दो किनारों की अनबन ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
नदिया के पुल आपसी तालमेल सहमति और दोनों की सहनशीलता पर टिके होते हैं , जब भी कभी कोई पुल ध्वस्त होता है अचानक गिर जाता है तो निर्माण की कमी ही नहीं होती है , आपसी तकरार भी कारण हो सकता है । विवाहित महिला पुरुष कितना एक दूसरे को समझते हैं रिश्ता कायम रहना इस पर निर्भर करता है । आदमी आदमी को जोड़ने वाले बंधन धीरे धीरे कमज़ोर होते जाते हैं कभी सात जन्म की बात हुआ करती थी आजकल चार दिन का भरोसा नहीं है । अख़बार टीवी चैनल वाले हर बात को बढ़ा चढ़ा कर कुछ भी नतीजा निकाल लेते हैं । सरकार पर इंजीनयर से अधिकारी और निर्माता कंपनी ठेकेदार तक को कटघरे में खड़ा कर देते हैं । ऐसे में इक उच्च स्तर की समिति से जांच करवानी अनिवार्य है उस में शामिल हैं इक अलग तरह के विशेषज्ञ जिनका जीवन ही आपसी संबंधों को लेकर शोध करते बीता है । किसी भी टूटे हुए पुल अथवा ध्वस्त इमारत के मलबे से कभी साबित नहीं किया जा सकता कि निर्माण सामिग्री कैसी थी । कभी किसी ने इस पक्ष पर ध्यान ही नहीं दिया कि सरकारी फाईलों में सभी बढ़िया हुआ ऐसा प्रमाणित है जिस के आधार पर शिलान्यास से शुरुआत तक सब खर्च और नियम पालन करने का लिखित प्रमाण उपलब्ध है ऐसे में केवल मौसम पर दोष देना उचित नहीं है ।
ये बिल्कुल शादी संबंध जैसी बात है , लड़का लड़की की कुंडली स्वभाव पसंद सभी को परखा जाता है , सभी रीती रिवाज़ों और शुभ समय घड़ी पर सही जगह का चयन कर विवाह किया जाता है । दहेज से लेकर मंडप और होटल बैंक्वेट हाल की शानदार शोभा सजावट सभी आये मेहमानों की सुविधाओं तक कोई भी कमी कोई कसर नहीं होती और विवाह करवाने वाले भी सब ठीक से करवाते हैं खूब मनचाहा शुल्क लेते हैं बिचोलिये भी शुरू से आखिर तक सहभागी रहते हैं । इस सब के बावजूद शादी के बाद पति पत्नी में झगड़े अनबन होती रहती है कभी साथ रहते हैं कभी मनमुटाव बढ़ता है तो अलग अलग रहने लगते हैं कितनी बार समझौते होते हैं तब भी तलाक की ज़रूरत पड़ जाती है । कसूरवार दोनों खुद पति पत्नी होते हैं मगर झगड़े में आरोप झूठे सच्चे तमाम लगाते हैं निभ जाती तो कभी उन सब बातों का महत्व नहीं होता , टकराव होने पर खामियां ढूंढते हैं अच्छाई नहीं दिखाई देती । पुल भी बेबस हो जाते हैं जब दोनों किनारे तकरार करते करते पीछे हटकर फ़ासला बना लेते हैं ।
नदी क्या सागर पर कोई कितना बड़ा पुल बनाया जाए आखिर दोनों तरफ दो किनारों को सहना पड़ता है पानी का उतर चढ़ाव लहरों का किनारों से टकराव नियमित निरंतर होता ही है । पुल कैसे टिकेगा अगर दोनों किनारे आपसी फ़ासला बढ़ाने लग जाएं । पुलों का टूटना पहले भी होता था लेकिन इतना जल्दी नहीं जैसे आजकल इक चलन चल पड़ा है जिधर देखते हैं पुलों में गिरने की होड़ लगी है । किनारों की आपसी अनबन इतनी बढ़ती जाती है कि किनारों की हालत से परेशान पुल बेचारा ख़ुदकुशी कर अपना अंत कर लेता है । उस के बाद क्या होता है दोनों किनारों का फिर से गठबंधन करवाने को इक नया पुल बनवाने की चर्चा होने लगती है और जब पुनर्विवाह की तरह नया पुल नहीं बनता पुल टूटने की बात होती रहती है । जांच आयोग की समस्या का समाधान हो गया है अन्यथा कितना कठिन था फ़ैसला करना की जब पुल बनना शुरू हुआ और जब तक बनकर उद्घाटन हुआ कौन किस किस पद पर था किस की गलती थी । पहले भी कभी किसी को कोई सज़ा नहीं मिली केवल आरोप लगाकर बदनाम किया गया इस बार बदनाम भी क्यों किया जाए ये पहेली थी जिस का हल मिल ही गया है । आपसी रिश्तों का टूटना सामान्य घटना है ।
( अस्वीकरण :- इस रचना का किसी व्यक्ति घटना से कोई संबंध कदापि नहीं है ये इक काल्पनिक कथा है )
1 टिप्पणी:
अच्छा लेख सर...पुलों को पारिवारिक सम्बन्धों की तरह जोड़कर दिखाया गया है... आज ये दोनों ही बातें प्रासंगिक हैं। पुल गिर रहे हैं रिश्ते टूट रहे हैं
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