नवंबर 12, 2023

अजब नज़ारा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

              अजब नज़ारा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

चाहता था कुछ कहना 
लग रहा जैसे बेज़ुबान था ,
सड़क किनारे खड़ा हुआ 
दुनिया का वो भगवान था । 
 
भूल गया था जैसे कोई 
अपना ही पता ठिकाना ,
खुद बनाया था सबको 
सब से मगर अनजान था । 
 
मंदिर के दर पर गया फिर 
मस्जिद की सीढ़ियां चढ़ा ,
पंडित को देख परेशान था 
मौलवी से मिल हैरान था । 
 
ढूंढ ढूंढ थक गया मिला न
उसको घर अपना कहीं भी ,
जहां पर थी कल इक बस्ती 
वहां पे बना हुआ श्मशान था ।
 
बे-शक़्ल आदमी थे या कि 
हर तरफ दिख रहे शैतान थे ,
थर- थर्राता - सा खड़ा वहां 
इक किनारे पे छुपा ईमान था ।  
 
लिखा था लाशों पर सभी 
ये हिंदू था वो मुसलमान था ,
वो बनाता रहा हमेशा से ही 
सिर्फ और सिर्फ इंसान था । 
 
मैंने क्या बनाया था इनको 
और ये कैसे ऐसे बन गये हैं ,
देख कर हाल दुनिया का वो 
हुआ बहुत अधिक पशेमान था ।  

(    बहुत  पुरानी डायरी से पुरानी लिखी रचना है । व्यंग्य-यात्रा पत्रिका के अंक में भी शामिल है    )