अजब नज़ारा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
चाहता था कुछ कहना
लग रहा जैसे बेज़ुबान था ,
सड़क किनारे खड़ा हुआ
दुनिया का वो भगवान था ।
भूल गया था जैसे कोई
अपना ही पता ठिकाना ,
खुद बनाया था सबको
सब से मगर अनजान था ।
मंदिर के दर पर गया फिर
मस्जिद की सीढ़ियां चढ़ा ,
पंडित को देख परेशान था
मौलवी से मिल हैरान था ।
ढूंढ ढूंढ थक गया मिला न
उसको घर अपना कहीं भी ,
जहां पर थी कल इक बस्ती
वहां पे बना हुआ श्मशान था ।
बे-शक़्ल आदमी थे या कि
हर तरफ दिख रहे शैतान थे ,
थर- थर्राता - सा खड़ा वहां
इक किनारे पे छुपा ईमान था ।
लिखा था लाशों पर सभी
ये हिंदू था वो मुसलमान था ,
वो बनाता रहा हमेशा से ही
सिर्फ और सिर्फ इंसान था ।
मैंने क्या बनाया था इनको
और ये कैसे ऐसे बन गये हैं ,
देख कर हाल दुनिया का वो
हुआ बहुत अधिक पशेमान था ।
( बहुत पुरानी डायरी से पुरानी लिखी रचना है । व्यंग्य-यात्रा पत्रिका के अंक में भी शामिल है )
1 टिप्पणी:
Achchi kavita 👌👍
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