा रहे हैं जो खुद अपनी राह से भटके हुए हैं । आपको हैरानी नहीं होती जब आपके सभी गुरु धर्म उपदेशक खुद अपना कोई अभिमत नहीं व्यक्त करते बल्कि इधर उधर से साहित्य से चुराकर या फिर किसी कथा को अपनी सुविधा से बदलकर आपको प्रभावित करने की कोशिश करते हैं । कैसा लगता है जब धार्मिक सतसंग से श्रद्धांजली सभा तक में कोई फ़िल्मी गीत सुना रहा होता है आपको आनंद आता है तो फिर आपकी सोच पर तरस आता है । धर्म और ईश्वर को हमने क्या से क्या बना दिया है ये ऐसी विडंबना है जिस पर चिंतन किया जाना चाहिए अन्यथा परिणाम क्या होगा कौन जाने । 
 
अब थोड़ा सा सोच विचार करते हैं , जिस भी भगवान या परमात्मा ईश्वर ने दुनिया का सब कुछ बनाया होगा , उसको हमसे या किसी से कुछ भी चाहिए क्यों होगा जो सर्वशक्तिमान है उसे रहने पहनने खाने पीने को किसी इंसान जीव जंतु पक्षी जानवर पर आश्रित नहीं होना पड़ेगा । जो जब चाहे उपलब्ध हो जाएगा , रहने को उसे कोई जगह चाहिए तो खुद बन जाएगी आपके बनाए हमारे बनाए किसी भवन में रहना उसकी ज़रूरत होगी न ही विवशता । कौन हैं जिन्होंने उसे किसी मिट्टी पत्थर या अन्य वस्तु से बनाया ही नहीं बल्कि उसे जैसे कैदी बना कर अपने अधीन रख लिया जब चाहे सामने आये जब चाहे बंद कर दिया जाए । भगवान के साथ ये कैसा आचरण हो रहा है । ये दुनिया जिस भगवान ने बनाई कितनी खूबसूरत बनाई थी उसे किसी और जगह जाकर ठिकाना बनाने की चाहत क्यों होगी , लेकिन हम सभी ने उसकी बनाई दुनिया को तहस नहस कर दिया है उसे संवारा नहीं बर्बाद किया है तो हम उसे खुश कैसे कर सकते हैं । भगवान को अपना गुणगान करवाना क्या ज़रूरी लगेगा उसे इसकी आवश्यकता ही नहीं होगी , ये तो आदमी की फ़ितरत है उसे अपने को अच्छा कहलाना पसंद है । भगवान और इंसान में यही सबसे बड़ा फ़र्क है उसको किसी से कुछ भी नहीं चाहिए । अर्थात हमने भगवान और धर्म के नाम पर जो भी किया उसका कोई मकसद ही नहीं समझ आता । 
 
 दुनिया मेरे आगे: केंद्र और परिधि, सीमित दृष्टि में नहीं है जीवन का आनंद,  खुद को बड़ा बनाकर सोच के बंधन से मुक्त होना जरूरी | Jansatta

जुलाई 04, 2024

निकले थे किधर जाने को पहुंचे कहां ( चीख-पुकार ) डॉ लोक सेतिया

 निकले थे किधर जाने को पहुंचे कहां ( चीख-पुकार ) डॉ लोक सेतिया 

ये भजन मेरी माता जी हर समय गाती - गुनगुनाती रहती थी । मैंने फिल्मों में और सभी जगह बहुत भजन सुने हैं मगर मुझे जो अलग बात इस भजन में लगती है ,  कहीं और नहीं मिली अभी तलक । भजन का मुखड़ा ही याद है उसके बाद उस भजन की बात को खुद मैंने  , अपने शब्दों से सजाने का प्रयास किया है । ये भजन अपनी प्यारी मां को अर्पित करता हूं । मेरी मां श्रीमती माया देवी जी 5 जुलाई 2004 को दुनिया को छोड़ चली गई थी नहीं मालूम कहां फिर भी हमको उस का होने का एहसास हमेशा रहता है , वो जिस भजन गाया करती थी कुछ इस तरह से है । 29 मई 2017 को ब्लॉग पर लिखा है वही प्रस्तुत कर रहा हूं । 
                    

          (  तुझे भगवान बनाया हम भक्तों ने , इक भजन सब से अलग है  )


भगवन बनकर तू अभिमान ना कर ,
तुझे भगवान बनाया हम भक्तों ने ।

पत्थर से तराशी खुद मूरत फिर उसे ,
मंदिर में है सजाया हम भक्तों ने ।

तूने चाहे भूखा भी रखा हमको तब भी ,
तुझे पकवान चढ़ाया हम भक्तों ने ।

फूलों से सजाया आसन भी हमने ही ,
तुझको भी है सजाया हम भक्तों ने ।

सुबह और शाम आरती उतारी है बस ,
इक तुझी को मनाया हम भक्तों ने ।

सुख हो दुःख हो हर इक क्षण क्षण में ,
घर तुझको है बुलाया हम भक्तों ने ।

जिस हाल में भी रखा है भगवन तूने ,
सर को है झुकाया हम भक्तों ने ।

दुनिया को बनाया है जिसने कभी भी ,
खुद उसी के है बनाया हम भक्तों ने । 

 
आजकल तमाम जगह जैसे जश्न मनाना हो , भीड़ बनकर किसी इंसान को अपना भगवान समझ कर करोड़ो लोग इक अंधविश्वास के जाल में फंस कर भटकते भटकते कई बार जीवन से हाथ धो बैठते हैं । उसको खोजना या पाना नहीं जानना होता है चिंतन मनन कर खुद अपने आप अकेले शांत मन से लेकिन हम कठिनाई से डरते हैं और चाहते हैं ईश्वर को आसानी से मिल जाएं । ईश्वर हमको आसानी से नहीं मिलता कभी भी जो हमको कहीं आश्रम मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा बुलाते हैं वो कुछ भी हो सकते हैं ख़ुदा या भगवान नहीं । हमने सोचा कि जैसा हम चाहते सोचते समझते हैं भगवान वैसा ही होगा , जबकि बात उल्टी है हमको उस तरह सा इंसान बनना होगा जैसा भगवान चाहता है । इतने भगवान बन गए बना लिए हैं कि बड़ी आसानी से उपलब्ध हैं महंगाई में कौड़ियों के भाव भगवान बिकते हैं अचरज की बात है जो जब चाहे उसे देख कर आशिर्वाद प्राप्त कर सकता है , मानो भगवान भी सोशल मीडिया का संदेश है जितना चाहो फॉरवर्ड करते जाओ कोई सीमा नहीं । हादसा होने के बाद किसी को कुछ समझ नहीं आता कि ये किस का कर्तव्य था किस ने कोताही बरती कोई तो ज़िम्मेदार ज़रूर है । 

लाशों से कौन पूछे आये थे कहां चल दिए कहां 
समझा ही नहीं उस जगह उनकी दर्द भरी दास्तां ।
 
भीड़ थी जिस जगह भगवान वहां रहते नहीं कभी 
राह संतों की एकांत की भक़्तों का कैसा कारवां । 
 
ध्यान चिंतन मनन ईश्वर की उपासना होती नहीं 
महलों में धर्म सभाओं में हर तरफ होता कोई धुंवां । 
 
किसको है देखना आपको धरती नहीं वो है आस्मां 
तिनके को क्या खबर अपना कहीं भी नहीं है निशां । 
 
भगवान खुश नहीं होते रोज़ ये ही हादसा देख कर उनको लगता है कितने बेबस हैं , भगवान को भीड़ देख कर परेशानी होती है इतनी आवाज़ें इतना शोर कुछ समझ नहीं आता कुछ भी सुनाई नहीं देता । ऊपरवाला हैरान है ये कौन कैसा नादान है जो आदमी खुद को बना बैठा भगवान है । भगवान होना है हर किसी का अजब अरमान है भीतर मगर रहता छुपा हुआ शैतान है । भगवान जिस ने दुनिया बनाई सभी का अस्तित्व बनाया इक पहचान बनाई खुद उसी को लगता है जिसे देखो मेरा नाम ओ निशां मिट्टी में मिलाना चाहता है , विश्वास पर ईश्वर के कितने सवाल खड़े हैं कौन अपने भक्तों को बचाना चाहता कोई है जो ज़िंदगी का मातम मनाने को भीड़ बुलाना चाहता है । असली का कुछ अता पता नहीं अभी तक सभी काल्पनिक भगवान से नाता बनाए हैं सबको अपनी मर्ज़ी अपनी पसंद का सामान ही नहीं भगवान भी चाहिए , ये बात समझ कर तमाम लोगों ने भगवान का बाज़ार लगाया हुआ है आजकल यही सबसे अधिक मुनाफ़े का व्यौपार है हींग लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा । भगवान देवी देवता सब कर सकते हैं तो अपने दर्शन करने आये अनुयाईयों श्रद्धालुओं की रक्षा कैसे नहीं कर सके सवाल तो है । खुद वास्तविक भगवान लोगों को इन सभी से बचाएं इतनी प्रार्थना है ।

कला दर्पण | • अहमद फ़राज़ 🥀 Follow : @kala.darpan Like comment share  ----------------------- #kaladarpan #कलादर्पण #ahmadfaraz  #ahmadfarazpoetry… | Instagram
 

जुलाई 03, 2024

उजाला है बाहर भीतर अंधेरा ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

      उजाला है बाहर भीतर अंधेरा ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

कभी कभी नहीं अक़्सर होता है आधी रात को नींद खुलती है और मन में कुछ घटनाओं को लेकर विमर्श होने लगता है बेचैनी में नींद आये भी कैसे हम सोना नहीं चाहते जागकर समझना अच्छा लगता है । अधिकांश मैं लिखने बैठ जाता हूं और विचार खुद ब खुद आते रहते हैं लेकिन आज , कल रात से लिख नहीं पाया क्योंकि मन में इतनी निराशा भरी थी कि सिर्फ़ अंधकार दिखाई देता लगता था । मगर चाहे कितना भी घना हो कोई अंधेरा कोई न कोई किरण उजाले की कहीं से चीरती अंधकार को मिटाती अवश्य है । जीवन में और समाज में हालात जितने भी खराब हों हमको उन से बाहर निकलना ही चाहिए घबरा कर हार नहीं मानते हैं । हर व्यक्ति कभी न कभी लगातार जूझते जूझते थकने लगता है ऐसे में उसे साहस को फिर से जगाना होता है बिखरे सपनों को टूटी आशाओं को जगाना पड़ता है । ज़िंदगी का यही संघर्ष ऊर्जा देता है उस सब बुराई बदसूरती को अच्छाई और ख़ूबसूरती में बदलने को , हर मोड़ से फिर से नया सफ़र शुरू करना होता है इस जीवन में कितने मोड़ आने अभी बाक़ी हैं कोई नहीं जानता है । 
 
विषय की विविधता की कोई सीमा नहीं है ये चर्चा देश समाज धर्म राजनीति से दोस्ती रिश्तों तक ही नहीं शायद इस दुनिया से किसी दूसरी दुनिया तक विस्तार लिए हुए है । वास्तविक जीवन में आस पास हर तरफ बातचीत आदर्शवादी विचारों और महान चरित्र की होती है लेकिन जब घड़ी आती है तो ये सब खोखले और झूठे साबित होते हैं । सोशल मीडिया पर भली भली बातें करने वाले वास्तव में भलाई करते कम और बुराई करने पर गर्व करते अधिक दिखाई देते हैं । भरोसा नहीं कि कब कौन पीठ में ख़ंजर घोपने का कार्य कर अपने स्वार्थ की ख़ातिर संबंधों को घायल कर दे । संसद विधानसभाओं में बैठ कर अथवा किसी संगठन संस्था के उच्च पद पर नियुक्त होने के बाद भी लोग संकीर्ण मानसिकता से उबर नहीं पाते हैं । जिनको न्याय और सत्य की रक्षा करनी है जब वही पक्षपात करने और दोषी को बचाने लगते हैं तब लोकतंत्र संविधान सभी का मकसद खो जाता है । 
 
अचरज की बात है जिनके पास आवश्यकता से अधिक है उनकी लालसा और हासिल करने की खातिर सही गलत को अनदेखा कर मनमानी करने की दिखाई देती है । राजनेता अधिकारी कर्मचारी व्यौपारी से बड़े प्रोफेशन में कार्यरत शिक्षक चिकित्सक उद्योगपति मानवता का धर्म भूलकर जो कभी नहीं करना चाहिए करने लगते हैं । कभी ऐसे लोग संख्या में कम होते थे उचित कर्तव्य निभाने वाले अधिकांश लेकिन अब दशा उल्टी हो गई है सही आचरण करने वाले विरले लोग नज़र आते हैं और विडंबना की बात है कि उनको समाज नासमझ और नादान कहता है । अधिक धनवान होना सफ़लता का तराज़ू बन गया है जबकि सामाजिक कर्तव्य निभाना और ईमानदारी को महत्व देना चाहिए था , सही मार्ग पर चलना जब मूर्खता कहलाए तो सामाजिक मूल्यों का कितना पतन हो चुका है समझना तो होगा । बड़ी ऊंची इमारतें बनाते हैं मगर जो अपने मूल्य और आदर्श थे उनको कितना नीचे ले आये हैं , खुली खुली सड़कें हैं लेकिन सोच कितनी तंग है कभी समझा ही नहीं ।  
 

एहसास ( कविता ) 1973 की पुरानी डायरी से फिर से याद आई है ।

यह कैसी उदासी है यह कैसी है तन्हाई 
गुलशन है वीराना फूलों की है रुसवाई । 
 
ख़्वाब सभी महलों के पड़े रेत के ढेरों में 
रह गए हैं दबकर सब सितारे इन अंधेरों में ।   
 
मेरा हर सवाल है ख़ुद अपना जवाब भी है 
था वो संगीत मेरा ही टूटा हुआ साज़ भी है । 
 
अपने ही महलों में अब सांस ये घुटती है 
मौत भी कैसी है ज़िंदगी पर जा रूकती है ।  
 
ज़िंदगी ले लो मुझसे इन मौत की सांसों की 
दे दो मुझे सपनों भरी नींद उन एहसासों की ।  
 
 कोई उम्मीद बर नहीं आती - ग़ालिब
 

जुलाई 02, 2024

ख़ामोश रहो हसरत है उनकी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

      ख़ामोश रहो हसरत है उनकी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया  

उनकी सियासत मुसीबत है हमारी सत्ता को लगी है इक ऐसी बिमारी , जनता की बड़ी भूल जो की उन्हीं से है यारी । सहयोग करें उनका फ़रमान है जारी , चाकू की शिकायत है मदद करती नहीं पसलियां हमारी ,  शायर दुष्यंत कुमार पढ़ पाये नहीं आदेश सरकारी । जाने खुद आये या बुलाया गया उनको खफ़ा थे किसी बात पे मनाया गया उनको सब लोग गुनहगार हैं , ये उनकी अदालत है कुछ भी किसी से पूछा नहीं सुना नहीं , बस फैसला था उनका सुनाया गया सबको । तलवार हैं या कि खऱीदार हैं , जाने किस किस बात से रूठे हुए खुद सरकार हैं , अपने मुंह मियां मिट्ठू मियां अपना पक्ष रखता इश्तिहार हैं जनाब , आपका नसीब हाथ जोड़ खड़े हैं सभी चुपचाप ख़ानाख़राब । वो आए कि बुलाए गए कोई फर्क नहीं पड़ता है , लेकिन वो शिकायत सुनने को नहीं खुद शिकयत करने को उत्सुक थे । शिकायतें शिकवे उनको सभी से थे कम नहीं जाने कितने थे लेकिन सब से बड़ी शिकायत थी लोग खामोश होकर उनकी सुन कर यकीन नहीं करते यही उनकी बेचैनी है उनकी नींद में खलल पड़ता है , नींद क्यों रात भर नहीं आती । जाने कब से उनको यही महानता लगती थी कि लोग ही नहीं दुनिया तक उनसे डरती है , किसी को भयभीत करना शूरवीरता नहीं होती है शूरवीर डर रहे लोगों को निडरता का भरोसा देते हैं सत्य हमेशा निडर होकर सच के पक्ष में खड़े होने का पाठ पढ़ाता है ।

सत्ता का रोग ही ऐसा है कि शासक बनते ही सभी अपने बेगाने लगने लगते हैं केवल हां जी कहने वाले चाटुकार अपने परिजन लगते हैं । ऐसा भी होता है हम खुद कुछ सोच कर किसी को आदर दे कर आमंत्रित करते हैं , मगर हम नहीं जानते कि जब किसी को सत्ता मिलती है तो वो शालीन होकर आपकी गरिमा की परवाह नहीं रख अपनी असलियत दिखला ही देता है । शायद शासक बनते ही सभी का आचरण बदल जाता है और जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि खुद को जनसेवक नहीं दाता समझने लगते हैं । अख़बार में पढ़ने को मिलता है जनता की समस्याओं का निवारण करने को आयोजित सभाओं में किसी की परेशानी समझने की जगह शिकायत करने पर ही नाराज़गी जताई जाती है और जैसे फटकार लगाई जाती है । जनता सरकार बनाती है और जनता या कोई भी वर्ग शासक से कोई ख़ैरात नहीं चाहते हैं उनकी बात सुनना उनको इंसाफ़ दिलवाना जिनका कर्तव्य है उनकी भाषा अहंकारी होना बेहद आपत्तिजनक है । बदले बदले मेरे सरकार नज़र आते हैं घर की बर्बादी के आसार नज़र आते हैं । आपको इतिहास बदलना है तो कुछ सार्थक कर दिखाना होगा सिर्फ बड़बोलापन किसी को इतिहास में जगह नहीं दिलवा सकता है ।

जुर्म किया जो उन पर ऐतबार किया उम्र भर बस यही इंतिज़ार किया , अभी तलक जनता को इतनी बात नहीं समझ आई कि चोर चोर होते हैं भाई भाई । सुनानी बांसुरी थी बजाने लगे वो शहनाई लगा जैसे विदाई की घड़ी करीब आई मिला दूल्हा नहीं दुल्हन नहीं यहां है सिर्फ तन्हाई । सलीके से बात नहीं करते समझेंगे क्या किसी की परेशानी जिनको हालत से होती है परेशानी वार्तालाप करना ही बेमानी वहां जाना है नादानी जहां क़द्र नहीं अपनी पहचानी । भले वो कितने बड़े सिंहासन पर बैठे हों अगर सभी का आदर नहीं करते बल्कि कोशिश करते हैं नीचा दिखाने खामोश करवाने की तो ध्यान देना  तुलसीदास जी कहते हैं :-
 
आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं स्नेह
तुलसी तहां न जाइए कंचन बरसे मेह ।

सरकार है बेकार है लाचार है ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सरकार है  , बेकार है , लाचार है
सुनती नहीं जनता की हाहाकार है ।

फुर्सत नहीं समझें हमारी बात को
कहने को पर उनका खुला दरबार है ।

रहजन बना बैठा है रहबर आजकल
सब की दवा करता जो खुद बीमार है ।

जो कुछ नहीं देते कभी हैं देश को
अपने लिए सब कुछ उन्हें दरकार है ।

इंसानियत की बात करना छोड़ दो
महंगा बड़ा सत्ता से करना प्यार है ।

हैवानियत को ख़त्म करना आज है
इस बात से क्या आपको इनकार है ।

ईमान बेचा जा रहा कैसे यहां
देखो लगा कैसा यहां बाज़ार है ।

है पास फिर भी दूर रहता है सदा
मुझको मिला ऐसा मेरा दिलदार है ।

अपना नहीं था ,कौन था देखा जिसे
"तनहा" यहां अब कौन किसका यार है ।  
 
 जो मिल गया वो अपना है और जो टूट गया वह सपना है।~ Heart Touching  Motivational Video ~"ज्ञानहोनाचाहिए"

जुलाई 01, 2024

लिखने को अल्फ़ाज़ जज़्बात अंदाज़ ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

  लिखने को अल्फ़ाज़ जज़्बात अंदाज़ ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

लिखना आसान नहीं , समझना मुश्किल है , लिखना क्या है । कभी उम्र भर लिखने से भी जो अंदर है बात अधूरी रह जाती है तो कभी चंद मिसरे चार लाइने इतना कुछ समेटे हुए होते हैं कि अर्थ समझने में ज़माना लगता है । आपको दिल किसी से लगाना लगता है झूठा अफ़साना लगता है लिखने वाले को जीने मरने का बस वही इक बहाना लगता है । सार्थक लेखन की दुश्वारियां हैं दुनिया फूलों के गुलशन चाहती है प्यार मुहब्बत की कहानियां पढ़ती है , किताबें जिस राह से गुज़रती हैं पगडंडी के दोनों तरफ कंटीली झाड़ियां हैं । घायल जिस्म की लिखनी कोई कहानी है प्यास बहुत है समंदर भी है , पीना नहीं खारा पानी है । पाठक कब किताब पढ़ते हैं कीमत कितनी है बस वही हिसाब रखते हैं सवालों की झड़ी लगाते हैं लिखना कितना ज़रूरी था वही सवाल करते हैं , सवालों का जवाब रखते हैं । हम जो लिखना हो साफ शब्दों में लिख देते हैं , कुछ बहुत ही लाजवाब लिखते हैं पर्दे में रखते हैं हुस्न की बातें चेहरे पर नकाब रखते हैं , आजकल हसीन लोग कितने रंग के ख़िज़ाब रखते हैं । इश्क़ की किताब पढ़ने वाले छुप छुप कर दुनिया से रहने वाले रुख पर अपने हिजाब रखते हैं । सच लिखना झूठ लिखना सर पर किसी के ताज लिखना किसी के पांव की धूल लिखना लोग जो चाहते वही बात लिखना मतलब है कि , सब फ़िज़ूल लिखना , किसी मज़बूरी को गुनाह लिखना और किसी जुर्म को यही है उसूल लिखना , क़ातिल को मसीहा कहना क़त्ल जिस का हुआ उसकी भूल लिखना । लिखना कुछ भी लिख देना आसान है जो नहीं लिखा गया समझना ज़रूरी है उसे मिटा नहीं सकते छिपाना आसान नहीं है । अल्फ़ाज़ खामोश हैं जज़्बात बेज़ुबान नहीं है , किस के मुंह में ज़ुबान नहीं है जिस दुनिया में कहीं भी कोई भी आसमान नहीं है उस का रहता बाक़ी निशान नहीं है । अपने दिल का पूरा हुआ अभी तलक इक अरमान नहीं है दुनिया ने लगाया नहीं जो हम पर कोई इल्ज़ाम नहीं है । 
 
लिखना शुरू होता है जब भीतर कोई भाव उपजते हैं , किसी से चाहत किसी को हासिल करने की हसरत से ईबादत तक दिल कब क्या महसूस करता है , कहना भी हो तो कोई समझने वाला नहीं होता ऐसे में कागज़ पर अपने जज़्बात अल्फ़ाज़ों में पिरोते हैं । ऐसी सुबह जिसकी कभी शाम नहीं होती मुहब्बत कभी बदनाम नहीं होती आरज़ू दिल की रहती है हमेशा पूरी नहीं हो तब भी नाकाम नहीं होती । कोई प्यार दोस्ती रिश्ते पर कोई कुदरत पर कोई पेड़ पौधे पक्षी और उड़ान पर कोई ज़मीन कोई आसमान पर लिखते हैं वतन की आन बान शान पर आदमी के आगाज़ पर ज़िंदगी के अंजाम पर गीत लिखते हैं अपनी तान पर । हर कोई अपने अपने रंग से इक तस्वीर बनाता है कोई धागा जोड़ता है कोई जंज़ीर बनाता है , हर मजनू की लैला होती है , हर कोई रांझा बनकर अपनी हीर की तकदीर बनाता है । कोई कविता कोई ग़ज़ल कोई नज़्म कोई कथा कहानी सभी करते हैं हमेशा ही कोई न कोई ऐसी नादानी कभी किसी ने लिखने वाले की कीमत नहीं पहचानी पढ़ने वाले कहता है लिखने वाला तुम्हारी बड़ी मेहरबानी । 
 
लिखना लिख कर फिर पढ़ना और पढ़ कर समझना समझ कर लिखे हुए को मिटाकर दोबारा लिखना ऐसा साहित्य की यात्रा का सफ़र जारी रहता है । यहां ईनामात सौगात पुरुस्कार कोई तराज़ू कोई पैमाना नहीं महत्व रखता है साहित्य की सफ़लता तभी मानी जाती है जब समाज को झकझोरती है बदलाव लाने का कीर्तिमान स्थापित करती है । अन्यथा जीवन भर कागज़ काले करते रहने का औचित्य कुछ भी नहीं होता है भला किसी की ख़ुशी किसी का दर्द कौन समझता है पपीहा जागता है रात भर पीहू पीहू की मधुर वाणी सुनाई देती है अपने पिया को ढूंढता है पी कहां पी कहां , बस यही संदेश है सच्चे लिखने वाले का भी जिसे तलाश रहती है किसी खूबसूरत दुनिया की जो उसके ख्यालों ख्वाबों में है कहीं सपने को वास्तविकता बनाने को चाहत में कलमकार जीवन भर खोया रहता है । 

लिखना आदत होती है किसी दिन बन जाती मज़बूरी है शायर कहता है :-
 

कहानी हो ग़ज़ल हो बात रह जाती अधूरी है ( ग़ज़ल ) 

       डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कहानी हो ग़ज़ल हो बात रह जाती अधूरी है
करें क्या ज़िंदगी की बात कहना भी ज़रूरी है ।

मिले हैं आज हम ऐसे नहीं बिछुड़े कभी जैसे
सुहानी शब मुहब्बत की हुई बरसात पूरी है ।

मिले फुर्सत चले जाना , कभी उनको बुला लेना
नहीं घर दोस्तों के दूर , कुछ क़दमों की दूरी है ।

बुरी आदत रही अपनी सभी कुछ सच बता देना
तुम्हें भाती हमेशा से किसी की जी-हज़ूरी है ।

रहा भूखा नहीं जब तक कभी ईमान को बेचा
लगा बिकने उसी के पास हलवा और पूरी है ।

जिन्हें पाला कभी माँ ने , लगाते रोज़ हैं ठोकर
इन्हीं बच्चों को बचपन में खिलाई रोज़ चूरी है ।

नहीं काली कमाई कर सके ' तनहा ' कभी लेकिन
कमाते प्यार की दौलत , न काली है न भूरी है ।
 
 जीवन की सबसे बड़ी कमाई है ज्ञान का पन्ना, किताबें दिखाती हैं सही राह |  Jansatta